कल यानि 23 मई 2019 को लोकसभा चुनाव का परिणाम घोषित हुआ जिसमें भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो वहीं कॉन्ग्रेस को करारी शिकस्त मिली। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहने वाली पार्टी कॉन्ग्रेस की आज ये स्थिति हो गई है कि उसे 50 का आँकड़ा पार करने में भी पसीने छूट गए। इस बार भाजपा 303 सीटों पर विजयी हुई तो वहीं कॉन्ग्रेस महज 52 सीटें ही अपने कब्जे में कर पाई। लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान संभालते हुए कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने आक्रामक प्रचार किया, ताबड़तोड़ रैलियाँ की और रोड शो कर भीड़ भी जुटाई। इंटरव्यू के जरिए भी लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश की। मगर उनकी मेहनत वोट में नहीं बदल पाई।
जमीनी स्तर पर संगठन और ठोस रणनीति के अभाव में राहुल गाँधी को अपनी पुश्तैनी सीट अमेठी में भी हार का सामना करना पड़ा। यहाँ पर भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी ने 54,731 वोटों से राहुल गाँधी को मात दी। कॉन्ग्रेस की हार के पीछे की एक वजह कुशल नेतृत्व का न होना भी है। कॉन्ग्रेस ने महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, केरल और तमिलनाडु सहित कई राज्यों में गठबंधन में चुनाव लड़ा। इन प्रदेशों में आखिरी वक्त तक सीट को लेकर सहयोगियों से सामंजस्य का अभाव दिखा। इसके अलावा कॉन्ग्रेस ने कुछ ऐसे भी काम किए जिसकी जरूरत ही नहीं थी:
न्याय योजना
कॉन्ग्रेस ने अपना चुनावी घोषणापत्र जारी करते हुए न्याय योजना की घोषणा की। इस न्याय योजना के तहत कॉन्ग्रेस ने 25 फीसदी गरीबों के खाते में ₹6 हजार प्रतिमाह के हिसाब से ₹72 हजार सालाना भेजने का वादा किया। फिलहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कई ऐसी योजनाएँ चल रही हैंं, जिसमें पैसा सीधे लोगों के खाते में पहुँच रहा है। इन योजनाओं में किसान सम्मान निधि योजना, प्रधानमंत्री जन-धन योजना, मुद्रा योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना आदि शामिल है, तो जाहिर सी बात है कि जब इतनी सारी योजनाएँ पहले से ही चालू हैं और जनता को इनका फायदा मिल रहा है, तो भला कोई राहुल गाँधी की न्याय योजना में दिलचस्पी क्यों दिखाएगा? और शायद यही वजह रही कि जनता ने कॉन्ग्रेस की न्याय योजना को पूरी तरह से नकार दिया। इसकी जगह कॉन्ग्रेस ने कुछ और किया होता, जो कि अभी तक मौजूदा सरकार ने नहीं किया है, तो शायद तस्वीर कुछ और होती।
राफेल डील
राफेल डील को लेकर कॉन्ग्रेस लगातार पीएम मोदी पर हमलावर रही। जब से ये डील हुई है, राहुल गाँधी बिना किसी तथ्य, और आधार के ‘चौकीदार चोर है’ का नारा देकर पीएम मोदी को चोर कहते रहे। राहुल गाँधी ने खुद भी इस बात को माना है कि उनके पास राफेल से जुड़ा कोई भी डिटेल नहीं है। इसका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, जिसमें साफ तौर पर देखा जा सकता है कि राफेल डील में हुए घोटाले को लेकर लंबा-लंबा बोलने वाले राहुल गाँधी से जब ये पूछा जाता है कि अगर केंद्र में उनकी सरकार आती है, तो क्या वो राफेल डील को रद कर देंगे? तो इसका जवाब देते हुए राहुल गाँधी कहते हैं कि उनके पास राफेल डील के डिटेल्स नहीं हैं। वो एयरफोर्स से इसके बारे में बात करेंगे, उसके बाद ही कोई फैसला करेंगे। अब यहाँ पर सवाल उठता है कि जब आपके पास इसका डिटेल नहीं है, तो फिर आप किस आधार पर पीएम मोदी को चोर बोल रहे थे? सुप्रीम कोर्ट द्वारा राफेल डील को क्लीन चिट देने के बावजूद राहुल गाँधी ने लगातार चौकीदार चोर है नारा देकर पीएम मोदी को चोर बोला। इतना ही नहीं, राहुल गाँधी ने तो यहाँ तक कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने भी पीएम मोदी को चोर माना। जिसके लिए उन्हें कोर्ट की तरफ से फटकार मिली और फिर माफी भी माँगनी पड़ी।
