Thursday, April 25, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देहाशिए पर खड़े लुटियंस-खान मार्केट गिरोह बने 'प्राउड' हिंदुस्तानी, इन्हें सत्ता की मलाई चाहिए

हाशिए पर खड़े लुटियंस-खान मार्केट गिरोह बने ‘प्राउड’ हिंदुस्तानी, इन्हें सत्ता की मलाई चाहिए

अपने पैसे के दम पर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दूसरों को समाजवाद का उपदेश देने वाले, ज़मीनी संस्कृति, हिन्दू धर्म की संस्कृति, से न केवल कटे बल्कि उसे जड़ से मिटा देने की खुद कोशिश करने वाले और उस पर कहर बरपाने वाले इस्लामी हमलावरों की 70 साल वाइटवॉशिंग करने वाले, नैतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार और वामपंथ....

‘खान मार्केट’ और ‘लुटियंस मीडिया’ दोनों ही मुख्यधारा के भारतीय मीडिया में, और चूँकि यह मीडिया ही सार्वजनिक संवाद का एकलौता साधन हुआ करता था तो एक तरह से भारत के पूरे सार्वजनिक जीवन में, हैरी पॉटर उपन्यास के मुख्य खलनायक लॉर्ड वोल्डेमॉर्ट जैसा रहा है- ‘तुम-जानते-हो-कौन’। एक ऐसी सत्ता, जिसने शासन हमेशा पर्दे के पीछे से, अँधेरी परछाइयों से किया, और अपना नाम लेने को ‘टैबू’ बना कर रखा। उपरोक्त खलनायक की तरह, माफिया फिल्मों में दिखाए गए मुँह बंद रखने और नाम न लेने, एक-दूसरे पर उँगली न उठाने के अनकहे, अलिखित समझौते, ‘कोड ऑफ़ साइलेंस’ (जिसे ‘ओमेर्टा’ कहते हैं) का सजीव उदाहरण।

इसके बारे में बात की जा सकती थी, “आखिर यह देश क्यों आगे नहीं बढ़ रहा?”, “हमें क्या रोके हुए है हमारे साथ या बाद आज़ाद हुए मुल्कों के बराबर तरक्की करने से?” जैसे सवाल पूछे तो जा सकते थे, लेकिन इन सवालों का जवाब हमेशा सन्नाटा होता था- क्योंकि सवाल जिस महफ़िल में होते थे, वहाँ बैठे हर एक इंसान को पता होता था कि जवाब देना, उस नाम को ज़बान पर लाना उनके कैरियर का अंत होगा। 

लुटियंस और खान मार्केट दिल्ली के सबसे महँगे इलाके हैं- यह भारत के नव-अभिजात्य वर्ग का गढ़ हैं। उन लोगों के जो नेहरूवियन समाजवाद और सेक्युलरवाद के पुजारी थे, खुद धनाढ्य होने के बावजूद। वह लोग जो खुद (या उनका कोई-न-कोई करीबी) उद्योग-धंधे, कल-कारखाने चलाते थे, लेकिन किसी नए व्यवसायी के किसी नए व्यापार के लिए लाइसेंस-कोटा-परमिट राज के समर्थक थे। वह लोग, जिनके घर से जब किसी का ‘फैमिली बिज़नेस’ में मन नहीं लगता था तो उसे सिविल सर्विसेज़ की तैयारी की सलाह दे दी जाती थी- क्योंकि पता था कि चयन तो होना ही है! जेएनयू का वीसी भी इन्हीं लोगों के प्रेस क्लब और जिमखाना के बार में बैठकर व्हिस्की की चुस्कियों में तय होता था, और भारत का अगला उर्वरक से लेकर वित्त मंत्री तक भी।

यही लोग इस ‘गैंग’ के सदस्य भी थे, चौकीदार भी, और एंट्री के नियम तय करने वाले भी। गिटपिट अंग्रेजी बोलते और हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान के सिद्धांत से ही घिनाते इस गैंग से निकला ‘लुटियंस मीडिया’। चूँकि, अधिकाँश बड़े अख़बार और पत्रिकाएँ इसी गैंग के आर्थिक अंग इन्डस्ट्रियलिस्टों के हाथ में थे, जो पहले ही नेताओं के साथ लाइसेंस-कोटा-परमिट की आपसी ‘अंडरस्टैंडिंग’ में थे, तो वहीं से इस ‘अंडरस्टैंडिंग’ का विस्तार मीडिया में हुआ। वरिष्ठ नौकरशाह चूँकि अंग्रेजों के समय में लगभग निरंकुश सत्ता का स्वाद चखने के बाद ताकत छिनने की आशंका में थे, तो उन्होंने भी ज़ाहिर तौर पर हाथ बेझिझक मिलाया।

