Sunday, April 28, 2024
Homeविचारसामाजिक मुद्देकिसानों की तबाही का कारण बनेगा कोरोना: गाँवों से होकर देश भर में संक्रमण...

किसानों की तबाही का कारण बनेगा कोरोना: गाँवों से होकर देश भर में संक्रमण फैलने का ख़तरा

ये प्रवासी मजदूर तमाम दुःख और कष्ट झेलकर जैसे-तैसे अपने घर, अपने गाँव पहुँच भी जाएँगे तो कहना मुश्किल है कि उनमें कितने स्वस्थ होंगे और कितने संक्रमित। अगर वे कोरोना संक्रमण के संवाहक बन गए तो जिन गाँवों में वे वापस जा रहे हैं, वहाँ तो तबाही आ जाएगी। कोरोना का कहर एक बार ग्रामीणों पर टूट पड़ा तो फिर क्या होगा, उसका अनुमान लगाना और सोचना तक मुश्किल है।

आज कोरोना संकट अंतरराष्ट्रीय आपदा बन चुका है। धीरे-धीरे विश्व के सभी देश इसकी चपेट में आते जा रहे हैं। भारत में भी यह महामारी क्रमशः अपने पाँव पसारती जा रही है। इससे निपटने के लिए प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 25 मार्च से 14 अप्रैल तक 21 दिन का ‘लॉकडाउन’ लागू कर दिया है। इस ‘लॉकडाउन’ के दौरान सभी देशवासियों को अपने घरों में ही रहने के लिए कहा गया है। साथ ही, यह भी स्पष्ट निर्देश है कि जो अभी जहाँ है, वहीं रहे। कोरोना पर हुए अभी तक के शोधों से यही तथ्य उभरकर सामने आया है कि लोगों की आवाजाही और आपसी मेल-मुलाक़ात को रोककर ही इस महामारी को नियंत्रित किया जा सकता है। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ से ही बचाव हो सकता है और बचाव ही इस समय सबसे बड़ा इलाज है।

कोरोना संकट विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और विश्व के अत्यंत संपन्न, सक्षम और विकसित देश चीन में शुरू हुआ। उसके बाद कोरोना संक्रमण वायुयान यात्रियों के माध्यम से यूरोप, अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में फैलता चला गया है। आज एक अमीर देश में शुरू हुई यह महामारी समृद्ध संवाहकों द्वारा फैलकर न सिर्फ विश्वव्यापी हो गई है, बल्कि इसने गरीबों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। उल्लेखनीय है कि पुराने समय में प्लेग आदि संक्रामक रोग गरीबों से अमीरों की ओर संक्रमित होते थे। कोरोना संक्रमण इस मायने में विशेष है कि यह अमीरों से गरीबों की ओर फैल रहा है। इसी का दुखद परिणाम है कि आज भारत देश की राजधानी दिल्ली के बॉर्डरों और बस-अड्डों पर भारत विभाजन के समय जैसे दृश्य नज़र आ रहे हैं।

दिल-दिमाग को झकझोर देने वाले भय, भूख और अनिश्चितता के दृश्य। रेहड़ी-ठेले वाले, रिक्शा-ऑटो चलाने वाले, छोटी-मोटी नौकरियाँ करने वाले, फैक्ट्रियों-कारखानों में काम करने वाले असंख्य अस्थायी/दिहाड़ी प्रवासी मजदूर स्त्री-पुरुष कट्टे–बोरियों और गठरियों में अपनी पूरी गृहस्थी समेटे अपने गाँव की ओर पलायन कर रहे हैं। ये हजारों स्त्री-पुरुष भूखे पेट हैं और पैदल हैं। भूख-प्यास से बिलबिलाते और बिलखते छोटे-छोटे बच्चे उनके साथ हैं। ऐसे में न तो उन्हें सोशल डिस्टेंसिंग की परवाह है, न ही उनके लिए वैसा कर पाना संभव ही है। ये लोग बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आदि के प्रवासी मजदूर हैं। ऐसे दृश्य दिल्ली के आसपास कुछ ज्यादा जरूर हैं, किन्तु सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं हैं। रोटी-रोजगार के दिल्ली, मुंबई जैसे और भी जितने केंद्र हैं, वहीं भूख, संताप और पलायन के ऐसे हृदयविदारक दृश्य हैं।