घोषणापत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ की बात जनता को नहीं आई पसंद
जहाँ देशभर में हर तरफ राष्ट्रवादी माहौल हो, उस बीच कॉन्ग्रेस द्वारा राजद्रोह क़ानून (124a) को खत्म करने और सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम (1958) यानी AFPSA क़ानून में संशोधन और धारा 370 को खत्म न करने जैसे मुद्दों को घोषणापत्र में जगह देना पार्टी को महँगा पड़ गया। हालाँकि, उन्होंने इस घोषणा के माध्यम से अल्पसंख्यकों को लुभाने और एंटी बीजेपी वोट को साधने की भरपूर कोशिश की, मगर उनका ये दाँव बहुसंख्यक राष्ट्रवादी वोटरों को रास नहीं आया और इस दाँव की वजह से वोटरों के बीच कॉन्ग्रेस की देश-विरोधी छवि बनी। राहुल गाँधी द्वारा टुकड़े टुकड़े गैंग का समर्थन करना भी भारी पड़ गया।
राजद्रोह को परिभाषित करने वाली धारा 124a को खत्म करने का मतलब है- देश में मौजूद देशविरोधी तत्वों को खुली छूट देना, उन्हें देश विरोधी नारे लगाने की अनुमति देना, टुकड़े-टुकड़े गैंग को देश-विरोधी कृत्यों के लिए प्रोत्साहित करना। देश के किसी सामान्य नागरिक को भी समझ आ सकता है कि ये कदम देश की एकता और अखंडता को मजबूत करने के पक्ष में तो बिल्कुल भी नहीं है, बल्कि इससे तो देश की अखंडता पर संकट ही मंडराता नज़र आया। कश्मीर घाटी में सेना की मौजूदगी को कम करने, सशस्त्र बलों के अधिकारों की समीक्षा करने की बात कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कही। जो कि जनता को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया और उन्होंने कॉन्ग्रेस को ठुकरा दिया।
इसके साथ ही कॉन्ग्रेस ने सुरक्षा और मानवाधिकारों के संतुलन हेतु कानूनों में उचित बदलाव की भी घोषणा की थी। कश्मीर में ऐसा देखा गया है कि वहाँ पर मानवाधिकार केवल आतंकियों का देखा जाता है सेना के जवानों का नहीं। इसलिए कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में मानवाधिकार की बात करने से निश्चित रूप से आतंकियों को फायदा पहुँचाने जैसी बात हुई। यहाँ पर सशस्त्र बलों के अधिकारों की समीक्षा करने का स्पष्ट संकेत सुरक्षा बलों के अधिकार में कटौती करने से है। जनता को ये बात अच्छी तरह से समझ में आ गया था कि यदि कॉन्ग्रेस सत्ता में आई, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कि वर्तमान समय में कश्मीर में हो रहे ऑपरेशन ऑल आउट पर विराम लगता।
वहाँ सुरक्षाबलों को हर छोटे-बड़े एक्शन के लिए सरकार से ऑर्डर लेने की जरूरत पड़ती और ये तो सामान्य सी बात है कि जिस कश्मीर में इतनी भारी मात्रा में सुरक्षाबलों की तैनाती के बावजूद पुलवामा और उरी जैसी बड़ी आतंकवादी घटनाएँ घटित हो जाती हैं, उस कश्मीर में सुरक्षाबलों की संख्या कम करना और सुरक्षाबलों के अधिकार में कटौती करना निश्चित रूप से देश को कमजोर करने वाला, सेना का मनोबल तोड़ने वाला और देश-विरोधी ताक़तों को मजबूती देने वाला फैसला होता। यदि वास्तव में ऐसा हो जाता तो निश्चित रुप से अलगाववादियों के हौसले बुलंद होते और सेना पर पत्थरबाजी करने वाले बेखौफ होकर और अधिक संख्या में पत्थरबाजी करने सड़क पर उतर जाते। इसलिए जनता ने कॉन्ग्रेस को आड़े हाथों लिया और उनके इस कदम को राष्ट्रविरोधी बता सिरे से नकार दिया।
