Tuesday, November 19, 2024
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बारिश हेतु यज्ञ करने से नहीं रोक सकते, लोगों की आस्थाओं को तोड़ना हमारा काम नहीं: हाईकोर्ट

अदालत ने कहा है कि वह किसी की आशाओं और आस्थाओं को नहीं तोड़ सकती क्योंकि वे सफल हों या नहीं, उनसे जनता की भावनाएँ जुड़ी होती हैं। मद्रास हाईकोर्ट ने बारिश के लिए किए जाने वाले यज्ञ के ख़िलाफ़ दायर याचिका को रद्द करते हुए ये निर्णय दिया। तमिलनाडु में HR विभाग के कमिश्नर ने एक सर्कुलर जारी करते हुए अच्छी बारिश के लिए यज्ञ करने को कहा था। ‘मक्कल सेती मैय्यम’ के संपादक और एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इस बारे में अदालत में याचिका दाखिल की थी। अपनी याचिका में इन्होंने इस सर्कुलर को संविधान के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ बताया था। याचिका में कहा गया था कि यह हमारे देश द्वारा अनुसरण किए जाने वाली धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म के ख़िलाफ़ है।

इस याचिका में दलील दी गई थी कि ये सर्कुलर Tamil Nadu Hindu Religious and Charitable Endowments Act, 1959 का उल्लंघन करता है। इस दौरान जस्टिस सीवी कार्तिकेयन और जस्टिस सीवी रामासामी की पीठ ने सबरीमाला मामले में जस्टिस इंदु मल्होत्रा द्वारा दिए गए जजमेंट का जिक्र किया। जस्टिस दीपक मिश्रा के उस निर्णय का भी जिक्र किया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि धार्मिक क्रियाकलापों का अनुसरण करने पर कोई पाबन्दी नहीं है। अदालत ने कहा कि यह पूछना अप्रासंगिक है कि क्या अभ्यास तर्कसंगत या तार्किक है? साथ ही मद्रास हाईकोर्ट ने साफ़ किया कि न्यायालयों द्वारा धर्म के मामलों में तर्कसंगतता की धारणा को लागू नहीं किया जा सकता है।

अदालत ने कहा कि यह याचिका धार्मिक आस्थाओं में विश्वास को तोड़ने के लिए दाखिल की गई है, शांति और सद्भाव बिगाड़ने का प्रयास है। अदालत ने कहा कि इसमें हस्तक्षेप करना उनका काम नहीं है, चाहे बारिश लाने के लिए वैज्ञानिक तरीका अपनाया जा रहा हो या फिर धार्मिक तरीका। पूजा या यज्ञ कर के बारिश लाना एक सफल तरीका है या यह असफल है, इस बात की जाँच करना अदालत का काम नहीं है। अदालत ने कहा कि वह हजारों-लाखों लोगों की आस्था तोड़ने का काम नहीं कर सकती। अदालत ने कहा कि सामान्यतः उसने ख़ुद को धार्मिक क्रियाकलापों और आस्थाओं में हस्तक्षेप करने से दूर ही रखा है।

अदालत ने याचिका को रद्द करते हुए आगे कहा:

“कृषि भूमि के एक छोटे से टुकड़े के साथ एक किसान, बारिश की कमी के कारण किसी भी फसल को उगाने में सक्षम नहीं होगा। वह आशा और विश्वास करेगा कि इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से उसे बचाने के लिए किसी दिन बारिश आएगी, जिस स्थिति से वह और उसका परिवार मजबूरीवश गुजर रहा है। इसके लिए वह भगवान से प्रार्थना करेगा। वह अगर ख़ुद पूजा करेगा तो हो सकता है उसके पास धन की कमी हो जाए। इसीलिए वह आसपास की मंदिरों में हो रही ऐसी पूजाओं में ख़ुद को सम्मिलित करेगा। अब अदालत ऐसे किसानों की आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती।”

अदालत ने कहा कि वह इस बारे में कोई राय नहीं दे सकती कि बारिश के लिए यज्ञ करना वैज्ञानिक है या फिर पूरी तरह से धार्मिक है।

इमरान खान, हिन्दुओं के धर्म-ग्रंथ लिट्टे बनाने का हुक्म नहीं देते, जबरदस्ती हमें अपने स्तर पर मत घसीटो

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने हिन्दुओं और हिंदुत्व (हिन्दू धर्म, न कि राजनीतिक विचारधारा) को इस्लाम से जोड़ते हुए बड़ा ही अजीब बयान दिया है। मक्का में आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कंट्रीज़ (OIC) की बैठक में इमरान कहते हैं, “किसी ने हिन्दू धर्म को तो तमिल टाइगरों के बम धमाकों के लिए दोषी नहीं ठहराया, जापानी धर्म (शिंटो) को जापानियों के अमेरिकी जहाजों पर खुद को उड़ा लेने का दोषी नहीं ठहराया। तो इस्लाम पर यह ठप्पा क्यों?” साथ में यह भी जोड़ा, “मुस्लिम समाज दुनिया को सशक्त तरीके से इस बात का आश्वासन नहीं दे पाया है कि इस्लाम का दहशतगर्दी से कोई लेना-देना नहीं है?”

अलग-अलग रोड़े जोड़ के कुनबा मत बनाइए, इमरान ‘भानुमति’ खान

इमरान खान जिन तीन उदाहरणों को लेते हैं, पहली बात तो वह आपस में तुलना करने लायक ही नहीं हैं- लिट्टे ने जो कुछ किया, वह जातीय संघर्ष में किया (उसका कोई न बचाव कर रहा है, न ही किसी और को वैसा बनने की सलाह दे रहा है, लेकिन सत्य सत्य होता है), जापान के सैनिकों ने एक अंतरराष्ट्रीय युद्ध में अपने देश के लिए प्राणोत्सर्ग किया, और जिहादी जो करते हैं वह है लोगों की आँखों में धूल झोंक कर, उनके बीच पैठ बनाकर, घुल-मिलकर मज़हब के नाम पर, आस्था के नाम पर, जन्नत की उम्मीद में बेगुनाहों की जान ले लेना।

अगर लिट्टे की बात करें तो पहली बात तो लिट्टे-बनाम-सिंहली संघर्ष मज़हबी नहीं है, भाषाई/जातिगत है। लिट्टे वालों का पंथ तो हिन्दू धर्म का शैव पंथ है ही, श्री लंका के बौद्धों द्वारा माना जाने वाला और पालन किया जाने वाला बौद्ध धर्म भी हिन्दू आस्था के कई पुट लिए हुए है। दूसरी बात यह कि न ही हिन्दुओं द्वारा बौद्धों को, न ही बौद्धों द्वारा हिन्दुओं को आस्था के आधार पर मारा जा रहा था- सिंहली-बनाम-तमिल भाषाई मसला था। तीसरी बात, तमिल आतंकी खुद को शिव भक्त कहते भले हों, लेकिन न ही वे शिव महापुराण, शिव संहिता या और कोई ग्रंथ उठाकर बताते थे कि भगवान शिव ने उन्हें या उनके किसी नेता को गैर-शैवों (या सिंहली बौद्धों) की हत्या का आदेश दिया है, न ही जब वे खुद को बम से उड़ाते थे तो उनकी कल्पना में यह ख्वाब होता था कि महादेव उन्हें शिव लोक की 72 अप्सराएँ देंगे। और-तो-और, उनका लक्ष्य भी दुनिया भर को शैव बना देना, दुनिया से गैर-शैवों को मिटा देना, या अपने राज में गैर-शैवों के धर्म का प्रचार-प्रसार न होने देना नहीं था।

