Tuesday, March 19, 2024
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भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में सावरकर-बोस सिद्धांत को अमल में लाने का वक्त आया

राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत को स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सुभाषचंद्र बोस की दृष्टि के आधार पर देखा जाना चाहिए। साथ ही ये भी स्वीकार करना होगा कि गॉंधी जी के महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद उनकी सम्पूर्ण अहिंसा और हिंदुओ की कीमत पर हिंदू-मुस्लिम एकता की विचारधारा ने राष्ट्र को भयंकर नुकसान पहुॅंचाया है और आज भी हमें भ्रमित कर रहा है।

एक राष्ट्र की नियति में एक समय ऐसा आता है जब उसे परम सत्य को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो। संभव है यह स्वीकारोक्ति हमारे भविष्य को सुरक्षित करने में कारगर हो। दूसरे शब्दों में, कोई भी राष्ट्र अपनी पिछली गलतियों का सामना किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। जो राष्ट्र अपनी भूलों से सबक लेने में विफल होते हैं, वे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं।

ऐसे समय जब चीन के बार-बार पीठ पर वार करने, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के लगातार आतंकी हमले और एक आंतरिक सुरक्षा स्थिति, जिसमें पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्टों की संयुक्त कार्रवाई भारत-राष्ट्र को अस्थिर कर रही है, तब क्या भारत के लिए अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में गियर बदलने का समय आ चुका है? शायद हाँ!

भारत 1962 से भ्रामक ड्रैगन की प्रकृति से अवगत है। यह मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भारत ने चीन को रोकने के काफी प्रयास किए, और एक हद तक भारत को चीन के समक्ष एक समान भागीदार के रूप में स्थापित भी किया। इसके साथ ही भारत ने गलवान घाटी में शालीनता के साथ अपना दृढ व्यवहार प्रस्तुत किया।

मोदी ने जापान और वियतनाम जैसी चीन विरोधी शक्तियों से दोस्ती करने, म्यांमार जैसी चीन समर्थक शक्तियों को भारत समर्थक बनाने और दक्षिण चीन सागर में चीनी आक्रमण का विरोध करने के साथ ही कोविड महामारी से संबंधित मुद्दों पर चीन विरोधी रुख अपनाने का बड़ा काम भी किया है। कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि 3400 किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर सैन्य और नागरिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण की विशाल-योजना चीनी घुसपैठ के लिए उकसावे में से एक थी।

हमें यह भी स्वीकारना होगा, खासकर गलवान घाटी की घटना के बाद दलाईलामा को चीन के बारे में बोलने से रोकने की नीति हमारी रणनीतिक कमजोरी साबित हुई है। जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी निरुपित करने का चीन विरोध कर रहा था, तब हमें शिनजियांग में उइगरों और तिब्बत के साथ-साथ चीनी अत्याचारों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं करके भारत ने बड़ी गलती की।

राष्ट्रीय सुरक्षा भूलों की श्रृंखला

आइए राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में इतिहास पर नजर दौडाते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर जवाहरलाल नेहरू की गलतियाँ 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारी पड़ीं। नेहरू के पंचशील सिद्धांत, जिसके कारण भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ी। वह गाँधी की अहिंसा और नेहरू की कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति प्रेम का मिश्रण था। 1954 में जब नेहरू पंचशील सिद्धांत लेकर आए तब भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के महान दूरदर्शी वीर सावरकर ने चेतावनी दी थी।

सावरकर ने कहा था कि चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने के बाद अगर नेहरू पंचशील जैसी लुभावनी बातें चीन के साथ करते हैं तो जमीन हड़पने की चीनी भूख को बढ़ावा मिलेगा और उनको थोड़ा भी अचम्भा नहीं होगा अगर चीन भविष्य में भारत की भूमि हड़पने का प्रयत्न करे। यह भविष्यवाणीभविष्वाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने भी की थी। दोनों की भविष्यवाणी 8 साल बाद 1962 में सच सिद्ध हुई, जब चीन ने आक्रमण कर भारत की बहुत बड़ी भूमि पर कब्जा कर भारत को मध्य-एशिया से अलग-थलग कर दिया।