अब बात करते हैं अनुच्छेद 370 की। देश भर में इस समय “एक देश एक क़ानून” का मुद्दा जोर पकड़ रहा है। जनता कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को लेकर जागरूक हो रही है और इसे हटाने की पक्षधर है, क्योंकि 370 कहीं-ना-कहीं कश्मीर को भारत से अलग करता है। किसी भी देश में एक संविधान और एक क़ानून होना ही आदर्श स्थिति होती है। देश की बहुसंख्यक जनता अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर खासे उत्साहित है तथा बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र में इसे हटाने की बात भी कही। ऐसे में 370 हटाने को लेकर लोगों की अपेक्षाएँ बीजेपी से और भी ज्यादा बढ़ गई। वहीं, कॉन्ग्रेस ने अपने मेनीफेस्टो के जरिए घोषणा करती है कि यदि वो सत्ता में आती है, तो 370 को कभी खत्म नहीं होने देंगी। इससे जनता के बीच ये संदेश गया कि कॉन्ग्रेस एक देश में दो अलग-अलग कानून को लागू रखना चाहती है, इससे ना तो देश का भला होता और ना ही कश्मीरी लोगों का। ऐसे में देश की जागरुक जनता ने कॉन्ग्रेस को सत्ता से दूर रखना ही उचित समझा।
इसके अलावा बालाकोट एयर स्ट्राइक के दौरान सबूत माँगना भी कॉन्ग्रेस के हार की एक अहम वजह रही। जिस तरह से कॉन्ग्रेस पार्टी ने पुलवामा हमले के बाद किए गए एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाया और सबूत माँगा, वो लोगों को रास नहीं आया। सेना की कार्रवाई पर सवाल उठाना, उनके मनोबल को गिराना, सेना को लेकर उल-जुलूल टिप्पणी करना, सेना को लेकर सियासत करना पार्टी को काफी महँगा पड़ गया। पार्टी मोदी विरोध की आड़ में देश विरोध पर उतर आई थी, जो कि जनता को पसंद नहीं आया, क्योंकि देश के नागरिक के लिए देश की गरिमा से बढ़कर कुछ नहीं होता है, जो कि शायद कॉन्ग्रेस पार्टी समझ नहीं पाई। मगर जनता ने उन्हें अपने मताधिकार के प्रयोग से अच्छी तरह से समझा दिया।
प्रधानमंत्री की छवि बिगाड़ने की भरपूर कोशिश
राहुल गाँधी ने एक इंटरव्यू के दौरान विवादित बयान देते हुए कहा था कि पीएम मोदी की ताकत उनकी इमेज है और वो उनकी इमेज को खराब कर देंगे। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री की छवि को बिगाड़ने के लिए MODILIE शब्द को लेकर दावा भी किया था कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इस शब्द को डिक्शनरी में स्थान दिया है। जिसका तीन अर्थ बताया गया था। पहला अर्थ- बार-बार बदला सच, दूसरा अर्थ- ऐसा झूठ जो आदतन बोला जाता है और तीसरा अर्थ- लगातार झूठ बताया गया था। जबकि इंटरनेट पर सर्च करने पर आपको ये शब्द कहीं नहीं मिलेगा, क्योंकि जो तस्वीर राहुल गाँधी ने शेयर की थी, उसमें छेड़-छाड़ की गई थी। हालाँकि, ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी ने खुद राहुल गाँधी के इस ट्वीट पर रिप्लाई करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि उनकी डिक्शनरी में ऐसा कोई शब्द नहीं है और शेयर की गई तस्वीर झूठी तस्वीर है। इससे राहुल गाँधी का एक और झूठ सामने आया।
प्रियंका गाँधी का अपमानजनक व्यवहार
कॉन्ग्रेस का इस चुनाव के हारने के पीछे पार्टी की महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा के व्यवहार की भी भूमिका रही। उनके अपमानजनक व्यवहार की वजह से ही उत्तर प्रदेश के भदोही की कॉन्ग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नीलम मिश्रा ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और उनके साथ ही कई अन्य कार्यकर्ताओं ने भी हाथ का दामन छोड़ दिया। पार्टी के महासचिव होने के नाते आपका काम है कि आप आपने कार्यकर्ताओं की शिकायतें दूर करें, उन्हें सहज करें, न कि सरेआम बेइज्जती करें, जो कि नीलम मिश्रा के साथ किया गया। नीलम मिश्रा ने भदोही में चुनावी सभा के बाद प्रियंका से वहाँ के पार्टी के प्रत्याशी रमाकांत यादव की शिकायत करते हुए कहा था कि वो जिला कॉन्ग्रेस के साथ बिल्कुल भी तालमेल नहीं रख रहे हैं। नीलम की इस शिकायत का निवारण करने की बात तो दूर, उल्टा प्रियंका ने तो उन्हें सरेआम बेइज्जत ही कर दिया और कहा कि अगर आप लोग अपमानित महसूस कर रहे हैं, तो करते रहिए। अब जब पार्टी की महासचिव अपने ही कार्यकर्ताओं के साथ इस तरह से पेश आएगी और उनकी समस्याओं का समाधान न करके अपमानित करेगी, तो फिर वो पार्टी देश की जनता की परेशानियों को कैसे दूर करेगी?
