Friday, October 4, 2024
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SC-ST, OBC आरक्षण लागू करने के नए तरीके पर अंतिम कैबिनेट मीटिंग में होगा फैसला

यूनिवर्सिटी की नौकरियों में SC-ST और ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने के नए तरीके ’13 पॉइंट रोस्टर’ को लेकर विरोध जारी है। मंगलवार (मार्च 05, 2019) को भी देश भर में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और SC-ST संगठनों ने साथ मिलकर ‘भारत बंद’ बुलाया है। सुप्रीम कोर्ट ने पुराने ‘200 पॉइंट रोस्टर सिस्टम’ लागू करने को लेकर मानव संसाधन मंत्रालय (MHRD) और UGC द्वारा दायर स्पेशल लीव पिटीशन को 22 जनवरी को ही खारिज कर दिया था। बाद में सरकार ने पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी, जिसे कोर्ट ने 28 फरवरी को खारिज कर दिया था।

क्या है 13 पॉइंट रोस्टर सिस्टम?

अगर आप किसी ऑफिस में काम करते हैं तो ‘रोस्टर’ शब्द आपके लिए नया नहीं होगा। आपको किस दिन, किस शिफ़्ट में जाना है और किस दिन घर पर आराम फ़रमाना है, ये इस रोस्टर से ही तय होता है। लेकिन बीते कुछ हफ़्तों से ये शब्द सड़कों पर भी सुनने को मिला और सदन की बैठकों में भी। 13 पॉइंट रोस्टर को लेकर SC, ST और OBC वर्ग सरकार से ख़ासा नाराज़ है। उनकी माँग है कि सरकार इसमें हस्तक्षेप करके इसमें बदलाव लाए।

दरअसल, 13 पॉइंट रोस्टर वो प्रणाली है, जिससे विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्तियाँ की जानी हैं। हालाँकि इसके विरोध में कई सप्ताह से अध्यापकों का एक बड़ा वर्ग प्रदर्शन कर रहा है, जिसके बाद मानव संसाधन विकास मंत्री ने कहा है सरकार पुनर्विचार याचिका दायर करेगी और अगर याचिका पर भी फ़ैसला हमारे पक्ष में नहीं आया तो वह अध्यादेश या क़ानून लेकर आएगी।

आचार संहिता लागू होने से पहले सरकार को लेना होगा बड़ा निर्णय

7 मार्च, बुधवार को मोदी सरकार की आखिरी कैबिनेट बैठक में इस मामले पर अध्यादेश ला सकती है, क्योंकि इसके बाद लोकसभा चुनाव की घोषणा होनी है। इससे पहले ही पीएम मोदी को इस मसले पर निर्णय लेना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के 22 जनवरी, 2019 के आदेश को पलटते हुए अध्यादेश लाया जाए या नहीं। हालाँकि, मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर लगातार कह रहे हैं कि ज़रूरत पड़ी तो सरकार अध्यादेश लाकर 13 पॉइंट रोस्टर सिस्टम को रद्द कर देगी।

आरक्षण के विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन बनाना चाहेगा मंत्रालय

इस बारे में सरकार एक अध्यादेश ला सकती है कि विश्वविद्यालयों में विभाग के आधार पर नहीं, बल्कि संस्थान की कुल सीटों के आधार पर आरक्षण लागू किया जाए। अंतिम कैबिनेट बैठक में सरकार कई महत्वपूर्ण फैसले ले सकती है। इस बैठक में ही सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं में सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण प्रदान करने के लिए 10% आरक्षण को लागू करने के लिए ₹4,000 करोड़ का अतिरिक्ति फंड आवंटित कर सकती है।

महबूबा मुफ्ती को क्यों हो रही ‘जय हिंद’ से दिक्कत

जम्मू-कश्मीर की पूर्व सीएम और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती को भारतीय वायु सेना द्वारा किए गए एयर स्ट्राइक से तो समस्या थी ही, अब उन्हें ‘जय हिंद’ बोलने से भी दिक्कत होने लगी है।

पहले उन्होंने एयर स्ट्राइक को लेकर बयान दिया था कि एयर स्ट्राइक पर सवाल करने वाले को देशद्रोही बताना गलत और चौंकाने वाला है। अब महबूबा ने एयर इंडिया के जय हिंद बोलने वाले आदेश पर तंज कसा है।

दरअसल बात यह है कि एयर इंडिया की तरफ से एक सर्कुलर जारी करते हुए कहा गया है कि तत्काल प्रभाव से सभी क्रू मेंबर्स और कॉकपिट क्रू को हर उड़ान की घोषणा करने के बाद पूरे जोश के साथ ‘जय हिंद’ बोलना होगा। एयर इंडिया के इस निर्देश के बाद महबूबा ने ट्वीट के जरिए इसकी आलोचना की है। महबूबा ने अपने ट्वीट में लिखा है कि “आश्चर्य है कि ऐसे वक्त में जब आम चुनाव होने वाले हैं, देशभक्ति के जोश ने आसमान तक को नहीं छोड़ा है।”

एयर इंडिया के मौजूदा चेयरमैन और एमडी अश्विनी लोहनी ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान मई 2016 को भी सभी पायलटों के लिए यह एडवाइजरी जारी की थी। अधिकारियों के अनुसार मौजूदा एडवाइजरी देश के माहौल को ध्यान में रखते हुए स्टाफ के लिए एक रिमाइंडर है। लोहानी ने मई 2016 में अपने कर्मचारियों को एक चिट्ठी में लिखकर कहा था कि विमान के कैप्टन को पूरी यात्रा के दौरान अपने यात्रियों के साथ जुड़ना चाहिए और पहले एड्रेस के अंत में ‘जय हिंद’ शब्द का इस्तेमाल एक जबरदस्त प्रभाव डालेगा।

‘कॉन्ग्रेस-BJP मिले हुए हैं जी!’ – गिड़गिड़ाने के बाद भी कॉन्ग्रेस से गठबंधन न होने पर केजरीवाल

कॉन्ग्रेस की ओर से गठबंधन को न कहने पर भड़के केजरीवाल ने कहा, “जिस समय पूरा देश मोदी-शाह की जोड़ी को हटाने में लगा है, कॉन्ग्रेस बीजेपी की मदद कर रही है। दिल्ली कॉन्ग्रेस-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ लड़ाई के लिए तैयार है।”

कॉन्ग्रेस से गठबंधन के लिए गिड़गिड़ाने और भाजपा को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने का दावा करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की उम्मीदों को एक बार फिर झटका लगा है। आजकल लगातार ख़बरें आ रही थीं कि कॉन्ग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल करने का निर्णय ले लिया है और दिल्ली में लोकसभा की 7 सीटों में से 3-3 सीटों पर दोनों पार्टी अपने उम्मीदवार उतारेगी। लेकिन शीला दीक्षित ने इन ख़बरों का खंडन करते हुए कहा है कि कॉन्ग्रेस आम आदमी पार्टी से कोई गठबंधन करने को तैयार नहीं है।

दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और कॉन्ग्रेस की वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित ने आम आदमी पार्टी के साथ किसी भी तरह के गठबंधन से इनकार कर दिया है। उन्होंने यह बात कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी से मिलने के बाद कही है। दरअसल, राहुल गाँधी ने मंगलवार को कॉन्ग्रेस की दिल्ली यूनिट के नेताओं के साथ गठबंधन पर चर्चा के लिए बैठक बुलाई थी। दोपहर 12 बजे से इनके घर एक बैठक होनी थी। माना जा रहा है कि कॉन्ग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इस गठबंधन के लिए तैयार था, लेकिन पार्टी की दिल्ली यूनिट इसके पक्ष में नहीं थी। यही वजह है कि राहुल गाँधी को बीच में आना पड़ा।

