जब भी लोग ऋग्वेद में वर्णित पवित्र सरस्वती नदी की बात करते हैं, तो वामपंथी अक्सर इसे इतिहास नहीं, बल्कि एक मिथक (कहानी) कहते हैं। लेकिन अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने एक अहम खोज की है। राजस्थान के डीग जिले के बहज गाँव में जमीन के 23 मीटर नीचे एक प्राचीन सूखी नदी का रास्ता मिला है। यह खोज यह साबित करने में मदद कर सकती है कि सरस्वती नदी वास्तव में अस्तित्व में थी।
Rajasthan dig reveals 3,500-year-old settlement and River channel: This ancient river system nourished early human settlements and connects Bahaj to the larger Saraswati basin culture. https://t.co/kLEjIGihTS
— Niraj Rai (@NirajRai3) June 25, 2025
पेलियोचैनल एक सूखी और बंद हो चुकी पुरानी नदी का रास्ता होता है। अप्रैल 2024 से मई 2025 के बीच खुदाई में कुछ अहम चीजें मिलीं। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का मानना है कि यह सूखा हुआ नदी मार्ग प्राचीन सरस्वती नदी का हिस्सा हो सकता है, जिसका जिक्र ऋग्वेद में है। खुदाई में यह भी पता चला कि यहाँ लगभग 3500 से 1000 ईसा पूर्व के बीच लोग रहते थे। ये सब निशान कुषाण, मगध और शुंग (या शुंगा) राजवंश के समय के हैं। भारत के पुरातात्विक इतिहास में यह पहली बार है जब किसी पेलियोचैनल की खोज हुई है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान एएसआई जयपुर के वरिष्ठ पुरातत्वविद विनय गुप्ता ने कहा कि यह प्राचीन नदी प्रणाली शुरुआती मानव बस्तियों के विकास में मददगार थी और बहज क्षेत्र को बड़ी सरस्वती नदी सभ्यता से जोड़ती है।
उन्होंने यह भी कहा कि यह पेलियोचैनल (सूखी नदी का मार्ग) एक अनोखी खोज है, जो यह साबित करती है कि प्राचीन जल स्रोतों ने यहाँ सभ्यता को पनपने में मदद की थी। ASI ने अपनी रिपोर्ट संस्कृति मंत्रालय को सौंप दी है, जो अब यह तय करेगा कि इस जगह को कैसे संरक्षित किया जाए। इस सूखी नदी के अलावा, ASI की टीम को मिट्टी के खंभों वाले मकानों के अवशेष, परतों वाली दीवारें, भट्ठियाँ और लोहे व ताँबे की चीजें भी मिली हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) की रिपोर्ट के अनुसार, खुदाई में मिले छोटे-छोटे पत्थर के औजार (जिन्हें माइक्रोलिथिक टूल्स कहते हैं) यह बताते हैं कि इस जगह पर इंसानों की बस्ती अत्यंत प्राचीन समय यानी होलोसीन काल से भी पहले की हो सकती है।
टीम को कई हिंदू धार्मिक वस्तुएँ भी मिलीं। इनमें 15 यज्ञ कुंड, शक्ति पूजा के लिए बनाए गए छोटे जल कुंड, और शिव व पार्वती की मिट्टी की मूर्तियाँ शामिल हैं, जो लगभग 1000 ईसा पूर्व की हैं। इसके अलावा, महाजनपद काल के भी यज्ञ कुंड मिले हैं। इनमें से ज्यादातर कुंडों में रेत भरी हुई थी और उनमें छोटे मटके थे, जिनमें बिना लिखावट वाले तांबे के सिक्के रखे गए थे।
सबूतों के बावजूद सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते रहे वामपंथी
