Friday, April 19, 2024
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होली के रंग में जीवन का उल्लास: होलिका, होलाका, धुलेंडी, धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन… हर नाम में छिपा है कुछ बहुत खास

होली शुरू कभी भी हो, चलता बुढ़वा मंगल तक है... मथुरा, वृंदावन, नंदगाँव, गोकुल, बरसाने से अलग आखिर यह बुढ़वा मंगल है क्या? बुढ़वा मंगल वाली होली कहाँ और कैसे मनाई जाती है?

दुनिया भर में आप यदि नजर दौड़ाएँ तो आपको एक ऐसी अंधी दौड़ दिखेगी, जिसका कोई अंत नजर नहीं आता। वहीं जिसे दुनिया भारत के नाम से जानती है, भले वहाँ सुविधाएँ थोड़ी कम हो लेकिन जीवन उल्लास से भरा है। यहाँ लोग जीवन के कठिन से कठिन समय में भी उम्मीद का कोई छोर पकड़े हुए आपको आनंदित दिख जाएँगे जिसका सार-सूत्र यहाँ की माटी में घुले हुए उत्सवों-पर्वों में है। तभी तो सदियों से इस पावन भूमि के बनिस्बत जिसने भी जाना वह खींचा चला आया। कुछ यहाँ से समृद्धि और आनंद लेकर गए तो कुछ इसकी चाह में सदैव यहीं के होकर रह गए। ऐसे कई खास पहलुओं की बात करें तो हमारे पास कहने को बहुत कुछ है लेकिन उसमें भी जो बेहद खास है वह है उत्सवधर्मिता, सांस्कृतिक समृद्धता।

विविधताओं से भरी भारतीय जीवन शैली अपने आप में इतना समृद्ध है कि उसमें जीवन का हर रंग समाहित है। बात जीवन के रंगों की हो, उत्सव की हो, आनंद की हो तो होली से ख़ास क्या होगा? होली कितनी प्राचीन है आज उसके इतिहास में भी उतरेंगे, तलाशेंगे उसमें जीवन के विविध रंग, इसकी पौराणिक मान्यताएँ और सबसे बड़ी बात कितनी गहराई से गुथी है जीवन के उस दर्शन से जो सदियों से मानवमात्र को उल्लासपूर्वक जीने की प्रेरणा दे रही है।

राग-रंग है जीवन का सार (तस्वीर-आनंद निकेतन)

इस साल होली 29 मार्च सोमवार को है जबकि होलिका दहन 28 मार्च को किया जाएगा। आपसी वैरभाव, मतभेद भुलाकर लोग होली खेलते हैं। साल का एक ऐसा दिन जो हर इंसान के जीवन में पुरानी सभी कड़वाहट मिटाकर एक दूसरे को रंग लगाते हुए नई शुरुआत करने का अवसर देता है। रंगों का उत्सव होली, शरद ऋतु के समापन और वसंत ऋतु के आगमन का संकेत है। ब्रजभूमि मथुरा, वृंदावन, नंदगाँव, गोकुल और बरसाना के साथ ही काशी में होली का हुड़दंग हो, रंगभरी एकादशी या चिता-भस्म की होली केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में मशहूर है।

अब होली पर बात करते हुए कुछ गहरे आयाम पर भी ले चलता हूँ, अब यह तो आपको पता ही है कि होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है- लेकिन इसके और भी कई नाम है यह नाम ही अपने आप में भारतीय सनातन संस्कृति की तमाम विविधताओं को समेटे हुए हैं। जैसे होली, होलिका या होलाका नाम से वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।

प्रेम, ताजगी, ऊर्जा के साथ ही रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन होलिका जलाई जाती है। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल से सराबोर कर देते हैं, ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों की ताल पर होली के गीत, कबीरा या जोगीरा गाए जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाने के साथ ही होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर प्यार से गले मिल जाते हैं- वो कहते हैं ना- ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं, दुश्मन भी गले मिल जाते हैं।’ कहने का मतलब यह है कि यह समरसता का प्रतीक भी है।

संस्कृति के विविध रंग (साभार-मनोज कर)

बात होली की हो और उसमें भी यूपी की न हो यह कैसे हो सकता है। यूपी-बिहार में होली अलग ही लेवल पर होती है लेकिन बाकी राज्य भी कम नहीं है, उनका भी होली मनाने का अपना अलहदा अंदाज है। यह बात आप जानते हैं फिर भी मैं होली में आपको बनारस ले चलता हूँ क्योंकि मेरी होली में बनारस केंद्र में है आप अपने राज्य में मनाए जाने वाले होली के विशेष अंदाज के बारे में जरूर लिखें कमेंट में, आपकी सहभागिता से जानकारी के साथ आपके अपने राज्य के होलियाने मूड का भी पता चलेगा।

