Tuesday, November 19, 2024
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दूसरे समुदाय वालों ने किया अंत्येष्टि कर लौट रहे हिन्दुओं पर पथराव, कई घायल

झारखण्ड में मजहब विशेष के एक गुट ने अंतिम संस्कार करने के बाद लौट रहे हिन्दुओं पर पथराव कर दिया। हमले में कई लोगों को चोटें आई हैं। शवयात्रा के दौरान शोक का बाजा बजाए जाने को लेकर हुई इस झड़प के बाद पुलिस को कैम्पिंग करनी पड़ी है। मामला तोपचांची, जिला धनबाद के मदैयडीह का है।

सोमवार सुबह भीम नारायण महतो की माता नेमिया महताइन (80) का निधन हो गया था। उनके परिजनों और हिन्दू समुदाय के लोगों ने अंत्येष्टि कर के लौटते समय अपनी परम्परा के अनुरूप शोक का बाजा बजाया। जब वे लोग मस्जिद के समीप पहुँचे तो कुछ लोगों ने विरोध करते हुए बाजा बंद करने को कहा। विरोध पहले बहस में बदला, और बात बढ़ते-बढ़ते पत्थरबाजी होने लगी। मीडिया रिपोर्टों में लाठी-डंडे से भी हिंसा की बात निकल कर सामने आ रही है

मामले की सूचना पाकर मौके पर पहुँची मदैयडीह और राजगंज थानों की पुलिस ने किसी तरह हिंसा रोकी। इस बाबत जहाँ हिन्दुओं का कहना है कि उनके बाजा बजाने पर ही रोक लगाने की कोशिश की गई और हमला किया गया, वहीं दूसरे समुदाय का दावा है कि जिस समय बाजा बज रहा था, उस समय मस्जिद में नमाज अदा की जा रही थी। इस बीच यह भी पता चला है कि मृतका का घर ही मस्जिद के सामने था, अतः ज़ाहिर तौर पर बाजा बजाने वाले उनके घर पर ही बजा रहे थे।

हमले में हिन्दू पक्ष की ओर से संजय साव, नंदलाला साव, धनेश्वर साव, महेश्वर साव, सुदामा साव, पूजा देवी, शनीचर साव, मुनिया देवी के घायल होने की सूचना है। घायलों का इलाज तोपचांची प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में किया जा रहा है। वहीं समुदाय विशेष में कुछ व्यक्तियों के घायल होने की सूचना है। हालाँकि पुलिस कैम्पिंग से क्षेत्र में हिंसा तो नहीं हुई है, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव कायम है।

गुजरात से RS प्रत्याशी होंगे एस जयशंकर, कॉन्ग्रेस विरोध में पहुँची SC

केंद्रीय विदेश मंत्री एस जयशंकर औपचारिक रूप से भाजपा में शामिल हो गए। उन्होंने पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। अनुभवी राजनयिक को नई सरकार में सुषमा स्वराज की जगह सरप्राइज पैकेज के रूप में लाया गया था और देश का विदेश मंत्री बनाया गया था। पिछली मोदी सरकार में सुषमा स्वराज के मंत्री रहते उन्हें विदेश मंत्रालय को ह्यूमन टच देने के लिए जाना जाता है और सक्रिय राजनीती से संन्यास लेने के बाद लगातार यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि नई सरकार में उनकी जगह कौन लेगा।

नियमनुसार, अगर किसी ऐसे व्यक्ति को मंत्रिपद की शपथ दिलाई जाती है जो किसी भी सदन का सदस्य नहीं है, तो उसे 6 महीने के भीतर लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य बनना होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने जयशंकर को गुजरात से राज्यसभा प्रत्याशी बनाया है। गुजरात में समीकरणों को देखते हुए उनका राज्यसभा पहुँचना तय है। चूँकि गुजरात से राज्यसभा सांसद रहे अमित शाह गाँधीनगर से जीत कर लोकसभा सांसद बन चुके हैं और उसी तरह स्मृति ईरानी अमेठी से कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को हरा कर लोकसभा पहुँच चुकी हैं, गुजरात में इन दोनों की जगह भरी जानी है।

एक राज्यसभा सीट के लिए एस जयशंकर को उम्मीदवार बनाया गया है, वहीं दूसरे के लिए जुगलजी माथुरजी ठाकोर को भाजपा उम्मीदवार होंगे। जेएम ठाकोर उत्तर गुजरात के नेता हैं और उन्हें सामाजिक उत्थान हेतु सक्रियता से किए गए कार्यों को लेकर जाना जाता है। कॉन्ग्रेस पार्टी ने भी अपने 2 उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है। कॉन्ग्रेस इस राज्यसभा चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट गई है। पार्टी का कहना है कि दोनों सीटों पर एक ही दिन में अलग-अलग चुनाव कराना ग़लत है।

कॉन्ग्रेस पार्टी की माँग है कि दोनों ही सीटों पर एक साथ चुनाव कराए जाएँ। ऐसा इसीलिए, क्योंकि अगर दोनों सीटों पर एक साथ चुनाव होते हैं तो कॉन्ग्रेस को एक सीट जीतने का मौक़ा मिल सकता है। राज्य में भाजपा के 100 एवं कॉन्ग्रेस के 75 विधायक हैं, वहीं 7 सीटें खाली हैं। अगर अलग-अलग चुनाव होते हैं तो भाजपा के लिए आसानी होगी क्योंकि विधानसभा में वह बहुमत में है। पार्टी के विधायकों को 2 बार वोट करने का मौक़ा मिलेगा और भाजपा के दोनों ही उम्मीदवार जीत जाएँगे। वहीं एक साथ चुनाव होने पर एक विधायक एक ही बार मतदान कर पाएगा।

राजनयिक के तौर पर लम्बा अनुभव रखने वाले एस जयशंकर अमेरिका, चीन और चेक रिपब्लिक में भारत के राजदूत रह चुके हैं। मनमोहन सिंह और जॉर्ज बुश के कार्यकाल में हुए भारत-अमेरिका परमाणु करार के दौरान जयशंकर ने अहम भूमिका निभाई थी। वह भारत के पहले ऐसे विदेश सचिव हैं, जो विदेश मंत्री बने। रिटायर होने के बाद उन्होंने टाटा संस के ग्लोबल कॉपोरेट अफेयर्स के प्रेजिडेंट के रूप में सेवाएँ दी थी। पड़ोसी देशों के साथ पल-पल बदलते रिश्ते और अमेरिका-चीन में चल रहे ट्रेड वॉर के बीच विदेश मंत्री जयशंकर के पास एक अहम ज़िम्मेदारी है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की हाल ही में पुतिन और जिनपिंग जैसे बड़े वैश्विक नेताओं से मुलाक़ात तय है।