इसके अतिरिक्त भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर गाँधीवाद की काली छाया के कई उदाहरण हैं। 1978 के आसपास गाँधीवादी विचारधारा के प्रभाव में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जैसे ईमानदार नेता ने तत्कालीन पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जियाउल हक के समक्ष यह आत्मघाती खुलासा किया कि भारत का पाकिस्तान में जासूसी नेटवर्क था और भारत को पाकिस्तान के कहुटा परमाणु रिएक्टर की जानकारी थी।

इसके बाद जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में भारत की गुप्चार व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया, जिसे भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल के दौरान स्थापित किया था। जियाउल हक ने भारत के जासूसों को मरवा दिया, जबकि कुछ अन्य भागने में सफल रहे। दिलचस्प बात यह है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी के मजबूत राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण और एक सशक्त प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आगमन के बावजूद, भारतीय सुरक्षा नीति गाँधीवादी छाया से मुक्त नहीं हो सकी है।

1971 के युद्ध में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ने के बाद भी हम पीओके के मुद्दे को सुलझाने में नाकाम रहे, जब भारत के पास पाकिस्तान के 93,000 जवान बंदी थे और तो और भारत ने 1971 के युद्ध में जीते हुए सिंध प्रांत को भी शिमला करार में वापस कर दिया। इससे पहले लाल बहादुर शास्त्री ने भी ताशकंद समझौते के तहत 1965 के युद्ध में जीते हुए पाक क्षेत्रों को वापस दे दिया था।

आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी भारत ने गाँधी-नीति के प्रभाव में कई गलतियाँ की हैं, विशेषकर इस्लामिक कट्टरपंथी अति वहाबी तत्वों से निपटने में। उदाहरण के तौर पर 2014 में मोदी सरकार आने के बाद भारत ने तबलीगी जमात के 10 हजार विदेशी प्रचारकों को भारत में आने और वहाबी प्रचार करने की अनुमति दी। यह सब इसके बावजूद हुआ, जबकि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र को इस बात की पूरी जानकारी थी कि तबलीगी जमात विश्व का सबसे बड़ा वहाबी आन्दोलन है, जो दुनिया के 150 से अधिक देशों में फैला हुआ है और इस्लामिक उम्मा (विश्व इस्लामिक भाईचारे) का प्रचार करता है, जो राष्ट्रवाद के विचार के विरुद्ध है। यह स्थिति एक राष्ट्रवादी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण में कमी का प्रमाण है।

याद रहे कि मोदी और शाह ने इस्लामिक कट्टरपंथियों की योजनाओं पर एक के बाद एक अनेक प्रहार किए। पहले आसाम और उत्तर प्रदेश के चुनाव जीते, जहाँ इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा यह माना जाता था कि भाजपा ये दोनों प्रदेश कभी भी जीत नहीं पाएगी। फिर इन दोनों ने जम्मू-कश्मीर को धारा-370 से मुक्त किया। कट्टरपंथियों को तीसरा बड़ा झटका तब लगा जब मोदी सरकार ने राम-मंदिर मुद्दे को न्यायायिक समाधान देने में अहम् भूमिका निभाई। इसके बाद ही शाहीन बाग का षड्यंत्र, जो मोदी और शाह को घेरने की एक चाल थी, इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा रचा गया।

राम मंदिर की 500 साल पुरानी समस्या का समाधान और धारा 370 को हटाना राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर मोदी सरकार की प्रतिबद्धता का प्रमाण था। यह आज की राजनीतिक परिस्थितियों की दृष्टि से अकल्पनीय था। इन निर्णयों ने मोदी और शाह को भारतीय इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज कर दिया है। सावरकर-बोस दृष्टि के अभाव के कारण भाजपा सरकार ने शाहीन बाग़ मुद्दे को बहुत हल्के तरीके से लिया।

