Thursday, November 7, 2024
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गाय संबंधी हिंसा पर शशि थरूर के झूठ का पर्दाफ़ाश, ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी ने लिया था इंटरव्यू

कॉन्ग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता शशि थरूर के अपने नये साल की शुरुआत एक ट्रोल से हुई। इस ट्रोल के पीछे उनका वो साक्षात्कार था जो उन्होंने Gulfnews को दिया। बता दें कि इस साक्षात्कार में वो कुछ ऐसा कह गए जिससे उनके झूठ का पर्दाफ़ाश हो गया।

साल 2015 में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के 57 दिनों के रहस्यमय अवकाश को ‘विपश्यना’ के रूप में संदर्भित करने के अलावा, थरूर को भारत में गाय संबंधी हिंसा के बारे में झूठ बोलते हुए भी पकड़ा गया था।

इंटरव्यू का स्क्रीनशॉट

पत्रकार और आदत से लाचार ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी ने लिया था साक्षात्कार

ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार में शशि थरूर को यह दावा करते पाया गया कि साल 2014 के बाद से स्वतंत्र भारत में गाय के प्रति 97% हिंसा हुई। जिसके लिए इस जानकारी का स्रोत वो गृहमंत्री राजनाथ सिंह के गृह मंत्रालय को मानते थे।

जानकारी के मुताबिक, उन्हें दोनों ही पहलुओं पर झूठ बोलते पाया गया। वास्तव में उनका यह दावा मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित था, जिसके लिए IndiaSpend को दोषी करार दिया गया था, जो हिंदू-विरोधी प्रचार फैलाने के लिए गलत आँकड़ों का इस्तेमाल करनेवाली वेबसाइट है।

‘97%’ से संबंधित यह संदिग्ध डेटा पुलिस रिकॉर्ड को देखकर नहीं, बल्कि कुछ कीवर्ड के साथ Google पर सर्च करने पर संकलित किया गया था! इससे भी बदतर तो यह था कि उन्होंने केवल अंग्रेज़ी भाषा के मीडिया से चिपके रहने का फ़ैसला किया और यह कहते हुए गर्व महसूस किया कि हिंदी मीडिया के माध्यम से एक “सरसरी निगाह” के ज़रिये उन्हीं घटनाओं को दिखाने के लिए “प्रदर्शित” किया गया।

बीबीसी और न्यूयॉर्क टाइम्स को भी मिली फ़र्ज़ी जानकारी

मुख्यधारा की मीडिया द्वारा तीव्र गति से इस फ़ेक न्यूज़ को चर्चित किया गया और जल्द ही बीबीसी एवं न्यूयॉर्क टाइम्स सहित कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों को भी इसकी सूचना दी गई। हमने 2014 के चुनावों से पहले गाय से संबंधित अपराधों की कमी पर IndiaSpend की फ़र्जी रिपोर्ट को व्यवस्थित रूप से ध्वस्त कर दिया था।

थरूर का दूसरा दावा था कि यह जानकारी राजनाथ सिंह के गृह मंत्रालय द्वारा दी गई, जो कि पूरी तरह से ग़लत साबित हुआ। वास्तव में, IndiaSpend की बहुत-सी रिपोर्ट जिसमें इसे विचित्र और तथ्यात्मक रूप से ग़लत दावे का उल्लेख किया गया, गलत ही है क्योंकि गृह मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो गाय संबंधी अपराध रिकॉर्ड एकत्र नहीं करता।

इसलिए, न केवल एक कॉन्ग्रेस नेता (कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा) ने झूठ बोला, बल्कि भ्रम पैदा करने वाले इस आँकड़े को साक्षात्कारकर्ता स्वाति चतुर्वेदी द्वारा ठीक भी नहीं किया गया, जो कि निंदनीय है।

कॉन्ग्रेस के पास BJP को बदनाम करने के अलावा कोई काम नहीं

आपको बता दें कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि जब शशि थरूर या स्वाति चतुर्वेदी द्वारा झूठ बोला गया हो, ये इससे पहले भी ऐसे भ्रामक काम करते रहे हैं।

कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को ढाल देने की अपनी कोशिश में, शशि थरूर ने फ़्रांसीसी राष्ट्रपति के साक्षात्कार के बारे में भी झूठ बोला था। उन्होंने मोदी सरकार पर हमला करने के लिए एक इस्लामवादी वेबसाइट से एक फ़र्जी ख़बर भी साझा की थी।

साहित्यिक चोरी की आरोपित स्वाति चतुर्वेदी नियमित रूप से फ़र्जी ख़बरें फैलाने का काम करती हैं। कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता द्वारा एक के बाद एक इस तरह के झूठे दावे ये साबित करते हैं कि जैसे पार्टी के आलाकमान के पास मोदी सरकार को बदनाम करने के अलावा और कोई काम न हो।

गलत आँकड़ों के ज़रिए ‘IndiaSpend’ कर रहा है पीड़ित मुस्लिमों की संख्या में इज़ाफ़ा

सबसे खतरनाक वो लोग हैं जिनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता है। अपने दोषपूर्ण आँकड़ों और पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग, जिसे कि समय-समय पर एक्सपोज़ किया जा चुका है, IndiaSpend के पास शायद ही कोई विश्वसनीयता बाकी रह गई है। जो कि उन्हें एक खतरनाक एजेंडा फ़ैलाने वाला प्लेटफॉर्म साबित करता है।

अपनी नवीनतम रिपोर्ट में ‘स्वराज्य’ ने उनके ‘भ्रामक और सेलेक्टिव रिपोर्टिंग’ के माध्यम से अपने ‘Hate Crime Watch’ लिस्ट में  पीड़ित मुस्लिमों की संख्या को बढ़ाकर दिखाने के, उनके एक और प्रयास को एक्स्पोज़ किया है।

अक्टूबर 2018 में, दक्षिण दिल्ली में रहने वाले आठ साल के अज़ीम की खेल के मैदान में हाथापाई के दौरान मृत्यु हो गयी थी। ‘लिबरल्स’ ने उसकी मृत्यु को पुलिस के नकारने के बाद भी ‘घृणा-जन्य अपराध’ साबित कर दिया था। इस घटना के एक महीने बाद, उसी स्थान पर एक दूसरी घटना में मस्जिद जाने वाले लोगों ने दावा किया कि लोगों ने उनपर पत्थरबाज़ी की। IndiaSpend के अनुसार यह घृणा-जन्य अपराध है।




इसमें अपराधियों के धर्म का उल्लेख ‘अज्ञात’ (Not Known) के रूप में किया गया है।

सच्चाई IndiaSpend के दावे से बहुत अलग है। स्वराज्य की रिपोर्ट के अनुसार, ऊपर दी गई रिपोर्ट में वर्णित दोनों युगल, मुमताज़ तथा उसकी पत्नी शबाना और लियाक़त तथा उसकी पत्नी सरोज की आपस में लड़ाई हुई और उन्होंने एक-दूसरे को घायल कर दिया। निश्चित है कि यहाँ पर पीड़ित ही अपराधी हैं और अपराधी ही पीड़ित भी हैं। इसे वास्तव में किसी दूसरी तरह से पेश नहीं किया जा सकता है।

हौज़ ख़ास के नज़दीक बेगमपुर में ही दक्षिण दिल्ली का सबसे बड़ा मदरसा स्थित है। यहाँ पर स्थित जामिया फरीदिया और जामा मस्जिद वाल्मीकि समाज की झुग्गियों से घिरी हुई है, जहाँ लगभग वाल्मीकि समाज (अनुसूचित जाति) के 500 परिवार और लगभग 20-25 मुस्लिम परिवार रहते हैं। इसके पास ही एक मैदान है, जिसे लोग सार्वजनिक बताते हैं और मदरसा इसे अपनी जमीन बताता है। इन दोनों समुदायों के बीच तनाव का यह एक प्रमुख कारण है। इस मामले में पुलिस ने हताक्षेप किया और विवादास्पद प्रवेश को स्थायी रूप से  प्रतिबंधित कर दिया गया, साथ ही निवास करने वालों के लिए एक अलग रास्ता बनाया गया।

नवम्बर के आख़िरी सप्ताह में स्थानीय निवासी और मदरसा के मालिकों के बीच एक दूसरा विवाद सामने आया। IndiaSpend ने अपने कहानी बनाने के आदतानुसार, इंस्पेक्टर विजय सिंह के बयान को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से उठाकर अपना विशेष कलेवर दे दिया।

इंस्पेक्टर विजय सिंह ने कहा, “मुमताज़ और उसकी पत्नी शबाना, लियाक़त और उसकी पत्नी सरोज और उसकी बेटियों को कुछ मामूली चोटें आई हैं, और उन्हें अस्पताल पहुँचा दिया गया है। झगड़े की वजह एक आम रास्ता है।” IndiaSpend ने इस घटना से सुविधानुसार चारों को पीड़ित तो बता दिया, लेकिन यह नहीं बताया कि झगड़े की वज़ह एक आम रास्ता है।