ये प्रवासी मजदूर तमाम दुःख और कष्ट झेलकर जैसे-तैसे अपने घर, अपने गाँव पहुँच भी जाएँगे तो कहना मुश्किल है कि उनमें कितने स्वस्थ होंगे और कितने संक्रमित। अगर वे कोरोना संक्रमण के संवाहक बन गए तो जिन गाँवों में वे वापस जा रहे हैं, वहाँ तो तबाही आ जाएगी। कोरोना का कहर एक बार ग्रामीणों पर टूट पड़ा तो फिर क्या होगा, उसका अनुमान लगाना और सोचना तक मुश्किल है। गाँवों में न तो पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएँ हैं, न ही साधन-संसाधन। गरीबी और अभाव इक्कीसवीं सदी के भारत की भी वर्तमान वास्तविकता है। अभाव महज साधनों और सुविधाओं का ही नहीं है, जागरूकता का भी है। अभी भी भारत की दो-तिहाई आबादी गाँवों में ही बसती है।

जागरूकता और पर्याप्त साधनों और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में यह संक्रमण एक गाँव से दूसरे गाँव होता हुआ बड़ी तेजी से पूरे भारत में फ़ैल सकता है। इस पलायन को तत्काल रोककर इस आपदा को गाँवों तक पहुँचने से रोका जाना चाहिए। प्रवासियों को भोजन और भावनात्मक आश्वस्ति देकर ही ऐसा संभव है। दुःखद बात यह है कि सरकारों और नागरिक समाज के अभी तक के प्रयत्न पर्याप्त नहीं हैं। उनकी असफलता और अपर्याप्तता इस त्रासदी को गुणात्मक रूप से बढ़ाएगी। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, और बिहार सरकारों को ज्यादा सजग, सक्रिय और संवेदनशील होने की आवश्यकता है।

‘रोज कुआँ खोदकर पानी पीने वाले लोग’ जिस भी शहर में हैं, उनकी हालत बहुत खराब है, और आगे इससे भी बदतर होने की आशंका है। काम-धंधा ठप्प है। न रोजगार है, न रोटी है। न रहने-सोने का कोई ठौर-ठिकाना। भूख से बिलबिलाते इन पेटों को यह विश्वास देना आपद् धर्म है कि एक समाज के रूप में, एक राष्ट्र के रूप में हम साथ-साथ हैं। इसलिए सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं  और नागरिक समाज को इस संकट की घड़ी में इन गरीब-वंचित और अभागे लोगों की मदद और भरण-पोषण के लिए आगे आना चाहिए। भूख की भयावह और कारुणिक तस्वीरें मीडिया में दिख रहीं हैं। इस संकट की खासियत यह है कि इसमें सबकी नियति परस्पर सम्बद्ध है। सिर्फ आगा-पीछा हो सकता है। इसलिए इस आपदा से हमें एक परिवार, एक राष्ट्र के रूप में मिलकर लड़ने की आवश्यकता है। संगठित कोशिशें ही मनुष्यता की इस सबसे बड़ी लड़ाई में फलीभूत होंगी।

यूँ तो कोरोना संकट ने वैश्विक अर्थ-व्यवस्था को ही धराशायी कर डाला है। अमेरिका, चीन, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान और भारत जैसे देशों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को एकदम ठप्प कर दिया है। इसके प्रभावों से अब विश्व का कोई देश और समाज का कोई तबका अछूता और अप्रभावित नहीं है। मगर भारत जैसे विकासशील देशों में गरीबों पर कोरोना का सर्वाधिक कहर टूटेगा क्योंकि यहाँ सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की न तो समुचित व्यवस्थाएँ हैं, और न ही पर्याप्त संसाधन हैं। कोरोना के चलते कामकाज ठप्प होने से सर्वाधिक गरीब तबका प्रभावित हुआ है। इसी प्रकार संक्रमित होने पर भी सर्वाधिक परेशानी उसे ही होने वाली है क्योंकि अभी तक तो इलाज सरकार की ओर से हो रहा है, परन्तु अगर यह संकट बढ़ता है तो न तो सरकारी अस्पताल और स्वास्थ्य सुविधाएँ पर्याप्त होंगी, न ही रूपए-पैसे के अभाव में गरीब लोग निजी अस्पतालों में इलाज करा सकेंगे। वे दवाई-गोली, खान-पान, आराम और परहेज की भी समुचित व्यवस्था न कर सकेंगे। इस संकट के समाप्त होने के बाद काम-धंधे चौपट होने का भी सबसे ज्यादा असर इसी वंचित वर्ग के ऊपर होगा। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के रोजगार अवसरों की समाप्ति, संगठित क्षेत्र में छँटनी, वेतन में कटौती आदि के शिकार यही लोग होंगे। अगर यह संकट तीन-चार महीने चलता है, तो यह तबका भूख और बेरोजगारी से पूरी तरह तबाह हो जाएगा।