इसके उलट हर आतंकी मरते समय “अल्लाहू-अकबर” कहता है, उसका ब्रेन-वॉश मुल्ले-मौलवी ‘कुरान’ और ‘हदीस’ में लिखी बातों को सुनकर ही करते हैं, और आइएस के चंगुल से मुक्त हुई लड़कियाँ भी बतातीं हैं कि उनका बलात्कार और उनसे सेक्स-गुलामी भी इस्लाम के ग्रंथों का हवाला देकर ही कराई जाती थी। पुलवामा के दहशतगर्द का बाप उसे इस्लाम की राह पर शहीद मान फ़ख़्र करता है, सैयद अली शाह गीलानी साफ-साफ कहता है कि कश्मीर में दहशतगर्दी राजनीतिक नहीं, मजहबी संघर्ष के लिए है, इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करने के लिए है। कश्मीर का आदिल अहमद एमबीए करने के बाद सीरिया क्यों चला जाता है? इस्लाम का जिहाद लड़ने

अब रही जापान की बात तो, इमरान जी, यह जान लीजिए कि…

तीसरा उदाहरण जो इमरान खान जापानियों का देते हैं, तो या तो वह खुद इतिहास में अनपढ़ हैं, या तो वह यह सोचकर वहाँ बोल रहे थे कि जाहिलों की जमात है, कुछ भी पढ़ा दो! जापानियों ने आत्मघाती हमले अमेरिकी जहाजों पर किए जरूर, पर वह जंगी जहाज थे, और समय खुले युद्ध का था- द्वितीय विश्व-युद्ध का। न ही जापानियों ने अमेरिका में ट्विन टावर उड़ाए, न ही पुलवामा की तरह छिप कर तब सैनिकों पर हमला किया जब कोई जंग नहीं चल रही थी। इसलिए इमरान खान के लिए बेहतर होगा कि वो दुनिया को उल्लू बनाना छोड़ें, मानें कि इस्लाम और दहशतगर्दी में सीधा संबंध है, बजाय दुनिया को अपने जैसा ही दिखाने की व्यर्थ कवायद के, और उसका क्या करना है, इस पर मनन-चिंतन करें।

चीन में रोज़ा के दौरान उइगरों को जबरन खिलाया जा रहा खाना, 30 लाख अभी भी नज़रबंद

चीन में उइगर मुस्लिम समुदा पर अत्याचार रमजान के दौरान भी थम नहीं रहा है। चीन की मस्जिदों में सिक्यूरिटी कैमरे लगाए गए हैं, नमाज़ पढ़ने आने-जाने वालों पर नज़र रखी जा रही है, मेटल डिटेक्टर्स से उनकी आने और जाने के समय जाँच की जा रही है और पुलिस लगातार लाठियाँ व हथियार लेकर गश्त लगा रही है। मुस्लिम इलाकों में होटलों को खुला रखने को कहा गया है और मुस्लिम डर के मारे ‘अस्सलाम वालेकुम’ बोलकर एक-दूसरे से सार्वजनिक रूप से बातचीत तक भी नहीं कर पा रहे हैं। ‘वर्ल्ड उइगर कॉन्ग्रेस’ के अध्यक्ष का कहना है कि स्कूलों से लेकर कार्यालयों तक खाने-पीने की वस्तुएँ जबरन दी जा रही है और मुस्लिम रोज़ा न रख पाएँ, इसको सुनिश्चित किया जा रहा है।

यहाँ तक कि मुस्लिमों के घरों में जाकर भी देखा जा रहा है कि कहीं वे नमाज़ वगैरह तो नहीं पढ़ रहे या अपने मज़हब की चीजों को तो नहीं प्रैक्टिस कर रहे। कैम्पों में 30 लाख के लगभग उइगरों को नज़रबंद रखा गया है। ‘द टेलीग्राफ’ के पत्रकार जब इन कैम्पों की सच्चाई जानने निकले तो उन्हें 2 बार अपहृत किया गया। उन्होंने जो फोटो क्लिक किए, उन्हें डिलीट करवा दिया गया। हाइवे चेकपॉइंट्स पर उइगर मुस्लिमों की डिजिटल तलाशी ली जा रही है और उनके सारे व्यक्तिगत डिटेल्स खंगालने के बाद ही उन्हें आगे बढ़ने दिया जाता है। मस्जिदों के ऊपर कम्युनिस्ट पार्टी के बैनर लगा दिए गए हैं।

एक उइगर मुस्लिम की पत्नी को ही कैम्प में डाल दिया गया और उसके दोनों बच्चों का पालन-पोषण करने वाले पिता ने कहा कि वो कब तक आजाद होगी, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इससे पहले भी ख़बर आई थी कि चीन में मुस्लिमों का चीनीकरण किया जा रहा है, जिसके तहत उन्हें इस्लामी रीति-रिवाजों का अनुसरण करने की अनुमति नहीं दी जाती। उन्हें जिन कैम्पों में रखा जाता है, चीनी सरकार उन्हें ‘स्किल ट्रेनिंग’ कैम्प बताती है। इन कैम्पों में रह रहे लोगों को जबरन इस्लामी रीति-रिवाजों से इतर चीनी और कम्युनिस्ट पार्टी की चीजें सिखाई जाती हैं।

इससे पहले हमनें बताया था कि चीन में उइगरों पर की जा रही कार्रवाई रमजान महीने में थमने का नाम नहीं ले रही है। इस्लाम के इस पवित्र महीने में चीन स्थित टकलामकान रेगिस्तान में हज़ारों की संख्या में मुस्लिम आया करते थे। यहाँ कुछ ऐसी मस्जिदें स्थित थीं, जहाँ 8 वीं शताब्दी के एक इस्लामिक योद्धा की याद में लोग नमाज़ पढ़ते थे। लेकिन, इस साल यह स्थल खाली पड़ा हुआ है।

‘द गार्डियन’ के एक ख़ुलासे के अनुसार, चीनी मुसलामानों के लिए हज की तरह महत्व रखने वाला ये स्थल आज खाली इसीलिए पड़ा हुआ है क्योंकि इसे ढहा दिया गया है। चीन ने इमाम आसीन दरगाह के गुम्बद को छोड़ कर इसके बाकी हिस्से को मिट्टी में मिला दिया है। यहाँ लगे झंडे और चढ़ावे गायब हो गए हैं। चीन में 36 मस्जिदें ढहा दी गई हैं।

‘जय श्रीराम’ के नारे से तिलमिलाई ममता, ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंपा यह नया काम

पश्चिम बंगाल में सूबे की सरकार ने ख़ुफ़िया एजेंसियों को एक नया कार्यभार सौंपा है, जो अटपटा होने के साथ-साथ थोड़ा हास्यास्पद भी है। पिछले काफ़ी समय से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ‘जय श्रीराम’ के नारे से काफ़ी आहत हैं। हद तो अब यह हो गई है कि ममता सरकार ने ख़ुफ़िया एजेंसियों को उन स्थानों का पता लगाने को कहा है जहाँ उन्हें देखकर ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए जाते हैं। अपने इस चिड़चिड़ेपन के इलाज के लिए ममता दीदी ने ख़ुफ़िया एजेंसियों का दरवाज़ा खटखटाया है।

टेलीग्राफ़ की ख़बर के अनुसार, ममता बनर्जी ऐसा मानती हैं कि उन्हें देखकर जो लोग ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाते हैं वो उन्हें उकसाने के लिए लगाते हैं। हालाँकि, अभी यह बात साफ़ नहीं हो सकी है कि ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंपा गया यह काम ज़मीनी तौर पर कैसे क्रियान्वित किया जाएगा। ख़बर के अनुसार, ममता बनर्जी अब जहाँ से भी गुज़रेंगी हो सकता है कि उस स्थान को अब पूरी तरह से खाली करा लिया जाए। आमतौर पर उस स्थान को पहले से ही खाली करा लिया जाता है जहाँ नेताओं के विरोध में नारेबाज़ी होने की गुंजाइश हो या फिर उन्हें काले झंडे दिखाए जाने की संभावना हो।