स्वराज्य की रिपोर्ट के अनुसार, लियाक़त अली और उसकी पत्नी शबाना (दूसरा नाम सरोज) वाल्मीकि कॉलोनी में रहते हैं। मोहम्मद मुमताज़ मदरसा में शिक्षक और संरक्षक है। मूलरूप से विवाद इन दोनों के बीच का ही है।

वाल्मीकि कॉलोनी के निवासियों के अनुसार, कुछ महिलाएँ निर्माणाधीन नए रास्ते की जानकारी लेने गई थीं। वहाँ पर इन दोनों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया और मदरसा संरक्षक मुमताज़ ने उन पर लाठी से हमला कर दिया। लियाक़त के अनुसार, उसे मोहम्मद मुमताज़ के हाथों से चोट लगी, जब वो महिला और खुदको बचाने के लिए आगे आया। लियाक़त ने कहा, “मुल्ला महिला पर हमला कर रहा था। जब मैंने बीच-बचाव की कोशिश की तो उन्होंने मुझे ये कहकर मारा कि मैं हिन्दुओं के साथ खड़ा रहता हूँ, इसलिए मेरी पिटाई ज़रूर की जानी चाहिए।”

लियाक़त ने आगे कहा कि वो मदरसे के पक्ष में सिर्फ इसलिए खड़ा नहीं हो सकता क्योंकि उनका एक ही धर्म है। उसने कहा कि वो सिर्फ अपने पड़ोसियों और सही लोगों का ही साथ देगा।

लियाक़त ने अपने कथन में आगे कहा कि उसकी पत्नी शबनम भी घटनास्थल पर पहुँची और उसे भी पीटा गया। शबनम ने बताया की उनकी 13 साल की लड़की को भी ज़ख़्मी किया गया।

शबनम उसी कॉलोनी में पली-बढ़ी है और उसका कहना है कि 30 साल पहले ये कुछ परिवारों के लिए ही सिर्फ एक छोटी सी मस्जिद हुआ करती थी। लेकिन समय के साथ इसका अवैध तरीके से एक मदरसे के रूप में विस्तार किया गया, जिसमें 40 कमरे हैं।

वर्तमान में, इस मदरसे का भी अपनी ही अलग स्वरुप है। मुमताज़ और उसका भाई इजाज़ अली, जो कि मदरसे में पढ़ाते हैं और उसका संरक्षण भी करते हैं, का दावा है कि झगड़ा लियाक़त और उसकी पत्नी द्वारा शुरू किया गया था, जिन्होंने उन पर पथराव किया था। मुमताज़ का कहना है कि क्योंकि उन्होंने मुमताज़ को गुंडा और आतंकवादी कहा था, इसीलिए उसने छड़ी उठाई थी (लेकिन किसी पर उससे हमला नहीं किया था)। ये लोग वहाँ पर भड़काने और लड़ने के लिए गए थे, न कि रास्ते का काम देखने।

मुमताज़ ने आगे जोड़ा कि यहाँ पर मस्जिद विवादित जगह पर वाल्मीकि समाज के लोगों के आने से पहले से थी। उसने एक क़ब्रिस्तान भी दिखाया और दावा किया कि पूरी ज़मीन कब्रिस्तान हुआ करती थी और उन्होंने ही बाद में आकर झुग्गियाँ बनाकर जमीन पर अतिक्रमण किया।

दोनों समूह नए रास्ते के तैयार हो जाने के बाद दावा कर रहे हैं कि मामला समाप्त हो गया है। लेकिन जमीन विवाद के थमने के अभी आसार नहीं हैं।

ज़ुबैर, वाल्मीकि कॉलोनी के दूसरे निवासी, मदरसे द्वारा रास्ता रोककर सार्वजनिक ज़मीन के हड़पे जाने के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट चले गए हैं। मुमताज़ का कहना है कि ज़ुबैर ही है जिसने इलाके में हिन्दू-मुस्लिम तनाव को हवा दी और वास्तव में वो खुद मदरसे की जमीन में हस्तक्षेप चाहता था।

इस मामले से अब तक ये तो स्पष्ट है कि विवाद की वजह ज़मीन है, न कि घृणा-जन्य अपराध। स्पष्ट रूप से, अपराध पीड़ितों की धार्मिक और जाति जैसे मुद्दों से पैदा नहीं हुआ था। सवाल ये है कि IndiaSpend लगातार अपनी आदतानुसार किस कारण फ़र्ज़ी ख़बरों को तैयार कर रहा है? ऐसा प्रतीत होता है कि अब IndiaSpend अपने हिन्दू-विरोधी पूर्वग्रहों को छुपाने तक की भी कोशिश नहीं कर रहा है।

यह एकमात्र वाकया नहीं है जब प्रोपगेंडा वेबसाइटों ने अपने कथित विश्लेषण में हिंदू-विरोधी पूर्वग्रह को दिखाया है। हमने पहले भी रिपोर्ट में बताया है किस तरह हिन्दुतान टाइम्स ने भी एक पक्षपातपूर्ण ‘हेट ट्रेकर’ जारी किया था, जिसमें इसी तरह से तथ्यों में त्रुटि और पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग मौजूद थी।  IndiaSpend की ‘फैक्ट-चेकर’ वेबसाईट ने भी एक ‘ट्रेकर’ शुरू किया था, जिसने गाय से सम्बंधित अपराधों पर नज़र रखने की कोशिश की थी, उसमें दिया गया डेटा भी त्रुटिपूर्ण और पक्षपाती था।

अभिषेक बनर्जी ने, जो कि Opindia पर कॉलम लिखते हैं, IndiaSpend के बारे में पहले भी लिखा है कि किस तरह IndiaSpend रोजाना इस तरह की कहानी को बनाने में मशगूल रहता है। उन्होंने पहले भी एक रिपोर्ट लिखी है कि किस तरह से एक गाय से सम्बंधित हिंसा में 87 लोग मारे गए, जिनमें से 97 प्रतिशत अपराध नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए हैं। ऊपर दी गई रिपोर्ट उसी एक रिपोर्ट का चित्रण है। जैसा कि देखा जा सकता है, उनकी ‘रिसर्च’ गूगल सर्च भी कुछ विशेष ‘कीवर्ड्स’ पर आधारित थी। पाठकों को यह भी मालूम होना चाहिए कि Indiaspend का संस्थापक ट्रस्टी,  factchecker.in का मूल ऑर्गनाइजेशन, अब कॉन्ग्रेस पार्टी में डेटा अनालिस्ट प्रमुख बन चुके हैं। क्या हमें इन कड़ियों को जोड़ना चाहिए?

भारत और तालिबान के बीच मध्यस्थता को तैयार ईरान

ईरान ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान में उसका प्रभाव है और वो भारत के लिए उस प्रभाव का इस्तेमाल करने के लिए तैयार है। ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने अपने भारत दौरे के दौरान बताया कि उनका देश भारत और तालिबान के बीच बातचीत शुरू करा सकता है। ईरानी विदेश मंत्री ने रायसीना डायलॉग को भी सम्बोधित किया और कई भारतीय नेताओं से भी मुलाक़ात किया। पिछले सप्ताह ईरान के एक प्रतिनिधि-मंडल ने तालिबान के नेताओं से मुलाकात की थी। ईरान भी भारत की तरह ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है लेकिन उसने तालिबान के एक धड़े से बातचीत शुरू कर दी है।

ईरानी विदेश मंत्री ने कहा की अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान में उनके कुछ प्रभाव हैं। उन्होंने कहा कि ईरानी सरकार अपने उस प्रभाव का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान के लिए करना चाहेगी लेकिन अगर भारत चाहता है तो उसके लिए भी ऐसा करने में उन्हें ख़ुशी मिलेगी।

हलाँकि भारत द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के कम ही आसार हैं। कई ख़बरों में कहा गया है कि इस मामले में भारत हमेशा अफ़ग़ानिस्तान सरकार की तरफ ही है और तालिबान से किसी भी तरह की बातचीत अभी नही की जाएगी। विश्लेषकों का ये भी मानना है की भारत ने पिछले 17 सालों में तालिबान में कुछ सम्पर्क बनाए हैं लेकिन वो सम्पर्क कितने गहरे हैं, इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है।

ज्ञात हो कि अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में अपनी उपस्थिति घटाने और वहाँ स्थित अपने सेना के जवानों की संख्या कम करने की ख़बरों के बाद वहाँ कई तालिबान लड़ाके वापस आ गए हैं और उन्होंने फिर से अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए हैं जिस से भारत जैसे देशों की चिंता बढ़ गई है। भारत अफ़ग़ानिस्तान में वहाँ के लोगों के लिए कई तरह के जन-कल्याणकारी योजनाएँ चला रहा है और शांति स्थापना की प्रक्रिया में अफ़ग़ानिस्तान सरकार के साथ कदमताल कर काम कर रहा है।