जहाँ नरमपंथियों को साथ रखते हुए कट्टरपंथी और अतिवादी मजहबी लोगों को शाहीन बाग मुद्दे पर घेरा जा सकता था, वहाँ भाजपा ने दिल्ली चुनाव को दो मजहबों का मुद्दा बना कर जीतने का प्रयास किया। इसके कारण नरमपंथी और कट्टरपंथी दोनों एकजुट हो गए। यह सावरकर-बोस के राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत के पूर्णत: विरुद्ध था।

हालाँकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भारत पिछले कई दशकों की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में है, लेकिन यह तथ्य पिछली सरकारों की तरह बना हुआ है कि मोदी सरकार भी पाकिस्तान या चीन पर भारत के खिलाफ अपराधों के लिए पर्याप्त नुकसान निर्धारित करने में विफल रही है। शत्रु देशों से हुई नुकसान की भरपाई कराने के मामले में इजरायल का उदाहरण सटीक है।

भले ही भारत ने पुलवामा हादसे का पाकिस्तान से बदला लिया हो, लेकिन सब प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान आतंकी देश घोषित नहीं हो सका है। जम्मू-कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकी हमले जारी हैं। स्पष्ट रूप से, भारत की सुरक्षा दृष्टि में कुछ गड़बड़ है और आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से इसे ठीक करने की तत्काल आवश्यकता है।

गाँधीजी की विचारधारा: राष्ट्रीय सुरक्षा में अवरोध

आखिर भारत को कमजोर सुरक्षा नीति से बाहर निकलने का रास्ता क्या है? यह स्पष्ट है कि गाँधीजी के योगदान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को बहुत अधिक श्रेय दिलाया है। राष्ट्रीय मंच पर उनके समाज सेवा के मॉडल और स्वदेशी, ग्राम स्वराज की उनकी दृष्टि जो गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने की बात करती है, दलितोद्धार और स्वच्छता का उनका प्रयास आज भी अनुकरणीय है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सम्पूर्ण अहिंसा और हिंदुओं की कीमत पर मजहबी एकता की उनकी विचारधारा ने जिन्नावादियों को विभाजन के लिए प्रेरित किया।

इतना ही नहीं, बल्कि गाँधीवाद के इर्द-गिर्द बुने गए विभिन्न नारों के नाम पर स्वतंत्र भारत में पैन-इस्लामिक तत्वों ने अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाया। यही कारण है कि शाहीन बाग सहित पूरे भारत में और यहाँ तक कि विदेशों में शाहीनबाग़ के नाम पर हुए हर प्रदर्शन में पहली तस्वीर महात्मा गाँधी की होती थी। इसलिए यह स्पष्ट है कि मजहबी एकता का गाँधी मॉडल बहुसंख्यक समुदाय को ब्लैकमेल करने का एक औजार ही है।

गाँधीजी की संपूर्ण अहिंसा की विचारधारा पर ईमानदार बहस की जरूरत

बहुत से लोग यह नहीं जानते कि गाँधीजी ने भी एक बार सुझाव दिया था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत को सेना को खत्म कर देना चाहिए और केवल पुलिस पर भरोसा रखना चाहिए। 1925 में यह कह कर उन्होंने कई लोगों को चौंका दिया कि गुरु गोविंद सिंह, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी दिग्भ्रमित देशभक्त थे।

जब द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी लन्दन के ऊपर बमबारी कर रहा था, तब गाँधी ने कहा था कि उन्हें खून-खराबा देखकर आत्महत्या करने का मन हो रहा है और बाद में उन्होंने इंग्लैंड को अपने बचाव के लिए नैतिक बल पर भरोसा करने की सलाह दी, बजाए सैन्य शक्ति के। उनके इन अकल्पनीय सुझावों से ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल बहुत बुरी तरह चिढ़ गए थे।