वहीं, दूसरी तरफ़ भाजपा ने ममता सरकार द्वारा ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंपे गए इस काम का कड़ा विरोध किया है। भाजपा, पश्चिम बंगाल सरकार के इस रवैये को दमनकारी नीतियों से प्रेरित मान रही है। शनिवार (1 जून) को भाजपा के सांसद अर्जुन सिंह ने तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आवास पर 10 लाख ‘जय श्रीराम’ लिखे कॉर्ड भेजने की बात कही थी।

वैसे तो ‘जय श्रीराम’ बोलना कोई अपराध नहीं है और इसलिए यह ग़ैर-क़ानूनी भी नहीं है। लेकिन, ममता बनर्जी इस नारे से वो इस क़दर आहत हैं कि ‘जय श्रीराम’ बोलने वालों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने से भी नहीं चूकतीं। इतना ही नहीं उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से फोन पर ‘हैलो’ बोलने की बजाए ‘जय बांग्ला’ और ‘जय हिंद’ बोलने का फ़रमान भी जारी किया था। ममता बनर्जी को ‘जय श्रीराम’ का नारा इतना नागवार लगता है कि वो तुरंत अपनी गाड़ी से उतरती हैं और नारा लगाने वालों को ख़ूब डाँटती-फटकारती हैं। कहने को तो ममता ने यह बात स्वीकारी थी कि वो बंगाली और बिहारी में कोई भेदभाव नहीं करतीं, लेकिन असलियत इससे परे है।

पश्चिम बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या की ख़बर लगातार सामने आती रहती हैं। 30 मई को 52 वर्षीय बीजेपी कार्यकर्ता सुशील मंडल की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी क्योंकि वो प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण के एक दिन पहले पार्टी के झंडे सजा रहे थे और ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे।

रोज़ 17 लाख बच्चों का पेट भरने वाली संस्था को बदनाम करने के लिए ‘The Hindu’ का ज़हरीला प्रोपेगेंडा

अगर कोई अच्छा कार्य कर रहा है तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। कुछ लोगों को जलन होती है और वे किसी को लगातार अच्छा करता देखते हुए भी उसकी प्रशंसा नहीं करते। इनसे भी ऊपर वाले लेवल में वो लोग आते हैं जो अच्छे कार्यों में भी बुराइयाँ निकाल लेते हैं। देश की मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी सिद्धांत पर काम कर रहा है, और ‘द हिन्दू’ ने अपनी मैगज़ीन में एक ऐसे प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ाया है, जो हिटजॉब की सारी विशेषताएँ रखता है। दो-चार बच्चों से कुछ बातें की गईं और इसे साढ़े 4 लाख बच्चों की आम राय बना कर पेश कर दिया। जहाँ पूरे कर्नाटक की क़रीब 2814 स्कूलों और 4.43 लाख छात्रों की बात हो, वहाँ बमुश्किल 4 बच्चों व इक्के-दुक्के स्कूलों की स्थिति देख कर आम राय कैसे बनाई जा सकती है?

इसका तरीका ‘द हिन्दू’ से समझिए। जब पूरी दुनिया बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को खाना खिलाने के लिए इस्कॉन द्वारा संचालित ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ (AFP) की तारीफ़ करती है, ‘द हिन्दू’ ने एक लम्बे-चौड़े लेख के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की है कि संस्था अपने ‘हिन्दू विधि-विधान’ को बच्चों पर थोप रही है। यहाँ हम परत दर परत आगे बढ़ते हुए इस लेख की पोल खोलेंगे और देखेंगे कि कैसे एक संस्था को सिर्फ़ इसीलिए बदनाम करने की कोशिश की जा रही है क्योंकि उसे एक हिन्दू संस्था द्वारा चलाया जाता है। आपको बता दें कि ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ को ‘हरे कृष्णा मूवमेंट’ वाली संस्था इस्कॉन चलाती है।

इस लेख की शुरुआत होती है एक बच्चे के व्यक्तिगत अनुभव से। बेंगलुरु सेंट्रल के एक स्कूल का बच्चा मिड डे मील की जगह घर जाकर दोपहर का खाना खाता है क्योंकि उसे स्कूल में दिया जाने वाला खाना ‘नीरस’ लगता है। एक अन्य छात्रा बताती है कि उसे घर का खाना ज्यादा अच्छा लगता है, इसीलिए वह घर पर ही खाती है। एक अन्य स्कूल की छात्रा घर से टिफिन ले कर आती है, वह भी स्कूल में नहीं खाती। कुछ बच्चों द्वारा ऐसा करने के पीछे इस लेख में यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वे खाने में प्याज-लहसुन न दिए जाने के कारण ऐसा कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह कि इस निष्कर्ष को यूँ ही निकला गया है, न कोई आँकड़ा, न कोई रिसर्च, न कोई सर्वे।

एक अन्य निष्कर्ष यह भी निकाला गया है कि अक्षय पात्र फाउंडेशन ‘कथित तौर पर’ ऐसा मानता है कि प्याज-लहसुन तामसिक भोजन है और इसे साबित करने के लिए एक वॉलंटियर की दलील को पेश किया गया है। लेख में कथित एक्टिविस्ट्स को ख़ास जगह दी गई है, जो यह मानते हैं कि सरकार को एएफपी से करार ख़त्म कर किसी और को यह ज़िम्मेदारी दे देनी चाहिए। लेकिन, कोई विकल्प नहीं सुझाए गए हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि शायद इतने वृहद् स्तर पर और संसाधनों से संपन्न होने के साथ शायद ही कोई और एनजीओ ऐसी सेवा दे पाए। इसी लेख में एक अन्य जगह पर जब यह सवाल कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव से किया जाता है, तो उनका जवाब गौर करने लायक है। उन्होंने कहा:

“अगर हम करार ख़त्म कर दें तो इतने सारे बच्चों को खाना कौन खिलाएगा? इसमें ढाँचागत समस्याएँ हैं। एक रात में हम इतने सारे किचन का निर्माण नहीं कर सकते और इतनी बड़ी संख्या में खाना बनाने वालों की व्यवस्था भी नहीं कर सकते। प्रशासन दार्शनिक दलीलों पर कार्य नहीं करता। मैंने उन एक्टिविस्ट्स को सीधा-सीधा बोल दिया है- उनके सर बादलों में घुसे हुए हैं, मैं ज़मीन पर रहता हूँ।”

अगर इस लेख में कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव उमाशंकर के इस बयान को पहले या दूसरे पैराग्राफ में जगह दे दी होती तो शायद इस लेख का कोई औचित्य ही नहीं बनता। लेकिन, बड़ी चालाकी से उनके इस बयान को भीतर रखा गया है। अगर कोई संस्था इतने वृहद् स्तर पर कार्य कर रही है और उसके ख़िलाफ़ आज तक कोई बड़ी शिकायत नहीं आई है, तो उसे अचानक से प्याज-लहसुन के बहाने निकाल बाहर किया जाए, इसमें नुकसान किसका है? देश भर के 15,000 से भी अधिक स्कूलों और 17 लाख से भी अधिक बच्चों को अपनी सेवा देने वाली संस्था के ख़िलाफ़ प्याज-लहसुन का विवाद खड़ा करना कहाँ तक जायज है?

