Tuesday, March 19, 2024
Homeरिपोर्टअंतरराष्ट्रीयएक तो वामपंथी, फिर भीतर का 'ग्रेटा थनबर्ग' भी उछाल मारे... जीसस खैर करें:...

एक तो वामपंथी, फिर भीतर का ‘ग्रेटा थनबर्ग’ भी उछाल मारे… जीसस खैर करें: आंदोलनजीवी से भारत ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया भी त्रस्त

एक्टिविस्ट की भूमिका एक्टिविज्म तक है और उनकी जवाबदेही अपनी संस्था तक सीमित है। पर सरकारों की भूमिका एक पूरे देश के लिए है। व्यवहारिकता का तकाज़ा है कि सरकारें देश में विकास की गति को धीमी न होने दें

ऑस्ट्रेलिया के पर्यावरण मंत्री डेविड स्पीयर्स परेशान हैं। पर्यावरण से नहीं, बल्कि पर्यावरण को लेकर लेफ्ट के आन्दोलनजीवियों की ‘चिंता’ से। इतने परेशान कि अपना मंत्रालय छोड़ देना चाहते हैं। उनका मानना है कि लेफ्ट के आन्दोलनजीवी आवश्यकता से अधिक एक्टिविज्म कर रहे हैं। उनके भीतर का जो ‘ग्रेटा थनबर्ग’ समय-समय पर उछाल मारता रहता है उससे डील करना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है।

मंत्री की इस बात का विपक्षी लेबर पार्टी ने यह कहते हुए विरोध किया कि वे पर्यावरण को लेकर चिंतित एक्टिविस्ट्स को नीचा दिखाना चाहते हैं। अपनी बात पर उठे विवाद को लेकर मंत्री ने संसद में कहा कि हो सकता है कि वे केवल पर्यावरण की रक्षा के लिए बनाई गई व्यावहारिक योजनाओं का बचाव कर रहे थे। साथ ही ये बताना चाहते थे कि व्यावहारिक समाधान और पोस्टरबाजी में अंतर है, क्योंकि पोस्टरबाजी समस्याओं के हल की दिशा नहीं दिखाती।

डेविड कहते हैं, “पर्यावरण को लेकर वे भी चिंतित हैं। पर इस समस्या का व्यावहारिक हल, नए तरीकों की स्वीकार्यता और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार गैसों के उत्सर्जन को रोकने की योजना एक गंभीर विषय है। यह काम यूट्यूब पर एक वीडियो पोस्ट करने या ट्विटर और फेसबुक पोस्ट को लाइक करने से अधिक महत्वपूर्ण है।”

यदि हम गंभीरता से डेविड की बात को लें तो उनका कहना सही है। पर्यावरण की रक्षा एक बड़ा विषय है और पिछले लगभग तीन दशकों से विश्व भर में लोगों की चिंता का विषय बना हुआ है। पर इसे लेकर जो काम होना है वह सरकारों की योजनाओं और नीतियों से ही संभव है। पर्यावरण की रक्षा को लेकर विश्व को जिस तरह की जागरूकता की आवश्यकता है उस पर ऐसे आन्दोलनों की भूमिका के महत्व को कोई नहीं नकारता पर ये आंदोलन इस समस्या के हल का रास्ता नहीं सुझाते या सुझाते हैं तो उनमें तमाम बातें अव्यवहारिक होती हैं।

पर्यावरण की रक्षा का ग्रेटा थनबर्गी तरीका कितना व्यावहारिक है इसे लेकर वैश्विक पटल पर पिछले कई वर्षों से चर्चा और विमर्श हो रहा है और कई राष्ट्राध्यक्षों तक ने इन तरीकों की अव्यवहारिकता पर सवाल उठाए हैं।

एक्टिविस्ट की भूमिका एक्टिविज्म तक है और उनकी जवाबदेही अपनी संस्था तक सीमित है। पर सरकारों की भूमिका एक पूरे देश के लिए है। व्यवहारिकता का तकाज़ा है कि सरकारें देश में विकास की गति को धीमी न होने दें। ऐसे में पर्यावरण की रक्षा को लेकर दोनों के दृष्टिकोण में अंतर स्वाभाविक है। पर ऐसा क्यों हैं कि आंदोलनजीवी सरकारों की मुश्किलें समझने को तैयार नहीं? हाल यह है कि उन्हें विश्व की हर समस्या के पीछे पर्यावरण का नाश ही मूल कारण दिखाई देता है? जहाँ तक विकास की बात है, विकास के स्तर को लेकर विश्व के तमाम देशों में जो अंतर है, वह कारण बनता है इस समस्या को अलग-अलग देशों की सरकारों द्वारा अलग-अलग तरीके से देखने का। ऐसे में जब सरकारें समस्या और उसके समाधान को लेकर एक सोच नहीं रखती तो आंदोलनजीवियों से ऐसी कोई आशा रखना कठिन बात होगी।