आज़म खान हुए कन्फ्यूज़: संविधान को बताया मंदिर, फिर कहा क़ुरान के अलावा कुछ भी मंजूर नहीं

समाजवादी पार्टी के लोक सभा सांसद आजम खान ने संसद में विवादास्पद बयान दिया है। तीन तलाक के मुद्दे पर बहस करते हुए उन्होंने कहा कि मुस्लिमों को कुरान के अतिरिक्त और कोई कानून मंज़ूर नहीं। उनके मुताबिक तीन तलाक का मुद्दा मुस्लिम समुदाय की निजी राय है। उनके ऐसा कहने पर लोक सभा में हंगामा भी बहुत हुआ

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की चर्चा के दौरान आजम खान ने भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री प्रताप सारंगी के उस कथन पर भी आपत्ति जताई जिसमें उन्होंने कहा था कि जिन्हें वन्दे मातरम स्वीकार नहीं है, उन्हें इस देश में रहने का अधिकार नहीं है। आजम खान ने कहा, “संविधान एक मंदिर है। आप किसी चीज़ को थोप नहीं सकते। देश संविधान से चलना चाहिए, हम यह चाहते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह देश के हित में नहीं होगा।”

तीन तलाक मुद्दे पर अध्यादेश के स्थान पर लाए गए बिल पर आजम खान ने निशाना साधा और कहा कि जिन्हें महिलाओं का बड़ा हमदर्द बनने का शौक है, उन्हें महिलाओं की मुसीबतों पर भी बोलना चाहिए। “तीन तलाक का एक संदर्भ था। जो एक तलाक मान लेता है, उसे जाने दो; जो दो तलाक मान लेता है, उसे जाने दो; जो तीन तलाक मान लेता है, उसे जाने दो; जो उसे नहीं मानता है, उसे जाने दो। मैं कहता हूँ कि ये हमारा निजी मामला है और कुरान के हुक्म, कुरान के किए हुए फैसले के अलावा और कुछ स्वीकार नहीं होगा।”

आजम खान ने यह भी कहा कि उन्हें डर है लोग शादी से घबराने न लगें और किनारा न करने लगें, और लिव-इन रिलेशनशिप में बढ़ोतरी न हो जाए। “हमें अपने रिश्तों को वापस लाना चाहिए और बेहतर देश के बारे में सोचना चहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति उन समुदायों को बाँट देती है जिनमें भाईचारे के रिश्ते हों।

समाजवादी पार्टी के नेता ने यह भी कहा कि बड़े जनादेश ने भाजपा पर जिम्मेदारी भी डाली है, और देश का विकास मुलिम समुदाय के विकास के बिना पूरा नहीं होगा। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके संसदीय क्षेत्र रामपुर में हजारों मुस्लिमों को वोट नहीं डालने दिया गया था। “सतहत्तर हजार लाल कार्ड दिए गए थे।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि परिवारों को घर से बाहर न निकलने की हिदायत दी गई थी।

इंदिरा, आपातकाल और RSS: जब सुप्रीम कोर्ट के जज ने याद किया संघ का योगदान

हम भारतीय देश की जिन प्रमुख विशेषताओं पर गर्व करते हैं उनमें से एक है इस देश का लोकतंत्र। भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है। केवल इतना ही नहीं सत्ता का विकेंद्रीकरण, संघवाद, हमारी संसद, न्यायपालिका इत्यादि सभी गर्व करने लायक हैं। मगर इन गौरवशाली संस्थाओं और लोकतंत्र पर इतिहास में एक कलंक भी लगा है। दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र पर लगा यह कलंक जब भी स्मरण किया जाएगा, उसे एक काले कालखंड के रूप में याद किया जाएगा, जब इस देश की व्यवस्था लोकतांत्रिक न होकर तानाशाही हो गयी थी। 

जब सभी संस्थाएँ निरस्त हो चुकी थीं, और आम जनता अपने मूल अधिकार खो चुकी थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मारी जा चुकी थी और प्रधानमंत्री एक तानाशाह बन चुकी थीं। भारतीय लोकतंत्र का यह काला अध्याय ‘आपातकाल’ के नाम से जाना जाता है, और इस आपातकाल को काले अध्याय से नीचे की संज्ञा देना उस समय के संघर्षरत हुतात्माओं, महात्माओं के विरुद्ध होगा। यूँ तो इससे पहले दो बार देश में आपातकाल लगाया जा चुका था। एक, भारत-चीन युद्ध के समय 1962-1968 तक तथा दूसरी बार, भारत-पाक युद्ध के समय 1971 के दौरान भी इमरजेंसी लगाई गई थी। 

इन दोनों ही परिस्थितियों में बाहरी विपदाओं के कारण आपातकाल लगाया गया था मगर इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल पर आंतरिक सुरक्षा का हवाला दिया था, जो कि असल में मात्र इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये का विरोध था। कल ही संसद में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने इंदिरा गांधी को निर्मल गंगा समान कहा, लेकिन आपातकाल का अध्याय यह बताता है कि प्रतिशोध की भावना से काम करने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश की जनता को दांव पर लगा दिया था। 

आपातकाल और प्रताड़ना: 

25 जून 1975 की रात, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद से अनुरोध कर आपातकाल की घोषणा की। संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार देश में आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर करते हैं, हालाँकि आपातकाल की जानकारी ख़ुद कैबिनेट को अगले दिन सुबह 6 बजे मिली। एक बार आपातकाल की घोषणा होते ही सभी संघीय शक्तियाँ निरस्त हो जाती हैं और देश में केवल एक केंद्रीय सत्ता रहती है। ऐसे क्षण में जनता के मूल अधिकार भी उनसे छीन लिए जाते हैं। यहाँ तक कि अपने अधिकारों के हनन के लिए कोई व्यक्ति न्यायालय भी नहीं जा सकता था। आपातकाल लागू होते ही इंदिरा गाँधी ने अपना तानाशाही रवैया लागू करना शुरू कर दिया। आपातकाल लागू होते ही कई विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। इनमें राजनारायण, विजयराजे सिंधिया, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, जीवनराम कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी इत्यादि शामिल थे। ख़ुद कांग्रेस सरकार में मंत्री मोहन धारिया और चंद्रशेखर ने इस्तीफ़ा दे दिया। तमिलनाडु में एम करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया व उनके बेटे स्टालिन को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। 

