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Sunday, April 13, 2025
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गवर्नर ही नहीं, राष्ट्रपति के लिए भी तय कर दी डेडलाइन, जानिए तमिलनाडु विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्यों उठ रहे सवाल: क्या है ‘जेबी वीटो’

सुप्रीम कोर्ट ने कहा राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति को भेजे जाने के तीन महीने के भीतर उस पर एक्शन लेना होगा। कोर्ट ने कहा कि इसके बाद भी विधेयक रोके जाने पर कारण बताने होगे।

देश की सबसे बड़ी अदालत ने राष्ट्र के मुखिया की शक्तियों पर कैंची चला दी है। तमिलनाडु के राज्यपाल के विधेयकों को रोकने से जुड़े एक मामले में फैसला सुनाते हुए राष्ट्रपति की ‘जेबी वीटो’ से जुड़ी शक्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर एक्शन के लिए समय सीमा तय कर दी है।

इस फैसले के बाद देश में न्यायपालिका के सरकारी काम में हस्तक्षेप और शक्तियों के बँटवारे पर दोबारा बहस चालू हो गई है। राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर यह सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा फैसला है और इसमें समय सीमा वाली बात ने इसे और भी गंभीर बना दिया है।

क्या है मामला?

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को तमिलनाडु डीएमके सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई की। डीएमके सरकार ने यह याचिका राज्य के राज्यपाल RN रवि के विधेयकों को रोकने के खिलाफ लगाया था। तमिलनाडु की सरकार ने कहा कि उसके द्वारा पास किए गए विधेयकों को राज्यपाल मंजूरी नहीं दे रहे हैं।

तमिलनाडु की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि राज्यपाल RN रवि ने विधानसभा द्वारा पारित किए गए 10 विधेयकों को लटका रखा है। तमिलनाडु ने बताया था कि विधानसभा में 2 बार पारित किए जाने के बावजूद राज्यपाल ने इन विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोक रखा है।

इस मामले राज्यपाल पर ‘जेबी वीटो’ का इस्तेमाल करने की बात तमिलनाडु ने कही थी। तमिलनाडु ने बताया था कि यदि ऐसा होता रहा तो कानून लटक जाएँगे और शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। तमिलनाडु ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से माँग की थी कि वह इन विधेयकों को पारित करने सम्बन्धी कोई स्पष्ट नियम दे।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला दिया?

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले अंतिम सुनवाई 8 अप्रैल, 2025 को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की दलीलों को मानते हुए राज्यपाल द्वारा रोक रखे गए विधेयकों को मंजूरी दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने इसी के साथ राज्यपालों को भेजे गए विधेयकों को लेकर समय सीमा भी तय कर दी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों के संबंध में की गई सभी कार्रवाइयों को रद्द किया जाता है। राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किए जाने की तिथि से ही 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी गई मानी जाएगी।” कोर्ट ने इसी के साथ कहा कि राज्यपाल को विधानमंडल द्वारा भेजे गए विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को भेजे जाने के एक महीने के भीतर उसे राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। इसके अलावा अगर वह विधेयक वापस लौटाना चाहता है, तो यह काम तीन महीने के भीतर करना होगा और दोबारा भेजे गए विधेयक को एक माह के भीतर मंजूरी देनी होगी।

राष्ट्रपति पर क्या कह दिया?

तमिलनाडु मामले में फैसला सुनाते हुए जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों पर कैंची चलाई ही, उसने राष्ट्रपति की शक्तियों पर भी टिप्पणियाँ की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति को भेजे जाने के तीन महीने के भीतर उस पर एक्शन लेना होगा। कोर्ट ने कहा कि इसके बाद भी विधेयक रोके जाने पर कारण बताने होगे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर उस तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है, जिस दिन उसे यह भेजे जाएँगे। इस समय से अधिक किसी भी देरी के मामले में उचित कारणों को दर्ज किया जाना होगा और इस मामले में सम्बन्धित राज्य को भी जानकारी देनी होगी।”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति के किसी विधेयक को मंजूरी ना देने की स्थिति में राज्य अदालत का रुख कर सकते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राष्ट्रपति किसी कानूनी आधार पर विधेयक को रोकते हैं, तो इस संबंध में भी विधेयक की संवैधानिकता का फैसला वह स्वयं करेगा, ना कि राष्ट्रपति।

राष्ट्रपति के किसी विधेयक पर दिए गए फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट सुन सकता है, यह भी निर्णय में कहा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे राज्यपाल के पास किसी विधेयक को लम्बे समय तक लटका कर रखने के लिए शक्ति नहीं है, यही बात राष्ट्रपति पर भी लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों के पास ‘जेबी वीटो’ की शक्तियाँ नहीं है।

क्या होता है ‘जेबी वीटो’?

