Thursday, June 5, 2025
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140 नए OBC समूह, 97 मुस्लिम समुदाय और 17% आरक्षण: 2024 में हाई कोर्ट ने लगा दी थी रोक, मानसून सत्र में फिर सर्वे पेश करेंगी ‘ममता दीदी’

बंगाल के कुल ओबीसी आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदायों को दिया गया है। बंगाल सरकार का तर्क है कि ये मुस्लिम समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और इसलिए उन्हें आरक्षण की आवश्यकता है। सरकार का दावा है कि ये फैसले दो सर्वे और पिछड़ा वर्ग आयोग की सुनवाई जैसी 'तीन-स्तरीय प्रक्रिया' के बाद लिए गए हैं।

पश्चिम बंगाल में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण का मुद्दा इन दिनों गरमाया हुआ है। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार ने हाल ही में एक नया ओबीसी सर्वे पूरा किया है, जिसमें 140 नए उप-समूहों को ओबीसी कैटेगरी में शामिल करने की बात कही जा रही है। सरकार इस रिपोर्ट को 9 जून 2025 से शुरू होने वाले विधानसभा के मानसून सत्र में पेश करने जा रही है और संकेत दिए हैं कि 17% ओबीसी आरक्षण नीति को बरकरार रखा जाएगा।

मुस्लिमों को आरक्षण क्यों मिल रहा है?

  • बंगाल में ओबीसी आरक्षण दो श्रेणियों में बंटा हुआ है। पहला ‘ओबीसी ए’- इसमें 10% आरक्षण है और कुल 81 समुदाय शामिल हैं, जिनमें से चौंकाने वाले 56 मुस्लिम समुदाय से हैं।
  • ओबीसी बी- इसमें 7% आरक्षण है और कुल 99 समुदाय शामिल हैं, जिनमें से 41 मुस्लिम समुदाय से हैं।

इसका मतलब यह है कि बंगाल के कुल ओबीसी आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदायों को दिया गया है। बंगाल सरकार का तर्क है कि ये मुस्लिम समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और इसलिए उन्हें आरक्षण की आवश्यकता है। सरकार का दावा है कि ये फैसले दो सर्वे और पिछड़ा वर्ग आयोग की सुनवाई जैसी ‘तीन-स्तरीय प्रक्रिया’ के बाद लिए गए हैं।

कोर्ट क्यों लगा रही है रोक?

यह पूरा विवाद तब शुरू हुआ जब मई 2024 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने बंगाल सरकार द्वारा जारी किए गए करीब 12 लाख ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने अपने कड़े फैसले में साफ तौर पर कहा था कि ‘धर्म ही इन समुदायों को ओबीसी घोषित करने का एकमात्र मानदंड प्रतीत होता है।’

भारतीय संविधान के तहत आरक्षण केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया जा सकता है, धर्म के आधार पर नहीं। हाई कोर्ट ने पाया कि बंगाल सरकार ने कई मुस्लिम समुदायों को केवल उनके धर्म के आधार पर ओबीसी सूची में डाल दिया, जो असंवैधानिक है।

कोर्ट का मानना है कि इससे आरक्षण के मूल सिद्धांत का उल्लंघन होता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी बंगाल सरकार को इन उप-समूहों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को स्पष्ट करने के लिए कहा था, न कि केवल धार्मिक पहचान के आधार पर उन्हें शामिल करने के लिए।

बीजेपी यह मुद्दा उठा रही है कि अगर धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जाता है, तो हिंदू और अन्य समुदाय के जो सच्चे हकदार ओबीसी हैं, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया जाएगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो हिंदू मतदाताओं के बीच अपील कर सकता है।

ममता बनर्जी सरकार इस मामले में कई मोर्चों पर सवालों के घेरे में-

हाई कोर्ट का फैसला सीधे तौर पर बंगाल सरकार पर ‘धर्म आधारित’ आरक्षण देने का आरोप लगाता है, जो एक गंभीर संवैधानिक उल्लंघन है। यह आरोप ममता सरकार की धर्मनिरपेक्षता की छवि को धूमिल करता है और उस पर मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने की राजनीति का आरोप लगता है।

बंगाल सरकार को बार-बार अदालतों से फटकार मिल रही है, जो उसकी नीतियों की वैधता पर सवाल उठाती है। 12 लाख ओबीसी प्रमाणपत्रों का रद्द होना सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और उसकी प्रशासनिक क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

बंगाल सरकार ने दावा किया है कि उसने ‘तीन-स्तरीय प्रक्रिया’ का पालन किया है, लेकिन हाई कोर्ट के फैसले से पता चलता है कि यह प्रक्रिया शायद उतनी पारदर्शी और संवैधानिक नहीं थी जितनी होनी चाहिए थी। तेजी से नए सर्वे को पूरा करना भी संदेह पैदा करता है कि क्या यह पूरी तरह से वैज्ञानिक और निष्पक्ष तरीके से किया गया है। सुप्रीम कोर्ट की समय-सीमा और लाखों नौकरी आवेदकों के प्रभावित होने का दबाव सरकार को तेजी से फैसले लेने पर मजबूर कर रहा है, जिससे गलतियों की संभावना बढ़ जाती है।

आगे क्या?

बंगाल सरकार अब नए सर्वे को विधानसभा में पेश करेगी और हो सकता है कि यह मामला एक बार फिर कानूनी और राजनीतिक रूप से गरमा भी सकता है। यह देखना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट इस नए सर्वे और उसमें शामिल 140 उप-समूहों पर क्या रुख अपनाता है, और क्या बंगाल में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा एक नई राजनीतिक लड़ाई का कारण हो सकता है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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