अमेरिका ने ही तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी है आज इसी सिलसिले में दोनों पक्षों के बीच चौथे दौर की बैठक होने वाली है। कुछ दिनों पहले पाकिस्तान की मध्यस्थता में दोनों पक्षों के बीच अबु-धाबी में दो दिनों तक बैठकों का दौर चला था। हलाँकि अब कई देश तालिबान से बातचीत कर रहे हैं या फिर उसके लिए तैयार हैं लेकिन भारत इस मामले में आशंकित है। भारत तालिबान के भीतर पाकिस्तान के बढ़ते दबदबे से ख़ासा चिंतित है और इसी कारण उसने तालिबान के साथ कई देश के हुए बैठक में अपने वरिष्ठ अधिकारीयों को नहीं भेजा था। उस बैठक में भारत ने गैर आधिकारिक तौर पर हिस्सा लिया था।

ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते पूर्व में काफी तल्ख़ रहे हैं क्योंकि ईरान अपने देश से सटे कुछ इलाके में तालिबान खिलाफ रहा है लेकिन पाकिस्तान और तलिबान के रिश्ते हमेशा से सही रहे हैं। तालिबान से अमेरिका से बातचीत करा कराने की प्रक्रिया में शामिल पाकिस्तान इसे अपनी कूटनीतिक जीत के तौर पर पेश करता है। भारत दौरे पर आए ईरानी मंत्री के इस प्रस्ताव के बाद अब कयास लगाने जाने लगे हैं कि क्या अब भारत आधिकारिक तौर पर तालिबान से बातचीत में शामिल होगा या नहीं?

अंतरिम बजट में मध्यम वर्ग को मिल सकता है बड़ा तोहफा

1 फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली संसद में साल 2019 के लिए अंतरिम बजट पेश करने जा रहे हैं। मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा के बाद अब ये कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बजट में मध्यम वर्ग के लिए पिटारा खोला जा सकता है। बता दें कि ये पूर्णकालिक बजट नहीं होगा बल्कि अंतरिम बजट होगा। इस साल होने वाले चुनावों के बाद जो सरकार जीत कर आएगी उसके द्वारा इस वित्त वर्ष के ख़त्म होने तक का बजट पेश किया जाएगा। इस बजट में किसानों के लिए भी बहुत कुछ रहने की उम्मीद है, वहीं छोटे औद्योदिक इकाइयों के लिए भी अहम घोषणाएँ किए जाने की संभावना है।

वित्त मंत्रालय के भीतर लगातार इस बात पर चर्चा जारी है की अंतरिम बजट का स्वरूप क्या होगा। इस बजट से मोदी सरकार की आगे की नीतियों के बाजरे में भी बहुत कुछ पता चलने की उम्मीद है। कुल मिला कर देखा जाये तो चुनावों से तीन महीने पहले आ रहे इस बजट में आम लोगों के लिए बहुत कुछ होगा। विश्लेषकों का मानना है कि इस बजट में किसानों के लिए एक ख़ास पैकेज की घोषणा भी की जा सकती है।

एक सप्ताह पहले दिए अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमे मध्यम वर्ग के प्रति अपनी सोच और नजरिया बदलने की जरूरत है। नवभारत टाइम्स ने अपने गोपनीय सूत्रों के हवाले से बताया;

“पिछले चार बजट में हमने सैलरीड क्लास को राहत दी, क्योंकि वे देश के सबसे ईमानदार टैक्सपेयर्स हैं। अंतरिम बजट की सीमाओं के भीतर हम इस बार भी जितना अधिक कर सकते हैं करेंगे।”

इसके अलावे इनकम टैक्स छूट की सीमा भी बढ़ाए जाने की सम्भावना है। इस से सैलरीड मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिलेगी। उनके लिए बचत सीमा भी बढ़ाई जाएगी। सैलरीड मध्यम वर्ग को आय कर में मिलने वाली छूट इस बजट की हाईलाइट होगी। इन सब के अलावे कई सारी वस्तुओं पर कस्टम ड्यूटी भी घटाए जाने की सम्भावना है। साथ ही, इस बजट में होम लोन के ब्याज में भी छूट दी जा सकती है। सरकार पेंशनधारी बुजुर्गों को भी टैक्स छूट देने पर विचार कर रही है।

इस से पहले 2014 में चिदंबरम और 2009 में प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री रहते हुए अंतरिम बजट पेश किया था और दोनों में ही काफी लोक-लुभावन घोषणाएँ की गई थी। ये दोनों बजट भी चुनावी वर्ष में ही पेश हुए थे और नई सरकार आने के बाद पूर्ण बजट पेश किया गया था।

बलात्कार आरोपित बिशप फ्रैंको के ख़िलाफ़ आंदोलन में शामिल होने वाली नन को चर्च की धमकी

केरल में फ्रांसिस्कन क्लेरिस्ट कांग्रेगेशन (FCC) के सुपीरियर जनरल सर एन जोसेफ (Sr. Ann Joseph FCC) ने लकी कलपुरा नाम की नन को हुजूम से निकाल देने की धमकी दी है।

ऐसी धमकी उन्हें केवल इसलिए मिली है क्योंकि वह रेप आरोपी बिशप फ्रैंको मुलक्कल के खिलाफ न्यूज़ चैनलों में बातचीत का हिस्सा बनती थी, गैर-ईसाई अखबारों में उनके लेख छपते थे और साथ ही उनपर कैथोलिक नेतृत्व के खिलाफ गलत आरोप लगाने का इल्ज़ाम है।

मुलक्कल पर 2014 और 2016 के बीच जीसस मिशनरी की एक नर्स पर कई बार रेप करने का आरोप है। जिसके कारण वो अपनी बेल से पहले 3 हफ़्ते पाला की सब-जेल में भी गुज़ार कर आ चुके हैं। इसी मामले पर कुछ ननों के साथ मिलकर कलपुरा ने कोचिन के उच्च न्यायलय के परिसर में पिछले साल कई हफ्तों तक भूख हड़ताल की थी।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार कलपुरा को जो नोटिस प्राप्त हुआ है, उसमें लिखा हुआ है- “20 सितंबर से लेकर अभी तक तुम्हारे द्वारा किए गए काम बेहद शर्मसार करने वाले रहे जोकि चर्च को और FCC को नुकसान पहुँचा सकते हैं। तुम अपने से ऊपर पद पर आसित लोगों की अनुमति लिए बिना अरन्नाकुलम हाई कोर्ट गईं और SOS एक्शन काऊंसिल द्वारा किए 20 सितंबर 2018 के आंदोलन में भाग लिया। तुमने गैर-ईसाई अखबारों में और मंगलम (MANGALAM) और मध्यम्म(MADHYAMAM) जैसी साप्तिहिकी में भी लिखा, इसके अलावा समय (Samayam) को बिना किसी की अनुमति के तुमने इंटरव्यू भी दिया। फ़ेसबुक के ज़रिए और चैनलों की बातचीत का हिस्सा बनकर तुमने कैथोलिक नेतृत्व पर आरोप लगाया और साथ ही हमारे मूल्यों को भी गिराने की कोशिश की है। तुमने FCC की छवि बिगाड़ने का भी प्रयास किया है। तुम्हारा सोशल मीडिया पर बतौर धार्मिक सिस्टर होकर ऐसा प्रदर्शन बेहद शर्मनाक है।”

इंडियन एक्सप्रेस से हुई बातचीत में कलपुरा ने बताया कि उन्हें नहीं लगता कि कैथोलिक चर्च के नोटिस में जिन कार्यों का वर्णन हैं, उनमें से कुछ भी गलत है, उनका कहना है कि अगर उन्हें पहले पता होता कि वो लोग गलत हैं, तो वो कभी भी उनसे नहीं जुड़ती। उन्होंने कहा कि उन्हें इस मामले से संबंधित किसी भी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण नहीं देना है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि ये बदला लेने जैसा काम है।

इनकम टैक्स विभाग ने सोनिया-राहुल को भेजा ₹100 करोड़ का टैक्स नोटिस

इनकम टैक्स (आईटी) विभाग की तरफ से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को कड़ा झटका लगा है। आईटी ने अपनी जाँच में 2011-12 के दौरान राहुल और सोनिया को क्रमश: 155.4 करोड़ और 155 करोड़ रूपए की संपत्ति को छिपाने के लिए दोषी पाया है। यही वजह है कि आईटी ने मूल्यांकन करने के बाद सोनिया गाँधी को 100 करोड़ रूपए का टैक्स नोटिस थमा दिया है। राहुल और सोनिया ने 2011-12 के दौरान जो संपत्ति घोषित की है, उसमें एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड (AJL) से होने वाली कमाई की जानकारी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को नहीं दी गई है। यही वजह है कि आईटी ने सोनिया के पास 100 करोड़ रूपए का टैक्स नोटिस भेज दिया है।

एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड का मामला क्या है?

