Tuesday, November 26, 2024
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बिहार AES त्रासदी: धिक्कार है ऐसे निकम्मे नेताओं पर, जिनकी वजह से एक-एक कर मर रहे हैं मासूम

ऐसे समय में जब पिछले 14 वर्षों से एक ही दल मुख्य सत्ताधारी पार्टी है और उस दल का मुखिया ही बिहार में सरकार का भी मुखिया है, फिर भी ऐसी स्थिति क्यों आई? क्या नीतीश कुमार का अर्थ सिर्फ़ सत्ता होता है? अगर ऐसा नहीं है तो मीडिया व अपनी पार्टी के नेताओं द्वारा सुशासन बाबू कहे जाने वाले नीतीश ऐसा क्यों कहते हैं कि लोगों की लापरवाही के कारण बच्चों की जानें जा रही हैं?

‘एक्यूट इन्सेफ़लाईटिस सिंड्रोम (AES)’- एक ऐसी बीमारी जिसे बिहार में ‘चमकी बुख़ार’ के नाम से भी जाना जाता है। यह बीमारी आज की नहीं है, नई नहीं है और अचानक से पैदा हुई भी नहीं है। आज से 7 वर्ष पहले जब इसी गठबंधन की सरकार थी, यही मुख्यमंत्री थे, तब 120 बच्चों को इस बीमारी की वजह से जान गँवानी पड़ी थी। आज जब उस भयानक त्रासदी के 7 वर्ष बीतने को आए, स्थिति अभी भी जस की तस है। उस समय अगर इस बीमारी के निदान को लेकर गहनता एवं गंभीरता से रिसर्च की शुरुआत की गई होती, एक्स्पर्स्ट्स को बुला कर इस विषय में राय ली गई होती और अस्पतालों में इसके बचाव के लिए समुचित व्यवस्था की गई होती, तो शायद बिहार को आज ये दिन न देखना होता।

कुछ नहीं हुआ, और अगर कुछ हुआ भी तो सिर्फ़ कुछ औपचारिक बातें। आज स्थिति इतनी भयावह है कि बिहार स्थित मुजफ्फरपुर के डॉक्टर श्री कृष्णा अस्पताल (SKMCH) में एक बेड पर दो-दो या फिर तीन-तीन बच्चों को रखा गया और इससे भी बदतर स्थिति यह हुई कि बच्चों को फर्श तक पर लिटाया गया। ताज़ा ख़बर मिलने तक लगभग 93 बच्चों के मरने की बात सामने आई है, पूरे बिहार में यह आँकड़ा 100 से ऊपर है। स्थिति नियंत्रण से बाहर है, सरकारों के हाथ पर हाथ धर कर बैठने का परिणाम देश के सबसे पिछड़े राज्यों में एक के ग़रीब भुगत रहे हैं। वे करें भी क्या करें, जाएँ भी तो कहाँ जाएँ? मुजफ्फरपुर के अस्पताल परिजनों के क्रंदन से गूँज रहे हैं।

इस आपदा को लेकर सरकारी उदासीनता पर अजीत अंजुम की विस्तृत कवरेज (साभार: TV9 भारतवर्ष)

परिजनों के चीत्कार के बीच डॉक्टरों की कमी से जूझते अस्पतालों की समस्याएँ भी सामने आ रही हैं। आपको जान कर बहुत आश्चर्य होगा लेकिन बिहार के अस्पतालों में डॉक्टरों की 70% सीटें रिक्त हैं। जी हाँ, बिहार स्वास्थ्य सेवा आयोग के अध्यक्ष रणजीत कुमार के अनुसार, स्वास्थ्य सेवाओं में 11,393 डॉक्टरों के पद स्वीकृत हैं लेकिन अभी सिर्फ़ 2700 नियमित डॉक्टर ही कार्य कर रहे हैं। मेडिकल की शिक्षा की हालत तो यह है कि राज्य में 65% सीटें (असिस्टेंट प्रोफेसर से ऊपर की) खाली हैं। न अस्पतालों में डॉक्टर हैं और न मेडिकल कॉलेजों में शिक्षक। इसके ज़िम्मेदार कौन लोग हैं?

वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (WHO) ने जैसा प्रस्तावित किया था, प्रत्येक 1000 की जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होने चाहिए। 1983 में भारत सरकार द्वारा ड्राफ्ट की गई पहली स्वास्थ्य नीति के अनुसार, प्रत्येक 3500 लोगों की जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होने चाहिए। लेकिन, क्या आपको पता है बिहार की इस मामले में क्या स्थिति है? बिहार में 1000 और 3500 तो छोड़िए, यहाँ प्रत्येक 50,000 की जनसंख्या पर एक डॉक्टर हैं। आखिर स्थिति क्यों न भयावह हो? ये तो रही आँकड़ों की बात। अब वर्तमान पर आते हैं। अगर मुजफ्फरपुर में ऐसी स्थिति थी, जब एक-एक दिन में 25 बच्चों की जानें जा रही थीं, तब भागलपुर, पटना और सीवान सहित अन्य जिलों से अतिरिक्त डॉक्टरों को बुला कर क्यों नहीं लगाया गया?

