Tuesday, November 5, 2024
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नेहरू के नेतृत्व में भारत ने खो दी 44000 वर्ग Km जमीन, बलिदान हो गए 3250 जवान: पटेल ने 12 साल पहले ही किया था आगाह

भारत की 43,000 वर्ग किलोमीटर भूमि चीनियों के कब्जे में जा चुकी थी। भारत के 3250 जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। अब नेहरू को समझ आ रहा था कि सेना को शक्तिशाली बनाना क्यों ज़रूरी है।

भारत और चीन ऐसे दो देश हैं, जिन्होंने आज से 58 वर्ष पहले युद्ध लड़ा था और आज भी सीमा पर माहौल तनावपूर्ण है। पाकिस्तान को तो हमेशा से भारत ने धूल चटाई है लेकिन चीन ने जब 1962 में भारत पर आक्रमण किया, तब जवाहरलाल नेहरू और उनके सारे ‘शांतिवादी दुनिया’ के मिथक धराशाई हो गए। अपने प्रधानमंत्रित्व काल के 16वें वर्ष में नेहरू को समझ आया कि देश की रक्षा नीति सटीक होनी चाहिए, सेना मजबूत व संसाधन संपन्न होनी चाहिए और हथियारों का निर्माण होना चाहिए।

लेकिन, तब तक देर हो चुकी थी। चीन की सेना ने अक्टूबर 20, 1962 को लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किए। चीन ने भारत को हरा दिया और हमारी सेना ने सीमित संसाधन और लचर राजनीतिक नेतृत्व के बावजूद इस युद्ध में अपना चरम पराक्रम दिखाया और ये सुनिश्चित किया कि देश को कम से कम नुकसान हो। देश का नेतृत्व उन्हीं नेहरू के हाथ में था, जिन्होंने ‘Scrap The Army’ जैसी शब्दावली का प्रयोग किया और ये वही सेना थी, जिसने तमाम उपेक्षाओं के बावजूद शक्तिशाली चीन का सामना किया।

भारत-चीन युद्ध की छोटी सी नींव: नेहरू ने सरदार पटेल की सलाह को नकारा

ऐसा नहीं है कि किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि चीन भारत पर आक्रमण कर सकता है। एक व्यक्ति था, जिसने अपनी ज़िंदगी के अंतिम वर्ष में भी नेहरू को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि तिब्बत पर सरकार की नीति क्या हो और चीन हमारे लिए कितना बड़ा खतरा है। 1950 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर के उस पर कब्ज़ा करने की शुरुआत कर दी। उनका नरसंहार तभी से चालू हो गया था।

नेहरू आँख बंद किए बैठे रहे। वरिष्ठ भारत-चीन विशेषज्ञ Claude Apri लिखते हैं कि न सिर्फ कॉन्ग्रेस के कई नेता बल्कि कई बड़े अधिकारी भी नेहरू की आत्मघाती ‘चीन तुष्टिकरण’ नीति से नाराज़ थे, लेकिन उन्होंने किसी की एक भी न सुनी। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर 11, 1950 में अपने अंतिम भाषण में तिब्बत और नेपाल के घटनाक्रम का जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि दुनिया में कोई भी देश तिब्बत जितना शांतिप्रिय नहीं है और चीन हथियार के बल पर ये निंदनीय हरकत कर रहा है।

उनका कहना था कि न तो चीन ने भारत की ये सलाह सुनी कि तिब्बत मुद्दे को शांतिप्रिय तरीके से हल किया जाए, और न ही भारत को लगता था कि चीन बल-प्रयोग करेगा। सरदार पटेल ने चेताया था कि जब कोई देश इस तरह अपनी सैन्य शक्ति के नशे में चूर रहता है तो वो किसी मुद्दे पर शांति से सोच-विचार नहीं करता। उन्होंने कहा था कि डरपोक नहीं बनना है, खतरों से नहीं भागना है। कलियुग में अहिंसा के बदले अहिंसा हो, लेकिन बल का जवाब बल से दिया जाए।

