Monday, March 10, 2025
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अरुणाचल में जब 1% थे ईसाई तब बना धर्मांतरण रोकने का कानून, अब 30% के हुए पार तो लागू हो रहा: जानिए अब मिशनरी क्यों कर रहे विरोध

अरुणाचल में 1971 में ईसाई 1% भी नहीं थे, अब वह 30% से अधिक हैं। 1971 में राज्य में हिन्दू, बौद्ध और स्थानीय धर्मों जैसे कि दोन्यी पोलो 97% थे। 2011 आते-आते बौद्ध लगभग 11% जबकि दोन्यी पोलो मात्र 26% रह गए हैं। राज्य में ईसाई इसके बावजूद धर्मांतरण विरोधी कानून के खिलाफ हैं।

अरुणाचल प्रदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून लागू किए जाने का ईसाई विरोध कर रहे हैं। प्रदेश की जनसंख्या में एक तिहाई हिस्सा रखने वाले ईसाई समुदाय के कई संगठन इसको लेकर सड़क पर उतर आए हैं। यह कानून बीते 5 दशक पहले अरुणाचल विधानसभा की मंजूरी पा चुका है लेकिन अब तक लागू नहीं हो सका है। इस बीच राज्य में ईसाई आबादी 30 गुना बढ़ चुकी है। लेकिन अब भाजपा सरकार इस कानून को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है। यह काम गुवाहाटी हाई कोर्ट के एक आदेश के बाद हो रहा है।

क्यों हो रहा प्रदर्शन?

6 मार्च, 2025 को अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में लाखों ईसाई सड़कों पर उतरे। इन्हें अरुणाचल क्रिश्चियन फोरम (ACF) नाम के एक संगठन ने इकट्ठा किया था। यह ईसाई अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम कानून (APFRA) वापस लेने की माँग कर रहे हैं। यह कानून अरुणाचल प्रदेश के जनजातीय समुदाय के संरक्षण के लिए बनाया गया था।

ईसाई प्रदर्शनकारियों का कहना है कि यह क़ानून उनके धार्मिक अधिकारों पर हमला करता है और सरकार इसे लागू ना करे। इससे पहले फरवरी, 2025 में भी उन्होंने इस कानून के विरोध में एक बार भूख हड़ताल भी की थी। ACF ने दावा किया है कि यह क़ानून ईसाई समुदाय को लक्ष्य बनाकर लागू किया जाएगा।

ACF ने अरुणाचल प्रदेश के बाकी संगठनों से भी इस क़ानून का विरोध करने को कहा है। उन्होंने कहा है कि इससे राज्य की लगभग एक तिहाई ईसाई जनसंख्या को नुकसान होगा। राज्य में विपक्षी कॉन्ग्रेस ने भी ईसाई संगठनों का समर्थन किया है और कहा है कि सरकार यह कानून लागू करके जबरदस्ती बवाल खड़ा करना चाहती है।

क्या कहता है यह क़ानून?

ईसाई समूह वर्ष 1978 में राज्य विधानसभा द्वारा पारित किए गए अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (APFRA) कानून को लागू ना करने की माँग कर रहे हैं। यह कानून लालच या दबाव से करवाए जाने वाले धर्मांतरण को रोकने के लिए बनाया गया था।

इस कानून के अंतर्गत बौद्ध धर्म (मोनपा, मेम्बा, शेरदुकपेन, खम्बा, खम्पति और सिंगफोस द्वारा प्रचलित), वैष्णव (नोक्टेस द्वारा प्रचलित), आका और प्रकृति पूजक (दोन्यी-पोलो उपासक) को स्थानीय धर्म का दर्जा दिया गया था। यानी यह राज्य में पहले से मौजूद धर्म माने गए थे।

यह कानून कहता है, “कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्षत रूप से या किसी भी व्यक्ति को शक्ति, लालच किसी और झाँसे में लेके धार्मिक आस्था से किसी अन्य धार्मिक आस्था में परिवर्तित नहीं करेगा या परिवर्तित करने का प्रयास नहीं करेगा और ना ही कोई व्यक्ति ऐसे किसी धर्म परिवर्तन के लिए उकसाएगा।”

