बिहार की राजधानी पटना में बीपीएससी अभ्यर्थियों का प्रदर्शन कुछ समय से चल रहा है। छात्रों का प्रदर्शन हो और उसमें राजनीतिक दल शामिल हो जाएँ, तो इसे बड़ी ताकत माना जाता है। चूँकि बिहार के छात्र एक बार देश की राजनीति को बदल चुके हैं। छात्रों की ताकत के दम पर दिल्ली में इंदिरा गाँधी की सरकार हिल गई थी। ऐसे में इस बार बीपीएससी छात्रों के आंदोलन में शामिल हो चुके प्रशांत किशोर क्या इस मौके को भुना पाएँगे और अपने लिए सत्ता का रास्ता खोल पाएँगे, ये सवाल सभी के मन में उठ रहा है।
चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर, जो ‘जन सुराज’ अभियान के जरिए बिहार की राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, हाल ही में बीपीएससी अभ्यर्थियों के आंदोलन में कूद पड़े हैं। ऐसे में क्या बीपीएसी मोमेंट प्रशांत किशोर के लिए ‘केजरीवाल मोमेंट’ बन पाएगा? क्या प्रशांत किशोर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की तरह बिहार की राजनीति को प्रभावित कर पाने में सफल हो पाएँगे और क्या वो बीपीएससी छात्रों के आंदोलन के दम पर सत्ता पा सकेंगे? ऐसे सवाल खड़े हो रहे हैं। यही वजह है कि बीपीएससी आंदोलन में प्रशांत किशोर के कूदने को उनके राजनीतिक रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि अभी तक तो उनके इस कदम को सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती नहीं ही दिख रही है।
चूँकि कुछ माह पहले तक प्रशांत किशोर विशुद्ध रूप से न्यूजरूम के नेता माने जाते रहे हैं। वो न्यूजरूम और चुनावी रणनीति तैयार करने के लिए बनाए गए वॉर रूम से राजनीतिक पार्टियों के लिए काम करते हैं और अब बिहार में जमीन पर उतरकर खुद नेता बनने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि क्या पीआर का काम करने वाले नेता पर बिहार की जनता भरोसा कर भी पाएगी?
पटना के वरिष्ठ पत्रकार मनोज पाठक कहते हैं, “बीपीएससी आंदोलन के जरिए प्रशांत किशोर ने छात्रों का साथ लेने की कोशिश की है। लेकिन यह स्पष्ट है कि बिहार की राजनीति जातिवाद और जमीनी मुद्दों पर केंद्रित है, जो प्रशांत किशोर की रणनीति से मेल नहीं खाती।” मनोज पाठक का मानना है कि प्रशांत किशोर की अब तक की रणनीति पीआर आधारित रही है। वो कहते हैं, “वैनिटी वैन प्रकरण और जमानत लेने से इनकार जैसे कदम जनता को प्रभावित करने के लिए उठाए गए, लेकिन इनसे उन्हें अपेक्षित लाभ मिलता नहीं दिखता।”
बिहार में जातिगत राजनीति का दबदबा
बिहार में जाति आधारित राजनीति का दबदबा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार मनोज पाठक के अनुसार, बिहार के नेता हमेशा जातिवादी समीकरणों पर आधारित रहे हैं। नीतीश कुमार कुर्मी-कोईरी और लालू यादव मुस्लिम-यादव समीकरणों पर टिके रहे हैं। लेकिन प्रशांत किशोर की जातिवादी राजनीति से दूरी उनके लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार गिरिंद्रनाथ झा कहते हैं, “चूँकि बिहार में कोर मुद्दा जाति और जमीन का है, उसमें नीतीश कुमार को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते, वो हावी रहेंगे।” गिरिंद्रनाथ झा कहते हैं कि नीतीश कुमार के जिंदा रहते उन्हें नजरअंदाज करना भी संभव नहीं है। वो भूमि सर्वे का ही उदाहरण देते हैं कि सरकार ने उसे 1 साल के लिए बढ़ा दिया है, जो चुनाव तक चलता रहेगा। उनका कहना है कि नीतीश कुमार ने शिक्षकों की नौकरियाँ बहुत बाँटी हैं, इसका फायदा उन्हें मिलता दिख रहा है। वो कहते हैं कि बीपीएससी आंदोलन का फायदा प्रशांत किशोर को नहीं दिखता।
मूलरूप से बिहार, लेकिन वर्तमान समय में देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, “प्रशांत किशोर जातिवाद आधारित राजनीति से खुद को दूर रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आरजेडी और अन्य पार्टियाँ उन्हें ‘पांडे जी’ और ‘पंडित जी’ कहकर वर्ग विशेष से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं। यह उनकी छवि पर असर डालता है।” उन्होंने इसे समझाते हुए कहा कि प्रशांत किशोर को ‘पांडे जी’ और ‘पंडित जी’ कहकर आरजेडी ने अपने यादव+मुस्लिम वोटरों के साथ पिछड़े या कमजोर वर्ग के वोटरों को संतुष्ट करने की कोशिश है, ताकि वो प्रशांत किशोर को एक उच्च वर्ग विशेष (ब्राह्मणों) से जोड़ सकें, जो अपेक्षाकृत अगड़े हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर उनकी कोई ताकत नहीं है।
