17 जनवरी 2022 – दिल्ली के सुल्तानपुरी में हीरालाल गुजराती की हत्या कर दी जाती है। हत्या का आरोप इरफान नाम के शख्स पर। ये वही इरफान है, जिसने हीरालाल की बहन से रेप किया था, जेल भी गया।
19 जनवरी 2022 को 12वीं में पढ़ने वाली लावण्या इस संसार को छोड़ कर चली गईं – मजबूरी में, प्रताड़ना से हार मान कर। प्रताड़ना इस बात को लेकर कि पढ़ाई करनी है तो ईसाई बनो। इनकार करोगी तो टॉयलेट साफ करो।
20 जनवरी 2022: दिल्ली हिन्दू विरोधी दंगों में पहली सजा सुनाई गई – दिनेश यादव को। दिनेश पर 73 साल की एक मुस्लिम वृद्धा के घर में आग लगाने और उनकी भैंस खोल कर ले जाने का आरोप था।
4 दिन में हुई यह 3 खबरें। अखबार पलट लीजिए, प्राइम टाइम को याद कर लीजिए। इन 4 दिनों में नेताओं के दिए भाषण पर भी दिमाग दौड़ाइए या उनके सोशल मीडिया अकाउंट को खंगाल जाइए। निराशा हाथ लगेगी। फिर याद कीजिए तबरेज या अखलाक वाली खबरों के कवरेज को। साथ ही यति नरसिंहानंद वाले मंदिर में आसिफ की पिटाई पर 24*7 मीडिया रिपोर्टिंग को भी याद कीजिए।
याद कर ही रहे हैं तो खुद के भीतर भी झाँक लीजिए। जिस समाज में हम रहते हैं, जिस सोशल मीडिया पर दिन भर कुछ न कुछ चलता रहता है – वहाँ की चर्चाओं पर भी ध्यान दीजिए। सन्नाटा पसरा मिलेगा हर जगह। चर्चा गायब, खबर खत्म। यह सन्नाटा हम हिंदुओं के लिए बड़ा खतरा है। इसलिए क्योंकि ये 3 खबर हमारे लिए सिर्फ खबर नहीं बल्कि 3 चैलेंज है।
हीरालाल की हत्या और ‘डरा हुआ मुसलमान’ का खौफ
देश की राजधानी में यह पहली हत्या नहीं है, आखिरी भी नहीं होगी। लेकिन अपराध सिर्फ हत्या तक सीमित नहीं है। जिन हीरालाल की हत्या हुई, उनकी बहन का रेप भी इरफान ने ही किया था। इसी वजह से वो जेल में भी था। परोल पर बाहर आया तो हीरालाल को मार ही डाला। दिल्ली में जिस पार्टी की सत्ता है, अपराधी का उससे कनेक्शन भी रहा है। जिस इलाके में सिर्फ इरफान का ही घर मुस्लिम का है, वहाँ उसके खौफ से – “यह मकान बिकाऊ है, मुसलमानों के आतंक से, हीरा की हत्या के डर के कारण” – वाला पोस्टर चिपका दिया जाता है। हत्या के अलावे इतने सारे सनसनी वाले एंगल के बावजूद मीडिया चुपचाप रहती है तो इसके मायने समझिए।
मुस्लिम नाम बदल कर हिंदू नाम के सहारे लड़की से प्रेम का नाटक कर उसकी हत्या या धर्म-परिवर्तन जैसे अपराधों की रिपोर्टिंग मुख्य धारा की मीडिया कैसे करती है? या तो नहीं या बहुत छोटे में। और ऐसा क्यों करती है? ताकि इन अपराधों पर पर्दा डाला जा सके और उससे भी बढ़ कर ‘लव जिहाद’ जैसे टर्म को ‘षड्यंत्र’ कह कर खारिज किया जा सके।
मीडिया के ऐसे सेलेक्टिव अप्रोच के कारण समय के साथ चाहते या न चाहते हुए भी समाज इस ‘षड्यंत्र’ में विश्वास करने लगता है। लव जिहाद के कारण भले किसी बच्ची का करियर बर्बाद हो जाए, उसे मार डाला जाए या कोई पिता अपनी बेटी के अपराधी और सिस्टम से तंग आकर उसे गोलियों से भून दे – मीडिया और समाज लव जिहाद को ‘षड्यंत्र’ बता कर सो जाता है।