ऐसे समय में जब पिछले 14 वर्षों से एक ही दल मुख्य सत्ताधारी पार्टी है और उस दल का मुखिया (जीतन राम माँझी के 10 महीने के कार्यकाल को हटा कर) ही बिहार में सरकार का भी मुखिया है, फिर भी ऐसी स्थिति क्यों आई? क्या नीतीश कुमार का अर्थ सिर्फ़ सत्ता होता है? अगर ऐसा नहीं है तो मीडिया व अपनी पार्टी के नेताओं द्वारा सुशासन बाबू कहे जाने वाले नीतीश ऐसा क्यों कहते हैं कि लोगों की लापरवाही के कारण बच्चों की जानें जा रही हैं? नीतीश के अनुसार, जागरूकता अभियान में कमी रह जाने के कारण ऐसी स्थिति आई है। नीतीश ने इतना कह कर इतिश्री कर ली। बिहार के स्वास्थ्य मंत्री राज्य भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं, बड़े नेता हैं।

जब वह मुजफ्फरपुर अस्पताल का दौरा करने पहुँचे तब अस्पताल प्रशासन ने ब्लीचिंग पाउडर वगैरह छिड़कवा कर यह दिखने की कोशिश की कि उन्होंने अपने स्तर पर कोई कमी नहीं छोड़ी है। अस्पताल के अन्दर इलाज कर रहे डॉक्टर एक टीवी चैनल से बातचीत करते हुए कहते हैं कि अस्पताल में डॉक्टरों की कमी होने की वजह से ऐसी स्थिति आई है और वे बिना खाए-पिए बच्चों का इलाज करने में लगे हुए हैं। उसी न्यूज़ चैनल के कवरेज में एक सीनियर अधिकारी बीमार बच्चों के बिलखते परिजन को डाँटते हुए नज़र आते हैं। क्या यह ग़लत नहीं है? अपने सामने अपने बीमार बच्चे को मरते हुए देख रही माँ को डाँटने-फटकारने वाला राक्षस नहीं है तो क्या है?

और उस अधिकारी के ऊपर जो सिस्टम खड़ा है, जिसमें नेता व शीर्ष अधिकारी शामिल हैं, उन पर भी धिक्कार है। अस्पताल परिसर में मासूमों की जानें जाती हुई देखती माओं व दादियों को अस्पताल प्रशासन से इलाज के बदले फटकार मिल रही है। एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी। इस महिलाओं की आहों से तो सत्ताएँ हिलनी चाहिए थी, इन ग़रीब महिलाओं से उनके बच्चों को छीन लेने वाले बीमारी को लेकर कुछ न करने वाली सरकारों को आत्मग्लानि होनी चाहिए थी। ये स्थिति तब है, जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में राज्यमंत्री के रूप में एक बिहारी बैठा हुआ है। भागलपुर के सांसद अश्विनी कुमार चौबे कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? हम बताते हैं आपको।

10 जून को एक दिन में 25 बच्चों की मौतें होती हैं। उसके 2 दिन बाद देश के स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे पटना पहुँचते हैं लेकिन इंसेफलाइटिस से हो रही मासूमों की मौत को लेकर कुछ एक्शन लेने के लिए नहीं, अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए। इसके बाद वह भागलपुर पहुँच पर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के निर्माण का निरिक्षण करते हैं। बच्चों की मौत के लिए लीची को ज़िम्मेदार बताते हुए वो कहते हैं कि खाली पेट लीची खाने से यह बीमारी हो रही है और इस बारे में और अधिक रिसर्च किया जा रहा है। केंद्र व राज्य की पीठ थपथपाते हुए वह कहते हैं कि अब जागरूकता फैलाने में राज्य सरकार ने अच्छा काम किया है। यह अजीब है।