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘अम्बितमे, नदितमे, देवितमे’ कहा गया है, जिसका अर्थ है: ‘सबसे उत्तम माँ, सबसे उत्तम नदी और सबसे उत्तम देवी।’ ऋग्वेद के मंत्रों में लगभग 50 बार सरस्वती नदी का उल्लेख मिलता है, जो यह दिखाता है कि यह नदी ऋग्वैदिक समाज और हिंदू धर्म के लिए कितनी महत्वपूर्ण थी।
सरस्वती को ‘गुप्तगामिनी’ भी कहा जाता है, जिसका मतलब है, ‘वह नदी जिसका प्रवाह छिपा हुआ है।’ प्राचीन काल में यह एक विशाल और पवित्र नदी मानी जाती थी, लेकिन समय के साथ इसकी वास्तविकता पर विवाद शुरू हो गया।
हालाँकि अब वैज्ञानिक और पुरातात्विक खोजें यह संकेत दे रही हैं कि एक विशाल प्राचीन नदी प्रणाली वास्तव में मौजूद थी, जो ऋग्वेद के वर्णनों से मेल खाती है, फिर भी कुछ वामपंथी इतिहासकार और प्रोपेगंडा फैलाने वाले मीडिया समूह लगातार इस विषय पर सच्चे शोध को भी खारिज करते रहे हैं। वे सरस्वती को केवल एक मिथक या प्रतीकात्मक कल्पना बताने की कोशिश करते हैं, न कि एक वास्तविक भौगोलिक नदी।
सरस्वती नदी के अस्तित्व या संभावित अस्तित्व को लेकर वामपंथी ‘विद्वानों’ और ‘मीडिया’ का जो रवैया दिखता है, वह ऊपर से देखने पर केवल एक शैक्षणिक असहमति लगता है। लेकिन असल में यह केवल शैक्षणिक नहीं है। हिंदू विरोधी वामपंथी समूह लंबे समय से उन शोधों और खोजों को नजरअंदाज या खारिज करते आ रहे हैं जो वैदिक परंपराओं की प्राचीनता और निरंतरता को साबित करते हैं। ये लोग ऋग्वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्ता को कमजोर करने की कोशिश करते हैं, जबकि ये ग्रंथ हिंदू सभ्यता की नींव माने जाते हैं।
असल में वामपंथी मीडिया में बार-बार सरस्वती नदी को ‘मिथक’ (काल्पनिक) कहकर बुलाना एक सुनियोजित प्रयास है, जिससे आम लोगों खासकर हिंदुओं के मन में यह बैठाया जा सके कि सरस्वती नदी सिर्फ एक कहानी है, न कि हकीकत। यह एक तरह की ब्रेनवॉशिंग है, जबकि पुरातात्विक साक्ष्य और वैज्ञानिक शोध बता रहे हैं कि यह नदी वास्तव में अस्तित्व में थी।
वामपंथी प्रोपगैंडा पोर्टल ‘द वायर’ ने भी लगातार सरस्वती नदी के अस्तित्व से इनकार किया है। यह पोर्टल न केवल इस विषय पर हो रहे शोध को नकारात्मक रूप से पेश करता है, बल्कि भारत की प्राचीन नदी प्रणालियों पर हो रही वैज्ञानिक खोजों का भी बिना सोचे-समझे मजाक उड़ाता है।
फरवरी 2019 में द वायर ने एक लेख छापा जिसका शीर्षक था ‘सरस्वती: वह नदी जो कभी थी ही नहीं, लेकिन हमेशा लोगों के दिलों में बहती रही।’ इस लेख में लेखक ने रोमिला थापर, इरफान हबीब और कुछ अन्य वामपंथी इतिहासकारों का जिक्र किया, जो पहले भी इस्लामी आक्रमणकारियों और अत्याचारियों का महिमामंडन और साथ ही साथ हिंदू इतिहास को कमजोर या छोटा करके दिखाने की कोशिश करते रहे हैं।

द वायर ने अपने एक लेख में दावा किया कि सरस्वती नदी शायद वैदिक आर्यों की एक मानसिक कल्पना मात्र थी, जो उन्होंने तब गढ़ी जब वे सिंधु और यमुना के बीच के शुष्क इलाके में पहुँचे, जहाँ पानी की बहुत कमी थी। लेख में कहा गया कि हाल की खोजों से यह साबित नहीं होता कि हड़प्पा काल में इस क्षेत्र में कोई ‘बारह-मासी नदी’ थी। लेख में इस बात पर भी नाराजगी जताई गई कि सरकार ने एक ‘अस्तित्वहीन’ नदी की खोज पर 50 करोड़ रुपये खर्च करने का फैसला किया।