अकादमी और बौद्धिक जगत के लोगों के लिए भी यह फायदे का सौदा था, क्योंकि यह गैंग मीडिया में ‘छपास’ (शब्द भले शायद मोदी का हो, लेकिन प्रवृत्ति पुरानी है, और 95% मीडिया की रोजी-रोटी का स्रोत भी), विश्वविद्यालयों से लेकर आयोगों में मलाईदार नियुक्ति, अपने बाल-बच्चों के देश के चोटी के लोगों के साथ उठने-बैठने की सेटिंग, विदेशी यूनिवर्सिटियों में प्रवेश के लिए अनुशंसा पत्र- सब चीजों का ‘सिंगल-विंडो क्लियरेंस’ था। (लगता है मोदी ने सच में कुछ ‘नया’ नहीं सोचा, केवल पुरानी सुविधाओं का विस्तार मुट्ठी-भर लोगों से देश की हर एक मुट्ठी तक पहुँचा दिया- और इसी की सारी नाराज़गी है।)

‘खान मार्केट गैंग’ और ‘लुटियंस मीडिया’ इसी नेता-नौकरशाह-इंडस्ट्रियलिस्ट-बुद्धिजीवी-पत्रकार का गुप्त गठजोड़ था- एक-दूसरे का ‘ध्यान रखने’ की मौन सहमति, जिसमें नूरा कुश्ती की तो गुंजाईश थी, एक-दूसरे की सेनाओं के के ‘फुट सोल्जर्स’ को खेत करने की भी आज़ादी थी, लेकिन ऊपरी स्तर पर एक-दूसरे को, और इन-सबको जोड़ने वाले वैचारिक सूत्र, गाँधी-नेहरूवाद, पर बुनियादी सवाल न करने, और अगर कोई भी (‘अंदर का आदमी’ हो या ‘बाहरी’) उस पर सवाल करे तो उसे ज़बरदस्ती, येन-केन-प्रकारेण अप्रासंगिक कर देने का भी अलिखित समझौता था।

और मोदी के राज में इसी गठजोड़ की गर्भनाल पहली बार शायद सूख गई है। पहली बार शायद राजनीति के उच्चतम गलियारों से पत्रकारों को ‘एक्सक्लूसिव लीक्स’ नहीं मिल रहे, प्रधानमंत्री तक पहुँच न केवल बंद है, बल्कि मोदी की सोशल मीडिया उपस्थिति ने इन्हीं की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इनके चैनलों और अख़बारों में गाँधी-नेहरू के गुण गाने के पीछे हज़ार काले कर्म छिपाने वालों की मलाईदार पोस्टिंग्स बंद हैं, हिंदी-भाषी और हिंदी-माध्यम के स्कूलों से आए ‘संघियों’ को वह पद दिए जा रहे हैं, और नौकरशाहों का एक बड़ा वर्ग (जिसमें सभी नौकरशाह नहीं हैं) इसलिए अवसादग्रस्त है कि कुर्सी तोड़ने और ‘मलाई काटने’ की जिस उम्मीद में उन्होंने जिंदगी के बाकी मौके छोड़ दिए, मोदी के राज में जिंदगी उसके ठीक उलटी हो रखी है- काम कमरतोड़ हो रहा है, और रिश्वत के स्रोत सूखते जा रहे हैं।

और ऐसे ही गमगीन माहौल में यशवंत सिन्हा की पत्नी नीलम सिन्हा लिखतीं हैं कि खान मार्केट गैंग को यूँ न बदनाम करो, बड़ी मेहनत से ये गैंग बनाया है; कॉन्ग्रेस नेता बदरुद्दीन तैय्यबजी की पोती लैला तैय्यबजी को याद दिलाना पड़ता है कि हम भी इस देश के ही हैं मालिक! और चाहे मैं मान भी लूँ कि 2-4-5-8% इनके लेखों की मैंने ‘स्ट्रॉमैनिंग’ (किसी के विचारों को तोड़मरोड़कर वाहियात या हास्यास्पद दिखाना, जबकि वे ऐसे हैं नहीं) की है, तो भी 90% यही लिखा है- आप लिंक खोल कर जाँच के लिए स्वतंत्र हैं।

