Wednesday, November 6, 2024
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पाकिस्तान और मीडिया गिरोह का झूठ बेनकाब: IAF ने जारी किया F-16 को मार गिराने का रडार वाला सबूत

भारतीय वायुसेना ने अमेरिकी मैगजीन के फर्जी दावे और पाकिस्तान के झूठ को एक बार फिर से बेनकाब कर दिया है। वायुसेना ने मैगजीन के दावे को झूठा करारा देते हुए कहा कि हमारे पास न सिर्फ इस बात का सबूत है कि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ F-16 का इस्तेमाल किया था, बल्कि इस बात का भी पक्का सबूत है कि मिग बाइसन ने F-16 फाइटर जेट को मार गिराया था।

भारतीय वायुसेना ने इसका सबूत देते हुए रडार के जरिए मिली उस तस्वीर को भी जारी कर दिया, जिसमें F-16 फाइटर जेट को साफ तौर पर एयरबोर्न वॉर्निंग ऐंड कंट्रोल सिस्टम ने लिया था।

गौरतलब है कि अमेरिकी पत्रिका ‘फॉरेन पॉलिसी’ ने दावा किया था कि उसके देश द्वारा की गई गिनती में पाकिस्तान का कोई भी F-16 लड़ाकू विमान लापता नहीं पाया गया है और उनमें से किसी को भी नुकसान नहीं पहुँचा है, जो भारत के उन दावों को खारिज करती है कि वायु सेना ने 27 फरवरी को हवाई संघर्ष के दौरान एक पाकिस्तानी F-16 लड़ाकू विमान को मार गिराया था। अब अमेरिकी कुछ बोलें (खासकर देश विरोधी बातें) और हमारे देश का मीडिया गिरोह शांत रह जाए, यह संभव नहीं। गिरोह के इन लोगों ने सोशल मीडिया से आगे बढ़कर ख़बरों में भी अपनी ही सरकार से सबूत माँगना शुरू कर दिया था। आज का यह सबूत उनके मुँह पर जोरदार तमाचा है।

इस आरोप को लेकर वायु सेना के वाइस एयर मार्शल आरजीके कपूर ने कहा, “हमारे पास इसके और भी पक्के सबूत और सटीक तथ्य हैं कि पाकिस्तान ने हवाई लड़ाई में अपना F-16 विमान खो दिया है, लेकिन सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा होने की वजह से हम कुछ महत्वपूर्ण सबूतों को सार्वजनिक नहीं कर रहे हैं।”

इतना ही नहीं, पाकिस्तान के झूठ का पर्दाफाश करते हुए वायुसेना ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि 27 फरवरी को हवाई लड़ाई में 2 विमान गिरे थे, जिसमें से एक मिग 21 बाइसन और दूसरा पाकिस्तान वायुसेना का विमान F-16 था। इस विमान की पहचान इलेक्ट्रॉनिक सिग्नेचर और रेडियो पर हुई बातचीत के आधार पर सुनिश्चित हुई थी।

इससे पहले 28 फरवरी को भी भारतीय थल सेना, वायु सेना और नौसेना ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर F-16 के मार गिराने के सबूत पेश किए थे। भारत सरकार ने बालाकोट के आतंकी शिविरों पर हमले के एक दिन बाद 27 फरवरी को कहा था कि वायु सेना के पायलट अभिनंदन ने एक पाकिस्तानी F-16 को मार गिराया है, जो भारतीय सैन्य ठिकाने पर हमला करने की कोशिश कर रहा था। सेना ने F-16 में लगने वाले मिसाइल के टुकड़े भी मीडिया को दिखाए थे।

भारतीय वायु सेना के मुताबिक, पाकिस्तानी वायु सेना ने भारत के सैन्य ठिकानों को निशाना बनाने की कोशिश की थी। हालाँकि पाकिस्तान के प्रयासों को भारत ने असफल कर दिया था। पाकिस्तानी वायुसेना ने भारत की कई जगहों पर बमबारी की थी, लेकिन भारतीय सैन्य ठिकानों को नुकसान पहुँचाने में वे असफल रहे थे।

शेख पल्टू: मंगल पांडे को पकड़ने, अंग्रेज अफसर को बचाने वाला मुस्लिम सिपाही, हुआ था mob lynching का शिकार