नेशनल हेराल्ड के नाम से एक समाचार पत्र का प्रकाशन जवाहर लाल नेहरू ने शुरू किया था। इस समाचार पत्र का मालिकाना हक एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड नाम की कंपनी के पास था। एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड कंपनी के कई सारे दफ्तर अलग-अलग शहरों में है। इन्हीं में से एक दफ़्तर नेशनल हेराल्ड हाउस के नाम से दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर स्थित है। करोड़ों के इस इमारत पर अपना एकाधिकार ज़माने के लिए सोनिया और राहुल ने एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड के शेयर को मनमाने कीमत में खरीद लिया।

इस दौरान कंपनी के सभी नियम-कानून को ताक पर रख दिया गया। दरअसल कॉन्ग्रेस ने पहले नेशनल हेराल्ड की खराब वित्तीय अवस्था का हवाला देते हुए एसोसिएट जर्नल्स लिमिटेड को 26 फरवरी, 2011 को 90 करोड़ रुपये का ऋण दिया। इसके बाद पाँच लाख रुपए से ‘यंग इंडिया’ कंपनी बनाई, जिसमें सोनिया और राहुल की 38-38 प्रतिशत हिस्सेदारी है। शेष हिस्सेदारी कॉन्ग्रेस नेता मोती लाल वोरा और ऑस्कर फ़र्नांडिस को दिया गया।

AJL ने 10 रुपये के नौ करोड़ शेयर यंग इंडिया को दे दिए गए और इसके बदले यंग इंडिया को कॉन्ग्रेस का ऋण चुकाना था। नौ करोड़ शेयर के साथ यंग इंडिया को एसोसिएट जर्नल लिमिटेड के 99 प्रतिशत शेयर हासिल हो गए। इस तरह सोनिया और राहुल ने इस घपले से हुई आमदनी का ब्यौरा आईटी को नहीं दिया।

हेराल्ड मामले पर पहले भी कॉन्ग्रेस को झटका लग चुका है

21 दिसंबर 2018 को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कॉन्ग्रेस को 56 साल पुराने हेराल्ड हाउस को खाली करने का आदेश दिया था। यह हेराल्ड मामले में घिरने के बाद कॉन्ग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी हार थी। इसी तरह और हेराल्ड से जुड़े और भी कई मामले में कोर्ट से कॉन्ग्रेस को झटका लग चुका है।  

हर तीसरे दिन उठते जातीय बवंडरों का हासिल क्या है?

गिनना शुरु करेंगे तो गिनते रह जाएँगे। आस पास देखेंगे तो पता चलेगा कि स्थिति उतनी भयावह न तो है, न थी, न होती है जब तक कि उसे भयावह बना न दिया जाय। 2014 में एक सरकार आती है, जिसका अजेंडा क्लियर है कि क्या करना है, और क्या नहीं करना है। इस अजेंडे से आपको या मुझे असहमति हो सकती है, जिस पर कहीं और चर्चा की जाएगी।

उसके बाद हर विधानसभा चुनाव के पहले, हर चुनावी कैम्पेन की शुरुआत के साथ ही देश के किसी न किसी हिस्से में या तो किसी अकस्मात् दुर्घटना को किसी रंग से रंग दिया जाता है, या व्यवस्थित तरीक़े से दुर्घटनाएँ करा दी जाती हैं। निचोड़ हर बार यही आता है कि देश में समाज का कोई न कोई तबक़ा असुरक्षित महसूस कर रहा है।

इन सारी आशंकाओं, असुरक्षाओं, असहिष्णुताओं का जन्म एक लोकसभा चुनाव के शुरुआत से लेकर आज तक होता आ रहा है जहाँ एक ऐसी पार्टी को सत्ता मिल जाती है जिसके अजेंडे को हमेशा नीच, हीन, बाँटने वाला और रूढ़िवादी बताया जाता रहा। ये इतनी बार कहा गया, और वोटबैंक के लिए इतने तुष्टीकरण किए जाते रहे कि समाज पहले ही बँटकर बिखर रहा था। जिन्हें नहीं दिख रहा हो, वो चुनावों के परिणामों में वो बिखराव देख सकते हैं।

देश को जाति और धर्म के नाम पर बाँटने की ज़रूरत नहीं है, वो पहले से ही बँटा हुआ है। संविधान में ऐसी व्यवस्थाएँ हैं कि माइनॉरिटी और मेजोरिटी स्टेट या ज़िले के स्तर पर तय नहीं होता, बल्कि देश के स्तर पर तय होता है। संविधान में वो व्यवस्थाएँ भी हैं जो कि एक तरफ समानता की बातें करती हैं, और दूसरी तरफ अपने ही लक्ष्य को वोटबैंक से ढकेलकर अनंतकाल तक की राजनीतिक विजय सुनिश्चित करने की होड़ में सभी को लगा देती है।

दंगों का इतिहास एक पार्टी के दामन पर इतना ज़्यादा ख़ून फेंक चुका है कि जहाँ भी वो सरकार रही है, दंगे हुए हैं। लेकिन दंगा देश में एक ही दिखता है, उससे पहले या बाद के दंगे ग़ायब हो जाते हैं। नैरेटिव पर शिकंजा कसने वालों के शिकंजों में ढील आती दिखती है; जो दीवारें इन्होंने दशकों से भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण के सीमेंट से तैयार किया था, उसमें दरार बनाने जब लोग पहुँचते हैं तो लाज़िम है कि दर्द तो होगा ही।

‘कोलीशन धर्मा’ और ‘अलाएंस’ की राजनीति के दौर में लोकसभा चुनावों में केन्द्र में किसी को मेजोरिटी मिल जाय ये जब सोच के परे हो रहा था तो एक पार्टी सत्ता में पूर्ण बहुमत के आँकड़ें को पार कर जाती है, तो दर्द होना समझ में आता है। फिर एक के बाद एक राज्य या तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके हिस्से आने लगते हैं, और बाप का राज मानकर चलती पार्टियों के लोग सत्ता से बाहर फेंक दिए जाते हैं, तो दर्द होना समझ में आता है।

भ्रष्टाचार, ख़रीद-फ़रोख़्त, तोड़-जोड़ और तुष्टीकरण की राजनीति हर पार्टी ने की है, करती रहेगी। ये एक सच है, इसको मान लीजिए, उसके बाद ही चर्चा कीजिए। स्थिति आदर्श नहीं है। अम्बेडकर और गाँधी को कोट करने वाले आधे समय मतलब की बातें कोट करते हैं लेकिन गाय और मजहब विशेष को लेकर उनके विचार कोट करते वक़्त मनु स्मृति के वो हिस्से निकाल लेते हैं जो दो श्लोक के बीच से निकाल लिया गया हो।

2014 और उसके बाद के दस साल भारतीय समाज के लिए निर्णायक होंगे। इसका इतिहास प्री और पोस्ट-मोदी युग के नाम से जाना जाएगा। क्योंकि इस व्यक्ति ने, खुद को और अपने पार्टी को उस मुक़ाम पर पहुँचाया जहाँ ‘राम मंदिर’ और ‘गोधरा’ के हार्ड मेटल संगीत बजाने के बावजूद लोगों ने पूर्ण बहुमत से तीन चौथाई बहुमत तक की सरकारें इसके नाम कर दीं।

लोग लगे रहे रोहित वेमुला में, और वो ये कहते हुए मरा कि मेरी लाश पर राजनीति मत करना। ऊना के दलितों का पिटना, जुनैद की मौत, नजीब का गायब होना, असहिष्णुता की फ़सल, बीफ़ ईटिंग फेस्टिवल, भारत तेरे टुकड़े होंगे, केरल चाहे आज़ादी, वर्धमान-धूलागढ़ के दंगे, गौरक्षकों का खेल, दभोलकर-पनसरे-गौरी लंकेश की हत्या, जातिवाद की बहती नई पछुआ बयार…

ये सारी बातें हुई नहीं, व्यवस्थित तरीक़े से हुईं। इसमें दुर्घटना को मुद्दा बनाया गया। चर्चों में किसी की चोरी को अल्पसंख्यकों को डराने की बात से जोड़ा गया। जॉन दयाल जैसे चिरकुट चिल्लाते रहे हर रोज़, रवीश कुमार उमर खालिदों और कन्हैया जैसे टुचपुँजिया नेताओं को प्राइमटाइम और फ़ेसबुक वॉल पर जगह देते रहे। डर का माहौल बनाया जाता रहा, ये कहकर कि डर का माहौल है। ये इतनी बार कहा गया, कि जो अपने बग़ल के गाँव में ईदगाह तक जाता था, वो अपने गाँव में मजहब विशेष वालों को दुर्गा पूजा के मेले में शक की निगाह से देखने लगा।

ये कौन सा तंत्र है? ये आपको नहीं दिख रहा क्या? ये कौन लोग हैं, जो केरल की डेंटल हॉस्पिटल की दलित छात्राओं की ख़ुदकुशी पर एक शब्द नहीं बोलते क्योंकि चुनाव हो चुके थे, लेकिन वेमुला की मूर्ति लगाकर ‘जय भीम’ करते नज़र आते हैं? ये कौन लोग हैं जो उमर ख़ालिद का चेहरा पहने हर वैसी जगह पर होते हैं जहाँ या तो इनके आने से पहले हिंसा होती है, या इनके जाने के बाद? क्या आप इन चेहरों को हर गौरी लंकेश की शोक सभा में नहीं पाते, या हर उस हिंसा में नहीं जहाँ मरने वाले को समुदाय विशेष और दलित के विशेषणों की चादर ओढ़ा दी जाती है?

