Monday, October 14, 2024
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पेरियार ने मनाया था शोक, आंबेडकर के लिए बाकी थी ‘सच्ची आज़ादी’, लेफ्ट ने कहा था ‘झूठी आज़ादी’: फिर कंगना पर बवाल क्यों?

जब पूरे देश में राष्ट्रभक्ति गीत गए जा रहे थे, झंडा फहराया जा रहा था और गाँधी-नेहरू की ख़ुशी का ठिकाना न था, तब पेरियार के समर्थक शोक में डूबे हुए थे। पेरियार के अनुयायियों का मानना था कि अंग्रेजों ने ब्राह्मण-बनिया समुदायों को पावर ट्रांसफर किया है, ये आज़ादी नहीं है।

कंगना रनौत ने कहा है कि भारत को असली आज़ादी तो 2014 में मिली। उनका इशारा नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से था, जब कॉन्ग्रेस के लंबे शासनकाल का अंत हुआ। उससे पहले गैर-कॉन्ग्रेसी सरकारें बनी तो थीं, लेकिन वो खिचड़ी सरकारें थीं। कॉन्ग्रेस के अलावा किसी एक दल को पूर्ण बहुमत के लिए 2014 तक इंतजार करना पड़ा। आज कंगना रनौत पर स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान करने के आरोप लगा रहे हैं। फिर पेरियार और बाबसाहब भीमराव आंबेडकर से लेकर अन्य ‘दलित चिंतकों’ और वामपंथी दलों की आज़ादी को लेकर क्या राय थी?

इस पर हम बात करेंगे, लेकिन उससे पहले बता दें कि कंगना रनौत पर हमला करने वालों की फ़ेहरिस्त बढ़ती ही जा रही है। पहले भाजपा सांसद वरुण गाँधी ने इसे देशद्रोह करार दिया, उसके बाद AAP नेता प्रीती मेनन ने उनके विरुद्ध पुलिस में शिकायत दायर कर दी और अब कॉन्ग्रेस नेता उदित राज ने उन्हें ‘पागल’ कह दिया है। कंगना रनौत के खिलाफ बयान देकर खुद को देशभक्त साबित करने की होड़ सी लगी है सोशल मीडिया पर। RJ सायमा और स्वरा भास्कर जैसे लोग इस बहते जमजम में अपने हाथ धो रहे हैं।

असली आज़ादी 2014 में: जानिए क्या है पूरा मामला

बता दें कि ‘टाइम्स नाउ’ के एक कार्यक्रम में कंगना रनौत ने अंग्रेजों की क्रूरता का जिक्र करते हुए जलियाँवाला बाग़ नरसंहार और बंगाल के अकाल की भी बात की थी। उन्होंने कहा था कि यहूदियों के साथ और भी बुरा हुआ, जो हमें नहीं बताया गया। साथ ही उन्होंने बताया था कि कैसे अंग्रेज भारतीयों के पीछे पड़ गए थे और उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया था। हाल ही में कंगना रनौत अंडमान के सेल्युलर जेल में भी गई थीं, जहाँ वीर सावरकर को कालापानी की क़ैद दी गई थी।

इसी दौरान उन्होंने कहा था कि 1947 में जो आज़ादी मिली वो भीख थी, देश को असली स्वतंत्रता तो 2014 में मिली। जब वरुण गाँधी ने उन पर निशाना साधा, तो इसके बाद बॉलीवुड अभिनेत्री ने कहा कि उन्होंने स्पष्ट रूप से जिक्र किया था कि 1857 का युद्ध भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था जिसे दबा दिया गया, जिसके बाद अंग्रेजों ने अत्याचार और क्रूरता की घटनाओं को अंजाम देना और तेज कर दिया। कंगना रनौत ने तंज कसते हुए कहा, “प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के लगभग एक सदी बाद हमें गाँधी के भीख के कटोरे में रख कर आज़ादी मिली।