जेल में बंद नेताओं का थर्ड डिग्री का उत्पीड़न किया जाता था। कई नेताओं को पुलिस ने डंडे से पीटा, कई नेताओं के नाखून उखड़वा दिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व जमात ए इस्लामी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ऐसे नेता व संगठन अपनी गिरफ़्तारी व संगठन को निरस्त किये जाने का न तो विरोध कर सकते थे, न ही उसे न्यायालय में चुनौती दे सकते थे। हालाँकि इस आपातकाल को उखाड़ फेंकने में सबसे अहम किरदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ही था, इसे इंडियन रिव्यू के संपादक, पूर्व जस्टिस के टी थॉमस, शाह कमीशन भी मान चुका है। 

तानाशाही का रवैया ऐसा था कि सरकार के विरोध में उठने वाले हर प्रयास को नाकाम कर, उन व्यक्तियों को जेल भेज दिया जाता था अथवा यदि वे किसी संगठन से जुड़े हैं तो उसे प्रतिबंधित किया जाता था। सरकार ने अनेक विरोध व हड़तालों को रोक दिया। कई सारे राजनेता, सरकार द्वारा गिरफ्तारी से बचने और अपना विरोध जारी रखने के लिए भूमिगत हो गए। सरकार के विरुद्ध लिखी जाने वाली हर ख़बर को सेंसर अर्थात निंदा मान छापने से रोक दिया जाता था, और छापने पर गिरफ़्तार किया जाता था। अखबारों ने विरोध के तौर पर अपने सम्पादकीय पृष्ठ को ख़ाली छोड़ना शुरू किया। 

इसी बीच आपातकाल का विरोध करने के लिए कई पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। तानाशाह होने का सबसे बड़ा रूप इंदिरा गाँधी ने अपने एक फ़ैसले में दिखाया, जिसे वह संविधान में संशोधन के रूप में लेकर आईं। इस फ़ैसले के द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के कार्यालय के फैसलों को न्यायलय में चुनौती दिया जाना असंभव कर दिया गया। संविधान में 42वें संशोधन द्वारा अनैतिक व काले कानून जोड़े गए। इसके माध्यम से आम चुनाव की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गयी थी, और ऐसे भी नियम बनाए गए थे कि आपातकाल में चुनाव की अवधि एक वर्ष अधिक बढ़ा दी जाए। 

इंदिरा गांधी का यह प्रयास ऐसा था मानो वह कभी चाहती ही नहीं थी कि चुनाव कराए जाएं। 1 मार्च 1976 को केरल में पुलिस ने राजन नाम के एक व्यक्ति को बिना कारण गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस हिरासत में उसे पीटा गया व उसकी मौत हो गयी। ऐसे ही अनेक मामले कभी जनता के सामने नहीं आ सके। इंदिरा व उनके सिरफिरे बेटे संजय गाँधी के नेतृत्व में देशभर में जबरन नसबंदी के कार्यक्रम चलाए गए। संजय गाँधी अपने सपने, कम जनसंख्या वाले भारत को देखने के लिए जबरन नसबंदी कराने पर उतारू हो गए थे। इसके कारण देशभर के अनेक लोग उत्पीड़ित किये गए, जिनमें से कई ने अपनी जान तक गंवाई। 

कई लोगों की जबरन दो बार नसबंदी कराई गयी और कई आजीवन विकलांग बन गए। केवल इतना ही नहीं नसबंदी के लिए पुलिस ने कई जगह दंगों जैसे हालात बना दिए और कई जगह पर तो उन्हें आँसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े थे। उत्पीड़न की सीमा यहीं नहीं समाप्त हो जाती, प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार को जब सरकार के लिए एक कार्यक्रम में गाने को कहा गया तो उन्होंने मना कर दिया, जिसके बाद से गैर आधिकारिक रूप से रेडियो पर उनके गाने चलाने बन्द कर दिए गए। 

दूरदर्शन और रेडियो का प्रयोग सरकार के एजेंडे को चलाने के लिए किया गया। कई फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया व उन्हें रिलीज़ होने से रोक दिया। पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट और जमा मस्ज़िद के पास के झोपड़ियों को ध्वस्त कर दिया गया।

विरोध, संघर्ष व विजय: 

आपातकाल का सबसे पहला विरोध समाचार पत्रों व पत्रिकाओं ने किया। उनमें लेख लिखकर, संपादकीय खाली छोड़ कर, सेंसरशिप के सामने झुकने के बजाए बन्द हो जाने के रास्ते को चुनकर पत्रिकाओं ने आपातकाल का सबसे पहला विरोध किया। अवार्ड वापसी का दौर उस समय भी चला था हालाँकि उस समय इंदिरा गांधी के डर के कारण अवार्ड वापस करने के लिए बहुत अधिक नाम सामने नहीं आ सके थे ऐसे में हिंदी के साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपना पद्मश्री सम्मान व कर्नाटक से कन्नड़ साहित्यकार शिवर्म करनाथ ने अपना पद्म भूषण लौटा दिया था। 

विरोध का सिलसिला यहीं नहीं थमा, देश के 9 उच्च न्यायालयों ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि आपातकाल होने के बावजूद देश की जनता को अपनी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ न्यायालय जा कर उसे चुनौती देने का अधिकार मिलना ही चाहिए, जिसे इंदिरा गाँधी द्वारा नियुक्त किये गए न्यायाधीश ए एन राय ने खारिज कर दिया। आपातकाल का अगर किसी संगठन ने मुखर रूप से विरोध किया और उसे समाप्त किया तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन था। प्रतिबंधित होने के बावजूद संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं (जिनमें आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी थे) ने योजना बनाकर, जेल में बंद नेताओं से मुलाक़ात करते हुए आपातकाल का विरोध जारी रखा। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक आपातकाल में हिरासत में लिए गए कार्यकर्ताओं व नेताओं की संख्या 1 लाख 40 हज़ार से भी अधिक थी और उनमें 1 लाख से भी अधिक कार्यकर्ता व नेता आरएसएस से जुड़े थे। 