गठबंधन की उम्मीद लगाए AAP का कॉन्ग्रेस से गठबंधन की अफवाहों की पुष्टि इस बात से भी होती दिखी है, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों में से अब तक 6 पर ही अपने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान किया था। लेकिन ऐसा लग रहा है कि अरविन्द केजरीवाल का इंतजार अब इंतजार ही रहने वाला है। कॉन्ग्रेस के दिल्ली यूनिट के नेता पहले से ही AAP से गठबंधन के पक्ष में नहीं थे। इससे पहले खबर थी कि AAP ने कॉन्ग्रेस को गठबंधन के लिए फॉर्मूला सुझाया था, फॉर्मूला के तहत AAP चाहती थी कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी 6 सीटों पर लड़े और कॉन्ग्रेस सिर्फ 1 पर।

रायबरेली: महाशिवरात्रि पर शिव बारात रोकने पर बढ़ा तनाव, बदला गया रास्ता

सोमवार को देश भर में महाशिवरात्रि का पर्व काफी धूमधाम से मनाया गया। मान्यताओं के अनुसार शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव-पार्वती का विवाह हुआ था। इसलिए इस दिन भक्तगण भगवान शिव की आराधना करते हैं और साथ ही उनकी बारात भी निकालते हैं।

इसी अवसर पर सोमवार को रायबरेली के ऊंचाहार में भगवान शिव की बारात निकाली गई, जिसका वहाँ के समुदाय विशेष के लोगों ने विरोध किया। विरोध इतना ज्यादा बढ़ गया कि पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा, जिसके बाद मामला शांत हुआ और बारात दूसरे रास्ते से निकाली गई।

दरअसल शिवरात्रि के मौके पर ऊंचाहार में तकरीबन एक दशक से शिव जी की बरात निकाली जा रही है। मगर पिछले वर्ष किन्हीं कारणों से शिव जी की बरात नहीं निकाली गई थी।

दशकों से यहाँ पर बरात के लिए झाकियाँ सजकर नगर के दर्जी मुहल्ला होते हुए महादेवन मुहल्ले पहुँचती रही हैं। इसी प्रथा के अनुरूप सोमवार को भी झांकियाँ महादेवन शिव मंदिर जा रही थी। मगर झाँकी जैसे ही राजमार्ग पर मुड़ी, तभी एक समुदाय के कुछ लोग सामने आ गए और रास्ता रोक लिया। साथ में कोतवाल बृज मोहन भी थे। मामले को बढ़ता देख पुलिस ने हस्तक्षेप किया और रास्ता बदलने को कहा।

इस बात पर बहस भी तेज हो गई। पुलिस की इस बात पर नगर पंचायत के पूर्व अध्यक्ष प्रमोद गुप्ता इस बात पर अड़ गए कि हम हमेशा इसी रास्ते से गए हैं, तो हम रास्ता क्यों बदलें और अगर हमें रोका गया तो ये बारात नहीं निकलेगी।

इसके बाद उन्हें काफी समझाया गया और फिर यह तय हुआ कि झांकियाँ इस रास्ते से नहीं जाएगी। इस रास्ते से लोग केवल पैदल जा सकते हैं। वो भी बिना जयकारा लगाए। उसके बाद झाँकियों को दूसरे रास्ते से मंदिर तक ले जाया गया। इस मामले पर कोतवाल बृजमोहन ने बताया कि शिव जी की बारात शांतिपूर्ण ढँग से निकाली गई।

जवानों के ख़ून की दलाली महागठबंधन के नेता कर रहे हैं, और इसका फल उनको शीघ्र मिलेगा

यूँ तो ‘दलाली’ जैसे शब्द और व्यवहार पर कॉन्ग्रेस का कॉपीराइट रहा है, लेकिन महागठबंधन में ‘कर लो ना प्लीज़’ वाली लाइन लेने के बाद, ठगबंधन के बाकी चोर-लुटेरों तक भी इसका असर पहुँच रहा है। जब महागठबंधन के बारे में चर्चा शुरु हुई थी, तो लगा था कि ये लोग मोदी-शाह द्वय की रणनीति को चैलेंज कर पाएँगे, लेकिन अंत में ये स्वार्थी और उद्देश्यहीन नेताओं की मंडली से ज़्यादा कुछ नहीं रहा।

चुनाव सर पर है, अगले सप्ताह तक तारीख़ों की घोषणा होने की संभावनाएँ हैं, और इस समय महाठगबंधन का गिरोह लगातार कुल्हाड़ी की धार तेज कर रहा है। धार तेज करने के बाद उसे अपने ही पैरों पर मारता है, और प्रबल संभावना है कि मई के आख़िरी सप्ताह में ईवीएम को दोष देता दिखेगा। 

हिन्दी के अख़बारों को पढ़ने से यही रिपोर्ट मिल रही है कि उत्तर भारत में मोदी को इस देशहित में उठाए गए मजबूत क़दम का लाभ मिला है, और आम जनता में मोदी को लेकर विश्वास प्रबल हो गया है। हालाँकि, कुछ पत्रकार और छद्मबुद्धिजीवी स्तंभकारों में इस बात को लेकर काफी निराशा है कि देश ऐसे मौक़ों पर मोदी के साथ क्यों है, जबकि उनके गिरोह ने खूब प्रोपेगेंडा फैलाया। 

जैसा कि कोई भी आँख-कान खुला रखने वाला समझदार व्यक्ति आजकल चल रहे विवादों को देख रहा होगा, तो पाता होगा कि कैसे माओवंशी कामपंथियों से लेकर महाठगबंधन के तमाम नेताओं ने पुलवामा हमले के तुरंत बाद से लेकर अभिनंदन की रिहाई तक पाँच बार अपना स्टैंड बदला है। मोदी को गरियाना कि हमला कैसे हुआ, फिर एयर स्ट्राइक पर कहा कि मोदी ने नहीं सेना ने किया, फिर सबूत माँगने लगे, इतने में अभिनंदन का विमान दुर्भाग्य से उस पार गिरा, तो उसके लिए फिर मोदी को कोसने लगे, 55 घंटे में अभिनंदन स्वदेश लौटा तो फिर एयर फ़ोर्स को क्रेडिट देते हुए मोदी को कहा गया कि उसने किया ही क्या है।

उसके बाद बहुत ज़्यादा एक्शन नहीं हो रहा था, तो नया नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई कि मोदी रैलियाँ क्यों कर रहा है। पहले तो ये लम्पटों का समुदाय यह डिसाइड नहीं कर पा रहा है कि मोदी का हाथ है कि नहीं? मोदी का हाथ अगर हमले में था तो उसे रैलियाँ करते देख विलाप क्यों, और अगर हमले का बदला लेने में मोदी कुछ कर ही नहीं रहा, तो फिर रैलियाँ करने पर प्रलाप क्यों? 