स्पष्टत: गाँधी का शांतिवाद हमें चीन जैसे दुश्मन देशों की दुष्टता को देखने से रोकता है। उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसे दुर्लभ मामलों को छोड़कर, हमने शायद ही कभी जैसे को तैसा कार्रवाई की विचारधारा का पालन किया है। यह गाँधीवादी विरासत का प्रत्यक्ष परिणाम है।

यदि चीन हमारे क्षेत्र पर कब्जा कर सकता है तो उसके सीमावर्ती कुछ अन्य स्थानों पर हम क्यों नहीं कर सकते हैं! यह उल्लेखनीय है कि कूटनीति और सुरक्षा-व्यवस्था में नए प्रतिमान स्थापित करने वाले मोदी जैसे दूरदर्शी व्यक्ति की दृष्टि को भी गाँधीवाद भ्रमित करता है।

जब हमें चुनौती दी जाती है तो हम उपदेशों के साथ शुरू करते हैं, जैसे-भारत कभी भी आक्रमण नहीं करता, लेकिन जब कोई आक्रमण के लिए बाध्य करता है तब भारत इसे बर्दाश्त भी नहीं करता। यह स्थिति आत्म-संशय का प्रमाण है।

एक तरफ जहाँ अमेरिका ने कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन से 11,000 किलोमीटर दूर जाकर ट्विन टावर त्रासदी में मारे गए 3,000 लोगों का बदला लिया, वहीं इसके ठीक विपरीत हाफिज सईद और मौलाना मसूद अजहर, जिन्होंने 1995 के बाद से हजारों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया, भारतीय सीमा से मात्र 150 किलोमीटर दूर बैठे होने के बावजूद हम उन्हें ख़त्म करने में असमर्थ हैं। क्या यह ओसामा के खिलाफ अमेरिका की प्रतिक्रिया के ठीक विपरीत नहीं है?

अत: सबसे पहले गाँधीजी की विचारधारा पर एक ईमानदार बहस होनी चाहिए, जो राष्ट्र के लिए उनके योगदान की सराहना करते हुए यह प्रमाणित करे कि उनकी विचारधारा ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को कितनी क्षति पहुँचाई है। इसके बाद भारतीय स्वतंत्रता अभियान के महानायक और हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा-दृष्टि के पुरोधा वीर सावरकर और आजाद हिन्द फ़ौज के प्रणेता सुभाषचंद्र बोस को भारत के सुरक्षा प्रतीक के रूप में प्रस्थापित करना चाहिए।

कोई पूछ सकता है कि सावरकर और बोस राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतीक पुरुष क्यों?

पहले सावरकर के विचारों और दृष्टि का विश्लेषण करें। सावरकर वह अद्वितीय व्यक्ति हैं, जिन्होंने पाकिस्तान के जन्म से कई साल पहले भारत के विभाजन की भविष्यवाणी कर दी थी कि कॉन्ग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियाँ मुस्लिम लीग का चारा बन जाएँगी और जिसका आख़िरी मुकाम होगा भारत का विभाजन।

सन 1937 से सावरकर ने कई बार कॉन्ग्रेस को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन उनके विचारों को एक सांप्रदायिकतावादी के रूप में करार दिया गया। हालाँकि उन्होंने कभी भी खास मजहब के अधिकारों की कीमत पर हिंदुओं के लिए विशेष व्यवहार की माँग नहीं की। दस साल बाद उनकी बात सच साबित हुई जब पाकिस्तान का जन्म हुआ और कॉन्ग्रेसी नेता जो कह रहे थे कि पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर होगा, गलत साबित हुए।

सावरकर भारत की सुरक्षा के एक महान दूरदर्शी थे। उन्होंने 1940 में असम की समस्या (असम की मुस्लिम आबादी तब सिर्फ 10% थी, आज यह 35% है) की भविष्यवाणी और 1962 के भारत-चीन युद्ध की भविष्यवाणी आठ साल पहले कर दी थी। 1954 में उन्होंने नेहरू को चेतावनी दी थी कि पंचशील का उनका सिद्धांत चीन के कुत्सित मंसूबों को बढ़ावा देगा और अगर निकट भविष्य में वह हमला कर भारत की भूमि को हड़प लेता है तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा।