एक अनुभवी नेता और केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कहते हैं कि राज्य सरकार ने जागरूकता फैलाने के मामले में अच्छा काम किया है। राज्य के मुख्यमंत्री कहते हैं कि राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे जागरूकता अभियान में अधिकारियों की उदासीनता की वजह से कमी रह गई। जनता किसकी बात मानें? केंद्र व राज्य में समान पार्टी व गठबंधन की सरकार होने के बावजूद ये उलटी गंगा बह रही है, क्यों? 12 जून को पटना पहुँचे चौबे को 4 दिनों तक मुजफ्फरपुर पहुँचने की फुर्सत नहीं मिलती, क्यों? राज्य के स्वास्थ्य मंत्री जब मुजफ्फरपुर आते हैं तो उनके काफ़िले को रास्ता देने के लिए एक एम्बुलेंस को रोका जाता है, क्यों? यह असली जंगलराज है। यहाँ बच्चों की जानें क़ीमती नहीं है, क्योंकि वे ग़रीब परिवारों से आते हैं।

सरकारें रिसर्च करती रह जाएगी और इस बीमारी से बच्चे मरते रहेंगे। यह कब तक चलेगा? अस्पतालों में आईसीयू वार्ड की ऐसी हालत है, जैसी किसी घटिया धर्मशाला की भी नहीं होती। इससे जनरल वार्ड का अंदाज़ा आप लगा ही सकते हैं। आज रविवार (जून 16, 2019) को जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का स्वास्थ्य मंत्री मुजफ्फरपुर निरीक्षण के लिए पहुँचे थे, उस दौरान 4 बच्चों की जानें गईं। 12 जून को बिहार पहुँचे चौबे 4 दिनों तक भागलपुर से मुजफ्फरपुर की 240 किलोमीटर की दूरी तब तक नहीं तय कर पाए, जब तक केंद्रीय मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन स्थिति का जायजा लेने नहीं पहुँचे। यह उदासीनता, यह नज़रअंदाज़ी, यह बेरुखी किसलिए? वो भी बिहार के मासूम बच्चों से।

मुजफ्फरपुर के विधायक भी राज्य सरकार में मंत्री हैं। सारे बड़े नेताओं के रहते हुए भी अगर 84 बच्चों की जानें चली जा रही हैं और अभी भी कोई ऐसी तैयारी हुई नहीं है जिससे निकट भविष्य में यह क्रम रुकता दिख रहा हो, ऐसे में, यह स्थिति और भी भयावह नज़र आती है। एक मासूम के भाई ने अस्पताल की चौपट व्यवस्था देख कर कहा कि अगर इसका इलाज सही से नहीं किया जाता है तो उसे भी गोली मार दी जाए। मुख्यमंत्री को अब तक मुजफ्फरपुर पहुँचने की फुर्सत नहीं मिली है। 80 किलोमीटर का रास्ता तय करने में नीतीश को कितना समय लगेगा, यह आगे पता चलेगा। लेकिन, इस बीच सवाल यह है कि नेताओं के दौरों से होगा भी क्या, क्या असर होगा?

राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय के दौरे से कुछ तो हुआ नहीं। बच्चों की हर घंटे मौत हो रही है। अगर यही हाल रहा तो अगले वर्ष भी हम इसी स्थिति में होंगे। मौत का आँकड़ा बढ़ता चला जाएगा, फिर मंत्रियों के दौरे होंगे, मीडिया में बात आएगी और फिर इस बीमारी के कम होते ही अगले वर्ष तक के लिए यह सिलसिला थम जाएगा। सत्ताभोगी नेताओं ने बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं को गर्त में पहुँचा कर रख दिया है, उन्हें उन माँओं की हाय लगेगी, जिन्होंने अपने बच्चे सरकारी उदासीनता की वजह से खो दिए। ये नेतागण दौरे कर के भी SKMCH में क्या बदल देंगे? एक रात में क्या बदल जाएगा? सरकार के पास न कार्ययोजना है और न कोई विजन, ऐसे में इस बीमारी को लेकर अभी तक कोई ठोस पहल की बात सामने आई नहीं है।

भारत-पाकिस्तान मैच को लेकर माहौल बना रही मीडिया भी दोषी है। भागलपुर में बैठ कर 4 दिन गुजारने वाले और फिर भी मुजफ्फरपुर में चल रही त्रासदी को लेकर कुछ न करने वाले चौबे दोषी हैं। पिछले डेढ़ दशक से सत्ता के सिरमौर बने नीतीश दोषी हैं। अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी कॉलेजों में प्रोफेसरों की भारी कमी के लिए राज्य व केंद्र सरकारें दोषी हैं। वर्षों से चली आ रही इस बीमारी को लेकर गंभीरता से रिसर्च न कराने व इसके लिए समुचित संसाधन की व्यवस्था न कर पाने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में बैठने वाला हर मंत्री और शीर्ष अधिकारी दोषी है। तुरंत समुचित व्यवस्था न करने के लिए स्थानीय प्रशासन दोषी है। बीमार बच्चों को फटकारने वाला अस्पताल प्रशासन दोषी है। और ऐसे नेताओं को सर पर चढ़ाने के लिए दोषी हैं, हम और आप।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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