पहली बात, सरकार का लक्ष्य स्कूलों में बच्चों को स्वादिष्ट खाना खिलाने का नहीं बल्कि उन्हें उचित न्यूट्रीशन और उचित कैलोरी वाला भोजन देने का है। इसी लेख में बताया गया है कि एपीएफ की भोजन मेनू को National Institute of Nutrition (NIN) और The Central Food Technological Research Institute (CFTRI) के पास जाँच के लिए भेजा गया। एनआइएन ने एपीएफ की मेनू से सहमति जताई और इसमें उन्हें कोई दिक्कत नहीं दिखीं। एनआईएन ने साफ़-साफ़ कहा कि जितनी मात्रा में न्यूट्रीशन सरकार द्वारा निश्चित की गई है, बच्चों को उतना ही दिया जा रहा है।

इसके अलावा जो बेसिक सामग्री सरकार द्वारा निश्चित की गई हैं, वो भी एपीएफ की मेनू में पूरी तरह मौजूद है। इतना ही नहीं, एनआईएन ने यह भी पाया है कि जितनी किलो कैलोरी और प्रोटीन की मात्रा निर्धारित की गई है, एपीएफ के खाने में उतने ही होते हैं और कभी-कभी तो उससे थोड़े-बहुत ज्यादा भी पाए गए लेकिन कम नहीं। ये सभी चीजें केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा निर्धारित की गई हैं और अक्षय पात्र फाउंडेशन इन सभी मानकों पर खरी उतरती है। अब इन कथित एक्टिविस्ट्स का क्या होना चाहिए? इसके बावजूद 10 संस्थाओं व 94 कथित विशेषज्ञों द्वारा कुप्रचार चलाया गया और एनआईएन पर ही आरोप मढ़ दिए गए। जैसा कि इस तरह के कथित विशेषज्ञों की आदत रही है, ये अंत में संस्थाओं को ही निशाना बनाना शुरू कर देते हैं।

एपीएफ बच्चों को सही मात्रा में न्यूट्रीशन और कैलोरी युक्त भोजन उपलब्ध करा रही है, सरकार द्वारा निर्धारित सामग्री प्रयोग में ला रही है, तो दिक्कत क्या है? क्या अब यह एक्टिविस्ट्स निर्धारित करेंगे कि बच्चों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं? इसी लेख में एक जगह एक बच्चा बताता है कि उसे अंडे पसंद हैं और लेखक सवाल खड़ा करता है कि बच्चों को अंडे क्यों नहीं दिए जा रहे। इसके अलावा चिकेन की भी चर्चा की गई है। क्या यह सब इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि इसे एक वैष्णव संस्था द्वारा संचालित किया जा रहा है, जिसके कई मंदिर हैं और जो शाकाहार को प्राथमिकता देता है। क्या किसी संगठन के कर्ताधर्ता के वैष्णव संत होने के कारण उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता?

हो सकता है कि कुछ दिनों बाद सूअर के मांस में न्यूट्रीशन गिनाते हुए पूछा जाए कि बच्चों को रेड मीट क्यों नहीं दी जा रही है? अगर इसके लिए विरोध करना है तो निःस्वार्थ भाव से काम कर रही संस्था को नहीं बल्कि सरकारों को निशाना बनाइए। सरकार को कहा जाए कि वो बच्चों को प्याज-लहसुन में तल कर मांस-मछली और अंडे वाली मेनू क्यों नहीं दे रही, बच्चों को दूध, साम्भर और खिचड़ी क्यों दी जा रही है? किसी बीमारी के समय बच्चों को वो दवाएँ नहीं दी जातीं जो स्वादिष्ट हों, बल्कि वो दवाएँ दी जाती हैं जो उस बीमारी को ठीक करे। ठीक इसी तरह बच्चों के लिए मेनू उनके शरीर की स्वास्थ्य ज़रूरतों को ध्यान में रख कर बनाया जाता है, केवल स्वाद को लेकर नहीं।

कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव भी बताते हैं कि सरकार यह निर्धारित नहीं करती कि बच्चों को कौन सा भोजन देना है, सरकार यह निर्धारित करती है कि दिए जाने वाले भोजन में प्रोटीन, कार्ब्स इत्यादि की मात्रा कितनी होनी चाहिए, और एपीएफ इन सभी मानकों पर कार्य करते हुए बच्चों को पूर्ण हाइजेनिक भोजन उपलब्ध कराती है। मुख्य सचिव ने बताया कि भोजन में उचित व निर्धारित मात्रा में मौसमी सब्जियाँ, ताज़ी सब्जियाँ, हरे पत्तों वाली सब्जियाँ, करी पत्ता, जीरा इत्यादि इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जिसके कारण प्याज-लहसुन की ज़रूरत ही नहीं पड़ रही और ये सामग्रियाँ प्याज-लहसुन की कमी को अच्छी तरह पूरा करती हैं। लेकिन, एक प्रोपेगेंडाबाज़ एक्टिविस्ट का कुछ और ही कहना है।

वो पूछता है कि सरकार ने एनआईएन से यह क्यों कहा कि वह एपीएफ के खाने की जाँच कर यह बताए कि इसमें सरकार द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन हुआ है या नहीं, सरकार को सीधा पूछना चाहिए, “तुम बच्चों को प्याज-लहसुन क्यों नहीं दे रहे हो?” इन्हीं एक्टिविस्ट्स के तथ्यों को साबित करने के लिए 4 बच्चों से बात कर इसे 4.5 लाख बच्चों की राय के रूप में पेश किया गया है। सबसे ज्यादा बड़ी बात तो यह कि बच्चों को दी जाने वाली मिड डे मील में हर एक समस्या के लिए इस लेख के लेखक व एक्टिविस्ट्स द्वारा प्याज-लहसुन न दिए जाने को ही ज़िम्मेदार बताया गया है। अगर बच्चे खाना फेंक देते हैं, तो प्याज लहसुन नहीं दिया जा रहा है, इसीलिए वो फेंक देते हैं। एक बच्चा खाना खाने घर जा रहा है, क्योंकि खाने में प्याज-लहसुन नहीं दिया गया, इसीलिए। कोई बच्चा खाना अधूरा छोड़ देता है, मतलब प्याज-लहसुन वाला टेस्ट नहीं है, इसीलिए।

पूरे लेख में एक भी बच्चे ने कहीं भी प्याज-लहसुन का नाम तक नहीं लिया है लेकिन एक्टिविस्ट्स के हवाले से ऐसा दावा किया गया है कि एपीएफ बच्चों पर ‘हिन्दू विचार’ थोप रही है। ऐसा कैसे हो सकता है? एएफपी का करार सरकार से हुआ है, राज्य सरकार के शीर्ष अधिकारी कह रहे हैं कि नियमों का उल्लंघन नहीं किया, तो दिक्कत क्या है? कल को 2-4 एक्टिविस्ट्स आकर यह कह दें कि बच्चों को शिमला मिर्च क्यों नहीं दिया जा रहा है, तो क्या इस पर भी बवाल होगा? सबसे अजीब बात यह है कि शाकाहार को इस लेख में बिना तथ्यों के कथित उच्च जाति से जोड़ा गया है। क्या कहीं ऐसा कोई सर्वे ‘द हिन्दू’ ने किया है, जहाँ ऐसा पता चला हो कि कथित उच्च जाति के लोग शाकाहारी होते हैं और अन्य शाकाहार पसंद नहीं करते?