2021 में द वायर ने फिर सरकार की आलोचना की जब हरियाणा के कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी पर शोध के लिए ‘सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर रिसर्च ऑन द सरस्वती रीवर’ (CERSR) की स्थापना की गई। द वायर ने अपने लेख का शीर्षक रखा ‘हाउ द इंडियन गवरमेंट इज पुशिंग मनी डाउन अ माइथोलॉजिकल रीवर’। इसमें मोदी सरकार के सरस्वती नदी का पता लगाने के प्रयासों को एक ‘हिंदू परियोजना’ कहा गया।

एक वास्तुकार और मूर्तिकार द्वारा लिखे गए लेख में इस बात पर भी अफसोस जताया गया था कि केंद्र सरकार चार धाम को जोड़ने और काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर पर पैसा खर्च कर रही है, जिससे पता चलता है कि सरकार हिंदू ‘पौराणिक कथाओं’ को बढ़ावा दे रही है।
इसमें यह भी कहा गया कि सरस्वती एक पौराणिक नदी है और पौराणिक कथाएँ तत्काल परिणाम देती हैं जबकि विज्ञान धीमा और साक्ष्य-आधारित है, इसलिए मोदी सरकार को इससे तुरंत लाभ नहीं मिल सकता है।
अगस्त 2018 में द वायर ने पत्रकार से यूट्यूबर बने रविश कुमार को भी मंच दिया, जहाँ उन्होंने सरस्वती नदी पर हो रहे शोध और सरकार के प्रयासों का मजाक उड़ाया। उन्होंने इस पूरे प्रयास को एक तरह के राजनीतिक और धार्मिक एजेंडे के तौर पर पेश किया।

जनवरी 2018 में ‘स्क्रॉल’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें सरस्वती नदी के अध्ययन के लिए एक स्थाई समिति के गठन की बात की गई थी। लेख के आखिरी पैराग्राफ में हमेशा की तरह सरस्वती नदी के अस्तित्व पर संदेह जताया गया।
ऐसे कई लेख हैं जो सरस्वती नदी को ‘मिथक’ (पौराणिक) नदी कहते हैं। जहाँ इस नदी की खोज को एक ‘हिंदू प्रोजेक्ट’ बताया जाता है, और जो भी विद्वान, इतिहासकार या पुरातत्वविद वेदों में वर्णित विवरणों के आधार पर इतिहास और अवशेषों की खोज करते हैं, उन्हें ‘हिंदुत्व से प्रभावित’ कहा जाता है।
वाममपंथी विचारधारा वाले ‘बुद्धिजीवियों’ द्वारा लिखे जाने वाले इन लेखों में अक्सर यह संकेत दिया जाता है कि प्राचीन हिंदू ग्रंथों में दिए गए वर्णनों से मेल खाने वाली जगहों की खुदाई का चलन अब आम हो गया है और इसे हिंदू राष्ट्रवादियों के ‘पुनर्जागरणवादी एजेंडे’ का हिस्सा बताया जाता है।
2001 में आयोजित इंडियन हिस्ट्री कॉन्ग्रेस में मुगल शासन की तारीफ करने और हिंदुओं को नकारात्मक रूप में दिखाने वाले वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब ने एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। इस लेख का शीर्षक था – ‘इमौजिन रीवर सरस्वती : अ डिफेंस ऑफ कॉमन सेंस।’
इसमें इरफान हबीब ने न सिर्फ कभी समृद्ध रही सरस्वती नदी की भव्यता को खारिज किया, बल्कि यह भी दावा किया कि सरस्वती के अस्तित्व से जुड़ी बातें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हैं, ताकि हिंदू केंद्रित इतिहास को बढ़ावा दिया जा सके। रोमिला थापर भी उन वामपंथी-मार्क्सवादी इतिहासकारों में शामिल रही हैं, जिन्होंने घग्गर-हकरा नदी तंत्र को प्राचीन सरस्वती नदी से जोड़ने वाले शोध और निष्कर्षों को नकारा है।
वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग वैदिक ग्रंथों और हिंदू शास्त्रों को अविश्वसनीय मानते हैं। उनके लिए इन ग्रंथों में जो कुछ भी लिखा है, वह ‘मिथक’ यानी काल्पनिक होता है। लेकिन अब वैज्ञानिक शोध की बढ़ती संख्या यह संकेत दे रही है कि उत्तर-पश्चिम भारत में ऐसे पेलियोचैनल (प्राचीन नदी मार्ग) पाए गए हैं, जो वेदों में वर्णित सरस्वती नदी के विवरणों से मेल खाते हैं।
2019 में IIT बॉम्बे और फिजिकल रिसर्च लैब, अहमदाबाद के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की एक टीम ने एक रिपोर्ट में कहा कि उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत के मैदानों में एक सदानीरा (हमेशा बहने वाली) नदी के प्रमाण पाए हैं। इसी नदी के किनारे प्रारंभिक हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ था।
इससे पहले यह माना जाता था कि हड़प्पा सभ्यता पूरी तरह मानसून पर निर्भर थी, लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि इस क्षेत्र में मौजूद घग्गर नदी के पुराने रास्ते के साथ-साथ कई हड़प्पा बस्तियाँ बसी हुई थीं। यह नदी अब मौसमी (सीजनल) बहाव वाली है, लेकिन इसके प्राचीन मार्ग सरस्वती नदी से जुड़े माने जा रहे हैं।
फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी-अहमदाबाद और IIT बॉम्बे के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए संयुक्त शोध में यह बताया गया है कि उत्तर-पश्चिम भारत में, आज की घग्गर नदी के मार्ग के साथ-साथ एक समय में सदानीरा (हमेशा बहने वाली) नदी बहती थी। वैज्ञानिकों का मानना है कि यही नदी प्राचीन सरस्वती नदी थी, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।
शोध के अनुसार, यह सरस्वती नदी हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों से 7000 ईसा पूर्व से 2500 ईसा पूर्व तक बहती रही। इसी नदी के किनारे हड़प्पा सभ्यता की सबसे पहली बस्तियाँ 3000 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच बसी थीं। शोध में यह भी कहा गया है कि जब सरस्वती नदी का प्रवाह कम हुआ और अंत में समाप्त हो गया, तो इसका सीधा असर हड़प्पा सभ्यता के पतन पर पड़ा।
इसके अलावा नदी और सभ्यता दोनों का पतन लगभग उसी समय हुआ जब करीब 4200 साल पहले ‘मेघालय चरण’ की शुरुआत हुई। यह एक ऐसा समय था जब दुनियाभर में जलवायु शुष्क होने लगी। अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि जहाँ सरस्वती का उद्गम गंगा, यमुना और सतलज के समान हिमालय के हिमनद क्षेत्रों में था, वहीं वर्तमान घग्गर का उच्च हिमालय से कोई सीधा संबंध नहीं है तथा इसका उद्गम हिमालय की तराई शिवालिक से होता है।
शोध के दौरान फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (PRL) में रेडियोकार्बन और ऑप्टिकल स्टिमुलेटेड ल्यूमिनेसेंस (OSL) तरीकों से सतह की उम्र का निर्धारण किया गया। वैज्ञानिक जे.एस. रे बताते हैं कि उन्होंने पाया कि सरस्वती नदी का प्रवाह लगभग 80,000 साल पहले से निरंतर बहता था और यह 20,000 साल पहले तक चलता रहा। इसके बाद नदी का प्रवाह बर्फीले युग (ग्लेशियल पीरियड) के अत्यधिक शुष्क होने के कारण घटने लगा। हालाँकि लगभग 9000 साल पहले नदी का प्रवाह फिर से मजबूत हुआ और 4500 साल पहले तक यह लगातार बहती रही।