ख़ैर, रिपोर्टों के अनुसार उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति बेहतर तो हुई ही है, जो कि दो बड़े प्रदेशों में हार, और कई जगहों पर अपनी बातों को सही ढंग से न कह पाने के कारण, भाजपा पिछले कुछ महीनों में बैकफ़ुट पर जाती दिख रही थी। लेकिन आतंकी हमलों पर त्वरित कार्रवाई करके पाकिस्तान को झुकाकर, उससे अपनी बातें मनवाने के बाद, लगातार रैलियों में ये कहते हुए कि ये तो ‘पायलट प्रोजेक्ट’ था, अभी और होना बाकी है, मोदी ने खोए हुए समर्थन को न सिर्फ वापस पाया है, बल्कि उसमें बढ़ोतरी भी हुई है।

इसी बात को पत्रकारिता का समुदाय विशेष या पाक अकुपाइड पत्रकार समुदाय ऐसे दिखाता है मानो मोदी ने इस हमले को अपने पक्ष में भुनाया है। लगातार सबूत माँगने वाले लोग, वैसे लोग जिनके सर के बाल गायब हो गए हैं प्रोपेगेंडा फैलाते हुए, वैसे लोग जो दिन-रात यह सवाल पूछ रहे हैं कि हमारी वायु सेना ने पेड़ काटे या आतंकियों को मारा, ये लोग आखिर मोदी के इस हमले को भुनाने वाला कैसे कह रहे हैं, यह समझ से बाहर है।

हमले पर राजनीति और ख़ून की दलाली तो ममता बनर्जी, दिग्विजय सिंह, सलमान ख़ुर्शीद, अरविन्द केजरीवाल से लेकर राजदीप, बरखा और रवीश सरीखे लोग कर रहे हैं, जिनके बयान चुनिंदा शब्दों से सज्जित होते हैं। ये लोग लिखने की शुरुआत ऐसे करते हैं जैसे इन्हें सेना में बहुत विश्वास है लेकिन अंत में पूछ देते हैं कि ‘जब किया है तो सबूत देने में क्या समस्या है’। 

बात सबूतों की नहीं है, बात बस इतनी है कि अगर आपको सबूत दे भी दिया जाए तो ये कहेंगे कि कॉकपिट में किसी ‘निष्पक्ष’ पत्रकार या मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर क्यों नहीं गए। इनकी चले तो ये कहेंगे कि हर एयरफ़ोर्स बेस पर विपक्षी गिरोह के नेता और पत्रकारों में से एक रहे, जो कि पायलट के साथ कॉकपिट में बैठकर सर्जिकल या एयर स्ट्राइक के सबूत रिकॉर्ड करता रहे। ऐसा कर भी दिया जाए, तो मोदी से घृणा करने वाले ये लोग, कहेंगे कि वहाँ तो इतना धुआँ था कि उन्हें कुछ दिखा ही नहीं। 

यही कारण है कि महागठबंधन में जो कुछ लोगों ने, आम जनता ने, एक आशा दिखाई थी कि उन्हें जगह दी जा सकती है, वो लोग ऐसे मौक़ों पर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारते दिखते हैं। जबकि, ऐसे मौक़ों पर चुप होकर देश और सेना के साथ खड़े होने का बात कहते हुए अपने वोटर बेस को बचाने की जुगत भिड़ानी थी, महागठबंधन एक तरह से भाजपा की तैयार पिच पर खेल रही है, और अपना जनाधार सेना पर सवाल खड़े करते हुए खो रही है। 

अब समस्या यह है कि क्या विपक्ष, एकजुट होने का ढोंग रचने के बावजूद, मोदी के विकास और सीमा सुरक्षा के नैरेटिव को काटना तो दूर, ढ़ीला भी कर पाएगा? इनके नेताओं के पास बोलने का वक्त नहीं है। जबकि मोदी लगातार रैलियाँ कर रहा है, उसकी कवरेज हर चैनल पर, सोशल मीडिया पर लाइव हो रही है, ऐसे में अखिलेश, मायावती, ममता, केजरीवाल, राहुल आदि अपना मुद्दा लाने की जगह राफेल जैसे मरे घोड़े को पीटकर दौड़ाना चाह रहे हैं।

भ्रष्टाचार को लेकर एक सबूत न ला पाने और अपनी नासमझी से जगहँसाई कराने वाले राहुल अभी भी ‘अंबानी की जेब में 30000 करोड़ रख दिया मोदी ने’ कह कर रैलियों में भाषण की खानापूर्ति करते नज़र आ रहे हैं। इससे आप बस अपनी डायरी में निशान लगा सकते हैं कि आपने बहत्तर रैलियाँ कर लीं, लेकिन उन रैलियों में आपने वही पुराना रायता फैलाया है, ये आपको बहुत समय बाद पता चलेगा।

उनलोगों को भी इस बात पर सोचना चाहिए जो सच में इस बात पर सोचने लगते हैं कि मोदी जवानों के बलिदान के बाद सर्जिकल और एयर स्ट्राइक की बातें रैलियों में क्यों करता है? ये बात इसलिए नहीं होती कि उनके बलिदान को भुनाया जाए, बल्कि ये बात इसलिए होती है कि लोगों में ये विश्वास बैठे कि ये चुप लोगों की, रक्त-मज्जा की कठपुतलियों की सरकार नहीं है, जो रक्षा समझौतों में दलाली करने के चक्कर में सेना को पचास साल पीछे रखती है।

मोदी द्वारा हर रैली में इस बात पर जोर देना कि भारत चुप होकर नहीं बैठने वाला, और यहाँ की जनता सुरक्षित सेना और सत्ता के संचालन में पूरी तरह से आश्वस्त रहे। जब तक आपकी सीमाएँ मजबूत नहीं रहेंगी, आप इस्लामी आतंक से लेकर पाकिस्तानी घुसपैठ के साए में जीते और मरते रहेंगे। इस सरकार ने उस डर को खत्म किया है। चाहे वो कश्मीर में आतंकियों को लगातार मारने की बात हो, या उत्तर पूर्व में विकास की योजनाओं को लाना, सीमाओं को लेकर यह नेतृत्व सजग है। 

देश की प्रगति के केन्द्र में जो सामाजिक समरसता, वंचितों का विकास, बुनियादी ढाँचों की मज़बूती आदि है, वो सब बेकार हो जाएँगे अगर हम देश की सीमाओं पर सशक्त होकर खड़े न रहें। मजबूत राष्ट्र की पहचान है सुरक्षित सीमाएँ। इन्हीं सीमाओं के भीतर एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण की बात की जा सकती है। 

आज जो लोग सेना की सफलता को ‘ये तो सेना ने किया, मोदी ने क्या किया’ कहकर नकार देते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सेना की सफलता देश की सफलता है। एक सफल देश अपने कुशल नेतृत्व की सफलता पर टिका होता है। साथ ही, लोकतांत्रिक राजनीति में हर दल को अपने नेतृत्व की सफलता पर बात करने का पूरा अधिकार है। ये काम शास्त्री ने भी किया था, और इंदिरा गाँधी का नाम तो आज भी कॉन्ग्रेसी लेते हुए अघाते नहीं, मानो इंदिरा गाँधी स्वयं ही टैंक चलाती गई थीं, और मोदी तो चाय पर चर्चा कर रहा था।

दिल्ली में भी आज गठबंधन में कॉन्ग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ आने की खबरें आ रही थी। दिल्ली के वोटरों ने जिस आशा और उम्मीद से, नई राजनीति के उदीयमान सूरज को सत्ता दी थी, वो अब बुरी तरह के भ्रष्ट कॉन्ग्रेस की शरण में जा रहे हैं, इससे वोटरों को खुशी तो बिलकुल नहीं हुई होगी क्योंकि केजरीवाल का मास्क उतर रहा है और अब तो आप का गठबंधन भी कॉन्ग्रेस के साथ नहीं हुआ। इसी तरह, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि जगहों पर गठबंधन पेपर पर भी नहीं दिख रहा, न ही किसी भी दल का नेता मोदी की रैलियों में उठाए मुद्दों को काटने की हिम्मत करता दिखता है।

पूरी तरह से नकारा विपक्ष, अब न तो मोदी को तर्क और आँकड़ों से घेर पा रहा है और न ही अपना बचाव कर पा रहा है। ये लोकतंत्र के लिए संवेदनशील स्थिति है, लेकिन अगर ऐसे नकारा विपक्ष भाजपा की जीत सुनिश्चित करेंगे। कमाल की बात यह है कि राम मंदिर जैसे मुद्दे डिबेट से गायब हो चुके हैं, और मोदी-शाह लगातार विकास के प्रोजेक्ट के शिलान्यास, उसकी प्रोग्रेस रिपोर्ट और अपनी सफलताओं की बात करते हुए, देश को एक सक्षम नेतृत्व में करारा जवाब देने वाली सेना को स्वतंत्रता प्रदान करने वाले दल के रूप में भाजपा को स्थापित करने में सफल रहे हैं। 