उन दिनों ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने संघ को ‘विश्व का एकमात्र ग़ैर वामपंथी क्रांतिकारी संघठन’ घोषित किया था। कुछ दिनों पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस के टी थॉमस आरएसएस को आपातकाल से मुक्त कराने वाला बता चुके हैं। संघ के तृतीय वर्ष शिविर में उन्होंने कहा- “अगर किसी संगठन को आपातकाल से देश को मुक्त कराने के लिए क्रेडिट दिया जाना चाहिए, तो मैं आरएसएस को दूंगा।” आपातकाल के दौरान संघ ने देशभर में सत्याग्रह का आयोजन किया जिसमें तकरीबन 1 लाख 30 हज़ार लोग जुड़े और उनमें से भी 1 लाख से अधिक लोग संघ के ही कार्यकर्ता थे। इतना ही नहीं, जो साहित्य आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित किए जाते थे, संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं ने पूँजी लगाकर उन्हें प्रकाशित कराया और उनका वितरण भी किया। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांश बंदी गृह और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर भी थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों ने इस आपातकाल के दौरान अहिंसा व सत्याग्रह जैसे रास्तों का सहारा लेकर इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी जी का वह मार्ग दिखाया, जिससे वह भटक चुकी थीं। इस आंदोलन में हिस्सा लेते हुए सिख बंधुओं ने भी आपातकाल का विरोध किया था। अकाली दल के माध्यम से ‘लोकतंत्र बचाओ अभियान’ चलाया गया। शिरोमणि अकाली दल, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के सदस्यों को भी हिरासत में लिया गया था।  

करीबन 19 महीने आपातकाल चलने के बाद इंदिरा गाँधी को यह एहसास हुआ कि अब शायद देश में उनका विरोध समाप्त हो गया है और फिर उन्होंने चुनाव कराने का फैसला किया। जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा हुई, हालाँकि आपातकाल मार्च 1977 में चुनावों के साथ समाप्त हुआ। इस तरह 21 महीने इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन में भारतीय लोकतंत्र को बंदी बनकर रहना पड़ा। चुनाव के दौरान अधिकांश विपक्षी दल एकजुट होकर जनता पार्टी के रूप में आए, उन्होंने लोकतंत्र को जीवित रखने की ख़ातिर इंदिरा गांधी को हटाने का आह्वान किया। जनता मन बना चुकी थी, और 1977 में तानाशाही की हार हुई। जनता पार्टी 298 सीटें लेकर बहुमत में आई और पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई देश के पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस 92 सीटों पर सिमट कर रह गयी, जिनमें से अधिकांश सीटें उसे दक्षिण भारत में मिली। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। इंदिरा व उनके बेटे संजय गाँधी स्वयं चुनाव हार गए। आने वाले समय में जनता पार्टी ने इंदिरा गाँधी को जेल भी भेजा, संविधान में हुए बदलावों को ठीक किया और दो सालों तक देश को इंदिरा गाँधी से मुक्त रखा। 

हालांकि 5 साल का कार्यकाल पूरा किये बिना ही जनता पार्टी की सरकार गिर गयी, लेकिन आपातकाल के दौरान के संघर्ष ने इंदिरा गाँधी को वह सबक सिखा दिया, जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। इंदिरा गाँधी और आने वाली कोई भी पीढ़ी अब आपातकाल लगाने का स्वप्न भी नहीं देख सकती थी।

NIA और UAPA एक्ट में संशोधन: अब ‘लोन वुल्फ’ आतंकी भी नहीं बचेंगे

केंद्रीय कैबिनेट ने नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) को लेकर बड़ा निर्णय लिया है। ताज़ा निर्णय के बाद एनआईए के हाथ और मज़बूत हो जाएँगे। आतंकवाद की रोकथाम के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने 2 क़ानूनों में संशोधन को मंज़ूरी प्रदान कर दी है। कैबिनेट ने ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) में संशोधन को मंजूरी दी है, जिससे आतंकवादी गतिविधि से जुड़े व्यक्तियों को भी आतंकी घोषित किया जा सकेगा। इसके अलावा एनआईए क़ानून में भी संशोधन को मंजूरी दे दी गई है। इससे एजेंसी और सशक्त बनेगी। इस संशोधन के बाद से जाँच एजेंसी भारत से बाहर भी अगर भारतीय हितों या नागरिकों को नुक़सान पहुँचता है तो मामला दर्ज कर कार्रवाई कर सकती है।

कोई भी व्यक्ति जो आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होगा, उसे आतंकी घोषित कर प्रतिबंधित किया जा सकेगा। दोनों ताज़ा संशोधनों से जुड़े विधेयक को इसी सत्र में पेश किए जाने की उम्मीद है। मौजूदा समय में सिर्फ़ आतंकी गतिविधियों में संलिप्त संगठनों को ही प्रतिबंधित किया जा सकता है। एनआईए को साइबर अपराध और मानव तस्करी से जुड़े मुद्दे भी देने की बात कही जा रही है। 2008 में हुए मुंबई हमलों के बाद गठित एनआईए को अभी तक सिर्फ़ आतंक सम्बंधित गतिविधियों की जाँच का ही अधिकार प्राप्त हैं। व्यक्तिगत रूप से आतंकी गतिविधियाँ संचालित करने वालों को आतंकी घोषित कर प्रतिबंधित करने का भी अब तक प्रावधान नहीं था।

ऐसे लोग किसी आतंकी संगठन में तो शामिल नहीं होते थे लेकिन वो सभी काम करते थे जो एक आतंकी संगठन के माध्यम से किया जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों को ‘लोन वुल्फ’ की संज्ञा दी जाती थी। अब उन पर नकेल कसी जा सकेगी। अब अगर किसी व्यक्ति को आतंकी घोषित किया जाता है तो उसके साथ वित्तीय लेनदेन करने वालों पर शिकंजा कसना आसान हो जाएगा। इससे आईएसआईएस और अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों से प्रेरित हो कर आतंक का दामन थामने वालों पर कार्रवाई की राह और ज्यादा आसान हो जाएगी। बता दें कि मानव तस्करी और साइबर आतंक ऐसे मामले होते हैं, जिसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिंक जुड़े होते हैं।

नए संशोधन के बाद एनआईए को किसी भी राज्य में सर्च के लिए वहाँ के शीर्ष पुलिस अधिकारी की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हालाँकि, अभी भी एनआईए को ऐसी कार्रवाई के लिए अनुमति की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन क़ानून व्यवस्था ख़राब होने की स्थिति में ऐसा करना होता है। बता दें कि संयुक्त राष्ट्र का क़ानून भी व्यक्तियों को आतंकी घोषित करने की अनुमति देता है और यह आशा करता है कि सभी देशों का क़ानून इसके अनुरूप हो। इससे आतंकी घोषित किए गए व्यक्ति की यात्रा और आवागमन पर ज़रूरी नियंत्रण रखा जा सकता है या उसे प्रतिबंधित किया जा सकता है।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद जम्मू कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अहम निर्णय लिए जाने की पहले से ही उम्मीद थी। हाल ही में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी कह दिया है कि अगर आतंकी गोली चलाते हैं तो सेना हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहेगी। अमित शाह ने राज्य की सुरक्षा व्यवस्था व अन्य मामलों के सम्बन्ध में राज्यपाल के साथ बैठक भी की थी। एनआईए अभी राज्य के अलगावादियों से जुड़े टेरर फंडिंग की जाँच कर रही है, जो अभी निर्णायक मोड़ पर है।

