Sunday, November 24, 2024
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बिहार का वो गाँव जहाँ कभी पूरे राज्य से आते थे कारोबारी, आज फेरी लगाने और पलायन को मजबूर

"जब से में होश सँभाला हूँ सरकार से कोई फायदा नहीं हुआ है। बहुत से विधायक आए। यहाँ से फोटो भी ले गए। आश्वासन देकर गए आपका उद्योग बढ़ाएँगे। लेकिन फिर लौटकर नहीं आए। इससे हमलोगों का आशा टूट गया तो हमलोग दूसरा-दूसरा रोजगार करना शुरू कर​ दिए। पेट चलाने के लिए करना पड़ता है न।"

क्या बिहार से पलायन करने की मजबूरी को रोकने का इलाज बड़े कल-कारखाने ही हैं? क्या बड़ी इंडस्ट्रियों के बगैर राज्य में रोजगार का सृजन नहीं हो सकता?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक बयान से यह बहस शुरू हुई है। नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा था कि बड़े उद्योग उन राज्यों में लगते हैं जो समुद्र किनारे होते हैं। रोजगार को मुद्दा बनाने की कोशिश में लगी राजद इस बयान को लेकर नीतीश कुमार पर हमलावर है। लालू यादव ने ट्वीट कर पूछा है कि ‘बिहार में अब हिंद महासागर भेजऽल जाओ का?’

इन बयानबाजियों से इतर जमीनी हकीकत कुछ और है जो बताती है कि बिहार में कभी हर हिस्से के अपने उद्योग-धंधे थे। सरकारी उदासीनता की वजह से समय के साथ इन उद्योगों की अकाल मौत हो गई और जिनके पुरखे कभी कारीगर थे, वे मजदूर हो गए। पेट पालने के लिए पलायन उनकी मजबूरी हो गई। इस सूरत को बदलने के लिए न तो लालू प्रसाद यादव ने कुछ किया और न ही नीतीश कुमार ने इस दिशा में गंभीरता दिखाई। वोट के समीकरण भले अलग हों पर जमीन पर इस मोर्चे पर नीतीश कुमार के खिलाफ नाराजगी साफ दिखती भी है।

गया शहर से करीब 28 किमी दूर एक गाँव है केनार चट्टी। वजीरगंज विधानसभा क्षेत्र में पड़ने वाला यह गॉंव कभी कांसा और पीतल के बर्तन निर्माण के लिए जाना जाता था। गाँव के करीब 50 परिवार इस काम से सीधे तौर पर जुड़े थे। लेकिन, आज यह सिमट कर 5 घरों तक पहुँच गया है। जो परिवार इस पुश्तैनी काम से जुड़े हैं, अब उनके घर के भी कुछेक सदस्य मजदूरी वगैरह करने के लिए बाहर जाते हैं।

60 साल के राजमोहन कसेरा ने बताया, “20 साल पहले तक यहाँ करीब 50 परिवार इस काम से जुड़े थे। बाहर से व्यापारी माल लेने आते थे। पुराना माल लेकर वे भी आते थे जिसे हम लोग गलाकर रिपेयरिंग कर देते थे। अब यह काम दो-चार घर में होता है, वो भी लगन के हिसाब से बनता है। कुछ लोग फेरी करता है। कुछ लोग बाहर चले गए।”

उन्होंने बताया, “जब से में होश सँभाला हूँ सरकार से कोई फायदा नहीं हुआ है। बहुत से विधायक आए। यहाँ से फोटो भी ले गए। आश्वासन देकर गए आपका उद्योग बढ़ाएँगे। लेकिन फिर लौटकर नहीं आए। इससे हमलोगों का आशा टूट गया तो हमलोग दूसरा-दूसरा रोजगार करना शुरू कर​ दिए। पेट चलाने के लिए करना पड़ता है न। सरकारी मदद मिल जाए तो पहले 50 परिवार जो ये काम करते थे उनका उत्थान हो जाएगा।”

पूरी बातचीत आप नीचे के लिंक पर क्लिक कर सुन सकते हैं;

करीब 25 साल पहले ब्याह कर इस गाँव में आई माला देवी ने बताया कि पहले पूरा घर इसी काम से जुड़ा रहता था। महिलाएँ भी सहयोग करती थीं। लेकिन अब पूॅंजी नहीं होने के कारण लोगों को दूसरा काम करना पड़ता है। वे कहती हैं, “जो हमलोगों का मदद करेगा उसको ही वोट पड़ेगा। जैसे मोदी सरकार है, ई हमलोगों को कुछ मदद किया है। पहले बिजली नहीं था। 5 साल पहले बिजली आई है… नीतीश कुमार मोदिए सरकार का आदमी है। लालू यादव ने कुछ नहीं दिया है।”

25 साल के पंकज कुमार का कहना है कि पहले से स्थिति सुधरी है। लेकिन रोजगार की त्रुटि है। सरकार यदि छोटे छोटे उद्योग पर ध्यान दे दे तो इसका भी समाधान निकल जाएगा।

यह केवल इकलौते केनार चट्टी का ही दर्द नहीं है। बिहार के हर इलाके इसी उपेक्षा की वजह से उजड़ गए। फिर भी बगैर रोडमैप के प्रचार के दौरान राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार जिस तरह रोजगार और इंडस्ट्री को लेकर बड़े-बड़े दावे और वादे कर रहे हैं, उससे तो नहीं लगता कि वे इस संकट के स्थायी समाधान को लेकर गंभीर हैं।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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