निखिल वागले की दुनिया में इंदिरा ‘कार्टून प्रेमी’, लगा डिजिटल लप्पड़, आए होश में

इतिहास- हमने वही पढ़ा, जो हमें बताया गया। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर इस तरह पेश किया गया, जिसमे दिल्ली के नागरिकों को मार कर नरमुंडों का पहाड़ बनाने वाला अकबर महान निकला और मेवाड़ की आज़ादी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले महाराणा प्रताप के बारे में विस्तार से नहीं बताया गया। इतिहास की पुस्तकों में इंदिरा गाँधी लोकतंत्र की देवी कहलाई जबकि अडवाणी की रथ-यात्रा रोक कर उन्हें गिरफ़्तार कराने वाले लालू यादव पोस्टर बॉय बन कर उभरे। देशद्रोह के तहत गिरफ्तारियाँ यूपीए सरकार में हुई लेकिन तानाशाह नरेंद्र मोदी को कहा गया। इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर नैरेटिव उसी हिसाब से तैयार किया गया, जैसा वामपंथी गैंग चाहता था।

अब समय आ गया है, जब ऐसे कुटिल प्रयासों के पोल खुलते जा रहे हैं। अब सोशल मीडिया का ज़माना है। पुराने दस्तावेज से लेकर अख़बार तक- सभी डिजिटल हो चुके हैं और हमसे एक क्लिक की दूरी पर ही रहते हैं। आज पत्रकारों और लिबरल्स का वो गिरोह काफ़ी असहाय महसूस कर रहा है, जिसके वैचारिक पूर्वजों ने इतनी मेहनत से इस प्रकार का नैरेटिव तैयार किया था। उन्हें अपने पूर्वजों के प्रोपगैंडा-परस्ती की विरासत को आगे लेकर जाना है। आपातकाल को लोकतंत्र का महापर्व साबित करना है और कार्यकर्ताओं व कैडर आधारित पार्टी को अलोकतांत्रिक बताना है। लेकिन, इस क्रम में धीरे-धीरे उनकी पोल खुलती जा रही है।

‘वागले की दुनिया’ और परियों की कहानी

निखिल वागले जाने-माने पत्रकार हैं। कई प्रमुख मीडिया संस्थानों में अहम पद संभाल चुके हैं। उनका इतिहास काफ़ी ख़राब रहा है। एक बार उन्होंने शिवसेना पर उन पर हमला करने का आरोप लगाया था। जब उनसे पूछा गया कि उन्हें कैसे पता कि वे शिवसेना के लोग थे, तो उन्होंने कहा था कि उनके द्वारा लगाए जा रहे नारों से उन्हें यह पता चला। वो अलग बात है कि अदालत में वो एफआईआर में कही गई अधिकतर बातों से मुकर गए। पहले ख़ुद पर जानलेवा हमला होने का दावा करने वाले वागले ने अदालत में कहा कि उनके साथ कोई बुरा व्यवहार नहीं किया गया था। ख़ैर, वागले की दुनिया में इधर एक और हलचल हुई।

वागले की दुनिया में एक प्रधानमंत्री थी, जिसे कार्टून बहुत पसंद था। इतना पसंद था कि उनके कारण देश के सबसे बड़े कार्टूनिस्ट को देश छोड़ कर जाना पड़ा था। वागले की दुनिया मनोरंजक है, काल्पनिक है, रोचक है, वास्तविकता से उनका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन वागले वास्तविक हैं, अतः उन्होंने अपनी कल्पना को वास्तविकता में बदल पर प्रोपगैंडा वाली फसल बोने की सोची। फसल अभी अंकुरित भी नहीं हुआ था, तभी एक अन्य कार्टूनिस्ट ने उसे रौंद डाला। तो पूरे घटनाक्रम को ‘वागले की बेइज्जती’ नाम देकर इसका विवरण शुरू करते हैं।

वागले ने अपने ट्वीट में लिखा- “आज की परिस्थितियों पर मैं रोज काफ़ी अच्छे कार्टून देखता हूँ। इंदिरा गाँधी को आरके लक्ष्मण के कार्टून्स काफ़ी पसंद थे। उन्होंने आपातकाल के दौरान लक्ष्मण के कार्टून्स से सेंसरशिप हटा दिया था। क्या कोई मुझे यह बता सकता है कि मोदी का कार्टून्स के प्रति क्या प्रतिक्रया रहती है?” हालाँकि, अगर वागले सच में पत्रकार होते तो शायद उन्हें याद होता कि दिसंबर 2018 में पीएम मोदी ने आरके लक्ष्मण पर ‘टाइमलेस लक्ष्मण’ नामक कॉफी टेबल बुक के लॉन्चिंग प्रोग्राम के दौरान क्या कहा था?

उस मौके पर नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र के किसी विश्वविद्यालय को कार्टून्स के द्वारा पिछले चार-पाँच दशकों के राजनीतिक परिदृश्य का अध्ययन करने की सलाह दी थी। उन्होंने लक्ष्मण के कार्टून को ‘सामाजिक विज्ञान’ पढ़ाने का सबसे आसान तरीका बताया था। बकौल मोदी, कार्टूनिस्ट्स भगवान के काफ़ी नज़दीक होते हैं क्योंकि वे विभिन्न इंसानों के चरित्रों को बारीकी से देख सकते हैं। मोदी के अनुसार, लक्ष्मण के कार्टून्स ने उन पर गहरी छाप छोड़ी। इसके अलावा मोदी ट्विटर पर भी अक्सर किसी के बनाए हुए कार्टून्स की प्रशंसा करते दिख जाते हैं। लेकिन, वागले की दुनिया में वास्तविकता के लिए कोई जगह नहीं है।

इसके बाद कार्टूनिस्ट मंजुल ने वागले को जवाब देते हुए कहा- “नहीं, इंदिरा ने ऐसा नहीं किया। लक्ष्मण को देश छोड़ना पड़ा था। वे तभी लौट पाए जब चुनाव की घोषणा हुई। जहाँ तक मोदी का सवाल है, उनके समर्थकों का मानना है कि वे अपने पर बने कार्टून्स को काफ़ी एन्जॉय करते हैं लेकिन कई संपादक ऐसे कार्टून्स को प्रकाशित करने से बचते हैं।” इसके बाद वागले ने इंदिरा गाँधी के बारे में मंजुल द्वारा कही गई बातों को झूठ करार देते हुए बताया कि इंदिरा ने लक्ष्मण से कहा था- “आपका जैसे मन करे वैसे कार्टून्स बनाओ।” बकौल वागले, लक्ष्मण ने ख़ुद ऐसा कहा था।

आरके लक्ष्मण और इंदिरा गाँधी

वागले को वापस वास्तविकता का एहसास दिलाते हुए मंजुल ने आरके लक्ष्मण द्वारा लिखी गई पुस्तक का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि कि लक्ष्मण काफ़ी हताश थे और यहाँ तक कि अपना प्रोफेशन बदलने की भी सोच रहे थे। इसके बाद मंजुल ने आरके लक्ष्मण के एक इंटरव्यू का हवाला देकर वागले की बोलती बंद कर दी। चर्चा में झूठा साबित होने के बाद वागले ने वही किया, जो गिरोह विशेष के पत्रकारों का धंधा ही है। उन्होंने इसे ‘मंजुल वर्जन की कहानी’ बता कर जनता से इस बाबत राय माँगनी शुरू कर दी। फिर मंजुल ने उन्हें चुप कराते हुए कहा कि ये उनका वर्जन नहीं है बल्कि सत्य है, जिसे कोई भी चेक कर सकता है।