क्या ये सब 2014 के बाद अकस्मात् घटित हो रहे हैं कि जाट, चारण, राजपूत, चमार, यादव, मुस्लिम, म्हार, पटेल, पटीदार, गुर्जर और पता नहीं कौन-कौन लगातार दंगाई होते जा रहे हैं? क्या ये अकस्मात् है कि हर फ़िल्म को किसी जाति की अस्मिता से जोड़कर हिंसा और आगज़नी की जा रही है? क्या ये कहीं उबल रहा था, या ये उफ़ान तात्कालिक है क्योंकि किसी के बाकी के सारे हथकंडे नाकाम हो रहे हैं?

नैरेटिव बनाने की कला इनके हाथों से बाहर जा चुकी है। दो-चार आवाज़ें हैं क्योंकि उनके मालिकों की जेब की तह मोटी है, और उन्हें आशा है कि पार्टी सत्ता में आएगी, या उनके कुछ साक्ष्य कहीं किसी दराज़ में क़ैद हैं। बाक़ियों में से आधे ने तो चुनावी जीत के बाद ही अपनी प्रवक्ता-वादी सोच चैनलों के कार्यक्रमों के ज़रिये दिखा दी थी, और बचे हुए आधे ने शुरु में गाली-घृणा और अजेंडाबाज़ी करके अपने दुकान का नुकसान करके अब अपनी आवाज़ सत्ता की तरफ कर ली है।

नैरेटिव तय करने वालों के पास हमेशा से माध्यमों पर क़ब्ज़ा रहा है। वो हमेशा से एकतरफ़ा प्रवचन देकर देश का अजेंडा तय करते थे। टीवी, अख़बार, इंटरनेट संस्करणों के कॉलम जैसे प्लेटफ़ॉर्म को इन्होंने निचोड़ा है, और प्रवचन की तरह ‘एक बार कह दिया तो कह दिया’ टाइप भुनाया है। इनको कभी भी दूसरे तरफ़ से सीधी प्रतिक्रिया मिली ही नहीं। कभी भी इनके टीवी डिबेट पर आम आदमी ने हमला नहीं किया था, कभी भी इनके अख़बार के कॉलम पर पब्लिकली पब्लिश होने वाले पत्रों में वो पत्र नहीं आते थे जिसमें घोर असहमति थी।

जो सचिन और लता के स्नैपचैट विडियो, रोस्ट के नाम पर घटिया दर्जे की गाली-गलौज का कार्यक्रम से लेकर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ और ‘वंदे मातरम्’ क्यों गाएँ पर फ़ंडामेंटल राइट और ‘डिस्सेंट’ की बात कहते रहते थे, वो आज गाली सुनने पर बिलबिला रहे हैं कि माहौल खराब हो रहा है।

माहौल अगर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ और प्रशांत पुजारी जैसे अनगिनत हिन्दू/संघ प्रचारकों के साथ बाईस रिपोर्टरों की हत्या पर ख़राब और असुरक्षित नहीं हो रहा, तो माहौल इस गाली-गलौज से भी ख़राब नहीं होगा। एक वृहद् समाज में जहाँ हर तरह के लोग हैं, छिटपुट घटनाएँ हमेशा हुई हैं, दोनों तरफ से हुई हैं। लेकिन कभी भी वहाँ उमर ख़ालिद और मेवानी जैसे दोमुँहे लोगों की भीड़ नहीं उतरती थी। वहाँ कभी भी नेताओं की लाश वाली पिकनिक और सेलेक्टिव आउटरेज़ या साइलेंस नहीं दिखती थी। ये ख़बरें या तो हर किसी को आहत करती थीं, या किसी को पता नहीं चलता था।

आज आलम ये है कि हर मौत में एक आइडेंटिटी तलाश ली जाती है। मरने वाला आईटी कर्मचारी ‘युवक’ नहीं ‘मुस्लिम टेकी’ हो जाता है। बतकही से हुआ विवाद मीडिया में गोमांस बनकर डिबेट का हिस्सा हो जाता है। जातिगत आरक्षण से हो रहे प्रतिभा पलायन और भीतर तक उबाल लिए बैठे लोगों को फिर से ऐसे आंदोलनों के कारण बोलने का अवसर दिया जाता है जिनकी आवाज़ में विद्वेष के सिवा और कुछ नहीं। किसी की मौत पर शोकसभा के लिए तमाम लॉबी प्रेसक्लब पहुँचती है और ट्वीट-स्टॉर्म उठाती है, और वैसी ही बाईस और मौतों पर एक अदद ट्वीट भी नहीं।

फिर भी आपको लगता है कि ये सब खुद ही हो रहा है और इसके पीछे कभी व्यवस्था काम नहीं कर रही तो आप निरे भोले हैं। आपको लगता है कि अचानक से देश में भय का माहौल आ गया है, जहाँ हर तीसरे दिन कोई जाति किसी और से भिड़ जाती है, तो आपको कई बातें सोचनी चाहिए। आपको दिखता है कि आपका मुस्लिम या दलित मित्र 2014 के बाद हर कही-अनकही सरकारी पॉलिसी के माध्यम से सताया जा रहा है, तो आपको दिमाग का इलाज करा लेना चाहिए।

तेरह दिन से तेरह महीने, फिर पाँच साल और शून्य से सात, सात से सत्रह, और उन्नीस तक पहुँचने वाली सरकार की बातों में कुछ तो है जिससे लगातार उसे सफलता मिल रही है। या तो आपका पक्ष इतना कमज़ोर है कि आपकी बात जनता को समझ में नहीं आती, या आपका सच जनता को पता चल गया है, या फिर उन्हें मोदी और भाजपा में ही संभावना दिख रही है। ईवीएम वाला राग तो अलापना बंद ही कर दीजिए क्योंकि जब बुलाया गया तो आपको मशीन घर ले जाना था।

आँखें खोलिए और देखिए कि इन जगहों पर कौन लोग हैं जो हर इंटरसेक्शन में पाए जाते हैं। उन्हें तलाशिए जो हत्या के बाद ही तय कर देते हैं कि गुनहगार कौन है, और फ़ैसला आने या उसके बीच की प्रक्रिया में उलटा परिणाम आने पर शायरी लिखने लगते हैं। आप खोजिए तो सही कि क्या ये लोग सच में दलितों और मुस्लिमों के हिमायती हैं या फिर दंगे भड़काकर विधानसभा और लोकसभा में या तो पहुँचना चाहते हैं, या किसी की मदद कर रहे हैं। बहुत कुछ साफ़ हो जाएगा। क्लीन चिट तो किसी पार्टी या व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता, लेकिन इनके हिस्से का काग़ज़ उतना भी सफ़ेद नहीं है, जितना चिल्लाकर बताया जाता रहा है।

NIA का मज़ाक बनाने वालो! सुतली बम तब तक खतरनाक नहीं है जबतक वो गलत हाथों में नहीं है

आतंकवाद से लड़ने की दिशा में कुछ दिन पहले NIA को एक बहुत बड़ी कामयाबी मिली। ISIS के एक बहुत बड़े मॉड्यूल ‘हरकत उल हर्ब ए इस्लाम’ के खतरनाक मनसूबों कीभनक पहले ही NIA को लग गई थी। NIA ने यूपी पुलिस के सहयोग से दिल्ली समेत एनसीआर से 16 जगह रेड मारी और 10 लोगों को गिरफ्तार किया।

ख़बर थी कि ये लोग दिल्ली में 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) के पहले हमला करने की तैयारी में थे। इन लोगों के पास मिलने वाले हथियारों में रॉकेट लॉन्चर, 13 पिस्टल, 25 किलो विस्फोटक पदार्थ जैसे पोटैशियम नाइट्रेट, एमोनियम नाईट्रेट, सल्फर आदि मिले थे। इसके अलावा 112 अलार्म क्लॉक और 132 सिम कार्ड, मोबाइल फोन सर्किट, बैटरी और रिमोट कंट्रोल स्विच आदि इनके पास से बरामद हुए थे। फोटो समेट इन चीज़ों की सूची NIA द्वारा मीडिया को बताई गई थी।