एक तरह से देखा जाए तो 1962 के भारत-चीन युद्ध की छोटी सी नींव तभी पड़ गई थी, जब भारत ने चुपचाप तिब्बत को उसके कब्जे में जाने दिया। अगर उस समय भारत आवाज़ उठाता तो हो सकता था कई देश उसके साथ आते। लेकिन, चीन ने भारत के बारे में समझ लिया कि वो कुछ भी करता रहेगा और वहाँ के राजनीतिक नेतृत्व के पास इसके खिलाफ जाने की हिम्मत तक नहीं है। खैर, नेहरू ने ‘स्वास्थ्य कारणों से’ दिसंबर 1950 में सरदार पटेल को एक तरह से कार्यमुक्त कर दिया।

नेहरू ने नहीं मानी थी सरदार पटेल की सलाह

सरदार पटेल जानते थे कि तिब्बत में जाकर चीनी सेना के बैठने का सीधा अर्थ है कि वहाँ से वो सीधा भारत के लिए खतरा पैदा करता रहेगा। तभी तो उन्होंने कहा था कि चीनी सेना का तिब्बत में घुसना भारतीय सैन्य कैलकुलेशंस को बर्बाद कर रहा है। उन्होंने चेताया था कि अब हमें अपनी सैन्य तैनातियों के खाके पर फिर से विचार करना पड़ेगा। तब विदेश मंत्रालय ने सेक्रेटरी जनरल गिरिजा शंकर बाजपेयी भी नेहरू से नाराज़ थे। नेहरू ने पटेल के पत्र को नजरअंदाज कर दिया। इसका दुष्परिणाम 12 साल बाद सिर उठा कर आया..

कैसे शुरू हुआ था भारत और चीन का युद्ध

अक्टूबर 20, 1962 – ये वो तारीख है, जब भारत और चीन का युद्ध शुरू हुआ। लेकिन, इसकी पटकथा काफी पहले से लिखी जा रही थी। अभी हमने इससे 12 साल पहले से समय की बात की। अब सीधा युद्ध शुरू होने के कारणों पर लौटते हैं। पर्वतराज हिमालय प्राचीन काल से ही भारत और इसके उत्तरी क्षेत्रों की सीमा रहा है। लेकिन, 40 के दशक में कम्युनिस्ट फ़ौज की सक्रियता और ब्रिटिश द्वारा भारत का नक्शा खींचने के बाद सब कुछ जैसे बदल सा गया।

सरदार पटेल का डर सही साबित हुआ और तिब्बत पर कब्जे के साथ ही चीन ने पूरे हिमालय पर ही अपना दावा ठोक दिया। वो हिमालय, जहाँ आदिकाल से हमारे ऋषि-मुनियों ने तपस्या की, वहाँ आध्यात्मिक एकांत की खोज की। पूर्व में भारत-चीन को अलग करने वाली मैकमोहन रेखा तक को चीन ने मानने से इनकार कर दिया। हालाँकि, दोनों देशों ने पंचशील पर हस्ताक्षर कर के जम्मू कश्मीर पर चीन के दावे को काफी हद तक रोकने की कोशिश की।

भारत निश्चिंत था लेकिन चीन के मन में खुराफात लगातार चल रही थी। अप्रैल 29, 1954 को पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर हुए। चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहा और नेहरू ‘हिंदी, चीनी भाई-भाई’ की ग़लतफ़हमी में अटके रहे। अक्साई चीन पर भी चीन ने अपना दवा ठोक डाला। 1956 में चीन के पहले प्रीमियर झोउ एनलाई ने कहा कि चीन किसी भी भारतीय क्षेत्र पर दावा नहीं करता। बाद में वो पलट गए।

भारत ने 1958 में अक्साई चीन को अपना हिस्सा बताया। उधर तिब्बत में हर प्रकार की विरोधी आवाज़ को कुचलने में चीनी फ़ौज लगी हुई थी। धर्मगुरु दलाई लामा को भाग कर भारत आना पड़ा। उन्होंने यहाँ आकर ही तिब्बत की सरकार का गठन किया। उसी साल अगस्त में ईस्टर्न सेक्टर में स्थित लोंगजू और अक्टूबर 1959 में वेस्टर्न सेक्टर में स्थित कोंग्का पास में भारत और चीन की सेनाएँ भिड़ीं। उनमें संघर्ष हुआ। नेहरू आँख मूँदे रहे।

चीन कह रहा था कि भारत तिब्बत में कोई बड़ी योजना बना रहा है। असल में वो बस थाह लेना चाहता था कि कहीं उसकी साम्राज्यवादी क्रियाकलापों में भारत कोई बाधा बन कर तो नहीं आएगा। नेहरू ने अक्साई चीन को भारत का हिस्सा आधिकारिक रूप से माना तो, लेकिन तिब्बत को लेकर उनके लचर रवैये ने चीन को ये एहसास दिलाया कि भारत अब कमजोर हो चुका है। 1961 में जब तक भारत की फॉरवर्ड पॉलिसी शुरू हुई, तब तक काफी देर हो चुकी थी।

1962: भारतीय सेना के जवानों ने दिखाया था अद्भुत पराक्रम

भारतीय सेना ने अपना अभियान शुरू किया और उनका उद्देश्य था कि आगे बढ़ रहे चीनियों को रोकने के लिए चेकपोस्ट बनाई जाए और उनकी सप्लाइज काटी जाए। 1962 आ गया। पहले 6 महीने में ही चीन के रवैये से लगता था कि वो युद्ध में उतर चुका है लेकिन भारत का केंद्रीय नेतृत्व सोया रहा। नेहरू को लगता था कि चीन कुछ भी कर ले लेकिन भारत के साथ युद्ध की जहमत नहीं उठाएगा।

नेहरू सरकार का मानना था कि छिटपुट संघर्ष ही होते रहेंगे क्योंकि चीन पूरी तरह युद्ध करने की स्थिति में है ही नहीं। आखिरकार चीन ने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में हमला बोला। उसने वेस्टर्न सेक्टर में चिपचप वैली और ईस्टर्न सेक्टर में नामका चु नदी के पास के क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के लिए एक के बाद एक भारतीय चेकपॉट्स पर हमला बोला। रक्षा विशेषज्ञ आर सुकुमारन लिखते हैं कि इस युद्ध ने भारत की प्रतिष्ठा को कम कर दिया।

तब आईबी के निदेशक रहे बीएन मलिक ने कहा था कि ख़ुफ़िया एजेंसी की तरफ से मुख्यालय में सूचना भेज दी गई थी कि चीन के इरादे ठीक नहीं हैं। साथ ही ये भी बताया गया था कि पाकिस्तान भी मौका देख कर पश्चिम में धावा बोल सकता है। तत्कालीन रक्षा मंत्री ने वायुसेना और थलसेना प्रमुखों को तैयारियाँ करने का निर्देश दिया लेकिन पीएम नेहरू ने वायुसेना को आदेश दिया कि फाइटर एयरक्राफ्ट्स अंतरराष्ट्रीय सीमा के 24 किलोमीटर के दायरे में न उड़ाए जाएँ।

नेहरू का कहना था कि तनाव रोकने के लिए उन्होंने ये आदेश जारी किया है। भारत ने जिस तरह से उस वक़्त अमेरिका से मदद की अपील की थी, उससे उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची क्योंकि देश में जो भी हो, विदेश में नेहरू ने अपनी अलग छवि बना रखी थी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कारण आज़ाद भारत की छवि भी ठीक थी। वायुसेना के फाइटर जेट्स का सहारा नहीं लिया गया। अन्यथा परिणाम शायद कुछ और हो सकते थे।

ये वो समय था, जब चीन को ताइवान के आक्रमण का भय भी सता रहा था। बावजूद इसके उसने भारत पर आक्रमण का निर्णय लिया। जनरल जीडी बक्शी लिखते हैं कि उस वक़्त युद्ध के बाद चीनी सेना के डिप्टी चीफ ने कहा था कि उनके देश की वायुसेना पश्चिमी देशों से 15 वर्ष पीछे है। यहाँ तक कि बाद में वियतनाम ने भी चीन को सबक सिखा दिया था। सही निर्णय न लेने के कारण भारत ये मौका चूक गया।

और ख़त्म हो गया युद्ध..

चीन ने 4 दिनों के भीतर ही भारत को अच्छा-खासा नुकसान पहुँचाया। वहाँ की सेना अक्टूबर 24, 1962 तक भारत में 15 किलोमीटर भीतर तक घुस चुकी थी। इसके बाद चीन ने दोनों सेनाओं के 20 किलोमीटर पीछे हटने और अक्साई चीन में यथास्थिति को बरक़रार रखने की पेशकश थी। उसका उद्देश्य पूरा हो चुका था। इसी बीच नवम्बर 14 को पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन भी आया। लेकिन, युद्ध फिर शुरू हो गया।

हालाँकि, इसके एक सप्ताह बाद चीन ने ही एकतरफा सीजफायर की घोषणा कर दी। लेकिन, इसके साथ ही भारत की 43,000 वर्ग किलोमीटर भूमि चीनियों के कब्जे में जा चुकी थी। भारत के 3250 जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। अब नेहरू को समझ आ रहा था कि सेना को शक्तिशाली बनाना क्यों ज़रूरी है। हथियारों की फैक्ट्री और परमाणु कार्यक्रम के लिए फंड्स जारी किए गए। सेना को आधुनिक बनाने की कवायद शुरू हुई।

पूर्व एयर मार्शल डेंजिल कीलोर दो टूक कहते हैं कि 1962 का युद्ध भारत केवल पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कारण हारा। उन्होंने उस समय एयरफोर्स का समर्थन नहीं किया। न ही सेना के जवानों को गर्म कपड़े उपलब्ध कराए। भारत यदि हारा तो उसकी वजह नेहरू थे। उन्होंने कहा था कि 1962 के युद्ध में सेना के हाथ में कुछ नहीं था। वो युद्ध बेहद राजनीतिक था, जिसे नेहरू ने हारा। शुरू भी उन्होंने किया और हारे भी वे।

इसके डेढ़ साल बाद जवाहरलाल नेहरू भी देश को मँझधार में छोड़ कर चल बसे। अपने आखिरी दिनों में वो उदास रहा करते थे। अब तक उन्होंने जो भी गलतियाँ की थीं, चीन ने उन सबका एहसास उन्हें एक बार में ही दिला दिया था। भारत की रक्षा नीति में अमूल-चूल बदलाव आने शुरू हुए। लाल बाहदुर शास्त्री के काल में पाकिस्तान ने हमला किया और मुँह की खाई। इंदिरा गाँधी के समय में पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए। वाजपेयी काल में कारगिल में उसे धूल चटाया गया। लेकिन, 1962 का दाग अब तक रह गया! अंत में जाते-जाते लेखक रघुवीर सहाय का ये आकलन, जो इस स्थिति का विवरण देता है:

“1950-60 के बीच नेहरू का प्रभाव शिखर पर था। मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ बढ़ने लगीं और पूँजीपति वर्ग की मशीनें भी ज्यादा उत्पादन देने लगीं और इसके साथ ही शासक राजनीतिक दल का अहंकार और आत्मविश्वास भी बढ़ता चला गया। हालाँकि, सामान्य जन इस विकास का खामोश दर्शक बना रहा। नए लेखन में भी यथार्थ और भ्रम के बीच की अथाह खाई को तब तक नहीं पहचाना गया, जब तक राष्ट्र को 1962 में चीन युद्ध का भारी झटका नहीं लगा। बताते हैं कि आत्मस्वीकृति के अंदाज़ में नेहरू ने ये स्वीकार किया था कि अब तक राष्ट्र एक स्वप्न में जीवित था और अब आधुनिकता की ओर धकेला गया है।”

जैसे आज सिनेमा है, तब वैसे ही साहित्य की मदद से नेहरू ने अपनी छवि चमकाई थी। इधर भारत बेहाल था। उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया था, जिसमें सब को नेहरू की ही चिंता थी और देश की नहीं। जबकि नेहरू की उम्र ढल रही थी और देश की हालत खस्ता होते जा रही थी। खैर, बाद में इन्हीं रघुवीर सहाय ने लिखा था कि आज नेहरू नहीं हैं लेकिन देश है और पहले से ज्यादा मजबूत है क्योंकि अब उसे सिर्फ अपनी फ़िक्र करनी है।

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अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
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