खैर, बनारस में होली की शुरूआत रंगभरी एकादशी से ही हो जाती है। राग-विराग की नगरी काशी की परम्पराएँ भी अपने आप में निराली हैं। रंगभरी एकादशी पर भूतभावन बाबा भोलेनाथ के गौना के दूसरे दिन काशी में उनके गणों के द्वारा चिता भस्म की होली की मान्‍यता है। रंगभरी एकादशी के मौके पर गौरा को विदा कराकर कैलाश ले जाने के साथ ही भगवान भोलेनाथ काशी में अपने भक्‍तों को होली खेलने और हुडदंग की अनुमति प्रदान करते हैं। इसके बाद ही काशी होलियाने मूड में आती है। फिर तो अस्सी से लेकर राजघाट तक, क्या गली-क्या घाट चारो तरफ बनारसी मस्ती छा जाती है।

कितनी पुरानी है होली की शुरुआत

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। वैसे होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से भर जाते हैं।

रंग बरसे (तस्वीर साभार-मनोज कर)

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं। हालाँकि, इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्णिमा के दिन मनाए जाने के कारण पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवात्रैष्टि यज्ञ’ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।

भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। कहते हैं, इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे ‘मन्वादितिथि’ कहते हैं।

होली से जुड़ी पौराणिक कथाएँ

होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। भागवत पुराण के अनुसार- प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। जो आज के मुल्तान (पाकिस्तान) पर शासन करता था। ब्रह्मा जी ने उसकी कई वर्षों की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे ऐसा वरदान दिया था जिसने उसे एक प्रकार से अमर बना दिया था। अपने बल के घमंड में मदमस्त वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था।

यहाँ तक कि उसने अपने राज्य में भगवान विष्णु का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद नारायण भक्त था। प्रह्लाद की विष्णु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भगवान की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। इस कथा से आप में से लगभग सभी परिचित होंगे। लेकिन यहाँ इस कथा का मेरे जिक्र करने का उद्देश्य इसमें छिपी एक मर्म समझाना भी है।

सनातन परंपरा में ऐसी कहानियों का बहुत गूढ़ अर्थ है। प्रतीक रूप से ऐसा माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढूँढ़ी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

होलिका दहन

होलिका दहन का पहला काम झंडा या डंडा (रेड़ का पेड़) गाड़ना होता है। पर्व का पहला दिन होलिका-दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं।

होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।

होलिका पर चढ़ाई गई भरभोलिया और होलिका दहन

लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होलिका का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है।

होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा संगीत की लय में नृत्य में डूब जाते हैं।

होलिका दहन का मतलब अपने जीवन की सभी गैरजरूरी चीजों को जला देना भी है। इस दिन लोग सभी पुराने कपड़े और आस-पड़ोस के बच्चों के खिलौने और जिन चीजों की जरूरत न हो, उन्हें इकट्ठा करके सड़क पर ढेर लगाते हैं और उसे जलाते हैं।

आध्यात्मिक रूप से होलिका दहन का मकसद पुराने कपड़ों या वस्तुओं को जलाना ही नहीं है, बल्कि पिछले एक साल की यादों को जलाना है ताकि आज से आप एक नए और उल्लासमय जीवन के रूप में शुरुआत कर सकें।

रंग बरसे, उमंग बरसे

प्रेम और सौहार्द का प्रतीक होली से अगला दिन धूलिवंदन भी कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं।

होली आई रे कन्हाई रंग बरसे (साभार-ट्विटर)

सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। कबीरा और जोगीरा के माध्यम से समाज ने अपने मन की तमाम कुण्ठाओं के विसर्जन और मनोरंजन का भी उपाय कर रखा था।

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती।

अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।

नंदगाँव और बरसाने की लट्ठमार होली

कहते हैं मथुरा में नंदगाँव और बरसाना की लट्ठ और ढाल से खेली जाने वाली लट्ठमार होली नहीं देखी तो होली का रंग अधूरा ही रहता है। महिलाएँ लाठियाँ बरसाती हैं, पुरुष लाठियों के वारों को ढालों पर सहते हैं। जितना तेज लाठियों का प्रहार होता जाता है, उतना ही गाढ़ा प्रेम रंग श्रीकृष्ण के गाँव नंदगाँव और राधरानी के गाँव बरसाना के लोगों में गहरा होता चला जाता है।

नंदगाँव और बरसाने की लट्ठमार होली

फुलेरा दूज

हिन्दू कैलेंडर के अनुसार हर साल फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन फुलेरा दूज का पर्व मनाया जाता है। उत्तर भारत की खास पहचान फुलेरा दूज का पर्व मथुरा और वृंदावन में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन मंदिरों में भजन-कीर्तन और कृष्ण लीलाओं का आयोजन किया जाता है।