शोध में यह भी कहा गया कि सरस्वती नदी के प्रवाह के घटने की मुख्य वजह सतलज से जुड़े जल मार्गों का सूखना था। बाद के हिंदू ग्रंथों जैसे महाभारत में भी सरस्वती नदी के घटते प्रवाह से गायब होने तक का वर्णन मिलता है।
शोध रिपोर्ट में कहा गया है, “घग्गर नदी का यह पुनर्जीवित सदानीरा (हमेशा बहने वाली) रूप, जिसे सरस्वती से जोड़ा जा सकता है, संभवतः हड़प्पा सभ्यता के शुरुआती बस्तियों के विकास में मददगार था। नदी का यह अंततः घटता हुआ प्रवाह, जो सभ्यता के पतन का कारण बना, लगभग उसी समय हुआ जब मेघालय चरण की शुरुआत हुई।”
शोध में यह भी बताया गया, “हमारा अध्ययन यह सामने लाता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग अपनी शुरुआती बस्तियाँ घग्गर नदी के उस मजबूत चरण के किनारे बसा रहे थे, जो लगभग 9000 से 4500 साल पहले था, और जिसे बाद में सरस्वती नदी कहा गया। हालाँकि जब यह सभ्यता परिपक्व हुई, तब तक नदी ने अपनी ग्लेशियल (बर्फीली) कनेक्टिविटी खो दी थी।”
अपनी किताब ‘द लैंड ऑफ सेवेन रीवर्स’ में प्रसिद्ध इतिहासकार और अर्थशास्त्री संजीद सान्याल ने टिप्पणी की है कि सरस्वती नदी के मार्ग के बदलने में भूवैज्ञानिक बदलाव (टेक्टोनिक शिफ्ट) की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। गुजरात का धोलावीरा जो कच्छ के रण में स्थित है, भी इसका एक उदाहरण है। वह कहते हैं, ‘यदि वहाँ पानी का कोई स्रोत नहीं होता, तो कोई भी सभ्यता उस जगह पर शहर नहीं बसा सकती थी।’
सान्याल ने यह भी माना है कि हड़प्पा सभ्यता का अंत सरस्वती नदी के समाप्त होने के कारण हो सकता है। उन्होंने यह सुझाव दिया कि इन शहरों में रहने वाले लोग नदी के खत्म होने के बाद गंगा के मैदानी इलाकों की ओर चले गए होंगे।

दिलचस्प बात यह है कि 2013 में लोकसभा में हरीश चौधरी द्वारा सरस्वती नदी के बारे में एक सवाल पूछा गया था। चूँकि ISRO प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के तहत कार्य करता है, इसलिए इस सवाल का जवाब सीधे प्रधानमंत्री को दिया गया। इस सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने उत्तर-पश्चिम भारत में पेलियोचैनल्स का अध्ययन किया और उन्हें सरस्वती नदी के चैनलों से जोड़ा है।
सरकार ने कहा, “सरस्वती नदी के एकीकृत पेलियोचैनल मानचित्र को हिमालय से लेकर कच्छ के रण तक तैयार किया गया है। उत्तर-पश्चिम भारत में सरस्वती नदी के पेलियोचैनल के मानचित्र वाले मार्ग का संबंध हिमालय की सदानीरा (हमेशा बहने वाली) स्रोत से किया गया है, जो सतलज और यमुना नदियों के माध्यम से जुड़ा हुआ था।”
सरकार ने यह भी बताया कि उत्तर-पश्चिम भारत में सरस्वती नदी के पूरे मार्ग का निर्धारण भारतीय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट डेटा और डिजिटल ऊँचाई मॉडल (DEM) का उपयोग करके किया गया। सैटेलाइट इमेजेज मल्टीस्पेक्ट्रल और मल्टीटेम्पोरल होती हैं, जिनमें एक सिनॉप्टिक (समग्र) दृश्य मिलता है, जो पेलियोचैनल्स का पता लगाने में मदद करता है।