दुष्ट गौभक्त-ब्राह्मणवादी-पितृसत्तावादी ‘चाउविनिस्ट’ मंगल पांडे को आज भारत को क्रिकेट और अंग्रेजी की नियामतें देने वाले महान अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया था। और बिलकुल सही किया- क्योंकि अंग्रेज पहले से इस बात की आकाशवाणी सुन चुके थे कि 150 साल बाद मंगल पांडे के नाम का इस्तेमाल 2-4 हिंसक गौरक्षकों के कर लेने से भारत का लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए उन्होंने भारत को लोकतंत्र बाद में दिया, पर उसके लिए खतरा बन सकने वाले गौ-रक्षक को 90 साल पहले ही दण्डित कर दिया।

पर इस दुष्ट गौरक्षक को रोकने के पीछे एक नाम उस शांतिदूत का भी था, जिस बेचारे को अंग्रेजों ने इतिहास में दबा के गुमनाम कर दिया, और गौरक्षकों की आफत रोकने में उसका सब योगदान बिसर गया। पर इतिहास के पन्नों से उखाड़ कर हम इस वीर की वीरगाथा लाए हैं, जिसे पूरा पढ़ने के लिए आपको चाचा नेहरू, जिल्लेलाही अकबरे आजम और सम्राट अशोक के सेक्युलरिज्म की कसम!

न जाने कितने मार लेता मंगल पांडे, अगर शांतिदूत पल्टू न होता

जैसा कि शांतिदूत शेख पल्टू के नाम से जाहिर है, वो ‘यूनेस्को-सर्टिफाइड सबसे शांतिप्रिय मज़हब’ का शांतिप्रिय बाशिंदा था।

29 मार्च, 1857 के दिन बैरकपुर में तैनात अंग्रेज साहब लेफ्टिनेंट बॉघ को पता चला कि मंगल पांडे नाम का कोई सैनिक कारतूसों में गाय की चर्बी होने के कारण हिन्दुओं और सूअर की चर्बी के कारण समुदाय विशेष को, उनके इस्तेमाल से इंकार करने के लिए उकसा रहा है। उनके कोमल-वीर कानों में यह बात भी पड़ी कि परेड ग्राउंड में खड़े मंगल पांडे ने यह कदम यही कह कर उठाया है कि इससे आने वाले समय में मोदी नामक प्रधानमंत्री के शासन में गौरक्षकों को उसके कारनामे से बल मिलेगा, और इसलिए वह उनके लिए उदाहरण पेश कर रहा है। मंगल पांडे ने पहले गोरे (हाउ रेसिस्ट??) को देखते ही गोली मार देने की धमकी दी है, ऐसा भी उन्होंने सुना।

परेड ग्राउंड में पहुँचे सार्जेंट-मेजर ह्यूसन ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को आगे ठेला कि वो मंगल पांडे को काबू में करे और गिरफ्तार करे। ईश्वरी प्रसाद ने हाथ खड़े कर दिए कि उसके सारे सिपाही मदद माँगने गए हैं और वह अकेले मंगल पांडे को नहीं गिरफ्तार कर सकता।

तभी लेफ्टिनेंट बॉघ हथियारों से लैस हो वहाँ घोड़ा टपाते पहुँच गया। उन्हें देखते ही दुष्ट मंगल पांडे ने उनके घोड़े पर निशाना लगाकर गोली चला दी, और लेफ्टिनेंट जी धराशायी हो गए। बॉघ जी ने मंगल पांडे पर निशाना लगाया पर चूक गए और निर्दयी मंगल पांडे ने अपनी तलवार निकाल ली। और उसने तो बेचारे लेफ्टिनेंट जी को चलता ही कर दिया होता अगर हमारे वीर सिपाही शेख पल्टू ने हस्तक्षेप न किया होता।

शेख पल्टू ने मंगल पांडे को धर लिया, और तब तक धरे रहा जब तक लेफ्टिनेंट बॉघ जी और सार्जेंट-मेजर ह्यूसन जी अंगड़ाईयाँ ले उठ खड़े नहीं हुए।

अपने ही लोगों ने साथ नहीं दिया बेचारे शेख पल्टू का

शेख पल्टू जब दुष्ट काफ़िर गौभक्त मंगल पांडे के साथ दंगल-दंगल कर रहे थे, तभी उनके साथ के सिपाही चुपचाप टीएनए मैच की तरह देख रहे थे। शेख पल्टू चिल्लाते रहे मदद के लिए, मगर किसी भी बेदर्द के दिल में उनकी ‘स्वामीभक्ति’ के लिए सम्मान नहीं जगा।