गिरिंद्रनाथ झा का यह भी कहना है कि बिहार की राजनीति में सोशल मीडिया का प्रभाव सीमित है। उनका कहना है कि “दिल्ली में सोशल मीडिया के दम पर सरकारें बदल सकती हैं, लेकिन बिहार में राजनीति जमीनी मुद्दों पर केंद्रित रहती है। बीपीएससी आंदोलन का असर तब तक सीमित रहेगा, जब तक इसे जातिगत समीकरणों का समर्थन न मिले।”
छात्रों का गुस्सा और प्रशांत किशोर की रणनीति
प्रशांत किशोर ने बीपीएससी अभ्यर्थियों के आंदोलन को भुनाने का प्रयास किया है, लेकिन आलोचना भी झेल रहे हैं। प्रियांक कुमार, जो पटना में कोचिंग सेंटर चलाते हैं, का कहना है कि बीपीएससी आंदोलन में वास्तविक छात्रों की भागीदारी कम दिख रही है। उनका कहना है, “पटना पुलिस द्वारा हिरासत में लिए गए लोगों में से 30 तो छात्र नहीं थे। यह आंदोलन छात्रों की वास्तविक माँगों से भटकता दिख रहा है और प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का हिस्सा बन गया है।”
हालाँकि वो ये भी कहते हैं कि बीपीएससी आंदोलन से प्रशांत किशोर को 2025 के चुनावों में भले ही बड़ा लाभ न मिले, लेकिन 2030 तक वह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर सकते हैं। कुमार प्रियांक कहते हैं, “नीतीश कुमार अब बूढ़े हो गए हैं, उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। तीन-चार लोग उन्हें घेरे रहते हैं। बीजेपी में भी नेताओं की कोई अपनी हैसियत नहीं है, तो आरजेडी बिन पेंदी के लोटे की तरह हो गई है। उन्होंने कहा कि तेजस्वी यादव को उम्मीद थी कि खरमास के बाद नीतीश कुमार पलटी मारेंगे और उन्हें डिप्टी सीएम बना देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।” कुमार प्रियांक कहते हैं कि इन आंदोलनों से बिहार पर बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है। यहाँ के लोग जाति से ऊपर कुछ सोच ही नहीं पाते।
कुमार प्रियांक का कहना है कि पीके डूबते के लिए तिनके की सहारे की तरह हैं। 2025 में नहीं कह सकते, लेकिन 2030 में वो अच्छा कर सकते हैं, क्योंकि आम जनता आरजेडी और जेडीयू-बीजेपी से आजिज आ चुकी है। वो एक को नागनाथ और एक को साँपनाथ कहते हैं। वो कहते हैं कि तेजस्वी के डिप्टी सीएम बनते ही यादवों ने जो ताँडव मचाया, उससे लोगों में फिर से डर लौटने लगा है। ऐसे में तेजस्वी से लोग दूर भाग रहे हैं। वो कहते हैं कि बिहार में सभी जातियों के अपने ब्लॉक हैं और उन ब्लॉक्स के नेता हैं। वो कहते हैं कि यादवों का भी अब लालू परिवार से मोहभंग हो रहा है।
क्या प्रशांत किशोर होंगे सफल?
मनोज पाठक का कहना है कि प्रशांत किशोर की चुनौती केवल जनता का समर्थन हासिल करना नहीं है, बल्कि अपने आंदोलन को जमीनी मुद्दों से जोड़ना भी है। उन्होंने कहा, “प्रशांत किशोर का राजनीतिक भविष्य बिहार की जातिगत राजनीति, जनता की बदलती प्राथमिकताओं और उनकी खुद की रणनीति पर निर्भर करेगा।”
मनोज पाठक और गिरिंद्रनाथ झा जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि इस आंदोलन का राजनीतिक फायदा प्रशांत किशोर को नहीं मिलेगा। पुलिस द्वारा हिरासत में लिए गए 39 लोगों में से 30 छात्र नहीं थे। यह तथ्य प्रशांत किशोर के खिलाफ गया और यह संदेश गया कि आंदोलन राजनीति का मोहरा बन गया है।
चूँकि बिहार की जमीनी राजनीति में अभी तक प्रशांत किशोर कुछ खास नहीं कर पाए हैं, जैसे कि उप-चुनाव में उनके सभी कैंडिडेट बुरी तरह से हार गए। ऐसे में बीपीएससी प्रदर्शन के दम पर वो कुछ बड़ा कर पाएँ, इस पर संदेह है। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक बातचीत में कहते हैं कि प्रशांत किशोर अभी महज बुलबुले जैसे ही दिख रहे हैं, उसमें भी वो वैनिटी वैन जैसे छोटे से मामले में पूरी तरह एक्सपोज हो गए। उनका कहना है कि लोगों में ये संदेश जा रहा है कि प्रशांत किशोर के पीछे कोई और ही राजनीतिक ताकत खड़ी है। एक वरिष्ठ पत्रकार पटना में जन सुराज के आफिस की लोकेशन की बात कहते हैं कि वो किसी नेता विशेष के साथ हैं। ये बात भी जनता तक जा रही है।
बहरहाल, बीपीएससी आंदोलन के जरिए प्रशांत किशोर ने अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश की है। लेकिन बिहार की राजनीति का जातिगत और जमीनी स्वरूप उनकी योजनाओं के आड़े आ सकता है। प्रशांत किशोर को अपनी रणनीति में न केवल व्यापकता लानी होगी, बल्कि जनता के भरोसे को भी जीतना होगा। फिलहाल, बीपीएससी आंदोलन उनके लिए एक मौका है, लेकिन यह देखना होगा कि वह इसे अपने राजनीतिक भविष्य की नींव बना पाते हैं या नहीं।