अब चूँकि कंगना रनौत को हाल ही में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया है और उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले हैं, तो उनके बयानों को मोदी सरकार से जोड़ कर देखना भाजपा विरोधियों के लिए मजबूरी है। ये अलग बात है कि नेशनल अवॉर्ड्स वो कॉन्ग्रेस के राज़ में भी जीतती रही थीं। पत्रकार सबा नकवी कंगना रनौत की तुलना कॉमेडियन मुनव्वर फारुकी से करते हुए पूछ रही हैं कि उन्हें जेल क्यों नहीं हो रही। कॉन्ग्रेस नेता गौरव पांधी ने कह दिया कि RSS अपने ‘मालिक अंग्रेजों’ का देश छोड़ कर जाना अब तक बर्दाश्त नहीं कर पा रहा।

रेडियो मिर्ची की RJ सायमा कहती हैं कि भले ही कंगना रनौत एक बेहतरीन अदाकारा हैं, लेकिन अब वो उनकी फ़िल्में कभी नहीं देखेंगी। उनके बयान को ‘देशद्रोह’ बताया जा रहा है। लेखक राजू परुलेकर का तो कहना है कि राजद्रोह का मामला ‘टाइम्स नाउ’ और कंगना का इंटरव्यू ले रहीं नाविका कुमार पर भी चलना चाहिए। ‘दलित नेता’ जिग्नेश मेवानी ने ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ की बात करते हुए इस बयान को बेवकूफाना बताया। राजनीतिक विश्लेषक निशांत वर्मा को नाविका कुमार के साथ टीवी डिबेट्स में हिस्सा लेने पर शर्म आने लगी।

यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या 15 अगस्त, 1947 को मिली आज़ादी को वास्तविक न मानना और 2014 में असली आज़ादी की बात करना सचमुच इतना बड़ा गुनाह है कि किसी को ‘राजद्रोह’ का मुकदमा चला कर जेल में डाल दिया जाए? फिर पेरियार, बाबासाहब आंबेडकर और वामपंथी दलों की स्वतंत्रता को लेकर जो राय थी, उसे लेकर यही गिरोह विशेष क्या कहेगा? ‘ये आज़ादी झूठी है’ कविता पर नाचने वाले और हर चीज के लिए आज़ादी को कोसने वाले ऐसी बातें करते अच्छे नहीं लगते।

‘दलित चिंतक’ (असल में हिन्दू विरोधी) पेरियार और आज़ादी को लेकर उनके विचार

आइए, पेरियार की बात करते हैं। अपने से 40 वर्ष छोटी लड़की से शादी करने वाले और हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें जलाने वाले तमिलनाडु के पेरियार को ‘द्रविड़ आंदोलन’ का जनक माना जाता है, जिन्होंने दक्षिण भारतीय राज्य में ब्राह्मणों के विरुद्ध घृणा बोने का काम किया। पेरियार आज देश भर के ‘दलित चिंतकों’ और दलितों के ठेकेदारों के पोस्टर बॉय हैं। हालिया फिल्म ‘जय भीम’ में मुफ्त में मानवाधिकार का केस लड़ने वाले वकील के घर में उनका पोस्टर लगा दिखाया गया है।

पेरियार के अनुयायियों ने 15 अगस्त, 1947 को काले झंडे लेकर ‘शोक दिवस’ मनाया था। जब पूरे देश में राष्ट्रभक्ति गीत गाए जा रहे थे, झंडा फहराया जा रहा था और गाँधी-नेहरू की ख़ुशी का ठिकाना न था, तब पेरियार के समर्थक शोक में डूबे हुए थे। पेरियार के अनुयायियों का मानना था कि अंग्रेजों ने ब्राह्मण-बनिया समुदायों को पावर ट्रांसफर किया है, ये आज़ादी नहीं है। चेन्नई में भी पेरियार की पार्टी के लोग काले कपड़े पहन कर निकले थे। उनका कहना था कि ये आज़ादी ‘सच्ची’ नहीं है।

पेरियार द्वारा स्थापित ‘द्रविड़ कझगम’ के मौजूदा अध्यक्ष के वीरामणि तो अभी भी अपनी पार्टी के उस स्टैंड का बचाव करते हैं। उनका कहना है कि पेरियार और उनकी पार्टी के पास अंग्रेजों के भारत छोड़ने का विरोध करना एकदम जायज था, क्योंकि वो जातिवाद को बिना सुलझाए हुए ही यहाँ से निकल रहे थे। उस दौरान शोक मनाने और आज़ादी का विरोध करने के कारण तिरुनेलवेली और कुडानोर में पेरियार की पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हमले भी किए गए थे।

