सत्ता-परस्तों के तमाम संघर्ष, विरोध और आरोपों के बाद आखिरकार मई 23, 2019 को जनता ने अपने चहेते नेता को प्रचंड बहुमत के साथ एकबार फिर चुन लिया था। जहाँ आम चुनाव नतीजों के शुरूआती रुझान इतने इकतरफे नजर नहीं आ रहे थे, और लोगों की आशंका 240-250 के बीच सिमटने लगी थी, वहीं दिन होते-होते जनता का मूड एकदम स्पष्ट हो गया कि उन्होंने सदियों पुरानी सामंतशाही को एक बार फिर नकार कर प्रजातंत्र को चुन लिया है।
हालाँकि, तब भी पत्रकार-विशेष जमात के एकमात्र स्वघोषित तारनहार ‘प्राइम टाइम पत्रकार’ ने आखिर तक भी उम्मीद नहीं छोड़ी और पूरा दिन बस इस एक इन्तजार में काट दिया कि कहीं से तो कोई उम्मीद की किरण फूट पड़े, और नरेंद्र मोदी का विजयरथ किसी प्रकार तो झूठा साबित किया जा सके।
कॉन्ग्रेस पोषित जमात-ए-पत्रकारिता की सभी आशाएँ अंत में ध्वस्त हुईं और नतीजे ये हुए की नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ली ही, साथ में अमित शाह ने गृह मंत्री का पद सम्भाला। यहाँ से देश के प्रगतिशील-विचारक वर्ग का असल चैलेंज शुरू हुआ था। जहाँ पहले कार्यकाल में लोग यही अंदाजा लगाते रहे कि नरेन्द्र मोदी की जीत विपक्ष की हार का नतीजा है, वहीं 2019 के आम चुनाव के नतीजों ने उनकी कल्पनाओं पर तुषारापात कर दिया।
नए कार्यकाल में मानो नरेंद्र मोदी और उनकी सेना ने नए आत्मविश्वास और ऊर्जा को एकदम तय दिशा दे डाली, और एक के बाद एक ऐसे बड़े फैसले लिए गए , जिस न्याय के लिए इस देश के बहुसंख्यकों को आजादी के बाद भी पीढ़ियों तक इन्तजार करना पड़ा था।
इन्तजार भी कोई लम्बी दूरी नहीं थी, लेकिन उनकी आस्था, उनके विचार और उनकी परम्परा को जिस तरह से अपने ही देश में हीन साबित करने का प्रयोजन वामपंथी बौद्धिक आतंकवादियों ने उनके साथ किए, उसके साथ आखिरकार न्याय होता नजर आने लगा।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण घाटी से अनुच्छेद-370 के प्रावधानों को निष्क्रीय किया जाना था। हिन्दुओं की आस्था के सबसे बड़े स्तम्भ अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि से ‘विवाद’ शब्द को सुप्रीम कोर्ट ने बीती बात बता दिया और कहा गया कि इस भूमि पर राम मंदिर ही बनेगा।
ऐसे ही तमाम फैसले मोदी 2.0 में लिए गए, जिन्हें लेकर विपक्ष, खासकर अवार्ड वापसी गैंग आदि ने सरकार की नाकामयाबी बताकर कटाक्ष करता आया था, सबका निराकरण किया गया। यानी, अब प्रलाप के लिए बहुत जगह नहीं बची थी। इस बीच विपक्षियों का ऑड-इवन की तर्ज पर EVM हैक होना, ना होना, ‘सुप्रीम कोर्ट का बिका होना, ना बिका होना’, सब अपनी सहूलियत के अनुसार जारी रहा।
अचानक नागरिकता संशोधन कानून ने मानो विरोध करने को ही अपना रोजगार बताने वाले लोगों के डूबते करियर में प्राणवायु फूँक दी और स्वरा भास्कर से लेकर कुणाल कामरा जैसे लोगों के अच्छे दिन आए। उन्हें कॉन्ग्रेस ने फिर पुकारा कि डूबते विपक्ष को डूबते सहारे की जरूरत है और फिर से सोशल मीडिया पर सुनियोजित नेरेटिव तैयार किए जाने लगे।
इस तरह से एक दिन दिल्ली में शाहीनबाग खड़ा कर दिया गया। तीन माह विरोधियों को मानो वो सब मिल गया जिस फिरौती को वो जनता से खुद को वोट ना देने के बदले वसूल करती है। बड़े स्तर पर सत्ता विरोधी आंदोलनों को हवा देने की खूब कोशिश की गई। सड़क पर कॉन्ग्रेस पोषित उपद्रवी और मीडिया में बौद्धिक आतंकी अपनी पोजीशन लिए रहे। छात्रों को मोहरा बनाया जाने लगा। जिन लोगों ने दारा शिकोह पर पत्थरबाजी की थी, उनके बचे हुए चंद समर्थकों को फिर अपनी प्रतिभा चमकाने का अवसर मिला।
इस सबके बीच दक्षिणपंथ के प्रतीकों को लज्जित, अपमानित करने के प्रपंच हर स्तर पर जारी रहे। जिसका ताजा सबूत श्रीराम जन्मभूमि पर मिल रहे अवशेषों के विरोध के रूप में नजर आ रहा है।