बात सपाट है, बच्चों को पौष्टिक, हाइजेनिक और सरकार द्वारा निर्धारित भोजन दिया जा रहा है, वो भी एक संस्था द्वारा यह कार्य वृहद् और व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। ये बातें किसी को भी चुभनी नहीं चाहिए। अगर एनजीओ के पीछे एक वैष्णव संस्था है, तो उसकी तारीफ़ होनी चाहिए क्योंकि वो सरकार का काम हल्का कर रहे हैं, उन्हें अंडे, मांस, प्याज-लहसुन वगैरह-वगैरह न देने के लिए उनकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। एपीएफ और सरकार का करार आज का नहीं, कई वर्षों पहले का है। यह संस्था किसी भी आपदा और विपत्ति के समय क्षेत्र में पहुँच कर लोगों की सेवा करती है, मुट्ठी भर कथित एक्टिविस्ट्स की तरह गले में प्लाकार्ड लगा कर घूमना आसान है, जनता के बीच जाकर उनकी सेवा करना मुश्किल।

इस लेख में दावा किया गया है कि इस्कॉन ने इन बातों के जवाब में एक लम्बा मेल भेजा, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया और जवाब को दो पंक्तियों में समेट दिया गया है। क्या ‘द हिन्दू’ को इस बात का डर था कि इस्कॉन का पक्ष दिखाने से उनके प्रोपेगेंडा की पोल खुल जाएगी? मुट्ठी भर कथित एक्टिविस्ट्स की राय और 2-4 बच्चों से बात कर एक व्यापक स्थिति का आकलन नहीं किया जाता, इसके लिए बाकायदा रिसर्च और अध्ययन की ज़रूरत होती है। अगर आपको मैगज़ीन में जगह ही कवर करनी है तो सभी 4 लाख बच्चों से पूछें कि क्या उन्हें प्याज-लहसुन न दिए जाने से कोई दिक्कत है?

सारे मंदिर अपना धन फलाँ चीज में ख़र्च कर दें, लाखों-करोड़ों का पेट भरने वाली एक सफल वैष्णव संस्था प्याज-लहसुन खिलाने लगे और दलित कुक ही खाना बनाएँ, ये बातें आती कहाँ से है? लेख में एक्टिविस्ट्स के हवाले से कहा गया है कि दलित कुक को प्राथमिकता दी जाए, इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। क्या अब बच्चों को खाना खिलाने में भी जाति घुसाई जाएगी? खाना बनाने वाले को इसीलिए हायर किया जाएगा क्योंकि वो अच्छा खाना बनाते हैं या सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि वह दलित हैं? कर्नाटक में 20% के करीब दलित हैं और इस लेख में कहा गया है कि राज्य में 15% लोग शाकाहारी हैं और इनमें से अधिकतर कथित उच्च जाति के हैं। ओबीसी और वोक्कालिंगा को मिला कर कुल आबादी का 27% के करीब होता है

फिर ‘द हिन्दू’ किस आधार पर यह लिख सकता है कि कथित उच्च जाति के लोग ही शाकाहारी होते हैं? क्या यह मान लिया जाए कि सामान्य वर्ग में आने वाले वोक्कालिंगा और ओबीसी को मिला दिया जाए तो इनमें 55% से अधिक लोग शाकाहारी हैं? अगर ऐसा नहीं है तो दलितों व अनुसूचित जातियों के लोग भी शाकाहारी हैं। फिर किस आधार पर यह कहा गया कि दलित शाकाहारी नहीं होते? यह तो चॉइस का मामला है। दलित परिवार हो या सामान्य वर्ग का, हो सकता है कि परिवार में कोई शाकाहारी हो और कोई नहीं हो। इसे जाति के नाम पर स्टीरियोटाइप कर देना अनुचित है, ख़ासकर बिना सबूत के।

यह एक प्रोपेगेंडापरस्त लेख है। इसमें दलितों व सामान्य वर्ग के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की गई है। इसमें एक सफल संस्था को बिना सबूत इसीलिए बदनाम करने का प्रयास किया गया है, क्योंकि उसके पीछे एक हिन्दू संगठन है। हिन्दुओं में विभाजन पैदा करने के लिए दलित कुक की बात की गई है। यह लेख नहीं है, जहर है। ऐसा जहर, जिसमें बच्चों को घसीटा जा रहा है, उनके भोजन को लेकर अपना कुटिल हित साधा जा रहा है। ज़हर फैलाने का आसान उपाय है कि आप किसी भी ABC में जाति घुसेड़ दीजिए और दलितों के साथ अन्याय होने की बात कह दीजिए। जैसे, इंडियन क्रिकेट टीम में दलित खिलाड़ी क्यों नहीं हैं? इसी तरह इस लेख में भी तथ्य नहीं हैं, आँकड़े नहीं हैं, इस्कॉन की लम्बी प्रतिक्रिया को दो पंक्तियों में समेट दिया गया है। ऐसे ज़हरीले लेख से सावधान।

नाम- आदिल, घर-J&K, पढ़ाई- ऑस्ट्रेलिया से MBA… लेकिन बना ISIS लड़ाका, बाप लगा रहे गुहार

कश्मीर के आदिल अहमद ने ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड से एमबीए किया, और उसके बाद चला गया आइएस, ‘प्लेसमेंट’ में। 2013 में सीरिया जाकर आतंकी बनने वाले आदिल ने घर पर बताया था कि वह सीरिया एक एनजीओ के साथ काम करने जा रहा है। और अब जबकि आइएस को अमेरिकी-गठबंधन के देशों ने हरा दिया है, और आदिल उनकी जेल में है, तो उसके पिता उसे बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। हाल ही में इसी सिलसिले में उनकी एक याचिका राज्य पुलिस ने केंद्र सरकार को अग्रेषित की है।

वालिद चलाते हैं डिपार्टमेंटल स्टोर, निकाह कर डच बेगम को भी बना दिया जिहादिन

आदिल के वालिद फ़याज़ अहमद डिपार्टमेंटल स्टोर चलाने के साथ-साथ कॉन्ट्रैक्टर का काम करते हैं घर चलाने के लिए। उनके अनुसार उनके लिए अभी भी यह यकीन करना मुश्किल है कि उनकी औलाद ऐसे खूँखार संगठन में जा सकती है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस से बात करते हुए वह बताते हैं कि उन्हें नई केंद्र सरकार से उम्मीद है कि उनके बेटे की घर-वापसी को गति मिलेगी।

पढ़ाई पूरी करने के पहले ही आतंकी समूहों के संपर्क में आने के बाद आदिल एमबीए खत्म कर जॉर्डन से होता हुआ 21 जून, 2013 को तुर्की जा पहुँचा। वहाँ एनजीओ में काम करने के बहाने पहुँचने के बाद उसने एक डच (हॉलैंड निवासी) महिला से निकाह भी कर लिया, और उसे भी जिहाद में शामिल कर लिया। 2014 में उसकी बेगम ने एक बेटे को उसी खूनी माहौल में जन्म दिया, जो ज्यादा दिन जिन्दा न रहा।

आदिल और उसके कुछ सौ साथियों ने जब आइएस छोड़ हथियार डाले तो उन्हें जेल भेज दिया गया। वहाँ से उसकी डच बेगम ने इंटरनेशनल रेड क्रॉस सोसाइटी की मदद से अपने ससुराल वालों से हिंदुस्तान में संपर्क किया, और मदद की गुहार की। आदिल कश्मीर से आइएस में जाने वाला पहला दहशतगर्द है। फ़याज़ अहमद बताते हैं कि जब उन्होंने अधिकारियों से मदद की गुहार की तो उन्हें पता चला कि नई केंद्र सरकार बनने के बाद ही मामले पर विचार होगा।

सुरक्षा एजेंसियों की दिलचस्पी

फाइनेंशियल एक्सप्रेस बताता है कि आदिल की वापसी में सुरक्षा एजेंसियाँ भी दिलचस्पी दिखा रही हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक अधिकारी के हवाले से अख़बार दावा करता है कि अगर आदिल को वापिस ले आया जाए तो आइएस के काम करने के तरीके, उनके भविष्य के इरादे सहित बहुत सारी महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिल सकती हैं।

हिन्दी भाषा का बवाल और पत्रकारिता का वह दौर जब कुछ भी छप रहा है, कोई भी लिख रहा है