के वीरामणि के अनुसार, 9 अगस्त, 1947 को पेरियार ने कहा था कि हमारे लोग स्वतंत्रता दिवस के किसी भी प्रकार के कार्यक्रमों में शिरकत नहीं करेंगे और इसका बहिष्कार करेंगे। के वीरामणि का कहना है कि राष्ट्रीय एकता से ज्यादा पेरियार ‘सामाजिक इंटीग्रेशन’ में विश्वास रखते थे और उनका मानना था कि अगर हमें देश को आज़ाद करना है तो इसका जाति से स्वतंत्र होना अनिवार्य है। क्या कंगना रनौत की आलोचना करने वाले पेरियार की आलोचना की हिम्मत रखते हैं?

असल में पेरियार भी मोहम्मद अली जिन्ना से कम नहीं थे। वो भी देश को खंडित करना चाहते थे। जिस तरह जिन्ना को पाकिस्तान चाहिए था और अब भी कट्टरपंथी सिख खालिस्तान की बातें करते हैं, पेरियार ने अंग्रेजों से माँग की थी कि दक्षिण भारत को भारत राष्ट्र से अलग काट कर एक ‘द्रविड़नाडु’ नाम का देश बनाया जाए। असल में DK का गठन ही इसीलिए हुआ था, क्योंकि ‘द्रविड़नाडु’ बनाया जा सके। इसी दौरान पार्टी के एक अन्य दिग्गज नेता अन्नादुराई से उनके मतभेद हो गए थे।

पुस्तक ‘Re-distribution of Authority: A Cross-regional Perspective’ का अंश

अन्नादुराई का भी मत वही था, लेकिन उनका कहना था कि हमारी लड़ाई कॉन्ग्रेस से होनी चाहिए, क्योंकि द्रविड़ आंदोलन का उद्देश्य जाति प्रथा को ख़त्म करने के साथ-साथ अंग्रेजों को भगाना था और हमें एक लक्ष्य पूरा होने की ख़ुशी मनानी चाहिए। उन्हें डर था कि कॉन्ग्रेस उनकी पार्टी को आज़ादी का विरोधी साबित करेगी। उस दिन DK के जिन लोगों ने स्वतंत्रता की ख़ुशी मनाई, वो अन्ना के ही समर्थक थे। तभी उन्हें अपनी अलग पार्टी बनाने और राजनीति में आकर चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहन मिला। फिर 70 से अधिक की उम्र में 30 साल की लड़की से शादी ने पेरियार के रिश्ते अन्ना से जुदा कर दिए।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और ‘पर्स काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI)’ के अध्यक्ष रहे मार्कण्डेय काटजू कहते हैं कि पेरियार ने हमेशा अंग्रेजों की मदद की। उन्होंने लिखा है, “पेरियार चाहते थे कि भारत में अंग्रेजों का शासन चलता रहे। उनका मानना था कि आज़ादी के बाद देश को आर्य और उत्तर भारतीय चलाएँगे, इसीलिए उन्होंने उस दिन शोक दिवस मनाया। वो एक अलग ‘द्रविड़िस्तान’ चाहते थे, भारत से काट कर। उत्तर भारत को वो आर्यनस्तान कहते थे। उन्होंने 1956 मरीना बीच पर भगवान राम की तस्वीर जलाई।”

बाबसाहब भीमराव आंबेडकर: स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार

बाबसाहब भीमराव आंबेडकर के भारत की स्वतंत्रता को लेकर क्या विचार थे, हमें ये भी जानना चाहिए। उनका कहना था कि सिर्फ राजनीतिक रूप से स्वतंत्र भारत ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सभी नागरिकों के पास बराबर के धार्मिक और राजनीतिक अधिकार होने चाहिए। सभी को आगे बढ़ने के बराबर मौके मिलने चाहिए। गणतंत्र दिवस से पहले दिए गए एक भाषण में उन्होंने शंका जताई थी कि क्या भारत आज़ादी को बरकरार रख पाएगा या फिर गुलाम हो जाएगा?