निखिल वागले के पास जब कोई चारा नहीं बचा तो उन्होंने ख़ुद को इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का आलोचक बता कर इतिश्री कर ली। आगे बढ़ने से पहले जान लेते हैं कि मनीलाइफ को दिए गए इंटरव्यू में स्वयं आरके लक्ष्मण ने क्या कहा था? उन्होंने उस इंटरव्यू में बताया था कि आपातकाल के दौरान उनके और इंदिरा गाँधी के बीच समस्याएँ थी। जब उनसे पूछा गया कि आख़िर हुआ क्या था तो उन्होंने बताया कि उन्होंने डीके बरुआ पर एक कार्टून बनाया था, जिस से इंदिरा नाराज हो गई थीं। बरुआ ने ही कहा था- “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया”। इंदिरा ने उस कार्टून को ‘बहुत अपमानजनक’ बताया था।

आरके लक्ष्मण ने इंदिरा गाँधी को कहा कि कार्टून्स उपहास और अपमान करने की ही कला है। इस बार पर इंदिरा ने उन्हें चेतावनी दी कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। अप्रैल 2010 में प्रकाशित इस इंटरव्यू में आरके लक्ष्मण ने बताया था कि वे इंदिरा के पास निवेदन लेकर पहुँचे थे कि उन्हें कार्टून बनाने से न रोका जाए लेकिन इंदिरा ने सबके लिए सामान क़ानून की बात कह उनके निवेदन को ठुकरा दिया था। इसके बाद हताश लक्ष्मण मारीशस चले गए। वे तभी लौटे जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई और उन्हें पता चला कि इंदिरा गाँधी की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं है। इंदिरा गाँधी के चुनाव हारते ही लक्ष्मण अपने काम पर लग गए।

आरके लक्ष्मण ने इस इंटरव्यू में यहाँ तक कहा कि उसके बाद उन्होंने पूरे आपातकाल के दौरान कोई कार्टून नहीं बनाया। अगर वागले आरके लक्ष्मण के इस इंटरव्यू और मोदी द्वारा कही गई बातों को पढ़ लेते तो शायद उनकी बेइज्जती नहीं होती। लेकिन अफ़सोस, बिना अध्ययन के अपने नायक व नायिकाओं को सही साबित करने के चक्कर में अक्सर पत्रकारों के इस गिरोह विशेष को लताड़ लगती रहती है। उनके लिए यह सब नया नहीं है। आज सोशल मीडिया के इस युग में परत दर परत उनके कुटिल कारनामों की सूची का पर्दाफाश होता जा रहा है और आम जनों को इनकी सच्चाई पता चल रही है। तो यही थी, वागले की दुनिया- वास्तविकता से परे, परियों की दुनिया।

19 मुस्लिम देशों में महिलाओं की स्थिति दयनीय, Pak भी है लिस्ट में: विश्व बैंक की रिपोर्ट

महिलाओं की स्थिति और अधिकार को लेकर काफी समय से बातें चल रही हैं और साथ ही दावा भी किया जा रहा है कि अब महिलाएँ पुरूषों के बराबर हैं। मगर क्या वाकई में ऐसा है? क्या सच में महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार मिल रहा है? क्या वाकई में महिलाएँ पुरूषों की तरह स्वतंत्र है? इसका जवाब है- शायद नहीं।

महिला सशक्तिकरण और महिलाओं के पूर्ण अधिकार की बात तो हमारा समाज काफी समय से करता आ रहा है। मगर सच्चाई तो यही है कि महिलाओं को आज भी पूर्ण अधिकार नहीं मिले हैं। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि दुनिया में सिर्फ छह ऐसे देश हैं, जहाँ महिलाओं को पूर्ण अधिकार मिला है। ऐसा विश्व बैंक की रिपोर्ट ‘वूमेन, बिजनेस एंड द लॉ 2019’ (Women, Business and the Law 2019) में कहा गया है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, लताविया, लक्समबर्ग और स्वीडन ऐसे देश हैं, जहाँ महिलाओं को पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस रिपोर्ट को देखकर ऐसा लगता है कि विश्व में लैंगिक समानता तो बढ़ रही है, मगर उसकी रफ्तार काफी धीमी है। ये अध्ययन इसलिए किया जाता है ताकि ये दिखाया जा सके कि कैसे कानूनी अड़चनें महिला रोजगार और महिला उद्यमिता की राह में रोड़ा बनी हुई हैं। इस वजह से उन्हें अपने करियर में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद उन्हें समान अवसर नहीं मिल पाते हैं।

लैंगिक समानता को लेकर किए गए अध्ययन में पूरी दुनिया का औसत 74.71 है। इसका मतलब यह है कि विश्वभर में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले मात्र 75 प्रतिशत अधिकार ही प्राप्त हैं। इसके विपरीत मिडिल ईस्ट और अफ्रीकी देशों को विश्व बैंक के अध्ययन में औसत 47.37 अंक ही हासिल हुए हैं। मतलब इस क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले आधे से भी कम अधिकार प्राप्त हैं।

इस्लामिक देशों में हालात और बदतर

मीडिया में आई आम रिपोर्टों के अलावा विश्व बैंक की रिपोर्ट ‘वूमेन, बिजनेस एंड द लॉ 2019’ के डेटा को जब और खंगाला गया तो आश्चर्यजनक आँकड़े मिले। 36 पेजों के पीडीएफ में पेज नंबर 24 से पेज 30 तक हर एक देश का वहाँ की महिलाओं से संबंधित 8 आँकड़े दिए गए हैं। सबसे आखिरी कॉलम में महिलाओं की स्थिति का औसत दिया गया है। जिन देशों का औसत इस मामले में 50 से कम है, हमने उसे एक जगह किया है। आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि 21 देशों में महिला अधिकारों का औसत 50 से कम है। आपका आश्चर्य तब और बढ़ जाएगा जब इन 21 देशों में आप 19 ऐसे देशों को देखेंगे जो मुस्लिम देश हैं।

ये विश्लेषण महिलाओं के कहीं जाने, महिलाओं के नौकरी शुरू करने, वेतन मिलने, शादी करने, बच्चे पैदा करने, व्यवसाय चलाने, संपत्ति प्रबंधन और पेंशन प्राप्त करने के आधार पर किया गया है। हैरानी की बात तो ये भी है कि अध्ययन के दौरान ज्यादातर महिलाओं ने कुछ सवालों पर चुप्पी साध ली, जैसे- क्या उन्हें पुरुषों की तरह घर से बाहर आने-जाने अथवा यात्रा करने की आजादी है? और क्या उनके यहाँ का कानून वास्तव में घरेलू हिंसा से उनकी रक्षा करता है? महिलाओं की ये चुप्पी साफ दर्शाती है कि उन्हें इस तरह की आजादी बिल्कुल भी प्राप्त नहीं है।

आमतौर जब हम महिला अधिकारों के बारे में बात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि विकसित देशों में महिलाओं को पुरूष के बराबर कानूनी अधिकार प्राप्त हैं, मगर ये सच नहीं है। बता दें कि अमेरिका को इस रिपोर्ट में 83.75 अंक दिया गया है। वहीं यूनाइटेड किंगडम को 97.5, जर्मनी को 91.88 और ऑस्ट्रेलिया को 96.88 अंक प्राप्त हुए हैं। अमेरिका तो लैंगिक समानता वाले टॉप 50 देशों में भी शामिल नहीं है।

