Thursday, October 10, 2024
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‘भागते भूत की लंगोट भली’: कॉन्ग्रेस और राहुल गाँधी को उनके सहयोगियों ने ही दिखाई औकात, खुद की चाल में फँस गए ‘प्रिंस’

समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के साथ भी कॉन्ग्रेस का गठबंधन तभी मूर्त रूप ले पाया, जब उसे लग गया कि जितनी सीटों को वह उम्मीद कर रही है, उतनी लेने में वह कामयाब नहीं हो पाएगी। ऐसे में 'भागते भूत की लंगोट भली' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए सहयोगी दल ने जितने सीटें दीं, उसी पर आखिरकार उसे सहमत होना पड़ा।

लोकसभा चुनाव 2024 सिर पर है और राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों को चयन में गुणा-भाग लगा रहे हैं। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली NDA से मुकाबला करने के लिए जोर-शोर से खड़ा किया गया कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाला INDI गठबंधन पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। इस गठबंधन के नाम पर अब सिर्फ समाजवादी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और आम आदमी पार्टी (AAP) बचे हैं, जो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग परिस्थितियों के तहत कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन किया है। बाकी के सहयोगी पहले ही कॉन्ग्रेस से किनारा कर चुके हैं।

समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के साथ भी कॉन्ग्रेस का गठबंधन तभी मूर्त रूप ले पाया, जब उसे लग गया कि जितनी सीटों को वह उम्मीद कर रही है, उतनी लेने में वह कामयाब नहीं हो पाएगी। ऐसे में ‘भागते भूत की लंगोट भली’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए सहयोगी दल ने जितने सीटें दीं, उसी पर आखिरकार उसे सहमत होना पड़ा।

समाजवादी पार्टी और कॉन्ग्रेस ने 20 फरवरी 2024 को घोषणा को सीट बँटवारे की घोषणा की। इस घोषणा के तहत उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने कुल 80 सीटों में 17 सीटें कॉन्ग्रेस को दी है, जबकि बाकी के 63 सीटों पर वह अपने छोटे सहयोगियों के साथ लड़ेगी। वहीं, कॉन्ग्रेस ने मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी को लोकसभा की एक सीट दी है।

समाजवादी पार्टी और कॉन्ग्रेस के बीच गठबंधन के बाद जो 17 सीटें कॉन्ग्रेस को दी गई हैं, उनमें रायबरेली, अमेठी, कानपुर नगर, फतेहपुर सीकरी, बाँसगाँव, सहारनपुर, प्रयागराज, महाराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, झाँसी, बुलंद शहर, गाजियाबाद, मथुरा, सीतापुर, बाराबंकी और देवरिया लोकसभा सीटें हैं। इनमें से वाराणसी सीट पर समाजवादी पार्टी ने पहले ही अपने उम्मीदवार की घोषणा कर दी थी, अब उन्हें शायद मैदान से हटना पड़े।

वहीं, कॉन्ग्रेस और आम आदमी पार्टी ने दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, चंडीगढ़ और गोवा में सीटों का बँटवारा किया है। इसके तहत दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों में से 3 पर कॉन्ग्रेस पार्टी चुनाव लड़ेगी, जबकि 4 सीटों पर आम आदमी पार्टी चुनाव लड़ेगी। दिल्ली में आप को नई दिल्ली, पश्चिमी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली की सीट दी गई है। वहीं, कॉन्ग्रेस चाँदनी चौक, उत्तर-पूर्वी दिल्ली और उत्तर पश्चिमी दिल्ली सीट पर चुनाव लड़ेगी।

इसी तरह गुजरात की 26 लोकसभा सीटों में से 24 पर कॉन्ग्रेस लड़ेगी और दो सीट पर आम आदमी पार्टी लड़ेगी। गुजरात में भरूच और भावनगर सीटें आम आदमी पार्टी को दी गई हैं। वहीं, हरियाणा में कॉन्ग्रेस पार्टी 10 में से 9 सीटों पर लड़ेगी, जबकि आम आदमी पार्टी एक सीट पर चुनाव लड़ेगी। हरियाणा की कुरुक्षेत्र लोकसभा सीट आम आदमी पार्टी को दी गई है। इसके अलावा चंडीगढ़ और गोवा में कॉन्ग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी। गोवा में जिस सीट से आम आदमी पार्टी ने उम्मीदवार की घोषणा की है, वो अपनी दावेदारी वापस ले लेगी। वहीं, पंजाब में दोनों ही पार्टियाँ अलग-अलग चुनाव लड़ेंगी।