प्रियंका चतुर्वेदी का पार्टी छोड़कर जाना
कॉन्ग्रेस पार्टी में अंतर्विरोध और असंतोष की खाई तो काफी समय से गहराती जा रही है। पार्टी के नेता शकील अहमद की बगावत, फायरब्रांड मोदी-विरोधी अल्पेश ठाकोर के इस्तीफ़े और सहयोगी मुख्यमंत्री कुमारास्वामी के बेटे की उम्मीदवारी के खिलाफ होने पर 7 नेताओं के निष्कासन जैसे मामलों से जूझने वाली पार्टी को एक और झटका तब लगा, जब पार्टी की तेज-तर्रार प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने पार्टी में मेहनती लोगों की जगह बदमाशों को तरजीह देने की बात कहते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया। प्रियंका की बातोंं से साफ दिखा कि कॉन्ग्रेस में महिला सम्मान को किस तरह से दरकिनार किया गया। कॉन्ग्रेस की हार में कहीं न कहीं ये भी एक वजह रही।
गठबंधन की आड़ में वोटरों को गुमराह करना
मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होने का ढोंग करने वाली कॉन्ग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियाँ मौका-बेमौका एक दूसरे पर हमलावर होती नज़र आई। हालाँकि इनकी अंदरुनी खटपट साफ तौर पर जनता को दिखी। मोदी विरोध में कभी कॉन्ग्रेस पार्टी गठबंधन (सपा-बसपा) के साथ एक पाले में नज़र आई तो कभी राहुल गाँधी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव को पीएम मोदी की रिमोट से चलने वाले बताकर तंज कसते दिखाई दिए। इससे जहाँ विपक्षी एकता के दावे खोखले नज़र आए, तो वहीं वोटर भी कनफ्यूज हुए। जिसका खामियाजा इन्हें भुगतना पड़ा। इसके अलावा एक और चीज जो देखने को मिली, वो ये कि गठबंधन के नेता किसी एक नेता के प्रधानमंत्री बनने के नाम पर एकमत नहीं थे, राहुल गाँधी के पीएम बनने पर भी नहीं। सभी नेता खुद ही प्रधानमंत्री बनने के लिए लालायित दिखे। तो ऐसे में जनता को इनके बीच की आपसी खटपट साफ तौर पर दिखी और उन्हें समझते देर नहीं लगी कि जब ये आपसी कलह ही नहीं सुलझा पा रहे हैं, तो फिर देश की सत्ता कैसे संभालेगे?
