दिल्ली HC ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा कि पुरुष भी महिलाओं की तरह क्रूरता और हिंसा से समान सुरक्षा के हकदार हैं। यह फैसला उन अनगिनत पुरुषों की तकलीफों को मान्यता देता है, जिनकी आवाजें सदियों से दबाई जाती रही हैं।
हमारे समाज में पुरुषों को हमेशा ताकत और सहनशीलता का प्रतीक माना गया है। उन्हें सिखाया जाता है कि रोना कमजोरी है और दर्द को सह लेना मर्दानगी की निशानी। लेकिन, जो समाज उनके आंसुओं को कमजोरी समझता है, वह यह भूल जाता है कि भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक अत्याचारों का दर्द पुरुष भी महसूस करते हैं।
पुरुष आयोग की अध्यक्ष बरखा त्रेहन ने इस फैसले को क्रांतिकारी बताते हुए कहा, “यह केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि समाज की जड़ों में बैठे अन्याय के खिलाफ एक आंदोलन की शुरुआत है। हर आत्महत्या करने वाले पुरुष के पीछे एक अनसुनी चीख होती है, जिसे अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।”
भारत में झूठे आरोपों के कारण न केवल पुरुषों की गरिमा, बल्कि उनकी जिंदगियां भी दांव पर लग जाती हैं। क्या उन बेटों, पतियों और पिता के बलिदानों को यूँ ही भुला दिया जाएगा, जो समाज और कानून की कठोरता के शिकार हुए?
यह फैसला पुरुषों के लिए न्याय की दिशा में पहला बड़ा कदम है। यह उन सभी लोगों को चेतावनी है जो कानून का दुरुपयोग कर पुरुषों को फँसाने की साजिश करते हैं। समाज को अब यह स्वीकार करना होगा कि समानता का मतलब केवल महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा नहीं, बल्कि पुरुषों के दर्द और उनके अधिकारों को भी पहचानना है।
इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हर इंसान का दर्द मायने रखता है—चाहे वह महिला हो या पुरुष। अब समय आ गया है कि समाज अपनी सोच बदले और यह समझे कि न्याय और सुरक्षा पर हर किसी का हक है।