Thursday, April 18, 2024
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मंदिर तोड़े, देवी-देवताओं की मूर्ति खंडित की… जिनको दुनिया कहती ‘सूफी संत’, उनकी शह पर केरल से कश्मीर तक हिंदुओं का नरसंहार

सूफी संतों ने 14वीं शताब्दी में घाटी में राज करने वाले शाहमीर वंश के क्रूर शासकों को इस्लामी पाठ सिखाया था और इन्हीं सूफियों ने केरल के मोपला हिंदू नरसंहार में भी महत्तपूर्ण भूमिका निभाई थी।

90 के दशक में कश्मीरी पंडितों पर जो कुछ बीता उसे द कश्मीर फाइल्स फिल्म ने एक बार फिर से चर्चा में ला दिया है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो इस्लामी कट्टरता जिसमें सैंकड़ों हिंदू, घाटी में जले उसका बीज 90 के दशक या उसके आसपास नहीं बोया गया था। ये बीज पड़ा था 14 वीं शताब्दी में जिसमें सूफी संतों की बड़ी भूमिका थी। इन्हीं सूफी संतों ने 14वीं शताब्दी में घाटी में राज करने वाले शाहमीर वंश के क्रूर शासकों को इस्लामी पाठ सिखाया था और इन्हीं सूफियों ने केरल के मोपला हिंदू नरसंहार में भी महत्तपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके अलावा अजमेर के प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के बारे में भी कहा जाता है कि उनके शागिर्द हिंदुओं के पवित्र स्थल पर गाये कटवाने का काम करते थे।

कश्मीर में सूफी-संतों से फैली कट्टरता

राहुल रोशन की किताब- ‘संघी हू नेवर वेंट टू शाखा’ के अनुसार, कश्मीर का बर्बतापूर्ण इस्लामीकऱण शाहमीर वंश के राज के दौरान हुआ जिन्होंने यहाँ अपने मार्गदर्शन के लिए सूफियों को बसाया। इस वंश के छठे सुल्तान सिकंदर बुतशिकन (1389 से 1413) के काल में तो हिंदुओं पर अत्याचार की हर सीमा लांघ दी गई। तब, सूफियों से मिली सीख पर ही राज्य नीतियाँ निर्धारित होने लगीं। इन नीतियों में हिंदुओं के मंदिर की तोड़फोड़, उनके निर्माण पर प्रतिबंध आदि लगा दिया गया। खुले तौर पर हिंदुओं को दोयम दर्जे का माना जाने लगा, उनसे इस्लाम कबुलवाना और न कबूलने पर उन्हें मारना, सब सामान्य हो गया। कहीं से कहीं तक कश्मीर की धरती को ऋषि मुनियों की पवित्र भूमि के तौर पर नहीं रहने दिया गया और सूफियों की देख-रेख में वहाँ कश्मीरियत ने जन्म लिया।

साभार: संघी- हू नेवर वेंट टू शाखा

सूफियों की देखरेख में हुआ था पहला कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन

बताया जाता है कि बुतशिकन पहले ही एक क्रूर शासक था और जब उसे सूफी-संतों का साथ मिला तो हिंदुओं पर उसके अत्याचार और भी बढ़ गए। उसने मुस्लिमों की तादाद बढ़ाने के लिए अंतर धार्मिक विवाह को बढ़ावा दिया। हिंदुओं को तिलक लगाने से रोका। उनके मंदिरों में तोड़फोड़ की, देवी-देवताओं की मूर्ति को खंडित किया।

मौजूदा जानकारी बताती है कि कश्मीर में कट्टरता को बढ़ावा देने वाला शाहमीर राजवंश सैयद मीर अली हमदानी से प्रभावित था जो अन्य सूफी संतों के साथ पूरे कश्मीर के इस्लामीकरण में जुटा था। उसी ने कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार की बात कही थी। बाद में उसके बेटे मीर मोहम्मद हमदानी ने उसके नक्शेकदम पर चलते हुए सिकंदर बुतशिकन को कश्मीर से हिंदुओं के सफाए पर सीख दी और शुरू हुआ हर मंदिर और उसमें स्थापित देवी-देवताओं का मूर्ति को तोड़े जाने का घिनौना खेल।