गोमूत्र और गंगाजल को कोरोना के इलाज से जोड़कर दुर्भाग्यपूर्ण बयान कॉन्ग्रेस-समर्थित फैक्ट चेकर्स और नेता देते देखे जा रहे हैं। विपक्ष के दुर्भाग्य का सबसे हालिया उदाहरण तो कोरोना वायरस के संक्रमण के दौरान देखने को मिला है, जब महज सरकार के कह देने से डॉक्टर और कोरोना वारियर्स के प्रति कृतज्ञता की बातों को मजाक में लिया गया।
आज भी सारा देश देख रहा है कि कॉन्ग्रेस और सत्ता-विरोधियों के लिए मजदूर हों या छात्र, सब अपनी राजनीति भुनाने के बहाने हैं। हमने देखा कि कॉन्ग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसे दलों ने सुनियोजित तरीकों से जामिया से लेकर दिल्ली को जलने पर मजबूर किया। जिस एक धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे के नीचे कॉन्ग्रेस ने वर्षों तक देश पर राज किया, वह स्पष्ट रूप से बेनकाब हो चुका है। लोग समझ गए हैं कि कॉन्ग्रेस की धर्मनिरपेक्षता महज मुस्लिमों का वोट जुटाने का साधन है।
इन विरोधी दलों ने आलिशान भवनों में रहकर लोगों को सड़कों पर उतारा। शासन-प्रशासन और व्यवस्थाओं के खिलाफ लोगों को अकारण आक्रोशित करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, जिसका नतीजा दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगे थे।
आज फिर कॉन्ग्रेस वही षड्यंत्र चलने का प्रयास कर रही है। लेकिन वो यह भूल गई है कि अब संचार और संवाद के तन्त्र नेहरू को पहली सलामी देकर अपनी कलम नहीं उठाते। वह सत्य की अपनी परिभाषा लिखने के लिए अतीत से कहीं ज्यादा स्वतंत्र हैं।
हिन्दुओं को आखिरकार महसूस होना शुरू हुआ कि उनके अधिकार भी अल्पसंख्यकों जितने ही आवश्यक हैं। वरना नेहरूवादी सभ्यता ने कभी किसी को यह महसूस तक नहीं होने दिया कि हिन्दुओं के विषय भी कहे और सुने जा सकते हैं, या फिर उन्हें भी गरिमामय जीवन जीने का अधिकार है।
कॉन्ग्रेस आज भी मजदूरों-श्रमिकों के विषयों को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। किसानों पर वामपंथियों ने जमकर साहित्य लिखा। सदियों से सो रहे शायरों की आत्मा भी अचानक किसानों की शान और बिवाइयों पर नज्म लिखकर सोनिया गाँधी का ट्विटर अकाउंट टैग करते देखी जाने लगीं।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ने भारत की हर समस्या और चुनौती को जड़ से खत्म कर दिया हो, लेकिन यह भी सत्य है कि कम से कम उन्होंने समस्याओं को स्वीकार कर इसके निराकरण की जिम्मेदारी उठाई हैं। सदियों तक शासन और उसके दरबारी लेखकों ने अच्छी हिंदी और अच्छी व्याकरण में दरबारी साहित्य लिखकर लोगों को कभी उनकी समस्या को समझने ही नहीं दिया वरना आजादी के बाद से एक लम्बे अरसे तक संस्थानों और संसाधनों के इस्तेमाल और अय्याशियों में ही इस देश का इतिहास गुलजार नजर आता रहा।
फिलहाल देश ही नहीं बल्कि सारा विश्व कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझ रहा है। और यह भी सत्य है कि यदि कुछ समुदाय विशेष इसमें सरकार का साथ देते तो शायद भारत की स्थिति आज अन्य देशों के मुकाबले कहीं बेहतर होती।
बावजूद इसके, सीमित संसाधनों के साथ, भारत के सक्षम नेतृत्व ने हर क्षेत्र पर अपनी भूमिका को साबित किया है। विश्व की बड़ी शक्तियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता को सराहा है। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक आज भारत की ओर आशा की नजरों से देख रहे हैं। वरना हम देख चुके हैं कि जिन लोगों के हाथों में इस देश की शासन व्यवस्था रही, उन्होंने देश में दंगे भड़काकर अपनी छुट्टियाँ थाईलैंड और ननिहाल में गुजारी हैं।
मोदी की जीत, उनका समर्थन और भारत की जनता का किसी नेता पर अभूतपूर्व विश्वास सिर्फ और सिर्फ यही संदेश देते हैं कि मतदाता अब अपने निर्णय लेना जानते हैं और वो उसी के साथ न्याय करेंगे, जो उनके साथ न्याय करेगा। जबकि, परिवारवाद में लिप्त विपक्ष, मोदी का विकल्प तलाशने के लिए अभी भी इंदिरा की नाक में अपनी समस्या का समाधान ढूँढ रहा है।