फुलेरा दूज- राधा कृष्ण के मिलन का प्रतीक फूलों की होली

शास्त्रों के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी ने इसी दिन फूलों की होली खेली थी। ये फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि थी। इसे रंगों का त्योहार भी कहते हैं। यह पर्व राधा और कृष्ण के महामिलन के दिन के रूप में भी मनाया जाता है।

मसाने की होली

महादेव की नगरी काशी में रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन महाश्मशान में होली खेली जाती है। यह दुनिया की सबसे अनूठी होली है। ऐसी मान्यता है कि जब भगवान शिव रंगभरी एकादशी के दिन माता पार्वती और पुत्र गणेश के साथ गौना कराकर काशी लौटते हैं तो उनका स्वागत सभी लोकों के लोग करते हैं। उसमें शिव के भूत-पिशाच भक्त गण और दृश्य-अदृश्य आत्माएँ मौजूद नहीं होतीं। इसलिए रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन महाश्मशान में महादेव अपने भक्तों के साथ भस्म से होली खेलते हैं। यह भस्म कोई साधारण भस्म नहीं होती इंसान के शव जलने के बाद पैदा होने वाली राख होती है।

परंपराओं के अनुसार, रंगभरी एकादशी के ठीक अगले दिन बनारस के मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव के स्‍वरुप बाबा मशान नाथ की पूजा कर श्‍मशान घाट पर चिता भस्‍म से उनके गण होली खेलते हैं।

काशी मोक्ष की नगरी है और मान्‍यता है कि यहाँ भगवान शिव स्‍वयं तारक मंत्र देते हैं। लिहाजा यहाँ पर मृत्‍यु भी उत्‍सव है और होली पर चिता की भस्‍म को उनके गण अबीर और गुलाल की भाँति एक दूसरे पर फेंककर सुख-समृद्धि-वैभव संग शिव की कृपा पाने का उपक्रम करते हैं।  

कहते हैं कि चिता भस्म की होली राग-द्वेष, जीवन-मरण और सुख-दुख से ऊपर उठ कर मनाने का पर्व है और परम्परा भी। काशीवासियों ने इसे न सिर्फ इसे जीवित रखा हुआ है, बल्कि उसे विधिवत सम्पन्न भी करते हैं।

शायद जो इस परंपरा के ऐतिहासिक या आध्यात्मिक महत्त्व से परिचित न हो उसके लिए यह नजारा थोड़ा विचित्र लग सकता है कि एक तरफ चिताएँ जल रही हैं, तो दूसरी तरफ मस्ती में लोग उसी की राख से होली खेल रहे हैं। इस तरह का अद्भुत नजारा दुनिया में काशी के अलावा शायद ही कहीं और देखने को मिले, जहाँ जितना महत्व जीवन को दिया जाता है, उतना ही मृत्यु को भी प्रदान किया जाता है।

वाराणसी की यह होली जीवन चक्र से छुटकारा पाने या मोक्ष पाने का नाम भी है। काशी के इस अद्भुत उत्सव में साफ दिखता है कि शंख ,घंटा घड़ियाल, डमरू और हर-हर महादेव की गूँज के साथ बनारस की होली न सिर्फ अद्भुत है, बल्कि कल्पना से भी परे है।

बुढ़वा मंगल

होली बनारस और बिहार के गया में बुढ़वा मंगल तक चलता है। होली के बाद आने वाले मंगलवार को काशीवासी बुढ़वा मंगल या वृद्ध अंगारक पर्व भी कहते हैं। होली युवाओं के जोश का त्यौहार है लेकिन बुढ़वा मंगल में बुजुर्ग लोगों का उत्साह भी दिखाई पड़ता है। बनारस में बुढ़वा मंगल के अवसर पर गीत-संगीत की महफ़िलों के साथ मेला भी लगता है। बनारस के इस पारम्परिक मेले से प्रमुख साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी सम्बद्ध रहे हैं।

बुढ़वा मंगल के दिन बनारस में बजड़े पर सजी गीत-संगीत की महफ़िल

हालाँकि, देश में बढ़ते कोरोना वायरस के मामले इस बार पिछले साल की तरह होली के रंग में भंग डालने का काम कर रहे हैं। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर जोर पकड़ती जा रही है, ऐसे में लाजमी है कि होली का रंग पिछले साल की तरह इस साल थोड़ा फीका रह सकता है। फिर भी उत्सवधर्मी देश राज्य सरकारों की इस नई गाइडलाइन के साथ एहतियात बरतने हुए भी आनंद मनाने का अवसर ढूँढ ही लेगा, यह भी इस देश की संस्कृति के मूल में ही है।

चलते-चलते एक जोगीरा की बानगी देखिए, जोगीरा मन के उन भावों को भी व्यक्त करने की कला है जो आमतौर पर मन में होती तो ज़रूर है पर कही नहीं जाती। तो चलिए एक जोगीरा हो जाए—

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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