पत्रकारिता के बारे में बात करते हुए, अधिकांश पत्रकारों या लेखकों की तरह अपनी बात को वज़नी बनाने के लिए मैं पहले ही पैराग्राफ़ में यह बता सकता हूँ कि जर्नलिज़्म शब्द की उत्पत्ति क्या है, किस तरह की थ्योरी हैं, और चार विदेशी नाम गिना कर (जिनका अमूमन कोई औचित्य नहीं) पहले ही आप पर बोझ बना दूँगा कि ये तो जानकार आदमी है, विदेशी लोगों के नाम जानता है, थ्योरी की बात करता है। लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि तर्क हों तो आप लेख की शुरुआत यूजेज एंड ग्रैटिफिकेशन थ्योरी से करें या फिर ‘लगा दिही न चोलिया के हूक राजा जी’ से, मुद्दे पर फ़र्क़ नहीं पड़ता।

पत्रकारिता के चार दौर मैं समझ सकता हूँ भारत में। स्वतंत्रता संग्राम के समय कहा जाता था कि हर क्रांतिकारी एक पत्रकार है, और हर पत्रकार क्रांतिकारी। उसके बाद आज़ाद भारत में अखबारों में एडिटर, यानी सम्पादक, हुआ करते थे जो कि मालिकाना हक़ न रखने के बावजूद पूरे अख़बार पर अपनी छाप छोड़ते थे। अक्सर साहित्य से जुड़े लोगों को, या अच्छे पत्रकार को यह ओहदा दिया जाता था। उसके बाद सीईओ वाला युग आया जिसमें अख़बार पर पहले विज्ञापन की जगह तय होती थी, फिर तथाकथित एडिटर को उसमें खबरें फ़िट करनी होती थी।

उसके बाद का जो युग है, वो आज कल का युग है जहाँ पत्रकारिता प्रतिक्रियावादी होने से लेकर निजी घृणा के रूप में अख़बारों और चैनलों के माध्यम से सोशल मीडिया और जनसामान्य तक पहुँच रही है। इस दौर में एक व्यक्ति का निजी अनुभव इस तरह से रखा जाता है मानो वो पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हो। इस दौर में ऐसे क्रांतिकारी लेख लिखे जाते हैं जिनका आधार इंटरनेट पर चल रहे किसी चैटरूम का वो कमेंट होता है जिसको लिखने वाली कोई एंजेल प्रिया हो सकती है या फिर इंग्लैंड में बैठा डिक जो खुद को तमिल ब्राह्मण बताते हुए कहता है कि वो यह मानता है कि उसकी तीक्ष्ण बुद्धि का कारण उसका तमिल ब्राह्मण होना है।

ये वही दौर है जहाँ बीबीसी जैसी रेसिस्ट और कोलोनियल विचारों वाली संस्था किसी टुटपुँजिए से लेख को होमपेज पर लीड में चलाती है जिसका मानक बस यही है कि वो किसी खास समुदाय के प्रतीक चिह्नों पर हमला बोले। ये वो दौर भी है जब एक ईको सिस्टम फर्जी खबरें न सिर्फ बनाता है बल्कि मृणाल पांडे जैसे लोगों से शेयर करवाते हुए उसे चर्चा में लाता भी है। ये वो दौर है जब ‘द हिन्दू’ जैसी संस्थाओं में उस फ़ाउंडेशन पर, कुल चार बच्चों के बयान के आधार पर, हिट जॉब किया जाता है जो हर दिन 17 लाख से ज्यादा बच्चों को भोजन देती है। और हाँ, ये वही दौर है जब तथाकथित दलितों को सड़कों पर उतार कर आगजनी और हिंसा कराई जाती है जिसकी जड़ में एक अफ़वाह होता है कि सरकार आरक्षण हटा रही है।

हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का पुराना राग जो अब दूसरा पक्ष गा रहा है

आज कल पत्रकारिता में एक और विचित्र रोग पाया जाने लगा है। जब भाजपा अपनी रैलियों में राम मंदिर की बात नहीं करती दिखती तो वो पत्रकार ही इस पर सवाल उठाते हैं जो राम मंदिर को ध्रुवीकरण का मुद्दा बताते थे। यानी, उन्हें भी यह समझ में आता है कि जब भाजपा विकास के मुद्दे पर लड़ रही है तो उसके मुद्दों को पटरी से उतारने के लिए साम्प्रदायिक टोन के साथ राम मंदिर आदि की बात को लाना कितना आवश्यक है।

कुछ ऐसा ही फिर से हो रहा है। पाँच साल की घटिया, नकारात्मक और कुत्सित कैम्पेनिंग के बाद भी मोदी और भाजपा की देशव्यापी स्वीकृति जब दिख रही है तो आग को भड़काना ज़रूरी हो गया है। दो दिन पहले भारत की, हास्यास्पद रूप से सिर्फ तीसरी, नई शिक्षा नीति का ड्राफ़्ट नए शिक्षा मंत्री के टेबल पर पहुँचा और अगली सुबह तमिलनाडु में आंदोलन का माहौल बना दिया गया कि हिन्दी को थोपने की बात की जा रही है।

484 पन्ने का ड्राफ़्ट डॉक्यूमेंट है, जिसे शायद ही किसी ने पढ़ने की कोशिश की। इसकी जड़ में एक पुराना ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ वाली फर्जी बात है जो अपनी मौत मर चुकी है। लेकिन कुछ लोग उसे माउथ-टू-माउथ दे कर वापस ज़िंदा कर रहे हैं। इसका किसी भी दक्षिणपंथ से कोई वास्ता नहीं, बल्कि मुद्दों के गौण होने पर नई अस्थिरता लाने की यह एक कोशिश है। ये कोशिश भारत की विविधता और एकता दोनों के ही दुश्मनों की साज़िश भर है।

ख़बर का तुरंत ही खंडन हो गया कि ऐसी कोई बात नहीं है कि हिन्दी को थोपा जाएगा। लेकिन पत्रकारिता का गैंग सक्रिय हो चुका है। नए दौर में पत्रकार या सम्पादक गैंग का हिस्सा होते हैं। उनका अजेंडा होता है। वो सरकारों के मंत्री तय किया करते थे, दंगे करवाया करते थे, लोगों की छवि बर्बाद करने के लिए सत्रह सालों तक लेख लिखा करते थे। ये लोग इतनी जल्दी अपनी हरकतों से बाज कैसे आएँगे!

मृणाल पांडे एक लेखिका भी हैं, और पत्रकारिता में एक जाना-माना नाम भी। आज उन्होंने दो कांड किए। खलिहर लोग ट्विटर पर कांड करते हैं, मृणाल पांडे ने भी वही किया। पहले तो एक पुराना आर्टिकल शेयर किया जो ‘मिंट’ अख़बार में किसी रौशन किशोर ने लिखा था कि कैसे हिन्दी की सांस्कृतिक हिंसा ने बिहार की भाषाओं को लील लिया, और दूसरी बार उन्होंने अपने आप को हिन्दी पत्रकार कहते हुए तमिलनाडु के किसी व्यक्ति का ‘स्टॉप हिन्दी इम्पोजिशन’ वाला ट्वीट शेयर किया। दोनों का लेना-देना हिन्दी से ही है।

रौशन किशोर का लेख पूरी तरह से बकवास है क्योंकि बिहार की मूल भाषाओं- भोजपुरी, मैथिली, मगही (और उनकी कई बोलियों)- के बोलने वालों की कमी का जो दोष पत्रकार ने हिन्दी पर डाला है, वो दोष मूलतः अंग्रेज़ी और घर में अपनी ही मातृभाषा में बात करने वाले बच्चों को हेय दृष्टि से देखने वाले परिवारों का है। ये लेख इतना वाहियात है कि अपने पूर्वग्रहों या अजेंडा को थोपने के लिए लेखक ने नाहक ही हिन्दी को बिहारी भाषाओं की हत्यारिन बता दिया है।