इन तस्वीरों में घातक हथियारों के अलावा दिवाली के दिन जलाए जाने वाले सुतली बम और कुछ अन्य पटाखे भी मिले। जिन्हें आधार बनाकर कुछ लोगों ने और कुछ पत्रकारों ने NIA के इस कदम पर उन्हें बोलना शुरू कर दिया। साथ ही, तरह-तरह के कुतर्क दिए जाए जाने लगे कि सुतली बम नुकसानदायक नहीं होता है और इन्हें आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

कुछ लोगों ने NIA पर इस बात का भी इल्ज़ाम लगाया कि वो बेवज़ह आतंक का डर फैलाने की कोशिश कर रही है। साथ ही NIA के इस रेड को बेबुनियादी भी बताने से कुछ लोग नहीं चूके। इन बरामद हुई पिस्टल पर भी कई तंज कसे गए, कहा गया कि ये हाथ से बनाई गई पिस्टल हैं, ऐसे बंदूकों को तो लोकल गैंग द्वारा भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

सुतली बम पर तंज कसने वालों को, पकड़े गए लोगों को बेगुनाह बताने वालों को और NIA की बड़ी कामयाबी को बेबुनियाद बताने वालों को समझने की ज़रूरत है कि इन लोगों के पास से सिर्फ सुतली बम ही बरामद नहीं हुआ है। उनके पास से कई पिस्टल भी मिली हैं, जो हो सकता है लोकल स्तर पर बनवाई गई हों, लेकिन पिस्टल चाहे लोकल हो या फिर अमेरिका की, किसी पर दागने और किसी को मारने के लिए ये बंदूकें काफ़ी हैं। इसके अलावा इनके पास से विस्फोटक पदार्थ, 100 से अधिक अलॉर्म क्लॉक और सिम कार्ड भी मिले हैं। अब सुतली बम को आधार बनाकर NIA पर तंज कसने वालों से सवाल होना चाहिए कि इन लोगों के पास से ये चीज़े आखिर किस उद्देश्य से संभाल के रखी गई थी।

हम लोग बहुत अच्छे से जानते हैं कि आज मोबाइल का विस्तार हमारे देश समाज में कितनी बड़ी तादाद में हो चुका है, ऐसे में रिमोट के जरिए बम विस्फोट कहीं से कैसे भी किया जा सकता है। रही बात दिवाली में फोड़े जाने वाले सुतली बम की तो वो सिर्फ तब तक खतरनाक नहीं हैं जबतक उन्हें इस्तेमाल करने के मंसूबे गलत न हों।

इसके अलावा आतंक का इरादा रखने वाले हर आतंकी को RDX या TNT आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है इसलिए वो लोग अलग-अलग रसायनिक पदार्थों का इस्तेमाल करके बम निर्माण कर सकते हैं और करते ही होंगें। नाइट्रोजन में पाए जाने वाले बहुत से तत्व ऐसे होते हैं, जो IEDs (जुगाड़ से बनाने वाले बम) निर्मित करने में सहायक होते हैं और ये हमें कई उर्वरक और पटाखों के ज़रिए मिल जाते हैं। इसलिए आतंकियों के लिए अमोनियम नाइट्रेट बहुत खास और पसंदीदा होता है क्योंकि ये आसानी से ज्यादा मात्रा में उपलब्ध होने वाला पदार्थ है।

दिवाली पर, शादियों पर, या फिर किसी खुशी के मौके पर किए जाने वाले पटाखे ब्लैक पाउडर और फ्लैश पाउडर आदि से बनते हैं। इन पाउडरों से विस्फोटक पदार्थों का निर्माण होता है, जैसे- पोटाशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्युमीनियम पाउडर आदि। ये सब उन पदार्थों के नाम हैं जो दिवाली के पटाखों में भी इस्तेमाल किए जाते हैं और आतंकियों द्वारा बनाए विस्फोटकों में भी इस्तेमाल किया जाता है। जब ये निश्चित मात्रा में इन पदार्थों के पाउडर को विस्फोटक से जोड़ा जाता है तो ये एक घातक बम में तब्दील हो जाते हैं।

अब इन जानकारियों के आधार पर यदि बात करें तो मालूम पड़ेगा कि ये लोग दर्जन भर बम बनाने की तैयारी कर रहे थे जिसे वो रिमोटों के जरिए और टाइमर के जरिए इस्तेमाल करने वाले थे। ऐसे में अब कहना गलत नहीं हैं कि NIA पर तंज कसने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कहने की कोशिश कर रहे हैं कि इन लोगों पर मिला सामान किसी भी रूप में खतरनाक नहीं है।

इस विषय पर एक रोचक कटाक्ष यहाँ पढ़ें- NIA द्वारा पकड़े आतंकी 25 किलो ‘मसाले’ से चिकन मैरिनेट करने वाले थे

ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर होता भारत

अर्थशास्त्र में मुख्यतः तीन प्रकार की अर्थव्यवस्थाएं पढ़ाई जाती हैं- प्राइमरी सेक्टर (कृषि आधारित), सेकंडरी सेक्टर (उद्योग आधारित) तथा इन दोनों को मानव संसाधन द्वारा संचालित करने वाली सर्विस सेक्टर इकॉनमी। विगत दो दशकों से भी कम समय में उभरने वाला नवीनतम क्षेत्र है- ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था (Knowledge Based Economy)।

ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था को कहा जाता है जिसमें वृद्धि का मुख्य स्रोत खेत अथवा खनिज नहीं बल्कि ज्ञान होता है। यह अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से ज्ञान एवं सूचना के उत्पादन, वितरण और उपभोग पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए देखा जाए तो भारत के कुछ नगरों जैसे दिल्ली, कोटा और वाराणसी में कोचिंग सेंटरों की भरमार है। यहाँ की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग ज्ञान के क्रय-विक्रय पर आधारित है।

बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगर सूचना प्रौद्योगिकी के केंद्र बन चुके हैं जहाँ ज्ञान आधारित सेवायें (कंसल्टेंसी इत्यादि) ऑनलाइन प्रदान की जाती हैं। विभिन्न विषयों पर पुस्तकें और शोध आधारित जर्नल प्रकाशित करने वाली संस्थाएं और प्रकाशन कम्पनियाँ ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का ही अंग हैं। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में ज्ञान एक उत्पाद के रूप में खरीदा और बेचा जाता है।

इस प्रकार शोध एवं विकास के संस्थान, आईटी कम्पनियाँ, शिक्षक, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, कंसल्टेंसी प्रदान करने वाले तकनीकी विशेषज्ञ ये सभी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में कार्य करते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी युग में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्थाओं की उन्नति तीव्र गति से हुई है किंतु भारत ज्ञान-विज्ञान पर आधारित प्रगति के इस युग में पिछड़ गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की शिक्षण व्यवस्था मौलिक ज्ञान के उत्पादन की अपेक्षा डिग्री धारकों का उत्पादन अधिक कर रही है।

यह भी कहा जा सकता है कि भारत ने ज्ञान को अकादमिक डिग्रियों में बाँध दिया है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की इतिहासकार मारग्रेट जैकब लिखती हैं कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति आने से पूर्व वहाँ तकनीकी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था विकसित हुई जिसने पुस्तकों, व्याख्यानों और शिक्षा के माध्यम से समाज पर गहरा प्रभाव डाला जिसके कारण औद्योगिक क्रांति सम्भव हुई।

भारत को भी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में समुचित निवेश करने की आवश्यकता है और कई स्तर पर रणनीतियाँ बनानी अनिवार्य हैं ताकि ज्ञान के क्षेत्र में मौलिकता का सृजन हो। भारत को एक सुदृढ़ ज्ञान आधारित व्यवस्था बनाने के लिए स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर पर भिन्न रणनीतियाँ अपनाने की आवश्यकता है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि कक्षा बारह तक के विद्यालय ज्ञान के उत्पादक नहीं होते जबकि विश्वविद्यालय और उच्च शोध संस्थान मौलिक ज्ञान के उत्पादन हेतु ही बने हैं। भारत की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था को पुष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक ऐसे अनेक प्रयास किये हैं जिन्हें परिवर्तित होते भारत अथवा ‘न्यू इंडिया’ की आधारशिला के रूप में देखा जा सकता है।

बाजार में जब कोई वस्तु क्रय-विक्रय हेतु उपलब्ध होती है तो उसके बिकने की संभावना कई कारकों पर निर्भर होती है जिसमें गुणवत्ता, मार्केटिंग, स्टोरेज, ट्रांसपोर्ट व्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। भारत के बारे में सामान्य धारणा रही है कि यहाँ उत्पन्न होने वाले ज्ञान में मौलिकता और गुणवत्ता की भारी कमी है। ज्ञान की गुणवत्ता इस पर निर्भर करती है कि उसे उत्पन्न करने वाला कितना प्रतिभाशाली है।