उन्होंने कहा था कि आज़ादी का मतलब इससे ज्यादा कुछ नहीं है कि एक राष्ट्र को खुद से अपनी सरकार बनाने का अधिकार मिलता है। उनके हिसाब से स्वतंत्रता कैसी है, इसका पता तभी चलेगा कि जब किस तरह की सरकार और समाज का यहाँ निर्माण हो रहा है। बकौल बाबासाहब, स्वतंत्रता का तब ज्यादा मोल नहीं रह जाता जब सरकार और समाज वैसा बन जाए, जिसके खिलाफ दुनिया भर में युद्ध छिड़ा हुआ है। उन्होंने ज्योतिबा फुले को कोट करते हुए अपनी पुस्तक ‘Who Were The Shudras’ में लिखा है कि भारत में विदेशी सत्ता से स्वतंत्रता से ज्यादा ज़रूरी है सामाजिक लोकतंत्र।

बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि अभी भारतीयों का कोई राष्ट्र नहीं है और अभी तो उसे बनाना बाकी है। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हम ये सोच कर कि हम एक राष्ट्र हैं, एक बड़े तिलिस्म में जी रहे हैं। उन्होंने पूछा था कि हजारों जातियों में बँटे लोग भला कैसे एक राष्ट्र हो सकते हैं? उन्होंने लोगों को जल्द से जल्द ये महसूस करने को कहा था कि हम सामाजिक और मानसिक रूप से एक राष्ट्र नहीं हैं। उन्होंने ‘फ्रीडम ऑफ माइंड’ को असली आज़ादी बताते हुए कहा था कि कोई व्यक्ति जंजीरों से जकड़ा हुआ नहीं हो, फिर भी उसका दिमाग आज़ाद नहीं हो तो वो ‘दास’ ही है, आज़ाद नहीं है।

जर्नल ‘Economic and Political Weekly’ के अनुसार, आंबेडकर मानते थे कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इलीट वर्ग का दबदबा रहा है और वो इसे जातिवाद के रास्ते पर आगे ले जाएँगे। इसमें लिखा है कि वो स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ नहीं थे, लेकिन ‘कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता संग्राम’ के खिलाफ थे, क्योंकि उनका मानना था कि इसमें दलितों को राष्ट्रनिर्माण में शामिल नहीं किया गया है। उनका कहना था कि राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य आधुनिक भारत का निर्माण होना चाहिए, जहाँ रूढ़िवादी सामाजिक विचारों के लिए कोई जगह न हो।

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी तो कहते हैं कि बीआर आंबेडकर के स्वतंत्रता संग्राम की किसी भी गतिविधि में हिस्सा लेने के कोई सबूत हैं ही नहीं। उनका कहना है कि ऐसा कोई लेख या भाषण मौजूद ही नहीं है, जिसमें आंबेडकर भारत की आज़ादी की वकालत करते दिख रहे हों। अरुण शौरी ने कहा था, “हरिजनों ने ऐसा कोई आंदोलन शुरू नहीं किया है जिसमें उनकी माँग हो कि ब्रिटिश से तुरंत पावर ट्रांसफर कराया जाए। उन्होंने कहा था कि वो स्पष्ट करना चाहते हैं कि पिछड़े लोग इसके लिए हल्ला नहीं मचा रहे, न चिंतित हैं।”

वामपंथी दलों की आज़ादी को लेकर क्या रही है सोच?