पेलियोचैनल्स को ऐतिहासिक मानचित्रों, पुरातात्त्विक स्थलों, जलविज्ञान और ड्रिलिंग डेटा का उपयोग करके प्रमाणित किया गया। यह भी देखा गया कि प्रमुख हड़प्पा स्थल जैसे कालिबंगन (राजस्थान), बनावली और रेखीगढ़ी (हरियाणा), धोलावीरा और लोथल (गुजरात) सरस्वती नदी के किनारे स्थित हैं।

घग्गर-हकरा नदी प्रणाली के आसपास कई प्रमुख हड़प्पा स्थलों की खोज हुई है, जैसे कालिबंगन, रेखीगढ़ी और धोलावीरा। इससे संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में कभी एक बड़ी नदी बहती थी, जिसने सिंधु घाटी सभ्यता (जिसे कई बार सिंधु-सरस्वती सभ्यता भी कहा जाता है) के विकास में अहम भूमिका निभाई।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के पूर्व महानिदेशक पुरातत्वविद ब्रज बासी लाल (बी.बी. लाल)इस मत के मजबूत पक्षधर रहे हैं कि इन हड़प्पा स्थलों का जो भौगोलिक वितरण है, वह सरस्वती नदी के मार्ग से मेल खाता है, न कि केवल सिंधु (इंडस) नदी से। इसका मतलब यह है कि सरस्वती नदी भी हड़प्पा सभ्यता का एक केंद्रीय हिस्सा रही होगी।
यह भी दिलचस्प है कि कालिबंगन में हुई खुदाई में वैदिक यज्ञ वेदियाँ और यूप स्तंभ मिले हैं, जो वैदिक और हड़प्पा सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक निरंतरता का संकेत देते हैं। हालाँकि, बी.बी. लाल जैसे विद्वानों को कई बार वामपंथी-लिबरल समूह द्वारा ‘हिंदुत्व-प्रभावित’ कहकर बदनाम किया गया है, जबकि उनका काम ठोस शोध पर आधारित रहा है।
सरस्वती नदी को जानबूझकर ‘मिथक’ (काल्पनिक) कहकर खारिज करना, एक सोची-समझी कोशिश है ताकि हिंदू धर्मग्रंथों, खासकर वेदों की ऐतिहासिक विश्वसनीयता को कमजोर किया जा सके। यह बात तो समझी जा सकती है कि केवल धार्मिक ग्रंथों पर ही इतिहास लिखना उचित नहीं है, भले ही वे ग्रंथ हिंदू संस्कृति की नींव हों और वैदिक युग के जीवन व समाज की विस्तृत जानकारी देते हों, लेकिन समस्या तब होती है जब वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग वैध शोध पत्रों, पुरातात्त्विक खोजों और अन्य प्रमाणों को खारिज कर देते हैं, वो भी सिर्फ इसलिए कि कोई बात उनके एजेंडे से मेल नहीं खाती। वे न सिर्फ इन तथ्यों को नकारते हैं, बल्कि इस दिशा में आगे और शोध या खोज को रोकने की कोशिश भी करते हैं।
वामपंथी और अन्य हिंदू-विरोधी तत्व, जो लंबे समय से आर्य आक्रमण सिद्धांत (Aryan Invasion Theory – AIT) के समर्थक रहे हैं, केवल हिंदू ग्रंथों की ऐतिहासिकता को कमजोर करने के उद्देश्य से ही नहीं, बल्कि सरस्वती नदी को ‘मृत नदी’ कहकर उसकी खोज और अध्ययन का भी विरोध करते हैं। जबकि शोध यह दिखाते हैं कि सरस्वती नदी का सदानीरा रूप लगभग 9,000 से 4,500 साल पहले तक रहा और ऋग्वेद में इसका उल्लेख एक विशाल और बहती हुई नदी के रूप में है, जो 1900 ईसा पूर्व से पहले का समय हो सकता है।