जब एक-दो बड़े साहबों के धमकियाने पर वह आगे बढ़े भी तो भी उन्होंने दुष्ट मंगल पांडे की बजाय शेख पल्टू जी पर हमला बोल दिया, उन पर जूते और पत्थर फेंके (जिसके लिए मोदी को त्यागपत्र दे सरदार पटेल की मूर्ति के ऊपर से छलांग लगा देनी चाहिए), और उन्हें गोली मार देने की धमकी दी। पर वे संत आदमी काफ़िर पांडे को धरे रहे।

Mob-lynching से हुआ शेख पल्टू जैसे जांबाज वीर का अंत: दुखद!

शेख पल्टू जी की स्वामिभक्ति जताने की निन्जा टेक्नीक से प्रभावित हो 9 अप्रैल को उन्हें हवलदार बना दिया गया, और काफ़िर मंगल पांडे को 18 अप्रैल बोल कर 8 को ही फांसी दे कर ‘एप्रिल फूल’!!

पर इस देश के लिए यह बहुत ज्यादा शर्म की बात है कि शेख पालतू पल्टू जी अपना हवलदारत्व ज्यादा दिन तक ‘एन्जॉय’ नहीं कर पाए। 34 बंगाल नेटिव इन्फैंट्री, जिसके मंगल पांडे सैनिक थे और लेफ्टिनेंट बॉघ जी अफसर – इस पूरी इन्फैंट्री को बर्खास्त कर दिया गया था। क्यों? क्योंकि वो चुपचाप इस हृदय-विदारक गौभक्त-हिंसा को देखते रहे थे, अफसरों का कहना नहीं माना था। उसी 34 बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के कुछ दुष्ट पूर्व-सैनिकों ने (गुप्त सूत्र बताते हैं कि वे सभी सवर्ण, मनुवादी, गौभक्त हिन्दू थे) धोखे से शेख पल्टू जैसे निश्छल वीर को ‘खोपचे’ में बुलाया और इनकी mob-lynching कर दी… और इस तरह शेख पल्टू गौभक्तों के आतंक को रोकने वाले पहले वीर भी थे, और mob lynching के पहले शहीद भी!

(जिन्हें इस कहानी पर शक है, उन्हें पूरा निमंत्रण है कि निम्नलिखित किताबों को खंगालें…)

  • The Indian Mutiny of 1857: Colonel George Bruce Malleson
  • Eighteen Fifty-Seven: Surendra Nath Sen

‘जीजाजी’ बने प्रचार समिति के अध्यक्ष: कई बड़े कॉन्ग्रेसी नेता इनके नीचे, जानें उनके Qualifications

रॉबर्ट वाड्रा पूरे भारत में कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करने का ऐलान कर चुके हैं। अपनी सास सोनिया गाँधी, बीवी प्रियंका गाँधी और साले राहुल गाँधी की सफलता के लिए वाड्रा भारत भ्रमण पर निकलेंगे। वाड्रा ने कहा है कि यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गाँधी और कॉन्ग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गाँधी के नामांकन पत्र भरने के बाद वह पूरे भारत में कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए प्रचार करेंगे।

रॉबर्ट वाड्रा ने रविवार (अप्रैल 7, 2019) को कहा कि वह अमेठी और रायबरेली में राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी के नामांकन भरते समय उनके साथ मौजूद रहेंगे। वह इन दोनों नेताओं के लोकसभा क्षेत्रों में जाकर चुनाव प्रचार भी करेंगे। राहुल गाँधी 10 अप्रैल को अमेठी में तो सोनिया गाँधी 11 अप्रैल को रायबरेली लोकसभा सीट से नामांकन पत्र दाखिल करेंगी।

कॉन्ग्रेस के लिए रॉबर्ट वाड्रा के चुनाव प्रचार में शामिल होने की खबर पर केंद्रीय वित्त मंत्री और वरिष्‍ठ भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा, “मुझे नहीं पता यह कॉन्ग्रेस के चुनाव प्रचार के लिए फायदेमंद होगा या फिर भाजपा के चुनाव प्रचार के लिए।” वहीं, अरुण जेटली के अलावा केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने भी रॉबर्ट वाड्रा के इस ऐलान पर चुटकी ली है। स्मृति ईरानी ने वाड्रा के इस बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा, “मैं इतना ही कहना चाहूँगी कि जहाँ-जहाँ रॉबर्ट वाड्रा प्रचार करने जाना चाहते हैं, वहाँ की जनता आगाह हो जाए और अपनी जमीनें बचा ले।”