पार्टी के दिग्गज नेताओं की फिजूल बयानबाजी ले डूबी पार्टी को
कॉन्ग्रेस की इस हार में इनके दिग्गज नेताओं का भी अहम योगदान रहा। इन्होंने पार्टी को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनमें से कुछ नाम प्रमुख है:
सैम पित्रोदा:- चुनावी माहौल के बीच जहाँ पार्टियाँ अपने मतदाता को लुभाने की कोशिश करती नजर आती है, वहीं गाँधी परिवार के बेहद करीबी और इंडियन ओवरसीज कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा के 1984 के सिख दंगे को लेकर दिया हुआ बयान ‘हुआ तो हुआ’ कॉन्ग्रेस को बैकफुट पर ला दिया। 1984 का दंगा कॉन्ग्रेस शासनकाल का एक कलंक है, जिस पर पार्टी बात करने से कतराती है और दूर रहने की कोशिश करती है, मगर पित्रोदा ने उस पर ही इस तरह का बयान देकर कॉन्ग्रेस को बुरी तरह से डुबो दिया। इससे जनता के बीच पार्टी की संवेदनहीन छवि का संदेश गया। इसके अलावा पित्रोदा ने पुलवामा हमले पर बड़ा बयान देते हुए कहा था कि पुलवामा हमले के लिए पूरे पाकिस्तान पर आरोप लगाना सही नहीं है और साथ ही उन्होंने मुंबई हमले के लिए पूरे पाकिस्तान को दोषी बताने को भी गलत करार दिया।
मणिशंकर अय्यर:- इन्होंने तो जैसे कॉन्ग्रेस की नैया डुबोने की कसम ही खा रखी थी। ये पिछले काफी समय से कॉन्ग्रेस को हराने में अपना योगदान देते आ रहे हैं। मणिशंकर ने साल 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी के लिए ‘चायवाला’ शब्द का प्रयोग किया। जिसकी काफी आलोचना हुई और पार्टी बुरी तरह हार गई। मगर मणिशंकर इतने पर नहीं माने, उन्होंने साल 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान पीएम मोदी के लिए ‘नीच’ शब्द का इस्तेमाल कर कॉन्ग्रेस को हराने में एक बार फिर से अपनी भूमिका निभाई। और एक बार फिर इस लोकसभा चुनाव में उनकी वापसी नीचता वाले बयान के साथ हुई। जिसका खामियाजा कॉन्ग्रेस को भुगतना पड़ रहा है। हालाँकि, मणिशंकर अय्यर एक बार फिर से अपने मकसद में कामयाब हुए।
नवजोत सिंह सिद्धू:– सिद्धू ने बालाकोट एयर स्ट्राइक के दौरान सेना द्वारा की गई कार्रवाई पर सवाल उठाते हुए कहा था कि सेना वहाँ पर पेड़ उखाड़ने गई थी क्या? इसके साथ ही उन्होंने पीएम मोदी पर कई विवादित टिप्पणी की। उन्होंने पीएम मोदी को चूड़ी खनकाने वाली दुल्हन से लेकर काला अंग्रेज, फेकू नंबर वन, दर्शनीय घोड़ा बताते हुए एक और विवादित बयान दिया था कि ऐसा छक्का मारो कि मोदी बाउंड्री पार चला जाए। जनता को इनकी स्तरहीन बयानबाजी पसंद नहीं आई और उन्होंने कॉन्ग्रेस को ही बाउंड्री पार पहुँचा दिया।
शत्रुघ्न सिन्हा:– इनके एक और नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने मोहम्मद अली जिन्ना को देश की आजादी का नायक और कॉन्ग्रेस को जिन्ना की पार्टी कह दिया।
मल्लिकार्जुन खड़गे:– वरिष्ठ कॉन्ग्रेसी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, “जहाँ भी वह (मोदी) जाते हैं, कहते हैं कि कॉन्ग्रेस को लोकसभा चुनाव में 40 सीटें भी नहीं मिलेंगी। क्या आपमें से कोई भी इसे मानता है? अगर हमें 40 सीटें मिल गईं तो क्या मोदी दिल्ली के विजय चौक में फाँसी लगा लेंगे?”
प्रियंका गाँधी:– कॉन्ग्रेस महासचिव ने भाषा की मर्यादा लांघते हुए पीएम मोदी को दुर्योधन कह दिया और साथ ही कहा, “इनसे (मोदी) बड़ा कायर, इनसे कमजोर प्रधानमंत्री मैंने जिंदगी में नहीं देखा है।”
वहीं, कॉन्ग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पीएम मोदी को तुगलक तो हार्दिक पटेल ने यमराज कहा। इसके साथ ही हरियाणा के सिरसा में प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने राहुल गाँधी की उपस्थिति में पीएम को रावण बताया और सुशील शिंदे ने पीएम मोदी की तुलना हिटलर से करते हुए तानाशाह तक कह दिया। वहीं, लोकसभा चुनाव के परिणाम साफ तौर पर ये संकेत दे रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा का मुकाबला करने के लिए कॉन्ग्रेस को पूरी तरह बदलना होगा। कॉन्ग्रेस के मौजूदा संगठन, रणनीति और कार्यकर्ताओं की बदौलत भाजपा को शिकस्त देना बेहद मुश्किल है। अगर कॉन्ग्रेस को सियासी मैदान में भाजपा से मुकाबला करना है, तो पार्टी को बिना कोई वक्त गंवाए गलतियों से सीखते हुए बड़े बदलाव करने होंगे।