डेविड स्पीयर्स की ही बात को ही लें। उनका प्रश्न है कि ये एक्टिविस्ट ऑस्ट्रेलिया को क्यों परेशान कर रहे हैं, जबकि चीन और भारत इस समय कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। इस मुद्दे पर ऑस्ट्रेलिया का बचाव लोग शायद यह कहते हुए करें कि लगभग 15 वर्षों से ऑस्ट्रेलिया में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन लगातार कम हुआ है। पर भारत की आलोचना करते समय प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन का मानदंड नहीं अपनाया जाएगा। तमाम बातों में केवल एक बात है जो पर्यावरण के विषय पर विकसित और विकासशील देशों की सोच का अंतर प्रस्तुत करती है। ज्ञात हो कि आज भी ऑस्ट्रेलिया में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 17.10 टन है और भारत का 1.91 टन है।

ऐसा नहीं कि भारत पर्यावरण को लेकर हो रहे आन्दोलनों से परेशान नहीं रहा है। भारत में ऐसे आन्दोलनों का परिणाम और गंभीर रहा है। कई राज्यों में तो उद्योगों में बड़े निवेश केवल पर्यावरण की रक्षा के चक्कर में नहीं आ सके। ओडिशा में स्टील प्लांट हो, तमिलनाडु में न्यूक्लीयर रिएक्टर, वेदांता का कॉपर प्लांट हो या फिर मुंबई मेट्रो में कारशेड बनाने की जगह को लेकर विरोध, ऐसे आन्दोलनों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचाई है। भारत के परिप्रेक्ष्य में यह बात इसलिए गंभीर है क्योंकि उसकी गिनती आज भी विकासशील देशों में होती है। उसे विकास की योजनाओं की आवश्यकता है, क्योंकि एक बड़ी जनसंख्या के लिए दीर्घकालीन अर्थव्यवस्था का निर्माण देश की प्राथमिकता है।

हाल ही में ग्लास्गो क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस में भारत द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा हेतु प्रस्तुत की गई भविष्य की योजनाओं और भारत की प्रतिबद्धता की चर्चा खूब हुई पर कोई यह नहीं कह सकता सकता कि पर्यावरण के लिए ‘अति चिंतित’ आन्दोलनजीवी भविष्य में भारत की इस प्रतिबद्धता को आराम से भुलाकर किसी न किसी बहाने आंदोलन खड़ा नहीं करेंगे। ऐसे आन्दोलनों का रूप जैसे-जैसे बदला है, इसका इस्तेमाल भी वैसे-वैसे बदला है। कई मौकों पर ऐसे आन्दोलन को किराए पर भी लगने के लिए तैयार मिलते हैं। ऐसे में पर्यावरण की रक्षा के लिए बात-बात पर किए जा रहे आंदोलन और उसके लिए व्यवहारिक हल के तरीकों में अंतर हमेशा दिखाई देता रहेगा।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

‘प्रथम दृष्टया मनी लॉन्डरिंग के दोषी हैं सत्येंद्र जैन, ED के पास पर्याप्त सबूत’: सुप्रीम कोर्ट ने दिया तुरंत सरेंडर करने का आदेश, नहीं...

ED (प्रवर्तन जिदेशलय) के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाँच एजेंसी के पास पर्याप्त सामग्रियाँ हैं जिनसे पता चलता है कि सत्येंद्र जैन प्रथम दृष्टया दोषी हैं।

रामजन्मभूमि के बाद अब जानकी प्राकट्य स्थल की बारी, ‘भव्य मंदिर’ के लिए 50 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करेगी बिहार सरकार: अयोध्या की तरह...

सीतामढ़ी में अब अयोध्या की तरह ही एक नए भव्य मंदिर का निर्माण किया जाएगा। इसके लिए पुराने मंदिर के आसपास की 50 एकड़ से अधिक जमीन अधिग्रहित की जाएगी। यह निर्णय हाल ही में बिहार कैबिनेट की एक बैठक में लिया गया है।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
418,000SubscribersSubscribe