वाड्रा की चुनाव प्रचार समिति में ये नेता हो सकते हैं

हमारे गुप्त सूत्रों से पता चला है कि कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने वाड्रा की अध्यक्षता में एक चुनाव प्रचार समिति भी गठित कर दी है। 10 जनपथ में सेंध लगाए ऑपइंडिया के गुप्त सूत्रों ने हमें एक लिस्ट भी भेजी है जिसमे वाड्रा की चुनाव प्रचार समिति के संभावित सदस्यों के नाम हैं। आगे हम आपको बताएँगे कि इस सूची में किन नेताओं के नाम हैं और उन्हें क्या ज़िम्मेदारियाँ सौंपी जाएँगी। साथ ही, उनको क्यों चुना गया, इसपर भी हम चर्चा करेंगे। सबसे पहले देर न करते हुए उस गुप्त सूची को निकाल कर दुनिया के सामने पेश करते हैं:

मणि शंकर अय्यर: मोदी को कॉन्ग्रेस की सभा में चाय बेचने की सलाह देकर ही मणि शंकर अय्यर वाड्रा की गुड बुक्स में आ गए थे। ऊपर से पाकिस्तान में मोदी को हराने की अपील कर तो मानो उन्होंने वाड्रा का दिल ही जीत लिया। गदगद वाड्रा ने उन्हें चुनाव प्रचार समिति का उपाध्यक्ष बनाया है। गुप्त सूत्रों ने बताया कि एक साल तक जब अय्यर कॉन्ग्रेस से निलंबित थे, तब उनका दाना-पानी वाड्रा ही चला रहे थे। भगवान राम के जन्म पर संदेह करने वाले अय्यर की वफादारी पर वाड्रा को कोई संदेह नहीं है।

नवजोत सिंह सिद्धू: वाड्रा ने सिद्धू को अपनी चुनाव प्रचार समिति की विदेश विंग का प्रमुख बनाया है। उन्हें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से उनके अच्छे संबंधों का फ़ायदा मिला। वो जल्द ही पाकिस्तान रवाना होंगे। इस्लामाबाद और रावलपिंडी में उनकी रैली प्रस्तावित भी हो चुकी है। जब सिद्धू ने सोनिया गाँधी का चरण स्पर्श किया था, तभी से वाड्रा उनके फैन हो गए थे।

जगदीश टाइटलर: जगदीश टाइटलर को वाड्रा अपने गुरु की तरह मानते हैं। शायद इसीलिए उन्हें चुनाव प्रचार समिति में रखा गया है। अदालतों और जाँच एजेंसियों का चक्कर लगाते-लगाते टाइटलर को क़ानून से बचने के सारे तरकीबों का ज्ञान हो चुका है और वाड्रा उनसे अक्सर सीखते रहते हैं। टाइटलर की दाढ़ी उन्हें एक इलीट लुक देती है और वाड्रा को इलीट लोग पसंद हैं।

दिग्विजय सिंह: दिग्गी राजा ने जबसे दूसरी शादी की है, तभी से वाड्रा को उनमें अच्छी काबिलियत नज़र आ रही है। पुरुषों एवं महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता को देखते हुए दिग्विजय को इस चुनाव प्रचार समिति का मार्गदर्शक बनाया गया है। गुप्त सूत्रों ने विशेष जानकारी देते हुए कहा कि चुनाव प्रचार के दौरान वाड्रा की सारी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखने की जिम्मेदारी भी दिग्विजय को ही दी गई है। मीनाक्षी नटराजन को ‘टंच माल’ कह चुके दिग्गी वाड्रा की समिति में टंच एंट्री लेंगे। दिग्विजय समय-समय पर वाड्रा को रिलेशनशिप सलाह देते रहते हैं।

