अमेरिकी लेखक जेम्स बाल्डिवन ने कहा है,
लोग इतिहास में उलझे हैं और इतिहास उनमें कैद है।
गूगल में मीरजाफर सर्च करते ही सबसे ऊपर लिखा आता है- गद्दारी की सबसे बड़ी मिसाल “मीरजाफर” है। असल में मीरजाफर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला का सेनापति था। ये वो वक्त था जब ब्रिटिश, पुर्तगाली, डच, फ्रेंच सबकी कंपनियॉं भारतीय जमीन पर ठौर तलाश रहीं थीं। सिराजुद्दौला ने सभी कंपनियों को सर्शत व्यापार की अनुमति दी। नियम तोड़ने पर सबको दंड भी एक जैसा ही देता था। अंग्रेजों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ।
1757 में प्लासी की लड़ाई हुई। अंग्रेजों की शह पर मीरजाफर ने गद्दारी की और सिराजुद्दौला हार गया। इसके बाद मीरजाफर बंगाल का नवाब बना और अंग्रेजों को मिली ज्यादा से ज्यादा व्यापारिक रियायतें। फिर अंग्रेज कैसे बढ़े और हम गुलाम हुए, इससे हम सब परिचित हैं।
आज के वक्त में किसी भी देश के लिए किसी अन्य राष्ट्र को राजनीतिक तौर पर गुलाम बनाना संभव नहीं रहा। इसलिए अर्थतंत्र के जरिए इस मंसूबे को आगे बढ़ाया जाता है। चीन सालाना भारत को करीब 70 अरब डॉलर का निर्यात करता है। लेकिन ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे अभियानों से उसके व्यापारिक हितों को नुकसान पहुँचना तय है।
भारत ने सभी 61 सीमा सड़क 2022 तक पूरा करने का लक्ष्य तय कर रखा है। वह लद्दाख में सबसे ऊँचा पुल बना रहा है। केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का जो नक्शा जारी किया गया है, उसमें पाकिस्तान के कब्जे वाला पीओके और चीनी कब्जे वाला अक्साई चीन भी शामिल है।
ये सब चीन की चिंताएँ बढ़ाने वाली हैं। भारत जैसे बड़े बाजार में संभावनाएँ सीमित होने का मतलब है, अरबों डॉलर का नुकसान और लाखों लोगों का बेरोजगार होना।
भारत के बाजार में चीन कैसे पैर पसार रहा है इसे आप नीचे दिए गए ग्राफ से समझ सकते हैं;
जिस तरह मोदी सरकार ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने के लिए लीक से हटकर प्रयास किए थे, वैसा ही चीन के साथ भी किया। बतौर पीएम मोदी पॉंच बार चीन की यात्रा पर गए। यह किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की सर्वाधिक चीनी यात्रा है। वे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से 18 बार मुलाकात भी कर चुके हैं।
लेकिन, मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही बाजार को लेकर अपने इरादे भी स्पष्ट कर दिए। इसी कड़ी में सितंबर 2014 में भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित करने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ की पहल की गई। पिछले दिनों कोरोना संकट को अवसर में बदलने के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ की शुरुआत की गई। ये सब पहले सीधे चीन के व्यापारिक हितों को चोट पहुॅंचाते हैं। दुनिया का साहूकार बनने के फेर में चीन ने इतने कर्जे बाँटे हैं कि यदि भारत का बाजार हाथ से निकल गया तो उसकी अर्थव्यवस्था का बुलबुला झटके में फूट जाएगा।
इन सबसे अपनी जनता का ध्यान बँटाने के लिए चीन के पास दो ही विकल्प बचते हैं। पहला, भारत को सीमा विवाद में उलझाकर रखा जाए, जिसकी कुव्वत उसे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दरियादिली से मिली है। दूसरी, अंग्रेजों की तरह मीरजाफर खड़े किए जाएँ।
ऐसे में ताज्जुब नहीं होता कि गालवन में चीनी धूर्तता के बाद राहुल गाँधी ने भारत सरकार से ही सवाल पूछ लिए।
Why is the PM silent?
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) June 17, 2020
Why is he hiding?
Enough is enough. We need to know what has happened.
How dare China kill our soldiers?
How dare they take our land?
असल में चीन जैसी छटपटाहट सत्ता सुख की आदी कॉन्ग्रेस में भी दिखती है। 2014 के बाद से वह लगातार सिकुड़ती, कमजोर होती जा रही है। इसी छटपटाहट में राहुल गाँधी गुपचुप चीनी दूतावास तब चले जाते हैं, जब डोकलाम में भारत और चीन के बीच गतिरोध चल रहा होता है। पहले इस मुलाकात से इनकार किया जाता है, लेकिन सबूत सामने आते हैं तो सफाई दी जाती है।
अगस्त 2008 में कॉन्ग्रेस ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से सूचनाओं के लेन-देन को लेकर बकायदा एक समझौता किया था। उस समय कॉन्ग्रेस की कमान सोनिया गॉंधी के हाथ में थी और मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। यह समझौता तब किया गया था जब वामपंथी वैसाखी के सहारे चल रही UPA-1 की सरकार में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने विश्वास की कमी व्यक्त की थी।
ऐसा नहीं है कि चीन की मक्कारी से कॉन्ग्रेस परिचित नहीं है। या फिर चीन से नरमी उसका नया दृष्टिकोण है। यह नेहरू के जमाने से ही है।
1 अक्टूबर 1959 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने कहा था, “भारत और चीन के बीच जो तनाव पैदा हो गया है, वह निश्चित तौर पर हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है। इसका मतलब यह नहीं कि हम बहुत अलार्म हो जाएँ या फिर बहुत गंभीर खतरों के बारे में सोचने लगें। मुझे निकट भविष्य में ऐसी कोई गतिविधि नजर नहीं आती, लेकिन बुनियादी तथ्य यही है कि भारत और चीन अलग हो गए हैं। और भले ही सरहद पर अपेक्षाकृत शांति बनी रहे, यह एक तरह की फौजी शांति ही होगी और भविष्य में लगातार तनाव बने रहने की आशंका दिखाई देती है। असल में यह भविष्य ही है जो मुझे ज्यादा परेशान कर रहा है, क्योंकि इसके कारण हमारे देश को मानसिक और भौतिक दोनों तरह के तनाव में रहना पड़ेगा।”
बावजूद 1962 हुआ। लेकिन इसके बाद भी चीन को लेकर कॉन्ग्रेस का ममत्व कम नहीं हुआ। यह नेहरू ही थे जिसके कारण भारत की सीमा तक चीन पहुॅंचा। वरना 1949 तक तो उसकी सीमाएँ भी भारत से नहीं लगती थीं।
1) This is a thread for young Indians to understand China:
— Kiran Kumar S (@KiranKS) June 17, 2020
I will explain –
How Communist China got a border with India which it didn’t have in 1949.
Where are the potential flash points for long term?
Where are the conflict zones of 2020? Why #IndiaChinaFaceOff now?
1949 में कम्युनिस्टों का शासन स्थापित होने के बाद चीन ने ताइवान से समाजवादियों को खदेड़ दिया। 1950 में तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। वह तिब्ब्त जो भारत और चीन के बीच बफर स्टेट था। वह तिब्बत जो 1000 साल से भी ज्यादा लंबे वक्त से भारत का सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक पड़ोसी था।
इतने अहम तिब्ब्त पर जब चीन ने चढ़ाई की तो भारत क्या कर रहा था?
फ्रांसीसी मूल के लेखक, पत्रकार और तिब्बत की इतिहास के जानकार क्लाउडे अर्पी (Claude Arpi) ने ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन (Will Tibet ever find her soul again)’ में लिखा है कि उस वक्त नेहरू का भारत तिब्बत में घुसी चीनी सेना के लिए चावल का सप्लाई कर रहा था। भारतीय चावल खाकर चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
गौर करने वाली बात यह है कि तिब्बत से एशिया की 9 बड़ी नदियों का उद्गम होता है। इस पर कब्जे से नदियों के जल पर कम्युनिस्टों का नियंत्रण हो गया। लेकिन, कॉन्ग्रेस का चीन से ममत्व कमजोर नहीं पड़ा।
उसने UNSC (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद) की स्थायी सदस्यता चीन को उपहार में दी। असल में 1953 में स्थायी सदस्यता की पेशकश भारत को ही हुई थी। लेकिन नेहरू ने इसे अस्वीकार करते हुए चीन को UNSC की स्थायी सदस्यता की वकालत की थी।
इस बारे में सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ नेहरू में सर्वपल्ली गोपाल, खंड 11 के पेज संख्या 248 में लिखा है, “नेहरू ने सोवियत संघ की भारत को UNSC के छठे स्थायी सदस्य के रूप में प्रस्तावित करने की पेशकश को ठुकराते हुए कहा था कि भारत की जगह इसमें चीन को स्थान मिलना चाहिए।”
कॉन्ग्रेस की ऐतिहासिक भूलों का वह सिलसिला आज भी जारी है। इसका क्या कारण हो सकता है?
जब ऊपर जिक्र किए गए कड़ियों को हम जोड़ने की कोशिश करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि कॉन्ग्रेस और चीन के बीच एक अघोषित साँठगाँठ है। तुम सत्ता दोबारा हासिल करने में हमारी मदद करो और हम तुम्हें और बड़ा बजार भुनाने का मौका देंगे। कुछ-कुछ वैसा ही जिस तरह की डील मीरजाफर और अंग्रेजों के बीच हुई थी।
यह चीन के लिए भी फायदे का सौदा है, क्योंकि वह बखूबी जानता है कि लद्दाख में भारत के साथ परंपरागत युद्ध छिड़ने पर सप्लाई लाइन के हिसाब से भारतीय थल सेना और वायु सेना को उस पर बढ़त हासिल है। यह बढ़त तब और मजबूत होगी, जब सीमाई इलाकों में भारतीय परियोजनाएँ समय से पूरी हो जाएँगी। जब भारत के बाजार में चीन भरभरा कर गिरेगा, तो वह अपने ही लोगों के असंतोष से कुचला जाएगा।
यह असंतोष न चीन के कम्युनिस्टों के हक में होगा और न भारत के वामपंथियों और उनके पोषक कॉन्ग्रेस के हित में। इसलिए, नानजिंग के प्रेसिडेंशियल पैलेस और जनपथ की बेचैनियाँ आज एक सी दिख रहीं।