अगर सीट बँटवारे के ऊपरी समीकरण को देखें तो यह INDI गठबंधन सिर्फ नाम का है। गोवा और पंजाब में कॉन्ग्रेस तथा आम आदमी पार्टी के बीच किसी तरह का गठबंधन नहीं हुआ। यानी समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी ने अपनी-अपनी शर्तों और जरूरत के हिसाब से कॉन्ग्रेस के साझेदारी की है। कॉन्ग्रेस के पास इसे मानने का कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। अगर कॉन्ग्रेस इन पार्टियों के साथ गठबंधन नहीं करती तो उसे अकेले ही लोकसभा चुनाव में उतरना पड़ता और शायद यह भी संभव होता कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा उसे दुर्गति झेलनी पड़ती।

INDI गठबंधन को मूर्त रूप देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही गठबंधन छोड़कर NDA के साथ आ चुके हैं। रालोद और ममता बनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियाँ पहले ही किनारा कर चुकी हैं। हालात ऐसे हो गए कि महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण और राजस्थान के आदिवासी नेता महेंद्रजीत मालवीय जैसेे दिग्गज पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। कमलनाथ जैसे दिग्गज की भाजपा में शामिल होने की अफवाहें उड़ने लगीं। हर तरह आफरा-तफरी का माहौल है।

अगर इस पूरी कहानी की पृष्ठभूमि में जाएँ तो साफ पता चलता है कि इस गठबंधन के नाकाम होने के पीछे भी कॉन्ग्रेस ही रही है। कॉन्ग्रेस अधिक से अधिक सीटों को हथियाने के चक्कर में सहयोगी दलों के साथ सीट बँटवारे को लगातार टालती रही। इससे गठबंधन में असंतोष की स्थिति पैदा हो गई। दरअसल, हिमाचल प्रदेश में भाजपा को हराकर सरकार बनाने के बाद कॉन्ग्रेस अति उत्साह में आ गई। उसे लगा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में अगर उसकी जीत होती है तो वह बेहतर तो सहयोगी दलों के साथ मोल-भाव के लिए बेहतर स्थिति में रहेगी।

हालाँकि, कर्नाटक और तेलंगाना में कॉन्ग्रेस को सफलता भी मिली और उसने भाजपा और BRS को हराकर सरकार बनाने में कामयाब रही। वहीं, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे अपने प्रमुख राज्यों को बचाने में नाकाम रही। इन राज्यों में हारने के बाद कॉन्ग्रेस अपनी शर्तों पर मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं रह गई। इस बीच तृणमूल कॉन्ग्रेस ने बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया, जबकि पंजाब में आम आदमी की सरकार ने भी गठबंधन करने से मना कर दिया।

हालात ये हैं कि महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे गठबंधन के लिए तैयार हैं, लेकिन उनके साथ सीट बँटवारे पर अभी भी सहमति नहीं बनी है। वहीं, झारखंड में झारखंड मुुक्ति मोर्चा और बिहार में आरजेडी के साथ भी अभी तक कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है। हालाँकि, इन राज्यों में अब कॉन्ग्रेस की तरफ से नहीं, इन क्षेत्रीय दलों द्वारा अपनी शर्तों पर सीट बँटवारे की नियम तय किए जा रहे हैं। ऐसे में कॉन्ग्रेस को सपा और आदमी पार्टी की तरह इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।

अब जबकि देश चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, ऐसे में राहुल गाँधी न्याय यात्रा पर हैं। यह यात्रा अब तक असफल ही साबित हुई है। यह यात्रा जहाँ-जहाँ पहुँची वहाँ-वहाँ के कॉन्ग्रेस नेताओं ने या तो पार्टी छोड़ दी या फिर सहयोगी दलों ने उनसे किनार कर लिया। असम में कॉन्ग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा सरकार को सदन में समर्थन देने का ऐलान कर दिया तो बंगाल में यात्रा पहुँचने के बाद ममता बनर्जी उनसे बिदक गईं। ममता ने आरोप लगाया कि राहुल गाँधी ने उन्हें बताया था कि यात्रा बंगाल में आ रही है और ना ही उन्हें इसमें शामिल होने के लिए बुलाया था।

हालांकि, समाजवादी पार्टी से गठबंधन होने के बाद अखिलेश यादव में यूपी पहुँची राहुल गाँधी की यात्रा में शामिल होने के लिए अपनी सहमति दी है। अखिलेश आज रविवार को आगरा में इस यात्रा में शामिल होंगे। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अब राहुल गाँधी की यात्रा से दूर रहीं उनकी बहन एवं पार्टी की वरिष्ठ नेता प्रियंका गाँधी भी अपने भाई का साथ देने के लिए यात्रा में शामिल हो गई हैं। लेकिन इस यात्रा का अब कोई खास महत्व नहीं रह गया है, जब सारे सहयोगी अलग हो गए। संभावना है कि बिहार और झारखंड में भी कॉन्ग्रेस और राजद तथा झामुमो की शर्तों को स्वीकार करना होगा, तभी शायद वहाँ बात बन पाए।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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