इसका उल्लंघन करने वाले को 2 साल की सजा और ₹10 हजार तक का जुर्माना झेलना पड़ सकता है। इसके अलावा कानून में यह भी स्पष्ट किया गया था कि राज्य में यदि कोई धर्मांतरण करना चाहता है तो उसे पहले प्रशासन को सूचित करना पड़ेगा। ऐसा ना करने पर 1 वर्ष तक की सजा या फिर ₹1000 का जुर्माना झेलना पड़ेगा।

1978 में पास हुआ, अब हो रहा लागू

अरुणाचल प्रदेश में यह कानून 1978 में जनता पार्टी के शासनकाल में लाया गया था। तब प्रेम खांडू थान्गुन यहाँ के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार ने राज्य के जनजातीय समूहों की संस्कृति का संरक्षण करने और उन्हें धर्मांतरण के जाल से बचाने के लिए यह कानून पारित किया था। लेकिन बाद में लम्बे समय तक राज्य में कॉन्ग्रेस सरकारें रहीं और इसे लागू नहीं किया गया।

अरुणाचल प्रदेश में यह कानून इसलिए लाया गया था क्योंकि इससे पहले मिजोरम, मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्य में बड़ी आबादी ईसाई हो चुकी थी। हालाँकि, यह कानून 1978 के बाद से 2025 तक लागू नहीं हो सका। इसके पीछे राज्य में ईसाई समूहों का दबाव था।

अब यह कानून गुवाहाटी हाई कोर्ट के आदेश के बाद लागू किया जा रहा है। सितम्बर, 2024 में हाई कोर्ट की ईटानगर बेंच ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि वह इसे लागू करने के लिए मसौदा तैयार करें। इसकी डेडलाइन मार्च में खत्म हो रही है, ऐसे में राज्य सरकार इस पर कदम बढ़ा रही है। वहीं इसके विरोध में ईसाइयों ने अपना प्रदर्शन तेज कर दिया है।

क्यों जरूरी है कानून लागू होना?

अरुणाचल प्रदेश में जहाँ दशकों तक इस कानून का विरोध ईसाई करते रहे हैं, वहीं इस बीच राज्य में ईसाइयों की आबादी लगभग 30 गुना बढ़ चुकी है। जनसंख्या के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 1971 में राज्य में मात्र 0.79% आबादी ही ईसाइयत मानती थी। 2011 की जनसंख्या में यह आँकड़ा 30% के पार पहुँच चुका था।

यह तेज बढ़त तब हुई जब अरुणाचल प्रदेश को इंदिरा गाँधी ने 1971 में केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया। इसके बाद राज्य में राजीव गाँधी के राज के दौरान जब यह राज्य बना तो इसने और भी तेज रफ्तार पकड़ ली। वहीं इसी दौरान हिन्दुओं की आबादी केवल 22% से 29% तक ही पहुँची है।

अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2011 के बीच सबसे तेजी से बौद्धों और स्थानीय मान्यताओं को मानने वाले (अधिकांश दोन्यी पोलो) की संख्या में कमी आई है। जनसंख्या रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 1971 में राज्य की 63% आबादी स्थानीय धर्मों को मानने वाली (अधिकांश दोन्यी पोलो) और 13% से अधिक बौद्ध थे।

2011 आते-आते बौद्ध जनसंख्या जहाँ घट कर 11% पर आ गई है तो वहीं दोन्यी पोलो राज्य में मात्र 26% पर आ गए हैं। राज्य में अब आगे और भी धर्मांतरण ना हो सके, इसलिए राज्य में कानून लागू हो रहा है तो ईसाई संगठन विरोध कर रहे हैं। हालाँकि, इस कानून को यहाँ के स्थानीय समूहों ने पूरा समर्थन दिया है।

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