रौशन किशोर का लेख सिर्फ काल्पनिकता पर आधारित है जहाँ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात से लेकर अगली पीढ़ी द्वारा छठ के गीतों के समझ में न आने का दोष हिन्दी पर डाला गया है। न तो राष्ट्रभाषा का कोई डिबेट हालिया दिनों में कहीं दिखा, न ही गाँव छोड़ कर शहरों में पलायन करते बिहारी लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी के अलावा किसी और भाषा में बोलते देखना पसंद करते हैं। हिन्दी स्वयं ही आठवीं तक पढ़ाई जाने लगी है और उत्तर भारत के जिस हिस्से में हिन्दी को बड़ी मछली जैसा बताया जा रहा है, वहीं के बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पूरी शिक्षा पाते हैं।

पलायन कर बाहर गए लोगों के बच्चों को घर के बाहर अपनी मातृभाषा बोलने का न तो अवसर मिलता है, न ही हम बिहारियों में घुसी हीन भावना उसे अपने राज्य, अपनी बोली को स्वीकारने में सहजता दे पाती है। इस कारण, अगर बिहारी भाषाएँ गायब हो रही हैं तो उसका कारण अंग्रेज़ी है, हिन्दी नहीं। अपने एडिटर द्वारा ‘यार हिन्दी पर कुछ तड़कता-भड़कता लिख दे कि मजा आ जाए’ कहने पर ‘जी सर’ कहते हुए, ऐसे वाहियात लेख लिखता हुआ बिहारी यह भूल जाता है कि बिहार के हर जिले में पिछले तीस सालों में ‘इंग्लिश मीडियम’ वाले स्कूलों की संख्या दिल्ली की गलियों में मिलने वाले मोमोज़ के दुकानों से ज़्यादा होगी।

वो यह भूल जाता है कि जिन बिहारी भाषाओं की वह बात कर रहा है, उसकी व्यवस्थित शिक्षा कभी अपनी लिपि में स्कूलों में आई ही नहीं। वो यह भूल जाता है कि पहले मायग्रेशन इतना था ही नहीं कि लोग राज्य छोड़कर दिल्ली में ही बसने लगे हों। इसलिए, अपने जिले से निकल कर ज्यादा से ज्यादा पटना पहुँचने वाला बच्चा लगातार अपनी बोली या भाषा से जुड़ा रहता था। हिन्दी का प्रयोग वो तब करता था जब उसके सामने कोई ऐसा व्यक्ति आता हो जो उसकी भाषा न समझता हो। जब आप अपने एरिया से ही बाहर चले गए, जहाँ मुहल्ले में कोई आपकी बोली बोलता नहीं, आपकी भाषा से आपको पहचान कर लालू के कारण अलग-थलग किया जाता हो, तो आप स्वयं ही अपनी पहचान छुपाने लगते हैं।

खैर, मृणाल पांडे का दूसरा ट्वीट भी उतना ही अनावश्यक और फर्जी था, जितना पहला। ये उसी मशीनरी का हिस्सा है जो मोदी की जीत को पचाने में अक्षम है। यही कारण है कि तमिलनाडु का व्यक्ति अंग्रेज़ी में लिख कर बता रहा है कि उसे हिन्दी नहीं चाहिए, और अपने आप को हिन्दी पत्रकार कहने वाली मृणाल पांडे, बिना नई शिक्षा नीति के ड्राफ़्ट को पढ़े इस फर्जीवाड़े को प्रमोट करते हुए हीरोइन बनना चाह रही हैं क्योंकि भाजपा या मोदी के खिलाफ मुद्दे मैनुफ़ैक्चर करने के बाद, उस पर ज्ञान की बातें कहना ही तो पत्रकारिता के समुदाय विशेष में आपको लेजिटिमेसी दिलवाता है!

इसमें लिखा गया है कि प्रिय ‘हिन्दीभाषियो, तमिलनाडु में गोलगप्पे बेचने के लिए तमिल सीखो’। इस ट्वीट में हिन्दीभाषियों को नीचा दिखाया गया है कि उनका काम गोलगप्पे बेचना ही है। इस घृणा भरे ट्वीट को मृणाल पांडे जैसी लेखिका और पत्रकार सिर्फ इसलिए ट्वीट करती है क्योंकि उसने जिस व्यक्ति या पार्टी के खिलाफ जी-तोड़ कैम्पेनिंग की थी वो जीत गया!

हिन्दी को थोपना संभव नहीं है। न ही ऐसा होना चाहिए। भारत की ख़ूबसूरती इसकी विविधता है। इस विविधता को सकारात्मक रूप से एक्सप्लॉइट करने की आवश्यकता है। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि हर राज्य में प्राइमरी से लेकर दसवीं तक दो बाहरी राज्यों की भाषाएँ पढ़ाई जाएँ? इस बात को स्वीकारने में क्या समस्या है कि तमिलनाडु के बच्चे गुजराती और पंजाबी पढ़ें, बिहार के बच्चे तेलुगु और कन्नड़ पढ़ें, उत्तर प्रदेश के बच्चे तमिल और मणिपुरी पढ़ें, असम के बच्चे मलयालम और कश्मीरी पढ़ें, पंजाब के बच्चे अरुणाचली और मैथिली पढ़ें, केरल के बच्चे बंगाली और हिन्दी पढ़ें?

लेकिन नहीं, अंग्रेज़ी पढ़ लेंगे जो ग़ुलामी की याद दिलाता रहता है, परंतु अपने ही देश की किसी भाषा को पढ़ने में साउथ और नॉर्थ का झगड़ा आ जाएगा। वही अंग्रेज़ी जो मात्र दस प्रतिशत लोगों को समझ में आती है। वही अंग्रेज़ी जो उत्तर प्रदेश से निकला टूरिस्ट केरल के बोर्ड पर देख कर समझ नहीं पाता। वही अंग्रेज़ी जो गुजरात का व्यक्ति कर्नाटक घूमते हुए इस्तेमाल नहीं कर पाता।

ये झगड़ा फर्जी है और इसे फिर से हवा देने में मृणाल पांडे जैसे पत्रकार जी-जान से माइकल बनने के लिए जुटे हुए हैं। हालात यह हैं कि अब इन लोगों को सिवाय गालियों के कुछ मिलता नहीं। ये दुःखद स्थिति है, लेकिन सत्य है। आप इस गिरोह के सदस्यों के सोशल मीडिया फ़ीड पर जाएँ तो पता चलेगा कि जो इन्हें पढ़ते हैं, उनमें से अधिकतर इन्हें लताड़ने के लिए ही आते हैं।

ये अपनी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं। ये अपनी वास्तविकता से लड़ रहे हैं। इनकी बातों को सुनने वाला कोई नहीं है तो अब ये आग लगाना चाहते हैं। ये खुद को पत्रकार कहते हैं और पत्रकारिता के किसी भी नियम को, उसकी नैतिकता को मानने से दूर भागते हैं। क्या हिन्दी वाली बात के सत्य को जानने को लिए ड्राफ़्ट पॉलिसी को पढ़ना जरूरी नहीं था पांडे जी के लिए? शायद नहीं, क्योंकि अवॉर्ड वापसी के हुआँ-हुआँ वाले दौर में बेकार की बातों को भारत की एकता और विविधता पर पेट्रोल छींटने का काम इन पत्रकारों को लिए सहज है। वो यही कर रहे हैं, वो यही करते रहेंगे।

शहनाज Weds गौरव: धर्म की ‘आड़’ में जब अब्बू-अम्मी ने नहीं दिया साथ, शेल्टर होम से की ज़िंदगी की शुरुआत