Scroll, AltNews और पत्रकारिता के ‘एलीटिस्ट’ समुदाय विशेष को ब्रिटिश हेराल्ड के अंसिफ अशरफ़ का जवाब

प्रधानमंत्री मोदी मैगज़ीन British Herald के पाठकों की नज़र में ‘विश्व के सबसे शक्तिशाली नेता’ क्या घोषित हुए, पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने चूड़ियाँ तोड़नी शुरू कर दीं। तरह-तरह की अप्रासंगिक जानकारियों को भानुमति के कुनबे की तरह जोड़कर और conspiracy theory वाली टोन में ऐसा जताने की कोशिश की गई कि British Herald के नाम में ‘British’ होना भ्रामक फर्जीवाड़ा है, यह हिंदुस्तानी अख़बार है और इसके मालिक ने मोदी की चाटुकारिता के लिए ऐसा नतीजा प्रकाशित किया है, एटसेट्रा-एटसेट्रा। British Herald के ‘अबाउट अस’ की इन्वेस्टीगेशन करने से लेकर उनके विकिपीडिया पेज की ख़ाक तक छानी गई। जो नहीं किया गया, वह था उनसे सम्पर्क करने, उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका देने का प्रयास।

मैंने जब ब्रिटिश हेराल्ड और इसके प्रबंध सम्पादक अंसिफ अशरफ़ से सम्पर्क किया तो उन्होंने इस विवाद पर, अपने सर्वे के ‘छल’ या भ्रामक होने के आक्षेप पर, ब्रिटिश हेराल्ड के इतिहास और विश्वसनीयता पर विस्तारपूर्वक जवाब दिया। वह निम्नलिखित है:

“मैं अंसिफ अशरफ़ हूँ, और मैं 27 साल पुराने ‘कोचीन हेराल्ड’ अख़बार का मालिकाना हक़ रखने वाले परिवार से आता हूँ। इस अख़बार को मेरे पिता डॉ. शेख अहमद मोहम्मद अशरफ़ ने 1992 में शुरू किया था। 2011 में मैंने इसका कामकाज देखना शुरू किया और ‘कोचीन हेराल्ड’ नाम से ही द्वैमासिक बिज़नेस पत्रिका शुरू की, जो अभी भी चल रही है।”

“मैं एशिया पैसिफ़िक इकोनॉमिक कोऑपरेशन (APEC) अवार्ड को पाने वाला पहला भारतीय हूँ; 2008 में यह अवार्ड मुझे ई-बिज़नेस के लिए मिला था। यह अवार्ड अलीबाबा (अमेज़न के समकक्ष ई-कॉमर्स कम्पनी, चीनी मूल की), चीन सरकार और दूसरी APEC काउन्सिल द्वारा संयुक्त रूप से दिया गया था।”

“ई-कॉमर्स मेरा विषय है और इंटरनेट पर विज्ञापन के भविष्य की संभावनाओं को समझते हुए मैंने मीडिया में कुछ वैश्विक स्तर पर करने के बारे में सोचा। चूँकि कोचीन हेराल्ड नामक अख़बार हमारे पास था ही, इसलिए मैंने ब्रिटिश हेराल्ड नाम चुना। 2017 में इस बाबत मैंने काम करना शुरू कर दिया।”

“ब्रिटिश हेराल्ड अख़बार 1860 में जेम्स और निस्बेट ने मिडिल सेक्स, लंदन में शुरू किया था (अख़बार की पुरानी आर्काइव्स नीचे दी लिंक पर देखी जा सकतीं हैं**), और इसमें ईसाई जर्नल्स छपतीं थीं। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उन्होंने अपना नाम ब्रिटिश हेराल्ड से बाइबिल हेराल्ड कर दिया था। 2018 में हमने हेराल्ड मीडिया नेटवर्क लिमिटेड नामक कम्पनी इंग्लैंड और वेल्स में स्थापित की। ‘ब्रिटिश हेराल्ड’ ब्रांड नाम का बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) हमने डिजिटल और प्रिंट पब्लिकेशन के लिए लिया (आईपीआर रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट संलग्न है, और उसकी जाँच IPO, ब्रिटिश सरकार में की जा सकती है**)। हमने नाइट्सब्रिज (Knightsbridge, London) में अपना एक ऑफिस खोला। चूँकि मेरे वीज़ा की प्रोसेसिंग में कुछ समय लग रहा था, अतः मेरे पारिवारिक मित्र मिस्टर शमशीर अहमद को कम्पनी के डायरेक्टरों में से एक बना दिया गया क्योंकि उनके पास ब्रिटिश रेजीडेंसी परमिट था। हमने कंटेंट के लिए रायटर्स लंदन के साथ MOU पर हस्ताक्षर किए और बैकएंड IT सपोर्ट हमने भारत में पहले से उपलब्ध अपनी सुविधाओं से लिया। हम लंदन में अपनी कम्पनी के विस्तार के लिए तैयार थे।”

“2019 के मार्च में हमने ई-मैगज़ीन का प्रकाशन शुरू कर दिया। हमारे पहले संस्करण के कवर पेज पर व्लादिमीर पुतिन (रूसी राष्ट्रपति) और दूसरे संस्करण में कवर पर जसिन्डा अडर्न (न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री) थीं। तीसरे संस्करण के कवर पर श्री नरेंद्र मोदी, भारत के प्रधानमंत्री को होना था, उनकी निर्वाचन में जीत की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि के लिए। उसके पहले हमने एक स्वतंत्र ओपिनियन पोल किया था अपने पाठकों के बीच जो केवल लोगों की निजी राय समझने के लिए किया गया था। यह OTP वेरिफाइड पोलिंग (एक OTP द्वारा पहचान सुनिश्चित किए जाने के बाद होने वाली पोलिंग) थी। और भारत में इंटरनेट के अधिक प्रसार के चलते इस पोल में भारतीयों ने बड़ी संख्या में भाग लिया।”

