Friday, October 4, 2024
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बिन दाढ़ी मुख सून… कौन थे हाथरस वाले प्रभुनाथ गर्ग, PM मोदी ने पढ़ा जिनका दोहा तो ठहाकों से गूँज उठी संसद: सामाजिक-राजनीतिक कुरीतियों पर खूब किया व्यंग्य

हाथरस में आयोजित एक नाटक में उन्होंने काका नाम के चौधरी का किरदार अदा किया। उनका यह अभिनय इतना जीवंत हुआ कि लोग उन्हें काका जी कहकर पुकारने लगे।

लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में शामिल होते हुए प्रधानमंत्री ने बुधवार (8 फरवरी, 2023) को अपने ऊपर लग रहे आरोपों का जवाब अपने चिर-परिचित अंदाज में दिया। विरोधियों पर बरसते हुए प्रधानमंत्री ने कविताओं का जमकर प्रयोग किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर निशाना साधने के लिए दुष्यंत कुमार का एक शेर और काका हाथरसी का एक दोहा भी सुनाया। पीएम नरेंद्र मोदी ने काका हाथरसी का जो दोहा पढ़ा वह इस प्रकार है –

आगा-पीछा देखकर क्यों होते गमगीन, जैसी जिसकी भावना वैसा दीखे सीन।

‘काका हाथरसी’ की इन्हीं पंक्तियों को PM मोदी ने किया उद्धृत

पीएम मोदी के मुँह से काका हाथरसी का यह दोहा सुनकर सदन के लगभग सभी सदस्य मेज थपथपाते नजर आए। चलिए जानते हैं कौन थे काका हाथरसी, जिनकी रचनाएँ आज भी इतनी प्रासंगिक हैं कि प्रधानमंत्री मोदी भी उनका जिक्र किए बिना नहीं रह पाते। काका हाथरसी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरा जीवन ए-वन’ में अपने निजी जीवन के कई विषयों पर बेबाकी से लिखा है।

काका हाथरसी का असली नाम प्रभुनाथ गर्ग है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के हाथरस में 18 सितंबर, 1906 को हुआ था। अपने जन्म के बारे में काका ने स्वयं लिखा है –

दिन अट्ठारह सितंबर, अग्रवाल परिवार। उन्निस सौ छः में लिया, काका ने अवतार।।

प्रभुनाथ गर्ग (काका हाथरसी) के पिता का नाम शिवलाल और माता का नाम बर्फी देवी था। काका के पुरखे गोकुल महावन से आकर हाथरस में बस गए थे। जब काका हाथरसी सिर्फ 15 दिन के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था। बड़े भाई भजन लाल उस समय केवल 2 साल के थे। पिता के निधन के बाद दोनों भाइयों को लेकर माँ बर्फी देवी मायके चली गईं, लेकिन अधिक दिनों तक न रुक सकीं और अपने पति के घर ही रहने का फैसला किया।

प्रभुनाथ गर्ग कैसे बने काका हाथरसी?

काका हाथरसी पढ़ाई करने ननिहाल चले गए। वहाँ कुछ पढ़ लिख जाने के बाद उन्हें एक नौकरी मिली। समाज की कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन पर व्यंग करने वाले प्रभुनाथ ड्रामे में हिस्सा लिया करते थे। हाथरस में आयोजित एक नाटक में उन्होंने काका नाम के चौधरी का किरदार अदा किया। उनका यह अभिनय इतना जीवंत हुआ कि लोग उन्हें काका जी कहकर पुकारने लगे। मित्रों की सलाह पर उन्होंने काका के साथ हाथरसी जोड़ लिया। इसके बाद प्रभुनाथ काका हाथरसी के नाम से कविताएँ लिखने लगे।

1946 में ‘काका की कचहरी’ नाम से उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई। अपने कटाक्ष और व्यंगों के कारण काका धीरे-धीरे मशहूर होने लगे। कविताओं के अलावा काका हाथरसी अपनी दाढ़ी के लिए भी प्रशंसा के पात्र थे। इस पर काका हाथरसी ने ही लिखा-

“काका दाढ़ी साखिए, बिन दाढ़ी मुख सून। ज्यों मसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून।।

काका हाथरसी अपनी कविताओं और दोहों के माध्यम से समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन पर चोट किया करते थे। काका हाथरसी की प्रमुख रचनाएँ उनके कविता संग्रह काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि, खिलखिलाहट, काका तरंग, जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण में पढ़े जा सकते हैं। 18 सितंबर को जन्मे काका हाथरसी का निधन भी 18 सितंबर, 1995 को ही हुआ।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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