किसी भी लड़की के लिए शेल्टर होम में रहना आसान नहीं होता है। मगर फिर भी सहारनपुर की शहनाज ने अपनी मर्जी से घर छोड़कर शेल्टर होम का आसरा लिया और 27 मई को अपने पसंद के लड़के गौरव से शादी कर अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत की। शादी से सिर्फ चार दिन पहले घर छोड़कर अंजान शहर दिल्ली आना, जहाँ उनका कोई जानने वाला न हो, शेल्टर होम में रहना बिल्कुल आसान नहीं रहा होगा। बावजूद इसके उन्होंने यह कड़ा कदम उठाया और उनकी इस हिम्मत की वजह से ही उनकी शादी वहाँ हुई, जहाँ वो करना चाहती थी।

दरअसल, शहनाज के परिवार वाले दूसरे धर्म के लड़के गौरव से शादी करवाने के लिए तैयार नहीं थे और शहनाज की मर्जी के बगैर 10 फरवरी को उनकी शादी कहीं और करवा रहे थे। इसलिए उन्होंने 6 फरवरी को घर छोड़ दिया और दिल्ली के जंगपुरा के शेल्टर हेम में शरण लिया। शहनाज ये कदम उठाकर न केवल रुढ़िवादी परिवार के फैसले के खिलाफ खड़ी हुई, बल्कि गौरव को भी इस बात के लिए मनाया कि शादी धार्मिक रीति-रिवाज की जगह कोर्ट में रजिस्टर करवाया जाए। अब शहनाज ने गौरव से शादी करने के बाद 29 मई को शेल्टर होम भी छोड़ दिया और अपने पति के साथ नई ज़िंदगी की शुरुआत करने के लिए निकल पड़ी है।

दिल्ली के जंगपुरा में स्वैच्छिक संगठन शक्ति शालिनी द्वारा चलाए जा रहे शेल्टर होम में रहने के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने शहनाज को सुरक्षा प्रदान की थी। जानकारी के मुताबिक, दिल्ली में शादी रजिस्टर करवाने के लिए यहाँ कम से कम एक महीने रुकना पड़ता है। इस दौरान शेल्टर होम ने शहनाज का काफी साथ दिया। इसके साथ ही शादी के समय दंपत्ति के साथ एक और दिक्कत थी कि उनके पास दिल्ली का स्थाई पता नहीं था। ऐसे में उच्च न्यायालय के निर्देश पर एसडीएम-प्रभारी ने जरूरी वेरिफिकेशन के बाद शेल्टर होम को ही स्थाई पता मानते हुए शहनाज का घर मान लिया।

पुलिस और अदालत के सामने आत्मविश्वास और बेबाकी से अपनी बात रखने के बाद शहनाज ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए बताया कि उन्होंने और उनके पति ने एक-दूसरे के धर्म को सम्मान के साथ स्वीकार करने का फैसला किया था। शहनाज बताती है कि उन्होंने बारहवीं तक की पढ़ाई की है। वो आगे ग्रेजुएशन की पढ़ाई करके नौकरी करना चाहती है। शहनाज के पति गौरव एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करते हैं। शक्ति शालिनी की सेक्रेट्री भारती शर्मा ने इस मामले में शामिल चुनौतियों और संवेदनाओं को देखते हुए इसे बड़ी सफलता बताया है। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि शक्ति शालिनी काउंसलर शहनाज के साथ नियमित संपर्क में रहेंगी। शहनाज-गौरव के किस्से ने काफी लोगों को आशा की नई राह दिखाई है।

मामूली विवाद में सेना के जवानों को दबंगों ने पीटकर किया लहूलुहान, देखें वीडियो

उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में सेना के जवानों से होटल के मालिक और कर्मचारियों ने मारपीट का एक वीडियो सामने आया है। मारपीट में सेना के जवानों को लहूलुहान कर दिया गया। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। वीडियो में आधा दर्जन से अधिक लोग सेना के दोनों जवानों को लाठी डंडों से पीटते नजर आ रहे हैं। पुलिस के अनुसार मामले को लेकर अब तक सात लोगों को अरेस्ट किया गया है। इनके खिलाफ कार्रवाई की जा रही है।

बताया जा रहा है कि खाने के बिल को लेकर सेना के जवानों से होटल मालिक और उनके साथ काम करने वाले भिड़ गए। मामला इतना बढ़ गया कि वह सड़क तक पहुँच गया। होटल मालिक की तरफ से करीब सात लोगों ने सेना के जवानों पर हमला किया और अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। इस बीच लोग सड़क पर खड़े होकर वीडियो बनाते रहे। घटना का वीडियो वायरल होने के बाद पुलिस ने कार्रवाई की और बड़ौत कोतवाली पुलिस ने मामला दर्ज कर के सात लोगों को इस मामले में गिरफ्तार किया है।

यौन शोषण मामले में मौलाना गिरफ़्तार, 25 साल से बच्चे-बच्चियों को बना रहा था हवस का शिकार

केरल के कोट्टायम ज़िले में पुलिस ने एक मदरसा टीचर को बच्चों के साथ दुष्कर्म के आरोप में गिरफ़्तार किया है। 63 साल के आरोपी युसूफ़ को मदरसा चलाने वाली मस्जिद कमिटी की शिक़ायत के बाद शनिवार (1 जून) को गिरफ़्तार किया गया। पुलिस के अनुसार, यूसुफ़ एक अपराधी था और उसने एक दर्जन से अधिक बच्चों का यौन शोषण किया। पुलिस ने कहा कि माता-पिता की शिक़ायत दर्ज कराने में विफल रहने की वजह से यूसुफ को पहले गिरफ़्तार नहीं किया गया था।

ख़बर के अनुसार, गिरफ़्तार होने के बाद युसुफ़ ने 25 साल की उम्र से बच्चों के साथ बलात्कार करने की बात क़बूल कर ली और यह भी बताया कि जब वो बच्चा था तब वो ख़ुद भी यौन शोषण का शिकार हुआ था। मौलाना ने कहा कि उसने एक व्यक्ति से बदला लेने के लिए उसकी बेटी का बलात्कार किया क्योंकि कभी उसने भी उसका (यूसुफ़) यौन उत्पीड़न किया था। यूसुफ़ को यह विश्वास था कि वो कभी पकड़ा नहीं जाएगा क्योंकि बच्चों को शायद ही यौन शोषण और क़ानूनी कार्रवाइयों का कोई ज्ञान हो। महाल्लु समिति के लोग भी शुरू में शिक़ायत दर्ज कराने में हिचकिचाते थे, लेकिन उन्होंने अंततः यूसुफ़ के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का फ़ैसला किया।

दरअसल, पिछले हफ़्ते थालायोलापारांबू मदरसे में युसूफ़ ने एक बच्चे को कुरान पढ़ाने के बहाने बुलाया। जिसके बाद बच्चा जब घर गया तो ख़ौफ़ में डूबे बच्चे ने दुष्कर्म की पूरी कहानी अपने माता-पिता को बता डाली। जिसके बाद माता-पिता ने इसकी शिक़ायत मदरसा चलाने वाली मस्जिद कमिटी को की। बाद में पता चला कि 2 साल पहले भी इस मदरसे को ज्वाइन करने वाले युसूफ़ पर कई बच्चों ने एतराज़ जताया था। लेकिन तब मदरसे ने बच्चों की शिक़ायत पर कोई कार्रवाई नहीं की थी।

बहरहाल, ताज़ा मामला सामने आने के बाद मस्जिद कमिटी ने युसूफ़ को पहले मदरसे से बर्ख़ास्त कर दिया है। गिरफ़्तारी के बाद आरोपी युसूफ़ के ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाने के लिए आवाज़ उठ रही है।