“श्री नरेंद्र मोदी को कवर पर रखने का निर्णय केवल इस पोल के आधार पर नहीं लिया गया, बल्कि उस पर विस्तृत अध्ययन और शोध किया गया था। और उसके विमोचन की नियत तारीख 15 जुलाई, 2019 है। हमने पत्रिका को मैग्ज़्टर (Magzter, एक वैश्विक मैगज़ीन प्लेटफॉर्म), ISSUU और अमेज़न किंडल (अमेज़न का ईबुक और अन्य डिजिटल लिखित सामग्री बेचने वाला प्लेटफार्म) पर वितरित किया था। इन वेबसाइटों पर (उपरोक्त जानकारी को) देखा और पता किया जा सकता है। हमारी मैगज़ीनें इलेक्ट्रॉनिक संस्करण की हैं और संदर्भ व मार्केटिंग के लिए कुछ प्रतियाँ प्रिंट-ऑन-डिमांड आधार पर छपतीं हैं।”

“2019 में वेंचर कैपिटलिस्ट निवेशक श्रीमती ली युन क्शीआ ने कम्पनी में निवेश किया। हमारे दो डायरेक्टर ब्रिटिश नागरिक हैं। यह बात हम इस भ्रम को दूर करने के लिए बता रहे हैं कि यह कम्पनी केरला के लोगों की है। नहीं, यह पूरी तरह से गलत जानकारी है। मैं लंदन प्रेस क्लब का सदस्य और ब्रिटिश लाइब्रेरी का संरक्षक हूँ।”

“ट्विटर पर ‘ब्रिटिश हेराल्ड’ नाम का हैंडल किसी और ने ले रखा हुआ था हमारी आईपीआर ट्रेड मार्क प्रक्रिया के समय। अतः उसे पाने के लिए हम अपने क़ानूनी सलाहकार के ज़रिए प्रयासरत हैं, क्योंकि हम ‘British Herald’ के ट्रेड मार्क्स के मालिक हैं। हम पहले तो असफल हुए लेकिन हमारी प्रक्रिया जारी है। हाँ, हम जानते हैं कि हमारे ट्विटर फॉलोवरों की संख्या औरों से कम है, लेकिन हमारी नीति (पॉलिसी) आर्गेनिक के ज़रिए बढ़ने की है, और उसका (आर्गेनिक के ज़रिए बढ़ने की नीति का) हम पालन कर रहे हैं। हमारा ध्यान अपने पाठकों को सीधे वेबसाइट पर और ऍप के ज़रिए लाने पर है। हमने कहीं भी प्रमुख पत्रिका होने का दावा नहीं किया है। जब हमने श्री नरेंद्र मोदी को कवर पर लेने का निर्णय लिया तो हमने उसकी घोषणा अपने सोशल प्लेटफॉर्म्स के ज़रिए की थी। ऐसा नहीं है कि हम उन्हीं को कवर कर रहे हैं; हमने उनसे पहले भी दो वैश्विक नेताओं को कवर किया है, और आगे भी औरों को कवर करते रहेंगे।”

“ब्रिटिश हेराल्ड महज़ किसी कम्पनी का डोमेन नेम नहीं है, यह एक युवा भारतीय का ख्वाब है, जिसे विश्वास है कि मीडिया का भविष्य डिजिटल है। हाँ, हम औरों के लिए छोटे हो सकते हैं, लेकिन झूठे या नकली नहीं हैं। छल हमारी संस्कृति नहीं है। और हम रोज़ाना चुनौतियाँ देते हैं।”

अंसिफ अशरफ़
(प्रमुख सम्पादक, कोचीन हेराल्ड
प्रबंध सम्पादक, ब्रिटिश हेराल्ड)

*अंग्रेजी में प्राप्त अंसिफ अशरफ़ के उत्तर का हिंदी अनुवाद किया गया है।

**ब्रिटिश हेराल्ड और अंसिफ अशरफ़ द्वारा ऑपइंडिया को मुहैया कराए गए दस्तावेजों में कुछ निजी व्यक्तियों की निजी जानकारी, जिसका इस विवाद से कोई लेना-देना नहीं है, संलग्न है। अतः हम तुरंत यह जानकारी प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। उन व्यक्तियों की जानकारी एडिटिंग से ब्लॉक करने के बाद हम दस्तावेजों को इसी लेख को अपडेट कर प्रकाशित करेंगे।

‘बुल डॉग है ग़ुलाम रसूल बलियावी’: BJP नेता ने CM नीतीश कुमार की नीयत पर जताया शक

बिहार में सत्ताधारी गठबंधन दलों भाजपा और जदयू के बीच की तल्खी एक बार फिर से सतह पर आ गई और इसका कारण है बिहार में भाजपा नेता द्वारा दिया गया बयान। भाजपा नेता सच्चिदानंद राय ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नीयत पर शक जताने की बात कही है। उन्होंने नीतीश कुमार के हालिया बयानों का ज़िक्र करते हुए कहा कि उनकी नीयत पर शक होता है। मुख्यमंत्री पर बड़ा आरोप लगाते हुए विधान पार्षद राय ने कहा:

“मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विवादित बयान देने के लिए अपने नेताओं को खुली छूट दे रखी है। सीएम ने ख़ुद ही लोकसभा चुनाव के दौरान अपना मतदान करने के बाद विवादित बयान दिया था। उस वक़्त उन्हें ये कहने की क्या ज़रूरत थी कि जदयू अनुच्छेद 35A और 370 हटाने के मामले में भाजपा का समर्थन नहीं करती? भाजपा के नेता संयमित भाषा का इस्तेमाल करते हैं जबकि जदयू में बलियावी जैसे नेता जिस तरह का बयान देते हैं, उससे तो लगता है कि ऐसे नेताओं के सिर पर शीर्ष नेताओं का हाथ रहता है। तभी तो वो ऐसे बयान देते हैं। ऐसे में अगर गठबंधन टूटता है तो इससे घाटा जदयू को ही होगा।”

विधान पार्षद सच्चिदानन्द राय ने आईआईटी खड़गपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की थी। उसके बाद उन्होंने व्यवसाय में हाथ आजमाया और फिर विधान पार्षद बने। भाजपा नेता के इस बयान पर वरिष्ठ जदयू नेता के सी त्यागी ने कड़ी आपत्ति जताई है। उन्होंने भाजपा से राय पर कड़ी कार्रवाई करने की माँग की है। जदयू नेता ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि भाजपा को ऐसे नेताओं को नोटिस जारी करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि इस तरह के बयानों से गठबंधन पर ख़राब असर पड़ता है और इसमें दोनों दलों का नुक़सान है। त्यागी ने कहा कि नीतीश एक बड़ा चेहरा हैं और उनके बारे में कोई इस तरह बोले, यह ठीक नहीं है। त्यागी ने दावा किया कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लोजपा सुप्रीमों रामविलास पासवान भी नीतीश को बड़ा नेता मानते हैं, इसीलिए ऐसी बयानबाज़ी पर कार्रवाई होनी चाहिए। बिहार में भाजपा एवं जदयू के नेताओं के बीच बयानबाज़ी का दौर हालिया समय में काफ़ी बढ़ गया है।