हम लोगों को लगता है कि 90 के समय में पहली बार कश्मीर से हिंदुओं का पलायन हुआ। मगर हकीकत है कि सिकंदर के राज में भी तमाम कश्मीरी हिंदुओं ने कश्मीर को छोड़ दिया था। वहीं कई इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे और कुछ को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया था। जो ज्यादा भयभीत हुए उन्होंने खुद जहर खा लिया। पंडित जो जनेऊ पहनते थे उन्हें परिवर्तित होने या फिर मरने की धमकी दी गई। जब पंडित नहीं माने तो बर्बरता से मौत के घाट उतारा गया और उनके जनेऊ जलाकर उनकी पुस्तकों को डल झील में फेंक दिया गया। कहते हैं कि उस दौरान करीब 1 लाख से अधिक लोग डल झील मे डूबे थे जिन्हें श्रीनगर के रैनावारी में जला दिया गया था। आज वो जगह कश्मीर में भट्टा मजार कहलाती है।

केरल में हुए नरसंहार के पीछे सूफी कनेक्शन

कश्मीर पहली जगह नहीं है जहाँ पर इस्लामी कट्टरता के पीछे सूफी संतों का हाथ देखने को मिलता है। 1921 में जो केरल में नरसंहार हुआ था वो भी इसी विचारों का परिणाम था। उस समय भी हजारों हिंदू मारे गए थे, कई परिवर्तित हुए थे। राहुल रोशन की किताब बताती है कि उस नरसंहार के पीछे भी सूफी अली मुसलीयार का ही हाथ था।

संघी- हू नेवर वेंट टू शाखा

अजमेर के सूफी संत

इसके अलावा अगर आप इतिहासकार एमए खान की पुस्तक ‘इस्लामिक जिहाद: एक जबरन धर्मांतरण, साम्राज्यवाद और दासता की विरासत’ पढ़ते हैं तो वहाँ आपको प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के बारे में पढ़ने को मिलेगा जिन्हें आज हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से बुलाया जाता है।

मोइनुद्दीन चिश्ती

किताब में मोइनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया, नसीरुद्दीन चिराग और शाह जलाल जैसे सूफी संतों का उल्लेख है। इस पुस्तक में इस बात का भी जिक्र किया है गया है कि वास्तव में, हिंदुओं के उत्पीड़न का विरोध करने की बात तो दूर, इन सूफी संतों ने बलपूर्वक हिंदुओं के इस्लाम में धर्म परिवर्तन में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। यही नहीं, ‘सूफी संत’ मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्दों ने हिंदू रानियों का अपहरण किया और उन्हें मोईनुद्दीन चिश्ती को उपहार के रूप में प्रस्तुत किया। इसी प्रकार सूफियों के अनुयायियों द्वारा हिंदुओं के पावन स्थलों पर गायों का कत्ल करवाने की बात और उन्हें खाने की बात भी पुराने लेखों में पढ़ने को मिलती हैं।

एमए खान की पुस्तक का अंश

आज के हिंदुओं का सूफी-संतों से प्यार

अब हैरानी इस बात की है कि जिन सूफी संतों ने हिंदू समाज और उनकी संस्कृति पर इतने अत्याचार किए, उनके ख़िलाफ़ अपने शासकों को भड़काया, जिहाद जैसे षड्यंत्र रचे, उनके पावन स्थलों को अपवित्र किया…उन्हें आज हिंदू इतना शांतिपूर्ण कैसे मानते हैं कि उनकी दरगाह पर जितनी भीड़ मुस्लिमों की होती है उतने ही हिंदू भी वहाँ जाते हैं…तो बता दें कि शांतिपूर्ण सूफीवाद का कॉन्सेप्ट सदियों से वामपंथी इतिहासकारों द्वारा फैलाया गया और यही पढ़कर बढ़े हुए हिंदू अपने इतिहास, अपने पूर्वजों के साथ हुआ बर्बता से अनभिज्ञ हैं। इन हिंदुओं को कश्मीर से लेकर केरल तक में हिंदू-मुस्लिम भाईचारा प्रिय है, लेकिन दूसरे पक्ष को सिर्फ अपना मजहब जिसके नाम पर सैंकड़ों हिंदुओं को मारा गया। आज भले ही सूफीवाद को आप एक मधुर संगीत या वामपंथी तथ्यों से परखते हों, लेकिन इसका एक पक्ष ये भी जो आपको लेख में बताया गया।

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