कपिल सिब्बल: इन्हे वाड्रा की चुनाव समिति में इसीलिए रखा गया है ताकि अगर बीच में उनके ख़िलाफ़ अदालत से कोई समन वगैरह आता है तो स्थिति को संभाला जा सके। सुबह अनिल अम्बानी को गाली देकर दोपहर में उसी अनिल अम्बानी के लिए अदालत में पेश होने वाले सिब्बल वाड्रा की चुनाव प्रचार समिति के अकेले ऐसे सदस्य होंगे जो चुनाव प्रचार नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें देखकर आदमी तो दूर, जानवर भी भाग जाते हैं। चुनावी दौरों में इन्हे बुर्के में रखा जाएगा।

इन सबके अलावा कुछ ऐसे नेता भी हैं, जिन्होंने वाड्रा की चुनाव प्रचार समिति में शामिल होने के लिए आवेदन तो दिया था लेकिन उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। शशि थरूर इस समिति में आना चाहते थे लकिन वाड्रा को उनकी अंग्रेजी से आपत्ति है। वाड्रा का मानना है कि देश की अधिकतर जनता उनकी तरह ही किसान है और किसान इतनी ज्यादा अंग्रेजी नहीं जानते। नरेंद्र मोदी को अनपढ़ और गँवार कह चुके संजय निरुपम के आवेदन को वाड्रा इसीलिए रिजेक्ट कर दिया क्योंकि उनका मानना है कि मोदी भले ही जो भी हों लेकिन वो भी उनकी ही तरह काफ़ी नीचे से ऊपर आए हैं। इसलिए ऐसे कमेंट्स का वाड्रा विरोध करते हैं।

वाड्रा की चुनाव प्रचार समिति का टैगलाइन होगी ‘मोदी के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका देंगे!!

ज़मीन से जुड़े, ज़मीन-प्रेमी वाड्रा ने मोदी के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकाने की ठान ली है।

वाड्रा धरती को माता मानते हैं। वो रोहित शेट्टी की ‘ज़मीन’ (2003) की एक सीडी हमेशा अपने पास रखते हैं, जो उनकी फेवरिट फ़िल्म है। हमारे गुप्त सूत्र दिग्वजय सिंह से वाड्रा के बारे में अन्य जानकारी निकलवाने में लगे हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का रंग जब विदेशियों पर चढ़ता है, तो पहुँच जाते हैं भारत के आंगन में

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है। भारत को विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी माना जाता है। अब इसमें चाहे जीने की कला हो या तकनीकी क्षेत्र का विकास हो या फिर राजनीति और समाजिक विकास ही क्यों न हो, इन सभी में भारतीय संस्कृति का हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय संस्कृति आज भी अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। तमाम कमियों (भौतिक) के बावजूद कुछ अच्छाइयाँ या यूँ कह लें कि यहाँ का जीवन-दर्शन ऐसा है कि भारत की सीमाओं से बाहर रहने वाले लोग एक न एक बार यहाँ आने के ख़्वाहिश पाले रहते हैं। कुछ तो आकर ऐसे घुल-मिल जाते हैं जैसे उनका कुछ नाता हो यहाँ से।

विल स्मिथ की भारत-यात्रा

हाल ही में हॉलीवुड के सुपरस्टार माने जाने वाले विल स्मिथ भारत आए थे। उन्होंने हरिद्वार जाकर पूजा-पाठ भी किया। उनका कहना है कि भारत आना उनके लिए बेहद सुखद अनुभव होता है। 50 वर्षीय स्मिथ ने भारत यात्रा से जुड़ी कई तस्वीरें इंस्टाग्राम पर पोस्ट की। अपनी तस्वीर शेयर करते हुए उन्होंने एक कैप्शन भी दिया, जिसमें उन्होंने लिखा, “मेरी दादी कहती थीं कि भगवान अनुभव के माध्यम से सिखाते हैं।” वो कहते हैं कि भारत की यात्रा और रंगों से उन्हें अपनी कला और दुनिया की सच्चाई को जानने के लिए एक नई समझ मिलती है।

हरिद्वार में पूजा करते विल स्मिथ

ख़बर के अनुसार, स्मिथ जल्द ही एक वेब सीरीज़ ‘बकेट लिस्ट’ में नज़र आने वाले हैं और इस सीरीज़ में वो अपनी भारत से जुड़ी सभी ख़्वाहिशों को पूरा करते नज़र आएँगे। भारत के प्रति उनका यह लगाव पहली बार नहीं है बल्कि वो पहले भी भारत के प्रति अपना लगाव जता चुके हैं।

