Friday, April 19, 2024
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माना कि तू खुद से खुदा हुए जा रहा है, पर इश्क में शहर होना नहीं है लोकसभा में उनके सामने खड़े होना

जवाब से ज्यादा दिलचस्प रवीश कुमार का वो नाटकीय अंदाज है, जिसमें ये आया है। वो हँसी जो उनके चेहरे पर लोकसभा का नाम लेते ही खिल उठी। यह बताता है कि किस शिद्दत से रवीश कुमार को ऐसे किसी सवाल का इंतजार था। वे इसका जवाब देने को कितने बेसब्र थे।

तुम्हारी पसंद का विषय क्या है? राजनीति सर। अंग्रेजी का पता नहीं। लेकिन हिंदी पत्रकारिता का यह कॉमन सवाल और जवाब है। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे प्रदेशों के ज्यादातर युवक/युवतियाँ पॉलिटिकल बीट पाने की आकांक्षा लिए ही पत्रकारिता की शुरुआत करते हैं। यह दूसरी बात है कि ज्यादातर की आकांक्षा पूरी नहीं होती। फिर वे दाल-रोटी के​ लिए रक्षा से लेकर साहित्य तक के जानकार बन जाते हैं। मुझे नहीं पता कि रवीश कुमार से उनकी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में किसी ने यह सवाल किया था या नहीं। वे खुद भी बताते हैं कि एनडीटीवी में चिट्ठी छाँटने आए थे।

सवाल भले न पूछा गया हो, लेकिन यह वह आकांक्षा है जो कभी भी रवीश कुमार की लोमड़ हीं हीं हीं में दबी नहीं। जब भी उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर RSS तक पर किताब लिखने वाले विजय त्रिवेदी की चर्चा की या बाबा नाम से चर्चित मनोरंजन भारती की, यह आकांक्षा बिना बोले भी चेहरे पर प्रकट होती रही। वे भले दिखाएँ कि इनका जिक्र इश्क में किया है, लेकिन रश्क चेहरे पर स्वतः स्फूर्त रहती है। शायद इसे ही इश्क में शहर होना भी कहते हों।

यह आकांक्षा उन्होंने अपने कर्म से भी दिखाई है। कहते हैं कि बिहार में ब्रजेश पांडेय को कॉन्ग्रेस का टिकट उनकी ही कमाई है। बैंक अकाउंट में आने वाली कमाई नहीं, काली स्क्रीन वाली कमाई। जब इन ब्रजेश पांडेय पर दलित नाबालिग के यौन शोषण का आरोप लगा तब भी ‘बोलना ही है’ वाले रवीश कुमार ने रहस्यमयी चुप्पी बनाए रखी। वैसे यह हैरान नहीं करता, क्योंकि आरोपों पर गंभीर चुप्पी राजनीतिक आकांक्षा की स्वभाविक उपज है।

अब रवीश की इस आकांक्षा का प्रस्फुटन बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में हुआ है। 29 मिनट 46 सेकेंड का यह इंटरव्यू रवीश कुमार के कुंठा स्खलन का एक नया नमूना है। इसमें जो नया है, वह 22:10 से 24:05 के बीच आप सुन सकते हैं। रवीश कुमार से विपक्षी दलों से ऑफर मिलने को लेकर सवाल किया जाता है। जवाब में वे किसी राजनीतिक दल से ऑफर की बात नहीं कहते। वे कहते हैं, “दोस्त, शुभचिंतक कहते हैं कि आपको राजनीति में आना चाहिए। बहुत सारे लोगों की चाहत है। कहते रहते हैं लोग। लेकिन मैं ये सोचता हूँ कि आप कल्पना कीजिए कि अगर मैं राजनीति में हूँ। मैं लोकसभा में हूँ उनके सामने… लोकसभा तो कोई खरीद नहीं सकता न या वो भी खरीद लेगा कोई सेठ आकर…”

जवाब से ज्यादा दिलचस्प रवीश कुमार का वो नाटकीय अंदाज है, जिसमें ये आया है। वो हँसी जो उनके चेहरे पर लोकसभा का नाम लेते ही खिल उठी। यह बताता है कि किस शिद्दत से रवीश कुमार को ऐसे किसी सवाल का इंतजार था। वे इसका जवाब देने को कितने बेसब्र थे। भले इस जवाब में रवीश ने अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर पूरे पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन ये अच्छा हुआ कि उनसे यह सवाल किया गया। क्योंकि ये वो सवाल है जो उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। ​ये वो जवाब है जो नहीं दे पाने की तड़प में उनका रश्क कुंठा में बदल प्राइम टाइम में स्खलित होता रहा है।

रवीश कुमार का राजनीतिक आकांक्षा रखना गुनाह नहीं है। उनसे पहले भी पत्रकार सांसद और मंत्री बनते रहे हैं। नेताओं के सलाहकार बनते रहे हैं। टिकट के लिए लॉबिंग करते रहे हैं। जब से सोशल मीडिया का जोर चला है ज्यादातर नेताओं के सोशल मीडिया अकाउंट पत्रकार ही ठेके पर चला रहे हैं। रवीश कुमार को इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव लड़ने का उतना ही अधिकार है, जितना जनता को उन्हें लोकसभा भेजने या न भेजने का फैसला करने का। बेहतर होगा कि वे पसंद के दल और सीट से चुनाव लड़ ही लें, क्योंकि अपनी आकांक्षा के लिए वे पत्रकारिता की आड़ लेकर जो कुछ कर रहे हैं, वह गुनाह है।

वैसे भी रवीश कुमार ने लोकसभा में खड़े होने की बात की है। लोकसभा में खड़े होने के लिए जनता की अदालत में पास होना पड़ता है। वहाँ लाइक, रिट्वीट से बात नहीं बनती। वोट जुटाने पड़ते हैं। वोट के लिए जमीन पर उतरना पड़ता है जो यकीनन न्यूज स्टूडियो के फर्श जैसा नहीं होता। वोट के लिए भरोसा जीतना होता है जो वातानुकूलित कमरे में सूट और टाई के साथ एकतरफा विलाप से हासिल नहीं होता।

काश! लोकसभा में खड़ा होना पत्रकारिता गिरवी रखने जितना सहज होता।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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