‘जेबी वीटो’ या ‘पॉकेट वीटो’ उस शक्ति को कहा जाता है जब राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पास भेजे गए किसी विधेयक को लेकर कोई फैसला नहीं लेते। वह ना इस पर मंजूरी देते हैं और ना ही इसको वापस विधानमंडल को लौटाते हैं। इसके चलते वह विधेयक लंबित की श्रेणी में रहता है और क़ानून नहीं बनता।

राष्ट्रपति की यह शक्तियाँ संविधान में नहीं लिखी लेकिन विधेयक पर मंजूरी देने या ना देने की समय सीमा तय ना होने के चलते यह मानी जाती रही हैं। संविधान के अनुच्छेद 201 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा भेजे गए किसी विधेयक पर क्या निर्णय लेता है।

राष्ट्रपति विधेयक विधानमंडल को वापस लौटाने की बात राज्यपाल से कह सकता है या फिर उसे मंजूर भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में 6 माह के भीतर दोबारा विधानमंडल को राष्ट्रपति के पास अपना विधेयक भेजना होता है। वह इसे पुराने स्वरुप में ही भेज सकते हैं या बदलाव भी कर सकते हैं।

दूसरे मौके पर राष्ट्रपति इस पर क्या निर्णय लेता है, इस को लेकर संविधान में समय सीमा तय नहीं है। राष्ट्रपति सिर्फ राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयक ही नहीं बल्कि संसद द्वारा पारित विधेयक के संबंध में भी कर सकता है। यह कदम राष्ट्रपति रहने के दौरान ग्यानी जैल सिंह ने उठाया था।

उन्होंने राजीव गाँधी की सरकार द्वारा 1986 में पारित भारतीय डाक कानून (संशोधन) को लटका कर रखा था और मंजूरी नहीं दी थी। यह कानून उसके बाद लटका ही रहा और इसे मंजूरी नहीं मिल सकी। राष्ट्रपति के ‘जेबी वीटो’ का यह एक बड़ा उदारहण था। हालाँकि संसदीय कानून के संबंध में अभी सुप्रीम कोर्ट ने कोई निर्णय नहीं दिया है।

‘न्यायिक दखल’ की क्यों हो रही बात?

सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रपति को लेकर दिए गए इस फैसले के बाद न्यायपालिका के दखल को लेकर चर्चा चालू हो गई है। संविधान में राष्ट्रपति को देश का प्रमुख बताया गया है। आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति के ऊपर समयसीमा लगाना उसकी शक्तियों को कतरने जैसा है। इसके अलावा उसके हर निर्णय को अपनी सुनवाई के दायरे में लाने पर भी यही बात कही जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रपति के ही निर्णय को न्यायिक दायरे में लाना इसलिए भी ज्यादा चर्चा में है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से होती है। इसी के चलते प्रश्न उठाए जा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियाँ करने वाले राष्ट्रपति को न्यायिक दायरे में कैसे खींचा जा सकता है।

इसे आलोचकों ने ‘न्यायिक दखल’ और ‘कार्यपालिका पर अतिक्रमण’ कहा है। गौरतलब है कि संविधान में स्पष्ट तौर पर न्यायपालिका और सरकार के काम बाँटे गए हैं। कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के कामों को लेकर फैसले दिए हैं, जिससे विवाद पैदा हुआ है।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने की प्रक्रिया में भी CJI को शामिल कर दिया था। इसे भी न्यायिक दखल माना गया था। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पास किया गया NJAC कानून भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। आलोचक इन्हें न्यायिक दखल का उदाहरण मानते आए हैं।

केरल के राज्यपाल राजेन्द्र आर्लेकर ने भी इस निर्णय को लेकर तीखी टिप्पणी की है। उन्होंने पूछा है कि यदि संविधान में बदलाव सुप्रीम कोर्ट कर रहा है, तो फिर विधानसभा और संसद किस लिए बनाई गई हैं। उन्होंने कहा कि इस मामले को एक बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए था।

राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का यह बीते समय में बड़ा फैसला है। ऐसे में इस पर आगे सरकार कोई एक्शन लेगी या नहीं, यह बात देखने वाली होगी।

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