जूलिया रॉबर्ट के लिए हिन्दू धर्म

ऐसी ही भावनाएँ हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट की भी हैं, जो हिन्दू धर्म से इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने हिन्दू धर्म ही अपना लिया। इसके पीछे उन्होंने वजह बताई थी कि हिन्दू धर्म में शांति और सुकून है। दरअसल वो अपनी एक फ़िल्म ‘ईट प्रे लव’ की शूटिंग के लिए भारत आई थीं और वो तभी से हिन्दू बन गईं। ऑस्कर पुरस्कार विजेता जूलिया ने कहा था कि अब वह अपने कैमरामैन पति डेनियल मोडर और तीन बच्चों हैजल, फिनायस और हेनरी के साथ भजन-कीर्तन तथा प्रार्थना करने के लिए मंदिरों में जाती हैं। भारत की आध्यात्मिक शक्ति ने जूलिया को भारत का दीवाना बना दिया।

योग साधना में लीन जूलिया रॉबर्ट्स

जापान की मयूमी ने जब छोड़ दी थी जॉब

राजस्थान की कला और संस्कृति से दुनिया भली-भाँति परिचित है। यहाँ के महल और हवेलियों ने विदेशी पर्यटकों को हमेशा से ही अपनी ओर आकर्षित किया है। जापान की एक महिला मयूमी मारवाड़ के कालबेलिया डांस की ऐसी दीवानी हुईं की वो पिछले कई सालों से जोधपुर में नृत्य सीखने आ रही हैं। ख़बर के अनुसार, जोधपुर की एक बेटी ने मयूमी को अपने पारम्परिक नृत्य कला सिखाई।

जापान की मयूमी अब हैं कालबेलिया डांसर

मारवाड़ के कालबेलिया डांस को सीखने के बाद मयूमी जापान के टोक्यो और सपोरो शहर में कालबेलिया डांस सिखा रही हैं। अब तक वो कम से कम 50 जापानियों को मारवाड़ का यह नृत्य सिखा चुकी हैं। मयूमी को राजस्थान का यह डांस तो भाया ही, साथ ही उन्हें राजस्थानी कल्चर भी ख़ूब भाया। बता दें कि जोधपुर की कालबेलिया डांसर आशा ने मयूमी को कड़ी मेहनत और लगन से यह डांस और गाना सिखाया। मयूमी ने अपना ये शौक अपनी जापानी जॉब छोड़कर पूरा किया था। कालबेलिया डांस सीखने के बाद उन्होंने जॉब छोड़कर जापान के दो शहरों में कालबेलिया डांस की क्लास लेना शुरू कर दिया।

जॉर्ज हैरिसन: हरे कृष्ण आंदोलन और हिन्दू धर्म

जॉर्ज हैरिसन भी एक ऐसा ही नाम है, जिन्होंने 1960 के मध्य में हिन्दू धर्म को अपनाया था। पेशे से वो बीटल संगीतकार थे। साल 2001 में जब उनका देहांत हुआ था तो उनका अंतिम संस्कार हिन्दू परम्परा के अनुसार किया गया और उनकी अस्तियों को गंगा-यमुना नदी में प्रवाहित किया गया था। ख़बरों के अनुसार हैरिसन के बारे में कहा जाता है कि हरे कृष्णा आंदोलन से जुड़ने के बाद उन्होंने हिन्दू धर्म अपनाया था।

अपने जमाने के मशहूर बीटल बैंड वाले जॉर्ज हैरिसन रामनामी चादर ओढ़े

रसेल ब्रांड की हिन्दू शादी

हिंदू धर्म अपनाने वालों में एक नाम ब्रिटिश अभिनेता रसेल ब्रांड का भी है। पहले वो ड्रग्स के शिका थे। हिंदू धर्म अपनाने के बाद उनकी यह लत छूट गई। वो हिंदू धर्म से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी शादी भी हिंदू रीति-रिवाज़ से की थी। 23 अक्टूबर 2010 में उन्होंने राजस्थान के रणथंभोर टाइगर रिज़र्व में मशहूर सिंगर केटी पेरी से शादी रचाई थी। रसेल का कहना है कि हिंदू धर्म इंसान की आत्मा को मुक्ति की तरफ ले जाता है, जबकि दूसरे धर्म व्यक्ति को सांसारिक रूप से ग़ुलाम बनाने की कोशिश करते हैं। वो मंदिरों में जाकर घंटों ध्यान लगाते हैं और भगवान कृष्ण का भजन गाते हैं।