कई विद्वानों का मानना है कि यह समय-सीमा वैदिक युग को परिपक्व हड़प्पा काल (2600-1900 ईसा पूर्व) के साथ जोड़ती है। इसका मतलब यह हो सकता है कि वैदिक और हड़प्पा सभ्यताएँ समकालीन (एक ही समय में मौजूद) थीं या शायद एक ही संस्कृति का हिस्सा थीं। यह खास बात है कि हड़प्पा स्थलों पर वैदिक धार्मिक तत्वों की खोज, किसी भी तरह के हिंसक आक्रमण के पुरातात्त्विक प्रमाणों की कमी और आनुवांशिक अध्ययनों में भारतीयों में बहुत कम स्टेपी (Steppe) वंश का पाया जाना, इन सभी ने आर्य आक्रमण सिद्धांत (Aryan Invasion Theory) के समर्थकों को बड़ा झटका दिया है।
अब तक के अध्ययनों ने विघटनकारी और हिंसक विदेशी आक्रमण के बजाय सांस्कृतिक निरंतरता का संकेत दिया है। यहाँ तक कि जब वामपंथी इतिहासकारों और विद्वानों ने ‘आक्रमण’ शब्द की जगह ‘प्रवासन’ (immigration) का इस्तेमाल कर नैरेटिव को बदलने की कोशिश की, तब भी उन्हें खास सफलता नहीं मिली।
सरस्वती नदी के अस्तित्व से इनकार करना, वामपंथियों को आर्य आक्रमण सिद्धांत (AIT) को किसी तरह जिंदा रखने में मदद करता है। अगर सरस्वती नदी को वास्तविक माना जाए, तो उन्हें ऋग्वेद की समय-सीमा को सिंधु घाटी सभ्यता के साथ मिलाने की जरूरत पड़ेगी, जो उनके नैरेटिव को पूरी तरह उल्टा कर देता है।
इसी वजह से जब NCERT ने अपने पाठ्यक्रम में हड़प्पा सभ्यता का नाम बदलकर ‘सिंधु-सरस्वती सभ्यता’ किया, तो वामपंथी और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग में बड़ी नाराजगी देखी गई। असल में सरस्वती नदी के अस्तित्व को स्वीकार करना न केवल वैदिक संस्कृति की प्राचीनता को प्रमाणित करता है, बल्कि मैक्समूलर जैसे विदेशी विद्वानों द्वारा फैलाए गए उस पुराने और विभाजनकारी दावे को भी झूठा साबित करता है जिसमें कहा गया है कि विदेशी आर्यों ने भारत आकर मूल द्रविड़ों को हराया और सिंधु घाटी सभ्यता को नष्ट कर दिया।
दिलचस्प बात यह है कि नवबौद्ध विचारधारा से जुड़े कुछ लोग आज भी आर्य-आक्रमण सिद्धांत को ही सच मानते हैं, जबकि ऑपइंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, उनके सबसे बड़े प्रेरणास्रोत डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी अपने तर्कों और तथ्यों के आधार पर आर्य आक्रमण सिद्धांत को खारिज कर दिया था।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भले ही वामपंथी-लिबरल समूह ने हिंदू इतिहास को बदनाम करने और सरस्वती नदी को केवल एक ‘मिथक’ साबित करने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन लगातार मिल रहे पुरातात्विक प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि जिसे वे ‘मिथक’ कहते हैं, वह वास्तव में एक ऐतिहासिक सच हो सकता है, जिसे अब तक पूरी तरह खोजा नहीं गया है।
इसलिए जरूरत है कि सरस्वती नदी पर और अधिक गहराई से शोध किया जाए, ताकि उसके हड़प्पा और वैदिक संस्कृतियों से संबंध को बेहतर तरीके से समझा जा सके। वहीं सरस्वती नदी और हड़प्पा और वैदिक संस्कृतियों से इसके संबंध पर भी और अधिक शोध किया जाना चाहिए ताकि प्राचीन नदी और स्वदेशी वैदिक-हड़प्पा सातत्य में इसकी भूमिका का पता लगाया जा सके।
यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में श्रद्धा पाण्डेय ने लिखी है। इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।