आपको बता दें कि विश्व बैंक द्वारा लैंगिक समानता का ये अध्ययन भारत समेत 187 देशों में किया गया। जिसमें कई देश समान अंक पाने की वजह से एक ही पायदान पर हैं। अब बात अगर भारतीय उपमहाद्वीप की बात की जाए तो यहां पर पाकिस्तान की स्थिति सबसे खराब और दयनीय है। पाकिस्तान को महज 46.25 अंक मिला है। इस महाद्वीप में मालदीव 73.75 अंकों के साथ सबसे ऊपर (वैश्विक स्तर पर 33वें पायदान पर) है तो वहीं भारत 71.25 अंकों के साथ दूसरे नंबर (वैश्विक स्तर पर 37वें स्थान) पर है।

बरेली: वसीम ने महाशिवरात्रि पूजा के दौरान उखाड़ डाला टेंट, रोकनी पड़ी पूजा

बरेली के फतेहगंज में महाशिवरात्रि पूजा के दौरान सांप्रदायिक तनाव भड़क गया। ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, फतेहगंज पश्चिमी में पुलिस चौकी के बगल में स्थित ब्रह्मदेव महाराज धर्मस्थल पर महाशिवरात्रि की वार्षिक पूजा चल रही थी। तभी वसीम ने आकर टेंट उखाड़ डाला, जिसके बाद इलाक़े में तनाव फैल गया। सूचना मिलते ही पुलिस घटनास्थल पर पहुँची, जिसके बाद अनुष्ठान फिर से शुरू हो सका। पंचायत की बैठक बुलाने के बाद पूजा समिति धीमी आवाज पर माइक बजाने के लिए तैयार हो गई, जिसके बाद सब कुछ सामान्य हो सका।

दरअसल, उक्त मंदिर में भगवन शिव की बहुत पुरानी प्रतिमा है। यहाँ प्रत्येक वर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। सोमवार (मार्च 4, 2019) को इसी मौके पर भारतीय हिंदू महासभा के जिलाध्यक्ष सूरज राठौर और उनके साथी अंकित शर्मा इत्यादि ने भजन-कीर्तन का आयोजन किया था। इसके बाद प्रसाद वितरण का भी कार्यक्रम तय किया गया था। तभी मंदिर के पीछे से कय्यूम सेठ का बेटा वसीम अपने साथियों के साथ आ धमका और उसने पूजा-पाठ कर रहे लोगों पर हल्ला करने का आरोप मढ़ा।

उसने आयोजकों से टेंट हटाने और पूजा रोकने को कहा। आयोजकों ने पुरानी परंपरा का हवाला देते हुए टेंट हटाने से मना कर दिया। इसके बाद गुस्साए वसीम ने ख़ुद टेंट उखाड़ डाला। इलाक़े में जैसे ही वसीम द्वारा महाशिवरात्रि पूजा बाधित करने की ख़बर पहुँची, सैंकड़ों लोग घटनास्थल पर जमा हो गए और प्रदर्शन करने लगे। युवा भाजपा नेता व उत्तर प्रदेश प्रांतीय उद्योग व्यापार समिति के नगर अध्यक्ष आशीष अग्रवाल, भाजपा मंडल अध्यक्ष अजय सक्सेना, सुचित अग्रवाल, सत्यप्रकाश अग्रवाल समेत कई नेतागण घटनास्थल पर पहुँचे और मामले की जानकारी ली।

थाना प्रभारी राजकुमार तिवारी ने भीड़ को समझा-बुझा कर शांत कराया। पूरी पुलिस फोर्स के साथ पहुँचे थानाध्यक्ष को इसके लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। दोनों पक्षों को चौकी पर बुला कर सुलह करवाई गई। भाजपा नेताओं की उपस्थिति में यह तय किया गया कि धीमी आवाज में कीर्तन होगा और प्रसाद वगैरह का वितरण किया जाएगा। इसके बाद टेंट को फिर से लगा कर पूजा-पाठ शुरू किया गया। विवाद शांत कराने में भाजपा नेताओं व व्यापारियों ने अहम भूमिका निभाई। ताज़ा सूचना मिलने तक विवाद ख़त्म हो चुका था।

हम 2, हमारे 3: जैन समुदाय जनसंख्या वृद्धि वाले संकल्प की पड़ताल

जैन समुदाय ने अपनी घटती आबादी को मद्देनज़र रखते हुए ‘हम दो, हमारे तीन’ का संकल्प लिया है। दिगंबर जैन की उच्चतम संस्था दिगंबर जैन महासमिति ने पिछले सप्ताह इंदौर में आयोजित एक कार्यक्रम में जैन जोड़ों को दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह दी। समिति ने ऐसे जोड़ों को वित्तीय रियायतें देने की भी घोषणा की। समिति ने जैन जोड़ों के बीच तलाक़ को रोकने के लिए परामर्श-सेवा (Counselling) का भी ऐलान किया। समिति ने कहा कि जैन जोड़ों को इस बारे में सोचने की ज़रूरत है क्योंकि उनके तीसरे बच्चे की शिक्षा का पूरा ख़र्च समिति ही उठाएगी। इस बारे में अतिरिक्त जानकारी देते हुए समिति के अध्यक्ष अशोक बड़जात्या ने कहा:

“ऐसे कई कारण हैं जिसकी वजह से जोड़े एक से ज़्यादा बच्चे पैदा नहीं करना चाहते। वित्तीय समस्या इनमें से एक कारण है। एक समुदाय के रूप में हम इसकी जिम्मेदारी ले सकते हैं, ताकि वे ज्यादा बच्चे पैदा कर सकें। समुदाय के सदस्य इस मुद्दे पर योजना तैयार करने के लिए जल्द ही साथ आएँगे और धन जमा करेंगे।”

फिलहाल ये योजना जैन धर्म के दिगंबर समुदाय तक ही सीमित है लेकिन इसे जल्द ही श्वेताम्बर समुदाय तक भी ले जाया जाएगा। जैन समुदाय का मानना है कि जैन धर्म सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है और इस समुदाय का संख्या में कम होना चिंता का विषय है। युवा जोड़ों के लिए काउंसलिंग और वर्कशॉप की व्यवस्था की जा रही है ताकि तलाक़ के मामले कम से कम हों। अब चर्चा इस बात पर कि क्या जैन समुदाय का यह कदम वाज़िब है या फिर यह एक गलत चलन को बढ़ावा दे रहा है? सम्यक ज्ञान की परिभाषा देने वाले इस धर्म के भीतर हमेशा से जिम्मेदारी की भावना रही है- देश के प्रति, मानवता के प्रति, जीवों के प्रति।

जैन धर्म, जनसंख्या और अल्पसंख्यक

यह सही है कि जैन धर्म सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। भारत की जनसंख्या का 0.4% हिस्सा जैन है। यह बाकी अल्पसंख्यकों के मुक़ाबले काफ़ी कम है। देश में क़रीब 15% मुस्लिम हैं लेकिन उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है। इस बारे में हम चर्चा कर चुके हैं कि कैसे कई भारतीय राज्यों में बहुसंख्यक या प्रभावी होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यकों वाली योजनाओं का लाभ उठा रहा है। भारत में 6 प्रमुख धार्मिक समुदायों में जैन समुदाय की जनसंख्या सबसे कम है। कुल मिला कर देखें तो इनकी जनसंख्या 45 लाख के क़रीब है।

अब सवाल यह उठता है कि दिगंबर जैन समुदाय की सर्वोच्च संस्था जो संकल्प ले रही है, वो तार्किक है क्या? भारत में जैन, सिख, पारसी – ये सभी समुदाय अल्पसंख्यक हैं लेकिन राष्ट्र-निर्माण में इन सभी का योगदान काफ़ी प्रभावी रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि जैन समुदाय की लगभग 80% आबादी शहरों में रहती है। उनकी आबादी का तीसरा हिस्सा देश के सबसे अमीर राज्यों में से एक महाराष्ट्र में रहता है। इन सबका अर्थ यह निकलता है कि साक्षरता के मामले में ये अव्वल हैं। एक चौथाई जैन स्नातक हैं- ये इस बात की तस्दीक़ करता है।