हाल ही में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने नीतीश-रामविलास पर चुटकी लेते हुए उनके इफ़्तार पर तंज कसा था। मुस्लिम टोपी पहन कर इफ़्तार कर रहे नेताओं के बारे में गिरिराज ने कहा था कि कितना अच्छा होता, अगर ये लोग दीवाली और होली भी ऐसे ही मनाते।

भीड़ की हर कार्रवाई को ‘भगवा आतंक’ से जोड़ती मीडिया: जब पुलिस का ही न्याय से उठ गया था भरोसा!

पचास साल पहले की बात है। 1979-80 में बिहार का भागलपुर जिला अचानक अख़बारों की सुर्ख़ियों में आ गया। ख़बरें बताती थीं कि वहाँ पुलिस ने 31 अपराधियों या अभियुक्तों को पकड़कर जबरन उनकी आँखों में तेजाब डाल दिया था। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने छाती कूट कुहर्रम मचा दिया। वो सोशल मीडिया का ज़माना नहीं था, लेकिन परंपरागत पेड मीडिया ने इसे “अँखफोड़वा काण्ड” का नाम दे दिया था। इसपर लम्बे समय तक बहसें चली थी। हाल की एक फिल्म “गंगाजल” मोटे तौर पर इस काण्ड को दर्शाती है।

कुछ ख़ास आयातित विचारधारा के पैरोकारों को छोड़ दें तो आम लोग इस काण्ड के पुलिसकर्मियों को उतना दोषी नहीं मानेंगे। फिल्म का अंतिम दृश्य भी देखें तो मोटे तौर पर वो इस जघन्य कृत्य को जायज ठहराती दिखती है। सवाल ये है कि ये हुआ क्यों था? क्या पचास साल पहले ही न्याय व्यवस्था के लिए काम करने वालों का भरोसा न्याय व्यवस्था की लम्बी तारीखों और प्रक्रियाओं से इतना उठ चुका था कि वो क़ानून अपने हाथ में लेने को मजबूर हो गए? अगर पचास साल पहले ऐसी दशा थी, तो आज क्या स्थिति है?

इसे समझने के लिए सबसे पहले तो राहुल देव के कुछ ही दिन पहले के ट्वीट पर टूट पड़े जेहादियों के झुंडों को देखिए। ये वही भूखे भेड़ियों के गिरोह हैं, जिन्होंने प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया जैसे संस्थान की कार्रवाई पर चुप्पी साधी है। जब PCI (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) ने एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस जैसों को हाल ही में ख़बरों के नाम पर अफवाह फैलाते रंगे हाथों धर लिया तो इन सभी के मुँह में गोंद लग गया था। मिशनरी फण्ड से चलने वाली इनकी कलमों की स्याही सूख गयी थी। विरोध को विद्रोह तक पहुँचाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है।

उदाहरण के तौर पर आप मोबाइल फ़ोन को देख सकते हैं। पूरी संभावना है कि आपका ख़ुद का, या किसी क़रीबी का मोबाइल फ़ोन कभी न कभी, बस-ट्रेन में सफ़र करते या किसी सार्वजनिक स्थान से चोरी हुआ हो। क्या आपने उसकी एफआईआर दर्ज करवाई? नहीं, थाने में एक आवेदन देकर उसपर ठप्पा लगवा लेना एफआईआर नहीं होता। उसका बाकायदा एक नंबर होता है जिससे उसे बाद में भी ढूँढा जा सके। नहीं करवाने का कारण क्या था? क्या ये प्रक्रिया इतनी क्लिष्ट है कि नुकसान झेल लेना, और झंझट मोल लेने से बेहतर लगा! अब सोचिए कि आप पढ़े-लिखे होने पर जिस क़ानूनी प्रक्रिया से बचते हैं, उसमें एक कम पढ़े लिखे ग़रीब का क्या होगा? क्या वो अपनी चोरी हो गई गाय की रिपोर्ट दर्ज करवा पाएगा?

मवेशियों की चोरी या तस्करी जैसे मामले अगर अख़बारों में पढ़ें, जो कि स्थानीय पन्ने पर कहीं अन्दर छुपी होती है, तो एक और तथ्य भी नजर आएगा। पशु चोर या तस्कर, चोरी के क्रम में बीच में आने वालों को बख्शते नहीं है। तस्करी के पशु ले जा रही गाड़ी नाके पर किसी पुलिसकर्मी पर चढ़ा देना या चोरी के वक़्त मालिक के जाग जाने पर उसे गोली मार देने की घटनाएँ आसानी से नजर आ जाएँगी। ऐसे में जब ग्रामीण या कस्बे के लोग, किसी चोर को धर दबोचने में कामयाब होते हैं तो उसके साथ बिलकुल वही सलूक करते हैं, जो बच निकलने की कोशिश में वो उनके साथ करता।

भीड़ के पीट देने पर परंपरागत पेड मीडिया भी दोहरा रवैया अपनाती है। अगर पिट गया व्यक्ति किसी समुदाय विशेष का हो और पीटने वाले बहुसंख्यक माने जाने वाले समुदाय से तो अचानक कोहराम मच जाता है। हर संभव उपाय से उसे अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार और ‘भगवा आतंकवाद’ से जोड़ने की कवायद होती है। तिकड़मी लोग कलम की बाजीगरी दिखाते हैं। वहीं जब हिन्दुओं में से कोई मारा जाए तो उसे अख़बार जगह तक नहीं देते। हर संभव तरीके से उसे कोई छिटपुट वारदात बताकर टाल देने की कोशिश होती है।

कई राजनैतिक दल भी इस कुकृत्य में परंपरागत पेड मीडिया के कंधे से कन्धा मिलाकर काम करते दिख जाते हैं। अगर मारे गए किसी “समुदाय विशेष” के परिवार को मिले सरकारी मुआवजे को देखें और उसकी तुलना भीड़ द्वारा मार दिए गए डॉ नारंग, रिक्शाचालक रविन्द्र जैसी दिल्ली में हुई घटनाओं से करें तो ये अंतर खुलकर सामने आ जाता है। ऐसे दोहरे मापदंडों पर विरोध न हो ऐसी कल्पना क्यों की जाती है, ये एक बड़ा सवाल है? आखिर एक पक्ष कब तक न्यायिक, कार्यपालक, विधायिका और पत्रकारिता, चारों ही तंत्रों का दबाव चुपचाप झेलता रहे?