इस साल सर्दियों में हुई बेमौसम भयानक वर्षा और ओलावृष्टि ने भारत के अन्नदाताओं को पहले से ही तबाह कर रखा है। खेतों में ही खड़ी फसलें बर्बाद हो गयीं हैं। जो थोड़ी-बहुत आस-उम्मीद बची थी उसे कोरोना के कहर ने तोड़ डाला। अभी आलू की खुदाई और भराई का समय है, कुछ दिन में सरसों और फिर गेहूँ की कटाई-मढ़ाई का समय आ जाएगा, लेकिन कोरोना के कहर के चलते ये काम कैसा और कितना हो सकेगा, कहना मुश्किल है। फसलों के नुकसान से किसान तो तबाह होगा ही, दाल-रोटी के दाम भी बढ़ जाएँगे और उससे भी सबसे ज्यादा मुश्किलें अगर किसी की बढ़ेंगी तो वह गरीब-वंचित तबका ही होगा।   

केंद्र सरकार की 1.70 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा स्वागत योग्य पहल है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। इसे और भी बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। मानव जीवन को रुपए-पैसे से खरीदा नहीं जा सकता, मगर सही समय पर जरूरतमंदों को साधन-सुविधाएँ मुहैया कराकर जिंदगियों को बचाया जरूर जा सकता है। समस्या बढ़ने और आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार द्वारा ‘वित्तीय आपातकाल’ भी लगाया जाना चाहिए। साथ ही, सभी राज्य सरकारों को भी अपने स्तर पर ऐसे आर्थिक पैकेज लागू करने चाहिए। इनमें गरीबों-वंचितों (मजदूरों-किसानों) को प्राथमिकता देनी चाहिए। ये जो सामाजिक-आर्थिक विकास की पंक्ति के आखिर में खड़े लोग हैं, दरिद्र नारायण हैं। सिर्फ भूखे पेट नहीं हैं, बल्कि भारत की अर्थ-व्यवस्था के मेरुदंड हैं। अंतिम जन की चिंता करना न सिर्फ राज्य का बल्कि समाज का भी प्राथमिक कर्तव्य है। इसलिए इस संकट-बेला में सभी व्यक्तियों-उद्योगपतियों, कलाकारों, नौकरीपेशाओं; सबको अपनी सामर्थ्य से बढ़कर सहयोग करना चाहिए। हम सबको भी अपने हिस्से का योगदान करना होगा। सिर्फ सरकारों के भरोसे हम इस महामारी से नहीं लड़ सकते हैं।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

प्रो. रसाल सिंह
प्रो. रसाल सिंह
प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता, छात्र कल्याण का भी दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे। दो कार्यावधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं। संपर्क-8800886847

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

‘पहले दलालों के लिए सालों साल बुक रहते थे दिल्ली के होटल, हमने चला दिया स्वच्छता अभियान’: PM मोदी ने कर्नाटक में उठाया फयाज...

पीएम मोदी ने कहा कि जो लोग पड़ोस से आतंकवाद एक्सपोर्ट करते थे, आज उनको आटा इंपोर्ट करने में लाले पड़ रहे हैं - वोट से आया ये परिवर्तन।

IIT से इंजीनियरिंग, स्विटरजरलैंड से MBA, ‘जागृति’ से युवाओं को बना रहे उद्यमी… BJP ने देवरिया में यूँ ही नहीं शशांक मणि त्रिपाठी को...

RC कुशवाहा की कंपनी महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिंस बनाती है। उन्होंने बताया कि इस कारोबार की स्थापना और इसे आगे बढ़ाने में उन्हें शशांक मणि त्रिपाठी की खासी मदद मिली है।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe