भारत के लोकसभा चुनाव के इतिहास में अगर किसी पार्टी को कभी सबसे ज्यादा सीटें मिलीं तो वो थी 1984 में कॉन्ग्रेस पार्टी को मिली 414 सीट। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के कुछ ही दिनों बाद हुए इन चुनावों में राजीव गाँधी के नेतृत्व में पार्टी ने 76.5% सीटें जीत कर एक बहुत बड़ा बहुमत प्राप्त किया। पूरे देश में कॉन्ग्रेस और गाँधी परिवार के लिए सहानुभूति की एक बहुत बड़ी लहर थी, जिसका फायदा राजनीति में नए-नवेले आए राजीव गाँधी को मिला।
इस चुनाव में विपक्ष की हालत इतनी पतली थी कि एक क्षेत्रीय पार्टी दूसरे नंबर पर उभरी। आंध्र प्रदेश के तेलुगु सुपरस्टार NTR की TDP को 30 सीटें मिलीं और देश के चुनावी इतिहास में पहली बार एक क्षेत्रीय पार्टी मुख्य विपक्षी दल बन गई। ये भाजपा का पहला चुनाव था और उसने मात्र 2 सीटों के साथ बस अपना खाता भर ही खोला था। वामपंथी CPI (M) को 22 और जनता पार्टी को मात्र 10 सीटें ही मिलीं।
लेकिन, इसके बाद अगले 5 वर्ष तक राजीव गाँधी ने जो सरकार चलाई, वो भारत की सबसे विवादित सरकारों में से एक थी। ऐसे-ऐसे फैसले लिए गए, जिसे न सिर्फ न्यायपालिका एक मजाक बन कर रह गई, बल्कि तुष्टिकरण की भी नई परिभाषा लिखी गई। आवाज़ उठाने वाला कोई विपक्ष तो था नहीं, ऐसे में जम कर मनमानी की गई। इस दौरान कॉन्ग्रेस टूटी भी और वीपी सिंह जैसे नेता निकल गए। राजीव गाँधी द्वारा अन्य नेताओं के साथ व्यवहार की भी खूब चर्चा हुई।
In 1984, BJP won just 2 seats in Lok Sabha elections, held 4 years after the party was formed. Here’s a pic of the two MPs, Ch Janga Reddy of Hanmakonda (he defeated PV Narasimha Rao) & AK Patel of Mehsana, who held the BJP’s flag aloft in Parliament during the toughest of times. pic.twitter.com/nlsqDOsft2
— Shubhendu (@BBTheorist) November 28, 2020
राजीव गाँधी इस दौरान सबसे पहले दल-बदल कानून लेकर आए। कहा तो गया कि इसका उद्देश्य नेताओं को प्रलोभन दिए जाने व दल-बदल को रोकना है। लेकिन, असली बात ये थी कि 80 के दशक में कॉन्ग्रेस के ही कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी थी। ये वो समय था, जब कॉन्ग्रेस देश की सबसे प्रभावशाली और समृद्ध पार्टी हुआ करती थी। ऊपर से आपातकाल के फैसले से कई नेता नाराज थे। ऐसे में कई शीर्ष नेताओं ने पार्टी छोड़ना उचित समझा।
शाहबानो केस: मुस्लिम तुष्टिकरण का सबसे बड़ा दाँव
लेकिन, उनके प्रधानमंत्रित्व काल का सबसे विवादित निर्णय था शाहबानो केस। इसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर मुस्लिम तुष्टिकरण की हदें पार कर दी गईं। आपने इस केस का नाम खूब सुना होगा, यहाँ हम इस बारे में और इसके प्रभाव को लेकर चर्चा करेंगे। मोहम्मद अहमद खान द्वारा तलाक दिए जाने के बाद शाहबानो सुप्रीम कोर्ट गईं, जहाँ उनके शौहर को आदेश दिया गया कि वो तलाक के बाद भी अपनी बीवी को वित्तीय खर्च मुहैया कराएँ।
1932 में हुए निकाह के 14 वर्षों बाद अधिवक्ता अहमद खान एक दूसरी पत्नी लेकर आ गया, जिसकी उम्र उससे काफी छोटी थी। दोनों पत्नियों के साथ कई वर्षों तक रहने के बाद उसने 62 साल की शाहबानो को तलाक दे दिया और बाद में 200 रुपए का मासिक पेंशन भी रोक दिया, जिसका उसने वादा किया था। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान और कुरान का हवाला देते हुए कहा कि पति को पत्नी को मेंटेनेंस खर्च देना चाहिए।
इसके बाद पूरे देश के मुस्लिमों ने इस जजमेंट के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई इस्लामी संगठनों ने सड़क पर आंदोलन शुरू कर दिया। शरीया कानून के बचाव में ऐसा अभियान चला कि कॉन्ग्रेस पार्टी को भी मुस्लिमों का मसीहा बनने का मौका सूझा। राजीव गाँधी ने तलाकशुदा महिलाओं को अधिकार देने के नाम पर कानून बनाया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए मेंटेनेंस राशि की अवधि मात्र 90 दिन कर दी।
मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए पहली बार भारतीय संसद ने इस तरह का कानून बनाया। तब भाजपा ने इसे सुप्रीम कोर्ट की पवित्रता को ठेस पहुँचाने वाला करार दिया। राम जेठमलानी सहित कई वरिष्ठ वकीलों ने इसकी आलोचना की। विश्लेषकों ने कहा कि भारत न जाने कितने ही वर्ष पीछे चला गया है। ये भारतीय नागरिकों को दिए गए बराबरी के अधिकार के भी विरुद्ध था। तमाम विरोधों के बाद राजीव गाँधी सरकार को भी एहसास हुआ कि उसने कितनी बड़ी गलती की है।
छवि सुधारने के लिए राम मंदिर का इस्तेमाल
इसके बाद राम मंदिर आंदोलन में भाजपा और VHP जैसे संगठनों से क्रेडिट लेने और मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए की गई गलती को ढकने के लिए गलती पर गलती हुई। फ़रवरी 1986 में राजीव गाँधी ने राम मंदिर का ताला खोल कर वहाँ हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दी। अपनी राजनीति चमकाने के लिए राम मंदिर का इस्तेमाल किया गया। जहाँ एक तरफ कॉन्ग्रेस नेता राम मंदिर के नाम पर वोट माँग रहे थे, राजीव गाँधी मुस्लिमों को फिर से ये एहसास दिलाने में लग गए कि बाबरी मस्जिद सुरक्षित है।
‘मिस्टर क्लीन’ के रूप में खुद को प्रचारित कर के सत्ता में आए राजीव गाँधी के लिए उस समय के विपक्षी नेताओं ने ‘बोफोर्स चोर’ शब्द का इस्तेमाल किया। बोफोर्स स्कैम का लिंक इटली और स्वीडन से जुड़े होने के आरोप लगे। स्वीडिश कम्पनी ‘Saab-Scania’ से उनका नाम जुड़ा। ये कम्पनी भारत को एयरक्राफ्ट्स बेचना चाहती थी। बोफोर्स तोप घोटाले ने भारत के रक्षा सौदों को पूरी तरह से लकवाग्रस्त कर दिया।
विदेश नीति में भी वो फेल रहे। बिना ज़रूरत श्रीलंका में LTTE को छेड़ डाला, जो उनकी हत्या का भी कारण बना। उन्होंने श्रीलंका में भारतीय सेना को ‘शांति मिशन’ पर भेजा। विशेषज्ञ आज भी कहते हैं कि इतने बड़े स्तर पर श्रीलंका में हस्तक्षेप से पहले तमिलनाडु के तमिलों को भरोसा में लेना चाहिए था। इससे तमिलों के मन में भारत के खिलाफ अलगाववाद की भावना प्रबल होकर उभरने लगी। अब उनकी हत्या के दोषियों को माफ़ी देने का नाटक कर गाँधी परिवार तमिल वोटों की आस लगाए बैठा है।
‘प्रधानमंत्री’ राजीव गाँधी के किस्से और भी हैं..
इसी तरह लक्षद्वीप में राजीव गाँधी किस तरह छुट्टियाँ मनाने गए थे और उस दौरान INS विराट को उनके व उनके पूरे परिवार की सेवा में लगाया गया था, ये भी ज्ञात कहानी है। पीएम मोदी ने भी इसका जिक्र किया था। जब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में उस वक़्त ये खबर छपी तो कॉन्ग्रेस ने उस मीडिया संस्थान को भी बदला लेने के लिए प्रताड़ित किया। इन छुट्टियों के दौरान अमिताभ बच्चन का परिवार भी उनके साथ था।
भोपाल गैस त्रासदी कोई भारतीय शायद ही भूल सकता है। हजारों लोगों की मौत के जिम्मेदार एंडरसन को राजीव गाँधी ने 25 हजार रुपए के पर्सनल बॉन्ड पर भारत से बाहर भेज दिया था। भोपाल गैस त्रासदी हुई, उसके एक महीने पहले ही राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने थे। 8000 लोगों की मौत इस त्रासदी के महज 2 हफ़्ते के भीतर ही हो गई थी। अब तक इससे 25,000 की जान जा चुकी है। बताया जाता है कि राजीव गाँधी के मौखिक आदेश के बाद अर्जुन सिंह ने वॉरेन को भोपाल से जाने दिया था।
इन सबके अलावा सिख दंगों पर कई बार बात हो चुकी है, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। साथ ही अपनी सरकार के भ्रष्टाचार को खुद स्वीकारते हुए उन्होंने कहा था कि सरकार एक रुपया भेजती है तो गरीब के पास 15 पैसा ही पहुँचता है। आंध्र प्रदेश के दलित नेता अंजैय्या का उन्होंने अपमान किया था। भीड़ के सामने उन्हें डाँटने का नतीजा ये हुआ कि कॉन्ग्रेस आंध्र से साफ़ ही हो गई।