हीरालाल की हत्या पर मीडिया की चुप्पी यही है। अपराधी मुस्लिम है तो चुप रहो। हीरालाल आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा था, इसलिए ‘भीम-मीम’ की एकता के लिए चुप रहो। ‘भीम-मीम’ पर अगर कुछ दिखाना है तो तब दिखाओ जब नैरेटिव ‘ब्राह्मणवादी उत्पीड़न’ पर हो। ट्विटर वाला जैक हो, बरखा हो, दुनिया का टॉप यूनिवर्सिटी हो – ‘ब्राह्मणवादी उत्पीड़न’ का प्लाकार्ड झट से चला दो।
बात यहीं पर खत्म नहीं होती है। ‘भीम-मीम’ का नैरेटिव मीडिया द्वारा इतना गहरा धँसा दिया जाता है कि जो पीड़ित वर्ग है, वो खुद ही इस पर विश्वास भी करने लगता है। जब ऐसा होता है, तो उसी पीड़ित वर्ग के लिए हालात बदतर हो चुका होता है। क्योंकि वास्तविकता के विपरीत यही इस सिद्धांत को आगे बढ़ाते दिखने लगते हैं। वास्तविक उत्पीड़न (लव जिहाद) को ‘षड्यंत्र’ की चादर से ढक दिया जाता है, मीडिया फैक्टरी में गढ़ी गई ‘ब्राह्मणवादी उत्पीड़न’ को मुख्यधारा में लाकर पटक दिया जाता है – बार-बार रटा-रटाया जाता है।
हीरालाल की हत्या से मुस्लिम अपराधी, बहन के साथ रेप, सत्ता-नेता सब गायब। मीडिया के लिए यह खबर नहीं। हिंदू समाज भी हर आतंकी हमले के बाद Mumbai Spirit जैसे अपने-अपने काम में लग जाएगा। रह जाएगी बस हीरालाल की वो माँ, जिसने कभी इरफान को बेटे जैसा माना था। पीछे छूट जाएँगे हीरालाल के 3 अनाथ बच्चे अपनी विधवा माँ के साथ।
लावण्या की मौत, मुस्लिम को थप्पड़ और हिजाब
‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ गीत गाने वाली प्रियंका गाँधी ने रोहित वेमुला पर ट्वीट किया। उसी दिन 17 फरवरी को इनके भाई राहुल गाँधी ने भी ट्वीट किया। लेकिन 2 दिन बाद लावण्या की मौत पर इन लोगों ने चुप्पी साधे रखी। क्यों? रोहित वेमुला में दलित एंगल था, उत्तर प्रदेश में चुनाव है। लावण्या मामला ईसाई धर्मांतरण का है। दोनों की माँ सोनिया गाँधी खुद जन्म के समय ईसाई थीं। कई कारण हो सकते हैं। अब इनसे कौन पूछे, पूछने पर बता दें, ऐसा रिकॉर्ड भी नहीं।
राजनीति की बात ऊपर हो गई। पुलिस क्या कर रही है, उस पर हाई कोर्ट तक को आदेश देना पड़ गया। अब मीडिया और समाज की बात। एक लड़की मरने के लिए मजबूर कर दी जाती है, मर भी जाती है, मरने से पहले वीडियो में सब कुछ बोल जाती है… लेकिन असल मायने में मृत है वो मीडिया, जो सहानुभूति भी नहीं दिखा पा रहा। प्राइम टाइम पर 12वीं क्लास की बच्ची के सपनों को जगह नहीं मिल पाती।
और मीडिया को दोष क्यों भला? मृत तो है हमारा तथाकथित सेकुलर कहलाने का कीड़ा कटवाया हिंदू समाज। वो हिंदू समाज जो शिवलिंग पर पेशाब करते धराने पर आसिफ को लगे थप्पड़ों की चर्चा चाय पर करता है। मंदिर में पानी पीने गए बच्चे को थप्पड़ क्यों मारा को लेकर सहानुभूति दिखाता है। लेकिन लावण्या से क्या मतलब? हिंदी-भाषी हिंदुओं के लिए वो तमिल थी। तमिल हिंदुओं के लिए शायद वो DMK-AIDMK जैसे खेमे में बाँट कर भुला दी गई होगी।
हिजाब से जुड़ी खबर भी मेनस्ट्रीम मीडिया में प्राइम टाइम का स्लॉट ले जाती है। अखबारों में फ्रंट पेज का हिस्सा होती है। कर्नाटक के कॉलेज वाली खबर को ही याद कर लीजिए। नेता-मंत्री-मौलवी सब पीछे पड़ गए थे। कपड़ों की बात भी जिनके लिए सनसनी है, उन सभी का मौत पर चुप रह जाना आखिर ऐसे ही नहीं हो सकता है। इसके पीछे के एजेंडा को समझना होगा। हिंदू से जुड़ा हर हित, हर घटना हाशिए पर – यही इनका षड्यंत्र है, अफसोस यह सफल होते दिख रहे हैं।