गाँधीजी के सिद्धांतों जैसा एक गाल पर थप्पड़ लगने पर दूसरा गाल वो कितने दिन आगे करेगा? जो हम देख रहे हैं उससे तो ऐसा लगता है कि शायद उसने भगत सिंह के वाक्य को अपना लिया है। ये बहरों को सुनाने वाली धमाकों की गूँज सी लगती है। या तो व्यवस्था में सुधार कीजिए या धमाके फिर, फिर और फिर सुनने की तैयारी कर लीजिए। फैसला आपके अपने ही हाथ में है!

TMC विधायक समेत 18 पार्षद होंगे BJP में शामिल, ममता ने पार्टी बदलने वाले पार्षदों को दी धमकी

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कॉन्ग्रेस (टीएमसी) में मची भगदड़ थमने का नाम नहीं ले रही है। लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद से ही टीएमसी के विधायकों का पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होने का दौर शुरू हो गया। चुनाव परिणाम के आए लगभग एक महीना गुजर चुका है, लेकिन ममता की पार्टी के विधायक का पार्टी छोड़कर जाने का सिलसिला जारी है। अब टीएमसी के एक और विधायक के साथ ही 18 पार्षदों के भाजपा में शामिल होने की खबर है।

अलीपुरद्वार में कलचीनी से विधायक विल्सन चामपरामरी ने भाजपा में शामिल होने का ऐलान किया है। उन्होंने बताया कि वो सोमवार (जून 24, 2019) को भाजपा में शामिल होंगे। उन्होंने कहा कि उनके साथ 18 पार्षद भी सदस्यता लेंगे। इसके साथ ही उन्होंने ये जानकारी भी दी कि पार्टी के कई और नेता भी भाजपा में शामिल होने के लिए पार्टी हाईकमान के संपर्क में है। दरअसल, विल्सन टीएमसी पार्टी से खुश नहीं है। उनका कहना है कि वो एक विधायक हैं, इसके बावजूद वो स्वतंत्र रुप से अपने क्षेत्र में कोई काम नहीं करवा सकते हैं और उनके द्वारा योजना लाए जाए की बात पर भी पार्टी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

वहीं, पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ दल तृणमूल कॉन्ग्रेस ने पार्षदों को भाजपा में शामिल होने पर चेतावनी दी है। टीएमसी ने कहा कि यदि वो भाजपा में जाते हैं, तो उन्हें इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा। एक बयान जारी करते हुए पार्टी ने कहा, “पंचायतों और नगर पालिकाओं के बहुत कम सदस्य अपने पूर्ववर्ती उद्देश्यों और निहित स्वार्थों के कारण भाजपा में शामिल हुए हैं। उन्होंने यह इस उम्मीद से किया कि उनके अपराध धुल जाएँगे। उन्होंने गलती की है।” सत्ताधारी पार्टी का कहना है कि उसके सदस्यों ने जो अपराध किया है उसके लिए उन्हें बख्शा नहीं जाएगा। पार्टी ने कहा, “यदि किसी से गलत काम हुआ तो उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे। फिर चाहे उसके ऊपर भाजपा का हाथ ही क्यों न हो।”

गौरतलब है कि, इससे पहले दिल्ली में 18 जून को बोनगाँव से टीएमसी विधायक विश्वजीत दास पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए। इसके अलावा 12 पार्षदों ने भी टीएमसी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल में नोआपाड़ा के टीएमसी विधायक सुनील सिंह टीएमसी के 12 पार्षदों के साथ बीजेपी में शामिल हुए थे। इन नेताओं के बीजेपी में शामिल होने के दौरान पश्चिम बंगाल के बीजेपी प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और पार्टी नेता मुकुल राय मौजूद थे।

इमरान के रिश्तेदारों ने अपहरण के आरोप पर पुलिसकर्मियों को मारने की दी धमकी

मध्य प्रदेश से एक चौंकाने वाली घटना सामने आई है जहाँ मध्य प्रदेश में रविवार रात (23 जून) कैंट गुना पुलिस स्टेशन में इमरान नाम के एक व्यक्ति के रिश्तेदारों ने कथित तौर पर लगभग पाँच सौ प्रदर्शनकारियों के साथ हंगामा किया।

ख़बर के अनुसार, भीड़ ने इमरान की तत्काल रिहाई की माँग की, जिसे पुलिस ने लव जिहाद के एक मामले में एक पुलिस अधिकारी की बेटी का अपहरण करने के मामले में गिरफ़्तार किया था।

मध्य प्रदेश के गुना ज़िले के निवासी यूसुफ़ इमरान ने हाल ही में एक पुलिस अधिकारी की बेटी का कथित तौर पर अपहरण कर लिया था। शिकायत मिलने के बाद, गुना पुलिस ने लड़की को बचाने के लिए खोजबीन शुरू कर दी और आरोपी को पकड़ लिया। दोनों को पुलिस स्टेशन लाने के बाद, पीड़िता ने अपनी आपबीती सुनाई। उसने पुष्टि की कि इमरान ने उसका अपहरण किया था और आरोप लगाया कि यह ‘लव जिहाद’ के कारण हुआ।

इमरान की गिरफ़्तारी की ख़बर फैलने पर उसके रिश्तेदारों ने अपने अन्य लोगों के साथ मिलकर आधी रात को पुलिस स्टेशन में धावा बोल दिया। उन्होंने पुलिस पर आरोपितों को छोड़ने का दबाव बनाया। हालाँकि, ऐसा करने के अपने प्रयासों में विफल होने के बाद, भीड़ ने थाने में हंगामा करना शुरू कर दिया। इमरान के रिश्तेदारों में से एक ने ड्यूटी पर मौजूद अधिकारियों में से एक अशोक कुशवाहा को जान से मारने की धमकी तक दे डाली।

गुना थाने में पुलिस को धमकी देते हुए कैमरे में कैद हुई एक महिला

ग्वालियर ज़ोन के IPS IG/ राजा बाबू सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि पुलिस अधिकारियों के साथ किसी भी तरह का दुर्व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने आश्वासन दिया कि अपराधियों को दंडित किया जाएगा।