पाकिस्तान पर भी उनकी चेतावनी सटीक थी। उन्होंने कहा कि जब तक धार्मिक कट्टरता पर आधारित एक राष्ट्र भारत का पड़ोसी रहेगा, तब तक भारत शांति से नहीं रह पाएगा। यह आज तक सही प्रतीत होता रहा है। दिलचस्प बात यह है कि सावरकर ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र रणनीति की वकालत की थी।

उन्होंने स्वतंत्रता से पहले और बाद में भारतीयों के सैन्यीकरण की बात की थी। उन्होंने भारत को महाशक्ति बनाने के लिए परमाणु बम की भी बात की थी, लेकिन किसी ने सावरकर के विचारों को पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्ट विचारों के सामने प्राथमिकता नहीं दी।

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में सावरकर का योगदान अंतहीन है और इस लेख के दायरे से परे भी। उदाहरण के तौर पर उन्होंने आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार को सलाह दी थी कि अरब सागर को ‘सिंधु सागर’ कहना चाहिए, लेकिन नेहरू सहमत नहीं हुए। सावरकर जीवनी के लेखक धनंजय कीर के अनुसार, 1940 में सावरकर ने सुभाषचन्द्र बोस को यह सलाह दी थी कि विश्व मंच पर दुश्मन के दुश्मन देश को हमारे मित्र के रूप में देखा जाना चाहिए।

इसी से प्रेरित होकर सुभाषचंद्र बोस ने इटली, जापान और जर्मनी जैसे इंग्लैण्ड विरोधी शक्तियों के साथ एक समझौता करते हुए आज़ाद हिंद फौज का गठन किया। इस फ़ौज में उन भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया था जो द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश शासन की ओर से लड़ते हुए इटली और कुछ अन्य मित्र देशों द्वारा पकड़ लिए गए थे।

आजाद हिन्द फ़ौज ने ब्रिटिश शासन से हिंदुस्तान को मुक्त कराने के उद्देश्य से अंग्रेजी हुकूमत पर हमला किया था। हालाँकि आजाद हिन्द फ़ौज नाकाम रही, लेकिन उसने भारत को स्वतंत्र करने के लिए ब्रिटेन पर भारी दबाव पैदा किया। एक अर्थ में बोस ने सावरकर की दृष्टि को लागू किया। 1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में भारत को स्वतंत्रता देने वाले क्लेमेंट एटली ने 1956 में अपनी भारत यात्रा के दौरान (जब वह ब्रिटिश पीएम नहीं थे) कुछ चौंकाने वाले खुलासे किए।

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल पीवी चक्रवर्ती के साथ उनकी बातचीत और उनकी टिप्पणियाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को देखने के तरीके में पूरी तरह से बदलाव के लिए मजबूर करती हैं। एटली ने चक्रवर्ती से कहा, “आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा बनाया गया दबाव, द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटने वाले भारतीय सैनिकों की ओर से ब्रिटिश शासन को स्वीकार करने की अनिच्छा और अंततः 1946 में मुंबई डॉक पर नौसेना के सैनिक विद्रोह ने ब्रिटेन पर दबाव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई।”

चक्रवर्ती द्वारा पूछे गए एक विशेष सवाल पर एटली ने कहा कि भारत की आजादी के लिए ब्रिटेन पर दबाव बनाने में कॉन्ग्रेस और महात्मा गाँधी की भूमिका ’न्यूनतम’ थी। इस पूरी बात का उल्लेख महान इतिहासकार आरसी मजूमदार ने अपनी पुस्तक ”बंगाल का इतिहास” में विस्तार से किया है।