लावण्या के लिए न नेता, न समाज, न मीडिया। जिस सोच के साथ राजनीति और मीडिया के कॉकटेल ने हिंदू आतंक का बीज बोया था, वो अब पाँव पसार चुका है। हिंदू पीड़ित हो ही नहीं सकते, यह अब मुख्यधारा की बात हो गई है। एक हिंदू बच्ची की मौत, मौत से पहले का वीडियो… सब कुछ होते हुए भी तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष समाज’ को दुखी नहीं हो रहा। आवाजें नहीं उठ रहीं। मोमबत्तियों की फैक्टरी बंद हो गई है, जलेंगी कहाँ से! पहले जो संघियों की मौत पर दुखी नहीं होते थे, अब उसके नेक्स्ट स्टेप में हर हिंदू बच्चे-बच्चियों की मौत पर ये चुपचाप चादर तान सो जाते हैं।
लावण्या की मौत पर सत्ता-नेता-मीडिया-समाज सब गायब। आश्चर्च यह कि हिंदू समाज भी गायब। वो भी तब जब मसला ईसाई धर्मांतरण का है। लावण्या अपना धर्म बचा कर यह दुनिया छोड़ गईं। उनके माता-पिता को 3 और बच्चों को पालना है, पढ़ाई-लिखाई करवानी है। दबाव और अभाव में पहले भी हिंदू भाई-बहन ईसाई बने हैं। भगवान न करे, लेकिन लावण्या के माता-पिता ने अगर कभी ऐसा कदम उठाया तो उस दिन सच में वो बच्ची हार जाएगी – धर्म से भी, मन से भी।
हिन्दू विरोधी दिल्ली दंगा, पहली सजा हिंदू को ही
हीरालाल और लावण्या के मामले से ज्यादा गंभीर मसला दिनेश यादव का है। यह मसला न्याय से जुड़ा है, न्यायपालिका से जुड़ा है। मीडिया और राजनीति के जाल में फँसा आम आदमी आखिर किससे उम्मीद लगाए? मीडिया और राजनीति के घालमेल ने जिस हिंदू विरोधी दिल्ली दंगों को जन्म दिया, उसमें फँसा आम आदमी आखिर कहाँ जाए? अदालत के पास न्याय के लिए जाए और न्याय जमीनी हकीकत से दूर हो तो आखिर क्या किया जाए?
दिनेश यादव को दोषी पाकर माननीय अदालत ने क्या किया, यह खबर है। खबर यह भी है कि हिंदू विरोधी दिल्ली दंगों में जिस दिलबर नेगी की हाथ-पैर कटी अधजली लाश मिली थी, उस केस में माननीय जज सुब्रमण्यम प्रसाद ने मो. ताहिर, शाहरुख, मो. फैजल, मो. शोएब, राशिद और परवेज को जमानत दी। जरा दोनों मामलों को भी देखा जाए।
दिनेश पर आरोप – मुस्लिम महिला के घर में आग लगाना, उनकी भैंस खोल कर ले जाना।
दिलबर नेगी मामले में 6 मुस्लिमों (जिन्हें बेल मिली) पर आरोप – जिस दुकान में इनकी (नेगी की) अधजली लाश मिली, उसमें तोड़फोड़ और आग लगाना।
एक मामले में घर में आग लगाने का आरोप है, भैंस खोल कर ले जाने का आरोप है। पीड़ित मुस्लिम महिला है, जो जीवित है। दूसरे मामले में भी आग लगाने और तोड़फोड़ का आरोप है। पीड़ित हिंदू युवक था, कटी-अधजली लाश ही अब उसकी याद है। जमानत तो रिफाकत अली को भी दे दी अदालत ने। जबकि अदालत ने ही वीडियो देख कहा था कि रिफाकत अली को हिंसक भीड़ के बीच लोहे की छड़ थामे देखा जा सकता है।
ऊपर दिनेश यादव और दिलबर नेगी मामले को एक-एक वाक्य में संक्षेप में समझा गया। अब देखते हैं दिनेश यादव और रिफाकत अली मामले को। मुझे अमानवीय कह सकते हैं लेकिन दोनों मामलों को आमने-सामने रख कर पढ़ते समय मुझे हँसी आई। दोषी पाकर सजा दे दिए गए दिनेश यादव के लिए माननीय जज साहब ने अपने आदेश में लिखा है कि वो अपराध करने में शामिल रहा है, इसका कोई साक्ष्य नहीं है। वो जज हैं, जजमेंट सुना दी। लेकिन जिस न्यायिक आधार/तर्क पर दिनेश को सजा मिली, एकदम उस जैसे ही साक्ष्य पर रिफाकत को जमानत कैसे मिल जाती है – यही मेरे हँसने का कारण बना।
माननीय अदालत, न्यायिक प्रक्रिया, जमानत, दोषी और इंसाफ… ये लंबे-चौड़े शब्द हैं। माननीय जज साहब शायद बेहतर समझते होंगे। इन सबके बीच मुझे सांप्रदायिक हिंसा बिल याद आ रहा है।
2005 में कॉन्ग्रेसी सरकार के समय इस बिल को ड्राफ्ट किया गया था। हंगामा हुआ। 2011 में फिर से कॉन्ग्रेसी सरकार ने इसे वापस लाया। सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल (Prevention of Communal Violence Bill 2011) – यह है पूरा नाम। इसे सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था। इस बिल को समझना है तो इसके कुछ हिस्से को पढ़ लीजिए।
- अगर कहीं भी दंगा होता है तो इसके लिए वहाँ की बहुसंख्यक आबादी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा।
- दंगों में अगर बहुसंख्यक आबादी की महिला के साथ रेप हो तो इस बिल के अनुसार वो अपराध नहीं। इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) के तहत यह रेप होगा, लेकिन इस कानून के अनुसार नहीं।
- अनुसूचित जाति और जनजातियों के साथ अगर मुस्लिम संप्रदाय का दंगा हो जाए तो एससी एसटी एक्ट इस बिल के कारण निष्प्रभावी (अगर अनुसूचित जाति और जनजातियाँ उस इलाके में बहुसंख्यक हों) हो जाएगा।
खैर, यह बिल कानून नहीं बन पाया। कॉन्ग्रेसी सरकार 2011 के बाद भ्रष्टाचार मामले में फँस कर चित्त थी और 2014 के बाद लगभग सो चुकी है। लेकिन कॉन्ग्रेसी इको-सिस्टम अभी भी जिंदा है। अफसोस यह कि न्यायपालिका भी इससे वंचित नहीं। दंगा हो, जिस भी परिस्थिति में हो – बहुसंख्यकों पर कानून की लाठी चलेगी – सांप्रदायिक हिंसा बिल यही था। दिनेश यादव मामले में दोषी करार और दिलबर नेगी मामले में जमानत – बिना कानून बने सांप्रदायिक हिंसा बिल अदालतों से तारीख दर तारीख किसी न किसी स्वरूप में निकल रहे हैं। यह स्थिति डरावनी है। इस कॉन्ग्रेसी इको-सिस्टम को रोकना होगा, यह फैसला मिसाल नहीं बनने दिया जा सकता। इसकी लड़ाई ऊपरी अदालत में हिंदुओं को लड़नी भी होगी, जीतनी भी होगी।
विष्णु गोस्वामी, वी.रामलिंगम, ध्रुव त्यागी, चन्दन गुप्ता, हीना तलरेजा, अंकित सक्सेना, प्रशांत पुजारी, विधु जैन, ट्विंकल शर्मा, सुबोध सिंह, डॉक्टर पंकज नारंग, रिया गौतम, बन्धु प्रकाश, प्रीति माथुर, कमलेश तिवारी, प्रीति रेड्डी, रतन लाल, विनोद कुमार, अंकित शर्मा, महाराज कल्पवृक्ष गिरी, सुशील गिरी, निलेश तेलगड़े, नीरज प्रजापति – ये कुछ नाम हैं। मीडिया ने तो भूला दिया है, हिंदू समाज भूलने की गलती न करे। वरना कल किसी आर्टिकल में इन नामों में लावण्या, हीरालाल और दिनेश यादव के नाम भी जुड़ जाएँगे।