भारत की विडम्बना यह भी रही है कि ज्ञान के क्षेत्र में प्रतिभाशाली युवाओं को प्राइवेट कम्पनियाँ ऊँचा पैकेज देकर अपने यहाँ नौकरी देती रही हैं। मोदी सरकार ने सन 2012-13 से चल रही प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलोशिप के अंतर्गत पीएचडी अनुदान राशि में वर्ष 2018 से डेढ़ गुना वृद्धि की है। नए नियमों के अनुसार किसी भी विश्वविद्यालय में विज्ञान अथवा अभियान्त्रिकी पढ़ रहे स्नातक/स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के छात्र इस फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं।

चयन प्रक्रिया में उत्तीर्ण होने के बाद पीएचडी में प्रवेश पाने वाले अध्येताओं को बिना कोई अतिरिक्त परीक्षा दिए भारतीय विज्ञान संस्थान तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में पीएचडी करने के लिए पांच वर्षों तक सत्तर से अस्सी हजार रुपये प्रतिमाह दिए जाएंगे। यह योजना अपनी कई खामियों के बावजूद कुछ ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं को विदेश जाने से रोक लेगी जो हार्वर्ड, कैंब्रिज, एमआईटी समेत Ivy League विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने और विदेश में ही बस जाने का सपना पालते हैं।

प्रायः किसी भी नेता या उच्च पद पर आसीन व्यक्ति से भारत में ज्ञान-विज्ञान की स्थिति के बारे में पूछा जाता है तो वह यही कहता है कि हमें ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ में निवेश करना चाहिए। परन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दृष्टिकोण अधिक व्यापक है। प्रधानमंत्री ने 105वीं भारतीय विज्ञान कॉन्ग्रेस में कहा कि हमें ‘रिसर्च फॉर डेवलपमेंट’ अर्थात् विकास के लिए शोध पर बल देना होगा।

इसके लिए शोध संस्थानों को स्वावलंबी बनाना होगा ताकि वे सरकारी अनुदान के भरोसे न रहें। सरकार ने इस दिशा में CSIR को स्वावलंबी बनाने के लिए 2015 में यह निर्देश दिए कि पचास प्रतिशत निवेश वह बाहर से अर्जित करे। इस प्रकार शोध के लिए चार वर्षों में CSIR ने 1908 करोड़ रूपये बाह्य स्रोतों से अर्जित किये जिसमें 2015-18 में होने वाली वृद्धि उल्लेखनीय है।

ज्ञान के उत्पादन के साथ ही उचित दाम पर उसकी उपलब्धता सुनिश्चित होना अत्यावश्यक है। मोदी सरकार के आने से पूर्व भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर जैसे बड़े शोध संस्थान अपने यहाँ उत्पन्न होने वाली नवीन तकनीकों की जानकारी उद्योग जगत को नहीं देते थे जिसके कारण बड़ी परियोजनाओं के बाई-प्रोडक्ट के रूप में बनने वाली छोटी तकनीक या मशीनें जो विश्वविद्यालयों में लैब उपकरण के रूप में प्रयोग की जा सकती थीं उन्हें हमें करोड़ों रूपये खर्च कर विदेश से मंगाना पड़ता था।

अब प्रत्येक उच्च शोध संस्थान की वेबसाइट पर ‘टेक्नोलॉजी ट्रांसफर’ के नियम लिख दिए गए हैं जिससे लैब उपकरणों का निर्माण करने और बेचने वाली कम्पनियाँ सीधा शोध संस्थान से सम्पर्क कर सस्ते दाम में वह तकनीक खरीद सकती हैं तथा अपने यहाँ उसका उत्पादन कर सकती हैं। इस प्रकार हमारे विश्वविद्यालय उन मशीनों और तकनीकों को कम्पनियों से सस्ते दाम पर खरीदकर पीएचडी छात्रों को सरलता से वैज्ञानिक प्रयोग करवा सकते हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली Science Technology and Innovation Advisory Council (PM-STIAC) यह चाहती है कि शोध को बढ़ावा देने के लिए प्राइवेट कम्पनियाँ अपने यहाँ अलग से फंडिंग की व्यवस्था करें। 

यह तो विश्वविद्यालय की बात हुई। विद्यालयों की बात की जाये तो वहाँ ज्ञान को इस प्रकार परोसने की आवश्यकता है कि विद्यार्थी सहज भाव से न केवल ग्रहण करे अपितु उस ज्ञान से उसे आगे कुछ करने की भी प्रेरणा मिले। इसीलिए प्रायः यह कहा जाता है कि स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई रोचक विधि से होनी चाहिए।

अमरीका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ मनु प्रकाश ने मोड़ कर जेब में रख सकने लायक एक माइक्रोस्कोप का अविष्कार किया और उसे ‘फोल्डस्कोप’ नाम दिया। यह स्कूल के बच्चों के लिए अत्यंत उपयोगी और सस्ता उपकरण है जिससे वे जब चाहें किसी भी ‘माइक्रोस्कोपिक’ वस्तु को देख सकते हैं।

भारत के जैवप्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के विजयराघवन ने मनु प्रकाश से ट्विटर पर संवाद स्थापित किया और फोल्डस्कोप को भारत में लाने की सम्भावनाओं पर उत्तर माँगा। इस पर ‘प्रकाश लैब’ ने त्वरित प्रतिक्रिया दी तत्पश्चात प्रधानमंत्री कार्यालय से स्काइप पर संवाद हुआ। सारी औपचारिकताएँ निभाने के पश्चात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक अयोजन में स्वयं मनु प्रकाश से मिले और DBT तथा भारत सरकार के मध्य फोल्डस्कोप किट को बेहद सस्ते दाम पर भारत के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करवाने पर आधिकारिक रूप से ‘Letter of Intent’ का हस्तांतरण हुआ।

विज्ञान की शिक्षा में इस स्तर तक रुचि लेने वाला प्रधानमंत्री भारत में कभी नहीं हुआ था। जैवप्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के विजयराघवन को प्रधानमंत्री ने भारत सरकार का नया प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त किया है। स्कूलों में वैज्ञानिक शोध के प्रति रुचि जगाने के लिए भारत सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय अविष्कार अभियान’ प्रारंभ किया है। इस अभियान के अंतर्गत बड़े शोध संस्थान जैसे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, IISER आदि अपने जिलों के आसपास स्थित स्कूलों को पाँच वर्षों तक ‘मेंटर’ करेंगे।

राष्ट्रीय अविष्कार अभियान के अंतर्गत मोदी सरकार ने ‘विज्ञान आधारित शिक्षा’, ‘शिक्षा की वैज्ञानिक पद्धति’ और ‘विज्ञान की शिक्षा’ इन तीन बिन्दुओं में परस्पर अंतर्विरोध समाप्त करने और रचनात्मक सामंजस्य बनाने हेतु अनेक उल्लेखनीय पहल की है। सम्पूर्ण विवरण वेबसाइट पर प्राप्त किया जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में नवोन्मेष को बढ़ावा देने के लिए एक पृथक और अनूठी योजना है ‘अटल इनोवेशन मिशन’। अटल इनोवेशन मिशन के अंतर्गत भारत सरकार कक्षा 6 से 12 तक के स्कूलों में ‘अटल टिंकरिंग लैब’ (Atal Tinkering Labs) स्थापित करने के लिए बीस लाख तक की राशि प्रदान करेगी।

इन प्रयोगशालाओं में रोबोटिक्स तथा ‘इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स’ जैसी नवीनतम तकनीक प्रयोग के माध्यम से सिखाई जाएगी। 2018 तक पाँच हजार स्कूलों में अटल टिंकरिंग लैब स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया था जिसमें से लगभग ढाई हजार स्कूल अपने यहाँ ATL बना चुके हैं। अटल इनोवेशन मिशन केवल स्कूलों तक ही सीमित नहीं है, इसमें छोटे मध्यम तथा लघु उद्योगों से लेकर स्टार्टअप कम्पनियों को भी नवोन्मेष के लिए प्रोत्साहित करने की योजनायें हैं। समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत सरकारी एवं अनुदान प्राप्त स्कूलों में पुस्तकालय बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।

विद्यालयों में पुस्तकालय बनाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष पाँच से बीस हजार रूपये अनुदान देगी। पुस्तकालय की महत्ता को समझाते हुए ड्यूक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अनिरुद्ध कृष्णा ने अपनी पुस्तक The Broken Ladder में लिखा है कि छोटे नगरों तथा गाँवों में आज सूचनाओं का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता है।

यह नेटवर्क गाँव के बच्चों को करियर प्लानिंग से लेकर रोजगार के अवसर प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के लिए दूरदराज स्थित गाँव के किसी बच्चे ने यदि हाई स्कूल तक हवाई जहाज के बारे में सुना ही न हो तो वह इंटर में विज्ञान लेकर पढ़ने और पायलट बनने के सपने कैसे देख सकता है?