अपने ‘वो भी क्या दिन थे’ में गिरफ्तार लैला तैय्यबजी

लैला तैय्यबजी के द वायर में लिखे गए लेख का अधिकाँश हिस्सा जिन चीजों में लगा है, वही लुटियन-निवासियों से आम आदमी की नफ़रत का मुख्य कारण है- वह याद करतीं हैं कि कैसे नींबू पानी की चुस्कियाँ लेते हुए वे लोग देश का नीति और नियति निर्धारण करते थे; कैसे उनकी 50 और 60 के दशक की दिल्ली की यादें सरकारों और दूतावासों की हैं; कैसे उनके पास खिदमतगार, भिश्ती, बावर्ची, चपरासी और यहाँ तक कि मसालची हुआ करते थे। उनकी जिंदगी 50-60 के दशक में अधिक सीधी हुआ करती थी। अब उन्हें कैसे समझाया जाए कि उनके इसी ‘विशषाधिकार’ से तो आज लोगों का खून उबला हुआ है- आपके पास उन दिनों में रेस कोर्स, वेलिंग्डन क्रेसेंट में घूमने की सुविधा थी, जब यह देश एक खूनी बँटवारे के बाद खड़ा होने की कोशिश कर रहा था।

आप आपत्ति कर सकते हैं कि क्यों भई, इनके परिवार के पास पैसा था, सुरक्षित रहने के साधन थे, तो इससे क्या? इससे तुम्हारा क्यों खून उबला जा रहा है? तो जवाब होगा वह इसलिए क्योंकि यह लुटियंस गैंग अपने गैंग के ‘बाहर के लोगों’ को यही समाजवाद (जो कि परसन्ताप पर, ईर्ष्या पर, दूसरे की सम्पत्ति और अच्छी किस्मत से चिढ़ पर ही आधारित है) उस समय भी पढ़ाता था, और आज भी पढ़ाता है- तो लाज़मी है कि उन्हें भी इसका स्वाद दिया जाए! इन्हें भी यह बताया जाए कि इनकी सम्पत्ति, इनकी सम्पन्नता इनसे नफरत करने, इनका विरोध करने का पर्याप्त कारण है। इसके अलावा लैला जी का यह संस्मरण तत्कालीन कॉन्ग्रेसियों का दोगलापन भी दिखाता है- दूसरों को समाजवाद सिखाने वाले, एक समय आयकर 97% से ज्यादा सामाजिक और आर्थिक न्याय के नाम पर दूसरों के लिए करने वाले खुद विपन्न देश के महासागर में विपुलता के द्वीप थे।

नीलिमा सिन्हा खान मार्केट गैंग के गैंग होने के सारे सबूत खुद ही देतीं हैं

नीलिमा सिन्हा, जो 24 साल आईएएस ऑफ़िसर रहे और फ़िलहाल अपनी पार्टी में हाशिए पर चले गए एक नेता की पत्नी हैं, मोदी के खान मार्केट कटाक्ष को पहले तो गलत बताते हुए लेख शुरू करतीं हैं, लेकिन लेख का अंत करते-करते मान लेतीं हैं कि हाँ, खान मार्केट वाले एक “गैंग” हैं। बीच में वह अपनी जीवन-गाथा सुना कर शायद लोगों में सहानुभूति पैदा करने की कोशिश करतीं हैं। लेकिन ऊपर दिए लैला तैय्यबजी के उदाहरण की ही तरह वह यह भूल जातीं हैं कि यह सुनकर कि वह सिविल सर्वेंटों के ही परिवार में, उनके बँगलों में ही पहले बेटी, फिर पत्नी, फिर माँ/सास बनकर रहीं, उन्हें इस बात का ख्याल नहीं होने वाला कि नहीं भाई, आप खान मार्केट वाले नहीं हैं, बल्कि उसका आप लोगों के एक ही ‘गैंग’ का होने का संदेह और दृढ़ हो जाता है।

नीलिमा जी, ज़रा यह समझाइए कि यह कैसा ‘संयोग’ और खान मार्केट गैंग के गैंग न होने का कैसा उदाहरण है कि आपके पिता खान मार्केट के बँगले में रहे, आपकी शादी भी उसी इलाके में तैनात इंसान से हुई, उसी सर्विस, उसी सर्किल का हिस्सा, और उसके बाद आपकी बेटी से शादी होने के बाद आपके दामाद की भी अपने-आप तैनाती अपने बैंक की खान मार्केट शाखा में हो गई? अगर बिना किसी ‘कनेक्शन’ वाला बैंक कर्मचारी अपने बैंक की खान मार्केट शाखा में तैनाती माँगने पहुँच जाए तो उसकी भी खान मार्केट शाखा में तैनाती हो जाएगी जैसे आपके दामाद की हुई? इतने सारे संयोग या तो चमत्कारिक संयोग हैं, या गैंग के गैंग होने का सीधा उदाहरण।