चीन परस्त वामपंथियों की तो पूछिए ही मत। उनके लिए तो न तब आज़ादी और राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों का कोई मोल था, न अब है। उनके लिए न तब भारतीय सेना के लिए कोई इज्जत थी, न अब है। इस साल 2021 में स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) के मौके पर प्रमुख वामपंथी दल CPI(M) ने अपने मुख्यालयों व दफ्तरों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ को एक आंदोलन में बदला, शायद उससे घबरा कर ही ये फैसला लिया गया था। या फिर राजनीतिक पतन ने उन्हें ये करने को मजबूर कर दिया हो।

एक कहानी आजादी से पहले की। जब 1941 में हिटलर ने USSR पर आक्रमण किया, तब मॉस्को ने भारतीय वामपंथियों को बताया कि असली युद्ध फासिज्म और ‘मित्र राष्ट्रों’ के बीच है। इसीलिए, उन्हें इस युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन करने को कहा गया। विजय चौथवेल लिखते हैं कि इसके बाद अचानक से CPI हिटलर का विरोधी बन गया और उसने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से भी दूरी बना ली। ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (CPGP) ने भी CPI को एक पत्र भेजा था। इसमें उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी प्रकार के विरोध को रोकने और युद्ध के लिए हथियारों व रसद के उत्पादन के लिए ट्रेड यूनियनों को एकजुट रखने का निर्देश दिया गया था।

हैरी पोलिट के इस पत्र को तब भारत में अंग्रेजों के गृह सचिव रेगीनाल्ड मैक्सवेल ने वामपंथी नेताओं को सौंपा था। इसके बाद अंग्रेजों ने CPI नेताओं को जेल से छोड़ा, उन्हें ट्रेड यूनियनों का नियंत्रण लेने दिया और इसे कानूनी वैधता भी प्रदान कर दी। उसी समय गंगाधर अधिकारी ने 1942 में ‘पाकिस्तान थीसिस’ पेश किया, जिसमें भारत के विभाजन का समर्थन किया गया। 1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी CPI ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और पार्टी के वरिष्ठ नेता बीटी रणदिवे ने तब कहा था, “ये आज़ादी झूठी है।”

‘ये आज़ादी झूठी है’: वामपंथी नारे पर नाचने वाले आज आज़ादी के बलिदानियों को क्यों याद कर रहे?

ऐसा भी तो हो सकता है कि देश को खुले में शौच से मुक्त कर के, बिना किसी भेदभाव के सभी को आवास देकर, गाँव-गाँव में शत प्रतिशत बिजली पहुँचा कर, महिलाओं को मिट्टी से चूल्हे से मुक्ति देकर, शहरों को स्वच्छ बना कर, नदियों की स्वच्छता की कल्पना कर, सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण देकर, दलितों-OBC को सत्ता में प्राथमिकता देकर, रोज रिकॉर्ड किलोमीटर सड़कें बना कर, हर घर स्वच्छ जल पहुँचा कर और देश की संस्कृति को पुनर्जीवित कर नरेंद्र मोदी ही आज़ादी के नायकों के सपने का भारत बना रहे हों?

यही तो है ‘असली आज़ादी’, जो स्वतंत्रता के बलिदानियों के सपने का हो। आज़ाद भारत में कालापानी की सज़ा भुगत चुके स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने वाले जब आज आज़ादी की बातें करते हैं तो अच्छे नहीं लगते। ‘असली आज़ादी’ का मतलब सबके लिए अलग-अलग हो सकता है। आंबेडकर के लिए अलग था, पेरियार के लिए अलग था, वामपंथियों के लिए सब कुछ झूठा ही था और है। अगर किसी को अब लगता है कि सच्चे मायनों में आज़ादी मिली है तो दिक्कत क्या है?

बामसेफ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े व इन समुदायों के धर्मांतरित अल्‍पसंख्‍यकों के कर्मचारियों के अखिल भारतीय संगठन BAMCEF के एक सम्मलेन में संस्था के अध्यक्ष वामन मेश्राम ने कहा था कि पहले CPI नेता और बाद में ‘अम्बेडकराईट’ बने अण्णाभाऊ साठे ने भी इस आज़ादी को झूठा बताया था। इस भाषण में मेश्राम कहते हैं कि कैसे तब के ‘दलित चिंतकों’ के लिए ‘ब्राह्मणों से आज़ादी’ ज्यादा महत्वपूर्ण थी। जब ये सब कुछ FOE में आ सकता है, फिर कंगना रनौत का बयान ‘देशद्रोह’ कैसे?

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अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
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