पुस्तकालय अपने आप में सूचनाओं तथा ज्ञान के गोदाम के रूप में कार्य करते हैं। लोकतंत्र में अधिकारों की एक परिभाषा ‘सूचना’ के रूप में भी की जाती है। जब पुस्तकों के रूप में ज्ञान गाँव-गाँव पहुँचेगा तब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र सशक्त होगा। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने विज्ञान के क्षेत्र में होने वाली नवीनतम खोज की सूचना को साधारण नागरिक तक पहुँचाने के लिए एक अनूठी योजना प्रारंभ की है- Augmented Writing Skills for Articulating Research (AWSAR)– इस योजना के अंतर्गत देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पीएचडी कर रहे 100 शोधकर्ताओं को विज्ञान को लोकप्रिय बना कर प्रस्तुत करने के लिए पुरस्कृत किया जायेगा।

भारत सरकार प्रतिवर्ष सौ ऐसे शोधार्थियों को पुरस्कृत करेगी जो पत्रिकाओं, समाचार पत्रों अथवा ब्लॉग इत्यादि में विज्ञान आधारित लेख लिखते हैं। प्रथम पुरस्कार में एक लाख रुपये, द्वितीय श्रेणी में पचास हजार, तृतीय पुरस्कार में पचीस हजार रुपये तथा सांत्वना पुरस्कार के रूप में दस हजार रुपये दिए जायेंगे।

इसके अतिरिक्त पोस्ट डॉक्टोरल फेलो भी लोकप्रिय विज्ञान के अपने लेख भेज सकते हैं। उनके लिए पुरस्कार राशि दस हजार रुपये है। अवसर (AWSAR) कहलाने वाली यह पहल प्रथम दृष्ट्या कुछ विशेष नहीं लगती। सरकारें ऐसे पुरस्कार देती रहती हैं। किंतु भारत में लोकप्रिय विज्ञान और विज्ञान संचार के मार्केट पर दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि यह भी विज्ञान का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है और अमरीका आदि देश इसमें हमसे बहुत आगे हैं।

कार्ल सैगन, आर्थर क्लार्क जैसे विज्ञान लेखक और अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम जैसी कालजयी पुस्तकें पढ़कर ही हमारी पीढ़ी ने विज्ञान की सीमाओं को समझा था। तब हम यही पूछते थे कि भारत में ऐसी पुस्तकें क्यों नहीं लिखी जातीं जो हमें प्रेरित कर सकें। वास्तव में भारत लोकप्रिय विज्ञान का एक उभरता हुआ बाजार है इसमें पीएचडी कर रहे शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने से अच्छा और कुछ नहीं हो सकता।

इन सभी योजनाओं के अतिरिक्त अनेक योजनायें ऐसी चल रही हैं जो शिक्षकों की गुणवत्ता सुधारने का कार्य कर रही हैं। डायरेक्ट टू होम चैनल सैटेलाईट के माध्यम से अकादमिक विषयों की जानकारी देने वाली ‘स्वयंप्रभा’ के अतिरिक्त ‘शालासिद्धि’, ‘विद्यांजलि’ और Institute of Eminence जैसी अनेक योजनायें आने वाले वर्षों में भारत को एक सशक्त ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का कार्य करेंगी।

कॉन्ग्रेस का बड़ा झूठ – गृह मंत्रालय आम जनता के कंप्यूटरों से उनकी जासूसी करती है

20 दिसंबर 2018 को, भारत सरकार ने भारत के राजपत्र ( Gazatte of India) में एक अधिसूचना जारी की थी, जो विभिन्न जाँच एजेंसियों को किसी भी कंप्यूटर डिवाइस पर स्नूप यानि जासूसी करने की शक्तियाँ प्रदान करने वाली लगती थी।

गृह मंत्रालय द्वारा जारी आदेश सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत किसी भी कंप्यूटर संसाधन में उत्पन्न, प्रेषित, प्राप्त या संग्रहीत किसी भी सूचना को इंटरसेप्ट करने, मॉनिटर करने और डिक्रिप्ट करने के लिए दस सूचीबद्ध सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियों को अधिकार प्रदान करता है।

ज़ाहिर सी बात है कि यह मुद्दा सोशल मीडिया और यहाँ तक कि संसद में बड़े पैमाने पर नाराज़गी का कारण बना। सीधे तौर पर इसे मोदी सरकार द्वारा नागरिकों की निजता का उल्लंघन करार दिया गया।

कॉन्ग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया कि पुलिस को, किसी भी फोन को टेप करने और किसी भी कंप्यूटर संचार को बाधित करने के लिए व्यापक शक्ति दी गई। उन्होंने कहा कि इस आदेश से भारत को पुलिस राज्य में बदल दिया जाएगा।

यदि हम गृह मंत्रालय के आदेश को ध्यान से देखें, तो हम यह जान पाएंगे कि इन आरोपों का कोई आधार नहीं है। सरकार ने कोई नया आदेश जारी नहीं किया है, बल्कि उन्होंने एक आदेश को दोहराया था जो पहले से ही क़ानून की किताबों में मौजूद था।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के सेक्शन 69 की सब-सेक्शन (1) और सूचना प्रौद्योगिकी (प्रक्रिया और सुरक्षा, अवरोधन, निगरानी और सूचना के डिक्रिप्शन) के नियम, 2009 के तहत जारी किया गया।

यह नोट करने वाली महत्वपूर्ण बात है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 संसद में किसी भी चर्चा या विरोध के बिना पारित किया गया था। नीचे दी गई इमेज पर अगर आप क्लिक करेंगे तो आपको उक्त अधिनियम के सेक्शन 69 के बारे में जान सकेंगे:

सेक्शन 69 के सब-सेक्शन (1) इस बात को स्पष्ट करती है कि अधिकारियों को किसी भी कंप्यूटर डिवाइस के माध्यम से प्रेषित किसी भी सूचना को केवल देश की अखंडता और सुरक्षा के लिए ख़तरा, क़ानून और व्यवस्था के लिए ख़तरा और किसी भी संज्ञेय अपराध के लिए ख़तरा होने की अनुमति दी जाएगी। यह सभी नागरिकों पर सामान्य जासूसी नहीं है, जिसपर कॉन्ग्रेस पार्टी और अन्य पार्टियों ने बेवजह के आरोप लगाए।

राज्यसभा में बोलते हुए, वित्तमंत्री अरुण जेटली ने यह भी कहा था कि यह शक्ति केवल विशेष मामलों के लिए दी गई है, जो आईटी अधिनियम में उल्लेखित है। यह भी नोट करने वाली बात है कि यह आदेश आईटी एक्ट के तहत जाँच एजेंसियों की शक्तियों को स्पष्ट करता है, यह अधिनियम में संशोधन नहीं करता। इसका अर्थ यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के सेक्शन 69 (1) के प्रावधान लागू रहेंगे।

अब यदि हम तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा जारी सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2009 देखें, जिसे गृह मंत्रालय के आदेश में भी उल्लेख किया गया, तो हम समझ सकेंगे कि वर्तमान आदेश में कोई नई बात नहीं है। आदेश में प्रावधान पिछले एक दशक से पहले से मौजूद है। सेक्शन 4 (1) का नियम के अनुसार:

(1) सक्षम अधिकारी किसी भी कंप्यूटर संसाधन में उत्पन्न, प्रसारित, प्राप्त या संग्रहीत ट्रैफ़िक डेटा या सूचना की निग़रानी और संग्रह के लिए सरकार की किसी भी एजेंसी को अधिकृत कर सकता है।

आपको बता दें कि आदेश में उल्लेखित 10 एजेंसियाँ ​​सामान्य एजेंसियाँ ​​हैं जो देश में जाँच करती हैं। अब सरकार ने यह निर्दिष्ट करके नियम को स्पष्ट कर दिया है कि कौन-सी एजेंसियाँ ​​राष्ट्रीय सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था के लिए ख़तरों की विशिष्ट घटनाओं पर कंप्यूटर आधारित संचार को बाधित कर सकती है।

मीडिया से बातचीत के दौरान, क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया कि यह आदेश पूरी तरह से संवैधानिक है, और कहा कि यह आम जनता पर जासूसी की अनुमति नहीं देता। उन्होंने यह भी कहा कि आईटी एक्ट के प्रावधानों के तहत, किसी भी अवरोधन के पूरा होने से पहले गृह सचिव से आवश्यक अनुमोदन प्राप्त करना होगा।

उन्होंने यह भी कहा कि जैसा कि आदेश में दस एजेंसियों का उल्लेख किया गया है, अन्य एजेंसियाँ ​​अब कंप्यूटर-आधारित संचार को बाधित करने के लिए अधिकृत नहीं हैं, जब तक कि वे मामले के आधार पर ऐसा करने के लिए अधिकृत न हों।