क्या ऐसे शिक्षित, विकसित और शहरी समाज को किसी और से सीखना होगा कि उन्हें कितने बच्चे पैदा करने हैं और क्यों? ये निर्णय लेने में स्वयं सक्षम हैं। भारत में किसी भी धर्म के एक चौथाई लोग ग्रेजुएट नहीं हैं। ऐसे में, एक शिक्षित समुदाय के बीच इस तरह का चलन शोभा नहीं देता। अगर आँकड़ों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले पाँच दशकों में जैन समुदाय की जनसंख्या दोगुनी हुई। तब भी जैन समिति के बीच इस तरह की बेचैनी का कोई कारण नहीं बनता। जैन धर्म भगवन महावीर से जन्मा है, ये अनंतकाल तक धरती पर मौजूद रहेगा।

जैन धर्म की जनसंख्या वृद्धि की ओर है (साभार: International School For Jain Studies, New Delhi)

हाँ, यह सही है कि फर्टिलिटी दर (1.2) के मामले में जैन समुदाय हिन्दू (2.13) और मुस्लिम (2.6) से काफ़ी पीछे है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं बनता कि सरकारी सलाह और सामाजिक जागरूकता को ताक पर रख दिया जाए। जिस भी समुदाय ने जागरूकता के बजाय जनसंख्या को महत्व दिया, आँकड़े गवाह हैं कि वे आज गरीबी-अशिक्षा-बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।

शिक्षित जैन समुदाय को अजीबोगरीब कदम उठाने की शायद जरूरत नहीं (साभार: ISJS)

जैन समुदाय के अंदर सर्वाइवल रेट (0.93) सबसे ज्यादा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि बेहतर स्वस्थ सुविधाओं तक उनकी पहुँच है और उनका खानपान अच्छा है। फिर भी इस तरह की बचकानी सलाहों का आना दुःखद है। ऊपर आप 1961-2011 का ग्राफ देख सकते हैं, जिसमें दिखाया गया है कि कैसे जैन समुदाय की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। हरे रंग में शहरी जैन जनसंख्या को दर्शाया गया है जबकि लाल रंग में ग्रामीण को। दोनों के बीच लगातार बढ़ता हुआ गैप यह बताता बताता है कि बढ़ते समय के साथ जैन जनसंख्या तेजी से शहरों की तरफ शिफ्ट हो रही है। हमारे देश में पारसियों की जनसंख्या सिर्फ़ 0.006% ही है। लेकिन क्या इस तर्क के हिसाब से उन्हें प्रति परिवार 10 बच्चे पैदा करने का संकल्प लेना चाहिए?

समुदाय की सोचना सही है, पर देश की भी तो सोचें

सभी धर्मों और उनकी संस्थाओं को अपने समुदाय के हितों के बारे में सोचने और योजना तैयार करने का पूरा अधिकार है लेकिन इसके लिए भरत सरकार की सलाह और देश में जनसंख्या की बढ़ती समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भारत में रह रहा जैन समुदाय भी इसी देश का हिस्सा है। लेकिन जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है, ऐसे में इस प्रकार का संकल्प संकीर्ण सोच का परिचायक है। आज हमारा देश जब ‘वन नेशन- वन कार्ड’ की तरफ बढ़ रहा है, हमें ‘वन कपल-वन चाइल्ड’ वाली नीति की सम्भावना के बारे में बात करनी चाहिए, न कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के बारे में।

कुछ महीनों पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने राज्य के लोगों को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अजीबोगरीब सलाह दी थी। अगर मुख्यमंत्री अपने राज्य की जनसंख्या बढ़ाने में लग जाएँ, धार्मिक संस्थाएँ अपने समुदाय की जनसंख्या बढ़ाने में लग जाएँ तो फिर देश की कौन सोचेगा? जैन धर्म के नीति-नियंताओं से आग्रह किया जाना चाहिए कि इस प्राचीन और अद्वितीय धार्मिक व्यवस्था को संकीर्ण सोच से छोटा मत बनाइए। परिवार और परिवार के साइज को समुदाय के लोगों के विवेक पर छोड़ दीजिए। वे शिक्षित हैं, युवा हैं और उन्हें इस तरह की सलाह की ज़रूरत नहीं। याद रखें कि जैन समुदाय (या कोई भी धर्म, सम्प्रदाय) इंसानों से बना है, यह कोई विशिष्ट प्रजाति नहीं जो विलुप्त हो जाए।

(जैन धर्म से जुड़े सभी आँकड़ें ‘International School Of Jain Studies’ के आधिकारिक वेबसाइट से लिए गए हैं।)

एयर स्ट्राइक का सबूत माँगता लिबटार्ड गिरोह, महाशिवरात्रि पर दूध चढ़ाने का विरोध करना भूला

हालिया इतिहास में यह पहली बार हुआ कि होली में वीर्य और पीरियड्स के ख़ून से भरे ग़ुब्बारों, दीवाली पर ओज़ोन लेयर बेधने और बृहस्पति ग्रह के वातावरण तक में गैस भरने वाले हिन्दू पटाखों, दुर्गापूजा की मूर्तियों द्वारा ‘इंटरस्टेलर’ फिल्म में पानी वाले ग्रह के समुद्र में मैथ्यू मकानहे के रोबोट के पैरों को लगभग फँसा लेने की बातों का विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों के गिरोह ने महाशिवरात्रि के दौरान करोड़ों लीटर दूध के ‘बेकार चले जाने’ और भारत की गरीबी पर बात नहीं की।

इससे राष्ट्रवादियों में बहुत क्षोभ है। उन्होंने शाब्दिक असला-बारूद तैयार रखा था कि इन छद्म-बुद्धिजीवियों, लिबटार्डों और हिन्दू-विरोधी ताक़तों द्वारा एक भी विरोध की बात लिखी जाए, और उन पर डिजिटल धावा बोला जाए। लेकिन एयर स्ट्राइक के गलत समय पर होने के कारण लिबटार्ड गिरोह के गुर्गों को इधर सोचने का मौका ही नहीं मिला।

सुप्त सूत्रों से पता चला है कि आज सुबह जब लिबटार्ड गिरोह और पत्रकारिता के समुदाय विशेष के व्हाट्सएप्प चांसलर ने कैलेंडर का स्क्रीनशॉट भेजकर ग्रुप में इसकी जानकारी दी तो एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल गया। व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी चांसलर श्री रबिश जी ने नाराजदीप, एक्स-वाई चौक, लल्लनडाउन, स्कूपपूप, द स्प्रिंट, द डोन्ट थिंक, द एगरोल आदि के सम्मानित सदस्यों से उनके द्वारा ‘भारत की गरीबी के परिप्रेक्ष्य में हिन्दू पर्वों की आड़ में सामंतवादी और फासिस्ट सवर्णों द्वारा दूध की बर्बादी’ पर लिखे गए लेखों का विवरण माँगा।

ज़ाहिर है कि किसी ने लेख लिखने की ज़हमत नहीं उठाई थी। लल्लनडाउन ने आर्काइव से उठाकर एक लिंक दिया, जिस पर रबिश ने कहा, ‘चचा मुर्गा बन जाइए’। लल्लनडाउन के कर्मचारी को रबिश ने उनके हाल ही के दुष्कृत्य के लिए भी आड़े हाथों लिया जब उन्होंने स्मार्टीपैन्ट्स बनते हुए विंग कमांडर अभिनंदन के परिवार वालों की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी जिसे बाद में उन्हें हटाना पड़ा था। 

हालाँकि, दूध की बर्बादी पर न लिख पाने का कारण गिरोह के सदस्यों ने बार-बार याद दिलाया कि एयर स्ट्राइक का सबूत अभी तक जारी नहीं हुआ है, और उनके अथक प्रयासों के बावजूद देश यह मानने को तैयार नहीं है कि हमारी सेना के लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के देवदार के पेड़ उखाड़े, और कुछ नहीं। इस दलाली को रबिश ने आधे मिनट में ख़ारिज कर दिया और कहा कि तमाम सदस्यों को दिग्विजय सिंह और नवजात सिद्धू से सीखने की ज़रूरत है कि आसानी से फ़ौज की बड़ाई करते हुए, चुपके से यह कह दिया जाए, “अगर मारा है तो सबूत देने में क्या हर्ज है?”

