Wednesday, May 14, 2025
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मंदिरों का ध्वंस, गोहत्या, हिंदू नरसंहार… जिन ‘सूफी संतों’ की शह पर हुआ सब कुछ, अब उनकी ही आड़ में ‘Ajmer 92’ पर पर्दा चाहते हैं इस्लामी

अजमेर 92 फिल्म की रिलीज पर इस्लामी कट्टरपंथियों ने धमकी दी है कि सेक्स स्कैंडल के नाम पर यदि फिल्म में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती या फिर अजमेर दरगाह को अपमानित किया गया तो कानूनी कार्रवाई होगी।

राजस्थान के अजमेर में 90 के दशक में 100 से ज्यादा लड़कियों के साथ रेप हुआ। उस घटना पर ‘अजमेर 92’ नाम से फिल्म आ रही। इस्लामी संगठन इसका उसी तरह विरोध कर रहे हैं जैसे द कश्मीर फाइल्स, द केरल स्टोरी जैसी फिल्मों का किया गया था। अजमेर 92 का विरोध अजमेर शरीफ दरगाह और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का हवाला देकर किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इनसे इनकी छवि को नुकसान होगा। ख्वाजा लाखों दिलों पर राज करने वाले शांतिदूत बताया जा रहा है। दरगाह को बदनाम करने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इस फिल्म को मुस्लिमों के खिलाफ बताया जा रहा है।

अब मुस्लिम संगठनों में यह डर क्यों है? क्या फिल्म मेकर किसी काल्पनिक घटना पर फिल्म बना रहे हैं? नहीं! वो देश के सबसे बड़े सेक्स स्कैंडल पर फिल्म बना रहे हैं। अब अगर इसके आरोपितों के तार अजमेर दरगाह के खादिमों से जुड़ते हैं तो उसमें मेकर्स कैसे दोषी हो जाएँगे। आप अगर अजमेर सेक्स स्कैंडल से जुड़ी खबरें पढ़ेंगे तो आपको तीन आरोपितों के नाम ज्यादातर जगह देखने को मिलेंगे- फारुक चिश्ती, नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती। ये तीनों दरगाह के खादिम थे। फिल्ममेकर निष्पक्ष होकर पूरी आपराधिक घटना पर अपनी फिल्म बनाएँगे तो भी वो इस तथ्य को थोड़ी मिटा सकते हैं कि आरोपित खादिम थे।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का एम ए खान की किताब में जिक्र

अजमेर दरगाह के अलावा मुस्लिम संगठनों में जो सबसे बड़ा डर है वो ये कि कहीं इसके कारण ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपमानित न किया जाए जिन्हें गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है। वो उन्हीं के बल पर चाहते हैं कि फिल्म पर रोक लग जाए या इसे पर्दे पर न लाया जाए। जमीयत के मदनी ने तो ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को सबसे बड़ा शांतिदूत कहा है। हालाँकि ये बात और है कि इतिहासकार एमए खान की पुस्तक ‘इस्लामिक जिहाद: एक जबरन धर्मांतरण, साम्राज्यवाद और दासता की विरासत’  में प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के बारे में कुछ अलग पढ़ने को मिलता है।

किताब में कहा गया है कि मोइनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया, नसीरुद्दीन चिराग और शाह जलाल जैसे सूफी संतों का उल्लेख करते हुए जिक्र किया गया है कि वास्तव में, हिंदुओं के उत्पीड़न का विरोध करने की बात तो दूर, इन सूफी संतों ने बलपूर्वक हिंदुओं के इस्लाम में धर्म परिवर्तन में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। यही नहीं, ‘सूफी संत’ मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्दों ने हिंदू रानियों का अपहरण किया और उन्हें मोईनुद्दीन चिश्ती को उपहार के रूप में प्रस्तुत किया। इसी प्रकार सूफियों के अनुयायियों द्वारा हिंदुओं के पावन स्थलों पर गायों का कत्ल करवाने की बात और उन्हें खाने की बात भी पुराने लेखों में पढ़ने को मिलती हैं।

केरल और कश्मीर में ‘शांतिदूतों’ से फैली कट्टरता

और आपको जानकर हैरानी होगी कि ये हाल केवल अजमेर का नहीं। बल्कि ऐसी स्थिति केरल और कश्मीर की भी था। आज हमें सूफी-संतों के नाम पर शांति की जो बातें समझाई जाती हैं, उनका इतिहास बेहद डराने वाला है। कश्मीर के जो आज हालात हैं उसके पीछे ऐसे ही सूफी संत थे जो मजहबी कट्टरता फैलाने के लिए हिंदुओं पर नए-नए तरीकों से अत्याचार कर रहे थे। शाहमीर वंश के राज के दौरान छठे सुल्तान सिकंदर बुतशिकन के काल में तो हिंदुओं पर अत्याचार की हर सीमा लांघ दी गई। तब, सूफियों से मिली सीख पर ही राज्य नीतियाँ निर्धारित होने लगीं। इन नीतियों में हिंदुओं के मंदिर की तोड़फोड़, उनके निर्माण पर प्रतिबंध आदि लगा दिया गया। खुले तौर पर हिंदुओं को दोयम दर्जे का माना जाने लगा, उनसे इस्लाम कबुलवाना और न कबूलने पर उन्हें मारना, सब सामान्य हो गया। इसके बाद केरल में भी 1921 में जो केरल में नरसंहार हुआ था वो भी ऐसे विचारों का परिणाम था। उस समय भी हजारों हिंदू मारे गए थे, कई परिवर्तित हुए थे। उस नरसंहार के पीछे भी सूफी अली मुसलीयार का ही हाथ था। इस बात का जिक्र आपको राहुल रोशन की किताब में भी पढ़ने को मिलेगा।

क्यों घबराए मुस्लिम संगठन?

गौरतलब है कि आज अजमेर 92 फिल्म के चर्चा में आते ही इस तरह मुस्लिम संगठनों का भड़कना, उनका धमकियाँ देना… उसी कट्टरता का परिणाम है जो बीते इतिहास में सूफी-ंसंतों द्वारा मजहब के प्रसार के नाम पर फैलाई गई। ऐसे कट्टरपंथियों को उन 100 लड़कियों के साथ हुआ अत्याचार नहीं दिख रहा जिन्हें रेप के बाद ब्लैकमेल भी किया गया। इन्हें अगर कुछ नजर आ रहा है तो सिर्फ ये किसी भी तरह से बात दरगाह न तक आ जाए और किसी शख्सियत पर उंगली न उठ जाए। क्योंकि अगर ऐसा होता है तो उन शायद हिंदुओं का विश्वास भी डगमगा जाएगा जो सालों से हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के नाम पर दरगाहों तक जाकर चादर चढ़ाते हैं। लेकिन ये नहीं जानते कि बीते समय में उनके पूर्वजों के साथ शांतिदूतों के कहने क्या हुआ और कैसे हिंदू समाज- उनकी संस्कृति पर अत्याचार किए गए, उनके ख़िलाफ़ शासकों को भड़काया गया, जिहाद जैसे षड्यंत्र रचे, उनके पावन स्थलों को अपवित्र किया गया।

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