इसलिए, भारत के लिए वह समय आ गया है कि वह सावरकर और बोस को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतीक-पुरुष के रूप में घोषित करे। सामाजिक-आर्थिक विकास और आत्मनिर्भरता के गाँधी विचारों पर भले ही अमल किया जाए, लेकिन सुरक्षा-सिद्धांत के मामले में गाँधी-विचारों को भारत अस्वीकृत करता यह घोषणा भी होनी चाहिए। इस विषय पर सावरकर-बोस सिद्धांत ही उपयुक्त और मान्य हो।

गौरतलब है कि समुदाय विशेष के प्रति रवैए को लेकर सावरकर और बोस के बीच कुछ मतभेद थे, लेकिन ज्यादातर राष्ट्रीय सुरक्षा विषयों पर दोनों एकमत थे। पर हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि हिन्दू-मुस्लिम विषयों पर सावरकर ने जो भी भविष्यवाणियाँ आज से 80-90 वर्ष पहले की थी वे सभी सच साबित हुई हैं।

इन प्रयासों का क्या असर होगा?

इन प्रयासों से गाँधीजी के नाम का दुरुपयोग बंद हो जाएगा। पैन-इस्लामिक तत्वों द्वारा गाँधी का नाम राष्ट्र को ब्लैकमेल करने के लिए लिया जाता रहा है। यह प्रयास भारत के मुस्लिम समुदाय के उस हिस्से को ठीक से परिभाषित करने में सक्षम करेगा जो नरमपंथी है और पैन-इस्लामिक अभियान का हिस्सा नहीं है तथा भारत की मुख्यधारा में बने रहना चाहता है।

समुदाय विशेष के समावेशी लोगों की संख्या भारत में काफी है, लेकिन सावरकर-बोस आधारित राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अभाव में भारत उन्हें अंगीकृत करने में असमर्थ है।

हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा के मैदान से गाँधी के अति मानवतावाद वाली विचारधारा को हटाकर भारत दुनिया के ताकतवर देशों को उपयुक्त सन्देश देने में समर्थ होगा, विशेषकर चीन और पाकिस्तान जैसे दुष्ट प्रतिद्वन्दी देशों को। पूरी दुनिया को पता चलेगा कि चुनौती देने पर भारत से क्या उम्मीद रखनी चाहिए।

भारत की भ्रमित राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि को स्पष्ट करना और सही दिशा देना बहुत बड़ी राष्ट्रीय सेवा होगी। मेरे विचारों के विपरीत, आरएसएस और भाजपा के कुछ नेता मानते है कि गाँधी की विचारधारा को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वर्तमान शासक (मोदी सरकार) पहले से ही राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में सावरकर-बोस सिद्धांतों का अनुकरण कर रही है और उसके प्रमाण हैं- बालाकोट हमला, सर्जिकल स्ट्राइक और अनुच्छेद 370, लेकिन इस तर्क में दोष है।

वर्तमान परिस्थितियों और समय की माँग है कि सुरक्षा के मोर्चे पर सिर्फ सरकार का ही नहीं, बल्कि देशवासियों का नजरिया स्पष्ट हो। जाहिर है, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर दृष्टि और सिद्धांत बदलने का समय आ गया है और आज के शासक भी अगर ये कहते हैं कि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि गाँधी के विचारों से पूरी तरह मुक्त है तो वे गलत कह रहे हैं।

इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी सरकार ने बीते 6 वर्षों में 10 हजार तबलीगी जमात के विदेशी वहाबी प्रचारकों को भारत में आने और प्रचार करने की अनुमति दी। हालाँकि 30 मार्च, 2020 के बाद हुए तबलीगी जमात के कोरोना कांड के बाद सरकार ने इन विदेशी प्रचारकों को प्रतिबंधित कर दिया है।

यह स्पष्ट है कि आज के भारतीय जहाज के तल में एक बड़ा छेद है जिसे हमें दुरुस्त करने की आवश्यकता है। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो यह जहाज सागर में डूब सकता है।

(लेखक उदय माहूरकर इंडिया टुडे ग्रुप में डिप्टी एडिटर हैं)

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