जब तक ये सवाल जवाब चल रहा था तब तक ‘द एगरोल’ के पत्रकार ने ग्रुप में ही एक आर्टिकल लिखकर डाल दिया, ‘सेना के जवानों को नहीं मिलता है दूध, देश में करोड़ों लीटर दूध बहा दिए जाते हैं पत्थरों पर’। इस पर उसे ग्रुप के बाकी सदस्य जहाँ वाहवाही दे रहे थे, वहीं नाराजदीप नाख़ुश दिखे। उन्होंने कहा, “इसमें सेक्स वाला एंगल है ही नहीं जबकि ‘लिंग’ की पूजा होती है।” 

तब तक स्कूपपूप ने एक आर्टिकल का ड्राफ़्ट ग्रुप में डाला, “आठ सबूत कि भारतीय हिन्दू सेक्सुअल परवर्ट हैं।” इस आर्टिकल के तीन स्लाइड के बाद किसी ने पढ़ने की कोशिश नहीं की। लल्लनडाउन ने इसी बीच कहा कि स्कूपपूप उनका कालजयी आर्टिकल ‘हिटलर का लिंग था छोटा’ अपने रिलेटेड आर्टिकल्स में डाल सकता है। इस पर किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

पत्रकारिता के विद्यार्थियों को बताया जाएगा कि हाशमी दवाखाना को जर्नलिज़्म में ऐसे ही लाते हैं

आगे व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी चांसलर श्री रबिश ने सुनाया, “अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत!” ये बात उन्होंने अपना आवाज़ में रिकॉर्ड कर ग्रुप में डाली थी ताकि इम्पैक्ट ज़्यादा पड़े लेकिन आधे घंटे तक किसी ने सुना ही नहीं तो उन्हें गुस्सा आ गया, “अरे, अब क्या कर रहे हो? एक दिन बाद अब लेकर आ रहे हो आर्टिकल? इससे कैसे होगा हंगामा? कैसे फैलाएँगे हम हिन्दुओं के खिलाफ ज़हर? यही तरीक़ा है माओवंशियों की पत्रकारिता का?”

इस पर लल्लनडाउन के सबसे घाघ पत्रकार ने कहा, “हें हें हें…”

“देखो दूबे, ये ठीक बात नहीं है। इसको कॉपी करने की रॉयल्टी लगती है, पेटेंट है मेरा!” रबिश ने याद दिलाया कि उनकी आइकॉनिक हँसी पर कॉपीराइट है। 

“अरे सर, हम तो बस यही कह रहे थे कि अभी अमेरिका में तो महाशिवरात्रि शुरू ही हो रही होगी। चला देते हैं आर्टिकल। हमारा जाल तो कितना फैला है आपको पता ही है। ग़रीबों के गोविन्दा से कहते हैं कि वाशिंगटन पोस्ट में गरीबी का एंगल लेकर लिख दे। अभी उन्होंने सबरीमाला पर भी धूर्तता, आई मीन बुद्धिमानी की थी।” लल्लनडाउन के प्रधान लम्पट ने कहा। 

“अंग्रेज़ी के अख़बारों में आ जाए तो इसे हम ग्लोबल पोवर्टी और मोदी से सीधा जोड़ सकते हैं कि मोदी ने जिस तरह से ‘हिन्दू आइडेंटिटी’ को जगाया है, और जिस तरह से ‘मिलिटेंट हिन्दुइज्म’ और ‘अल्ट्रा नेशनलिज्म’ की बातें हो रही हैं, उससे वो लोग भी शिवलिंग पर दूध चढ़ाने लगे हैं जो पहले घरों में अपने काम से मतलब रखते थे।” नाराजदीप ने एंगल दिया।

“यस… एग्जेक्टली। फिर मैं ना, वो ना, लिख दूँगी ना, कि ना… लोगों में अपने आप को ज़्यादा हिन्दू बताने का प्रेशर आ रहा है क्योंकि अगर वो मंदिर नहीं जाते हैं तो उनका सामाजिक बायकॉट होता है। फिर हम इंडिया स्पैंड का फर्जी डेटा डाल देंगे कि साम्प्रदायिक अपराध बढ़ रहे हैं। हम इसको सीधा इससे जोड़ सकते हैं कि मोदी और योगी जैसे नेताओं के आने से भारत में गरीबी बढ़ी है। हम बस लिख देंगे, इसका डेटा देने की भी ज़रूरत नहीं है क्योंकि पश्चिम वाले तो वैसे भी हमें गरीब ही मानते हैं। इसी का रोना रोकर तो मुझे लिखने का काम मिला। जो ही दो हज़ार देते हैं, एक आर्टिकल का, लेकिन मैं विचारधारा के लिए दृढ़संकल्प होकर काम कर रही हूँ।” ग़रीबों के गोविन्दा ने स्माइली भेजकर अपनी बात को विराम दिया।

रबिश ने इस बात का अनुमोदन किया और ‘द डोन्ट थिंक’, ‘द लायर’ और ‘द स्प्रिंट’ वालों को डाँट लगाई कि वो लोग भी कुछ कर लें। इस पर मिलिट्री मामलों के फर्जी जानकार शेखर कूप्ता ने कहा कि वो अपनी टीम से फोटोशॉप पर एयर स्ट्राइक के एरिया की ‘सैटेलाइट तस्वीरें’ बनवा रहे हैं। उसमें उन्होंने कहा कि जहाँ जैश का कैम्प था, उससे कहीं दूर जंगलों में बम गिरने से टूटे पेड़ों को दिखा देंगे ताकि पाकिस्तान की बात सच लगे। 

हमें यह जानकारी पतंजलि का विज्ञापन पाने वाले ‘प्राइम टाइम’ के प्रोड्यूसर से मिली जिन्हें हमने दस रुपया प्रति चैट स्क्रीनशॉट की दर से देने का वायदा किया। जिस तरह से उनके टीवी को लगातार घाटा हो रहा है, उन्होंने इस ऑफ़र को सहर्ष स्वीकार किया और रियल टाइम में स्क्रीनशॉट हम तक पहुँचाते रहे। 

वहीं, हमने इसी मसले पर कई राष्ट्रवादियों से बात की तो उनमें से एक ने बताया, “हमने तो काउंटर आर्टिकल तैयार रखा था कि शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का वैज्ञानिक कारण यह है कि पत्थर को सदियों तक उसके आकार में बचाए रखने के लिए वसा की ज़रूरत होती है, जो कि दूध, घी, या शहद आदि से पूरी होती है। लेकिन पूरे दिन आर्टिकल न आने से हमें दुःख हुआ है। फिर भी, हम इन लम्पटों की आदत जानते हैं, ये आएँगे ज़रूर। हम ने इसे अलग फ़ोल्डर में रख लिया है।”

दूसरे राष्ट्रवादी ने कहा कि उन्हें ऑपइंडिया की टीम पर भरोसा था कि वो इनके बैलून को पंक्चर करके तसल्लीबख्श करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे अतः उन्होंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।