और जो आप अपने पिता और पति के गरीब घरों से आने का उदाहरण देतीं हैं तो गरीबी से मेहनत कर अमीर हो जाना कबीले-तारीफ़ है मगर भ्रष्टाचार या गुटबाजी में इंसान के न पड़ने का सर्टिफिकेट नहीं। उदाहरण के तौर पर अगर आपके पति यशवंत सिन्हा गरीब चायवाले के बेटे मोदी पर अगर गरीब-से-अमीर बने धीरूभाई अम्बानी के बेटे के साथ मिलकर देश को चूना लगाने का आरोप लगा सकते हैं तो वैसी ही परिस्थितियों से आए, और वैसे ही ‘मौके’ पाए हुए आपके पिता, पति और पुत्र खान मार्केट में गैंग बनाने के आरोप से केवल जीवन परिस्थितियों के आधार पर मुक्त कैसे माने जा सकते हैं? और अगर ”गैंग्स’ की बात करें तो गैंग्स में ज़मीनी स्तर पर भी भर्ती होती रहती है, और नए आए लोगों को गैंग की सीढ़ियाँ चढ़ने के मौके भी मिलते रहते हैं- लेकिन इतने भर से गैंग, गैंग होना बंद नहीं कर देते। आपका खान मार्केट गैंग भी अपवाद नहीं है।

हमने अपने राज में तो एकछत्र मलाई काटी, और अब तुम्हारी भी मलाई में हिस्सा चाहिए

अपने पैसे के दम पर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दूसरों को समाजवाद का उपदेश देने वाले, ज़मीनी संस्कृति, हिन्दू धर्म की संस्कृति, से न केवल कटे बल्कि उसे जड़ से मिटा देने की खुद कोशिश करने वाले और उस पर कहर बरपाने वाले इस्लामी हमलावरों की 70 साल वाइटवॉशिंग करने वाले, नैतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार और वामपंथ में डूबे लुटियन मीडिया और खान मार्किट गैंग ने सत्तर साल इस देश पर एकछत्र राज किया है। चाहे कॉन्ग्रेस सत्ता के अंदर रही या बाहर, ‘इकोसिस्टम’ का बाल भी बाँका नहीं हुआ। ऐसे सिस्टम का वही हाल होता है, जो इनका हो रहा है। लेकिन अब इन्हें ‘ग्लोबल सिटीजनशिप’, ‘लिबरल थॉट्स’ भूल कर इस देश में अपनी भी हिस्सेदारी याद आ रही है।

लेकिन असल में यह देश में नहीं, सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी माँग रहे हैं- यह उसी इकोसिस्टम को जिला कर, 2.0 बना कर वापिस लाने की बात कर रहे हैं। ये विचारों की नहीं, अपनी जगह तलाश रहे हैं, जबकि अपना राज रहते संघ को, दक्षिणपंथियों को, वास्तविक हिन्दुओं को इन्होंने अपने संगमरमर के सत्ता के, ताकत के महलों के आसपास भी नहीं फटकने दिया। जेनएयू बनाया, जादवपुर, उस्मानिया, एएमयू जैसी उसकी ‘शाखाएँ’ भी बनाईं लेकिन कोई दक्षिणपंथियों का गढ़ नहीं बनने दिया। तो अब सामान्य नागरिक अधिकारों के अलावा कुछ समय इन्हें भी लाइन के ‘उस तरफ’ गुज़ारने देना चाहिए।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

कॉन्ग्रेस ही लेकर आई थी कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण, BJP ने खत्म किया तो दोबारा ले आए: जानिए वो इतिहास, जिसे देवगौड़ा सरकार की...

कॉन्ग्रेस का प्रचार तंत्र फैला रहा है कि मुस्लिम आरक्षण देवगौड़ा सरकार लाई थी लेकिन सच यह है कि कॉन्ग्रेस ही इसे 30 साल पहले लेकर आई थी।

मुंबई के मशहूर सोमैया स्कूल की प्रिंसिपल परवीन शेख को हिंदुओं से नफरत, PM मोदी की तुलना कुत्ते से… पसंद है हमास और इस्लामी...

परवीन शेख मुंबई के मशहूर स्कूल द सोमैया स्कूल की प्रिंसिपल हैं। ये स्कूल मुंबई के घाटकोपर-ईस्ट इलाके में आने वाले विद्या विहार में स्थित है। परवीन शेख 12 साल से स्कूल से जुड़ी हुई हैं, जिनमें से 7 साल वो बतौर प्रिंसिपल काम कर चुकी हैं।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe