Sunday, December 22, 2024
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राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन: भारत को विश्व महाशक्ति बनाने में मील का पत्थर, चीन-अमेरिका को प्रौद्योगिक प्रगति से देंगे टक्कर

कभी विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 27% थी। अंग्रेजों ने ऐसा लूटा कि आजादी के समय यह मात्र 3% रह गई थी। फिर से शिखर पर पहुँचने के लिए भारत को चाहिए अनुसंधान और पैसा। मोदी सरकार ने इसके लिए 50000 करोड़ रुपए के बजट के साथ राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की है।

“हम भारतीयों के प्रति बहुत आभारी हैं, जिन्होंने हमें अंकन की कला प्रदान की। इस आधार के बिना, हमारे कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक रहस्योद्घाटन अबूझ पहेली बने रहते।”

यह प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था। भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्ध ज्ञान-परंपरा प्राचीन काल में वैश्विक समुदाय के लिए अनुकरणीय आदर्श रही है। यह भारत की गंभीर अनुसंधान-वृत्ति, उन्नत वैचारिकी और वैज्ञानिक प्रगति की परंपरा परिणाम रहा है।

‘आधुनिक सभ्यता के उद्गम स्थल’ के रूप में प्रतिष्ठित प्राचीन भारतीय बुद्धिमत्ता विज्ञान, चिकित्सा, आध्यात्मिकता, भाषा-विज्ञान, तत्व मीमांसा, खगोल विज्ञान आदि विविध अनुशासनों को समाहित करते हुए विविध क्षेत्रों का समन्वय और सामरस्य करती रही है।

मानविकी के क्षेत्र में महान भारतीय विचारकों ने सरल और जीवनोपयोगी विचारों का प्रतिपादन और प्रचार-प्रसार किया। इससे आधुनिक समाज को भारत की साहित्यिक, कलात्मक और दार्शनिक अवधारणाओं से ज्ञान-समृद्ध होने का अवसर प्राप्त हुआ। प्राचीन भारतीय अभिलेखों एवं वास्तुकला में शरीर विज्ञान, आयुर्वेद, मनोविज्ञान एवं अन्य विषयों से संबंधित जानकारी प्राप्त होती है। निश्चय ही, ये भारतीय ज्ञान-परंपरा एवं इतिहास की समृद्धि के सूचक हैं।

प्राचीन भारतीय ज्ञान-परंपरा एवं अनुसंधान के केंद्र नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, शारदा जैसे विश्वविद्यालय रहे हैं। ये भारतीय बुद्धिमत्ता और विद्वता की उद्गमस्थली हैं। नालंदा विश्वविद्यालय विश्व की सबसे प्राचीन विद्यापीठों में से एक है। इस युग को ‘भारत का स्वर्ण युग’ कहा जाता है। इस समय इस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में वेद, व्याकरण, चिकित्सा, तर्कशास्त्र और गणित सहित विविध प्रकार के विषय शामिल थे। इसका परिसर आज भी सदियों पुरानी ज्ञान की विरासत का गवाह है।

हमें अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होंने इस विश्वविद्यालय के माध्यम से ज्ञान की सशक्त नींव रखी। गणित और विज्ञान में आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, रामानुज,कणाद, नागार्जुन के साथ-साथ चिकित्सा में सुश्रुत और चरक आदि कई अन्य विद्वान हमारे ऐसे ही पूर्वज हैं, जिन्होंने प्राचीन भारत को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भंडार बना दिया था।

नालंदा, तक्षशिला जैसे भारत के प्राचीन ज्ञान-मंदिर महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के साथ औपनिवेशिक प्रभुत्व, प्रतिकूलताओं एवं विध्वंस के युगों का भी प्रमाण देते हैं। विदेशी आक्रमणकारियों और औपनिवेशिक शक्तियों ने अपने एजेंडे के अनुरूप भारत के इन संस्थानों, भारतीय ज्ञान-परम्परा और अर्थ-व्यवस्था का विध्वंस करने का कार्य किया। उनके वर्चस्व के परिणामस्वरूप प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा नष्ट-भ्रष्ट हो गई।

औपनिवेशिक शासन में समृद्ध भारतीय ज्ञान-परंपरा का अवमूल्यन कर विदेशी पाठ्यक्रमों, अंग्रेजी भाषा और मूल्यों को लागू करने के जबरिया प्रयास किए गए। मैकॉले द्वारा प्रतिपादित काले अंग्रेज और क्लर्क पैदा करने वाली शिक्षा नीति 1835 में लागू हुई। हालाँकि, समय-समय पर इसका प्रतिकार भी हुआ।

राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, रविंद्र नाथ टैगोर जैसे दूरदर्शी विद्वानों और विचारकों ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा सूचना संग्रहण और प्रसारण करने का उपकरण नहीं होनी चाहिए, जैसा कि औपनिवेशिक शासन द्वारा किया जा रहा था। अपितु शिक्षा नागरिकों में आलोचनात्मक सोच, नवाचार और सांस्कृतिक अस्मिता के जागरण का भी साधन होनी चाहिए।

‘विश्वगुरू भारत’ और ‘सोने की चिड़िया भारत’ जैसे विशेषणों में अन्यान्योश्रित संबंध है। एंगस मेडिसन नामक ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार ने लिखा है कि 1700 ई. में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 27 फीसदी थी, जो अंग्रेजी शासन की औपचारिक शुरुआत (1757) में घटकर 23 फीसद हो गई। आज़ादी के समय यह मात्र 3 फीसदी रह गई थी।

मिन्हाज मर्चेंट और शशि थरूर (एन ईरा ऑफ डार्कनेस नामक अत्यंत पठनीय पुस्तक में) ने औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा लूटी गई संपदा की गणना करते हुए उसे 3 ट्रिलियन डॉलर बताया है। यह 2015 में ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद से भी कहीं ज्यादा है। इस प्रकार विदेशी शासन ने भारत को बौद्धिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर खोखला करते हुए दिवालिया कर दिया।

औपनिवेशिक काल में हुए नुकसान की भरपाई करने का सबसे विश्वसनीय तरीका अद्यतन अनुसंधान है। अनुसंधान की गहनता एवं ज्ञान-विज्ञान की उत्कृष्टता और आध्यात्मिक उन्नति एवं आर्थिक समृद्धि की पारस्परिकता को स्वीकारते हुए ही भारत सरकार ने राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की है। यह प्राचीनतम और समृद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनराविष्कार करने और भारत के वर्तमान शोचनीय शोध परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन करने की महत्वपूर्ण पहल है।

50 हजार करोड़ रुपए की प्रारंभिक राशि के आवंटन के साथ गठित यह फाउंडेशन भारत के अनुसंधान क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगी। निश्चित रूप से यह पहल भारत में अनुसंधान-वृत्ति को बढ़ावा देने, नवाचार पैदा करने और शिक्षा के स्तर को उन्नत बनाने में योगदान देगी। यह कदम अनुसंधान के महत्व की स्वीकृति और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता के प्रति भारत की सजगता का प्रमाण है। यह फाउंडेशन वैश्विक मंच पर भारत के कद को बढ़ाने का कारण बनेगी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में बुनियादी सुधार एवं शिक्षा के समावेशी स्वरूप पर बल देती है। यह नीति शैक्षणिक संस्थानों के भीतर अनुसंधान, नवाचार और रचनात्मकता को बढ़ावा देने जैसे उद्देश्यों पर केंद्रित है। इसमें अंतर्निहित मूल भाव देश के युवाओं को अपने देश की प्रगति में ठोस योगदान देने की क्षमता से लैस करना है।

एनईपी के इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। यह फाउंडेशन प्राकृतिक विज्ञान, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, मानविकी, कला और सामाजिक विज्ञान सहित विविध क्षेत्रों में अनुसंधान, नवाचार और उद्यमिता के लिए रणनीतिक मार्गदर्शन प्रदान करेगा। ज्ञान-विज्ञान, अनुसंधान, समाज, उद्योग और सरकार के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देने में भी इस फाउंडेशन की भूमिका प्रभावी होगी।

आज भारत ने प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण नवाचार किए हैं। भारत में कुशाग्र बुद्धिमत्ता एवं विपुल मानव संसाधन हैं। लेकिन अभी भी हम कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। भारत की 140 करोड़ आबादी का काफी बड़ा हिस्सा अभी भी मूलभूत भौतिक सुविधाओं से वंचित है। ऐसी तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुसंधान के लिए प्रोत्साहित करना और अधिक-से-अधिक सुविधाएँ प्रदान करना अभीष्ट है।

आज भी अनुसंधान पर हमारे देश द्वारा व्यय की जाने वाली राशि दुनिया में आनुपातिक रूप से चिंताजनक रूप से कम है। सरकार के सामने अन्य चुनौतियों के साथ-साथ इन संस्थानों को पर्याप्त बजट आवंटित करने की भी बड़ी चुनौती है। इसके लिए सरकारी शोध बजट को बढ़ाने के अलावा निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ाने की भी आवश्यकता है।

भारतीय इतिहास, कला, मानविकी और भारतीय भाषाओं में शोध को प्रोत्साहित करने और आर्थिक सहयोग देने की आवश्यकता है। देश के युवा पीढ़ी को तकनीकी सुविधाओं और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करने की आवश्यकता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दूरदर्शी पहल करते हुए भारत सरकार ने एनआरएफ की स्थापना की है। इस फाउंडेशन की परिकल्पना न केवल वर्तमान अनुसंधान-वृत्ति को बढ़ावा देने के लिए की गई है, अपितु अनुसंधान की परिवेशगत चुनौतियों से निपटने के लिए भी की गई है।

सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम निश्चित रूप से भारत को वैश्विक अनुसंधान पटल पर स्थापित करते हुए सर्वसमावेशी और धारणीय/टिकाऊ विकास के माध्यम से भारतवासियों के जीवन में सुख-सुविधाओं की प्राप्ति का कारण बनेगा।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय (डीएसटी) के तत्वावधान में कार्य करने वाले इस फाउंडेशन का प्रबंधन एक सशक्त गवर्निंग बोर्ड के हाथ में रहेगा। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के अनुभवी और प्रतिष्ठित शोधकर्ता और पेशेवर लोग शामिल होंगे। इसकी महत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री इस फाउंडेशन के गवर्निंग बोर्ड के अध्यक्ष होंगे। उनके साथ केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री तथा केंद्रीय शिक्षा मंत्री उपाध्यक्ष होंगे।

एनआरएफ के संचालन को भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार देखेंगे। इनके पास कार्यकारी परिषद की अध्यक्षता का दायित्व भी रहेगा। यह फाउंडेशन शिक्षा जगत, उद्योग जगत, सरकारी विभागों और देश के शोध संस्थानों के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देगा। इसमें वैज्ञानिकों और विभिन्न मंत्रालयों के साथ उद्योग जगत तथा राज्य सरकारों को भी शामिल किया जाएगा। इस प्रकार यह पहल उन नीतियों और नियामक ढाँचों को तैयार करने पर जोर देगी, जो आपसी सहयोग को बढ़ावा देते हैं और अनुसंधान एवं विकास की दिशा में उद्योग जगत की भूमिका को बढ़ाते हैं।

कुल मिलाकर राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन का गठन वैश्विक अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में भारत की नेतृत्व क्षमता को प्रकट करने की महत्वाकांक्षी परियोजना है। उच्च कोटि के अनुसंधान के माध्यम से ही आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को भी प्राप्त किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे देशों का उदाहरण हमारे सामने हैं। निकट भविष्य में प्रौद्योगिक प्रगति ही आत्मनिर्भरता की आधारभूमि होगी।

ध्यान रखने की बात है कि लालफीताशाही की समाप्ति करके, आधारभूत ढाँचे और आर्थिक संसाधनों की नियमित और समुचित उपलब्धता सुनिश्चित करके, प्रतिभाओं की पहचान और उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन देकर ही यह फाउंडेशन अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगी। इसके प्रबंध-तंत्र को भी राजनीतिक आग्रहों और हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए आवश्यक स्वायत्तता दिया जाना अपेक्षित होगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की कोख से जन्मी यह फाउंडेशन भविष्य के भारत का स्वरूप निर्धारण करेगी। किसी भी प्रकार के विचलन से बचकर ही यह भारत को ज्ञान-अर्थव्यवस्था और विश्व महाशक्ति बनाने में सहयोगी होगी।

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प्रो. रसाल सिंह
प्रो. रसाल सिंह
प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता, छात्र कल्याण का भी दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे। दो कार्यावधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं। संपर्क-8800886847

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