भारतीय होना अपने-आप में बड़े गर्व की बात है। यहाँ हर तरह की कला-संस्कृति को फलने-फूलने का एक समान अवसर मिलता है। यह गर्व की बात और बड़ी हो जाती है जब कोई विदेशी नागरिक भारत के संदर्भ में अपने उच्च विचार साझा करता है। ऐसे बहुत से विदेशी नागरिक हैं, जो भारतीय परंपराओं को सर्वोपरि मानते हैं और उसे आत्मसात करने का पूरा प्रयास करते हैं। हमारे देश की सभ्यता का गुणगान जब दूसरे देश के लोग करते हैं तो शायद ही ऐसा कोई भारतीय होगा जिसका सिर गर्व से ऊँचा नहीं उठेगा।

माल्या को लंदन कोर्ट से झटका: प्रत्यर्पण के खिलाफ अर्जी खारिज, चुनावी माहौल में BJP को फायदा!

भगौड़े विजय माल्या को लंदन के कोर्ट से एक बड़ा झटका मिला है। लन्दन के उच्च न्यायलय ने सोमवार (अप्रैल 8, 2019) को प्रत्यर्पण के ख़िलाफ़ दी गई माल्या की अर्जी को खारिज कर दिया है।

माल्या की ओर से इस याचिका को 5 अप्रैल को दाखिल किया गया था। लिखित अपील को कोर्ट के खारिज करने के बाद माल्या को मौखिक कार्रवाई के लिए आधा घंटे का मौका दिया जाएगा। बता दें कि विजय माल्या ने ब्रिटेन के गृह सचिव साजिद जाविद के उस निर्णय के खिलाफ याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने माल्या को भारत प्रत्यर्पित करने की इज़ाजत दे दी थी।

गौरतलब है वेस्टमिंस्टर की मजिस्ट्रेट अदालत ने 9 दिसंबर 2018 को 62 वर्षीय माल्या के भारत में प्रत्यर्पण का आदेश दिया था जिसके बाद पाकिस्तान मूल के मंत्री जाविद को यह मामला भेजा गया। उन्हें मामला भेजने के दो महीने के भीतर इसपर फैसला लेना था। फरवरी में यूके के गृह मंत्रालय ने घोषणा की कि जाविद ने माल्या के प्रत्यर्पण पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।

ब्रिटिश कोर्ट के प्रत्यर्पण वाले आदेश के बाद माल्या भारत के बैंकों से लिए ऋण का मूल धन वापस करने की पेशकश भी कई बार कर चुके हैं। खुद को बचाने के लिए कहा है कि वो उधार ली हुई मूल राशि का 100 प्रतिशत लौटाने को तैयार हैं। माल्या द्वारा दी याचिका को खारिज करने के बाद माना जा रहा है कि उनका प्रत्यर्पण जल्दी ही भारत हो सकता है।

₹9000 करोड़ से ज्यादा का ऋण न चुकाने और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में माल्या के प्रत्यर्पण के लिए भारतीय एजेंसियाँ काफ़ी लंबे समय समय से इंतजार कर रहीं हैं। बैंक का पैसा लेकर विदेश भागे माल्या को PMLA कोर्ट ने भगोड़ा घोषित किया था।

‘इस चुनाव में लोग मोदी के होठों पर ल्यूकोप्लास्ट चिपका देंगे ताकि वे झूठ ना बोल पाएँ’

जैसे-जैसे चुनाव की तारीख़ नज़दीक आ रही है, ज़बानी हमले भी तेज हो रहे हैं। नेता एक दूसरे के खिलाफ जमकर ज़बानी हमले कर रहे हैं, लेकिन कभी-कभी इसको लेकर भाषाई मर्यादा का भी ख्याल नहीं रखा जाता है। कुछ राजनेता अपनी ज़बान पर संयम नहीं रख पाते हैं और विपक्षी नेता पर आपत्तिजनक बयान दे देते हैं।

तृणमूल कॉन्ग्रेस अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कूचबिहार की एक रैली में पीएम पर ज़बानी वार किए। ममता बनर्जी ने रैली में प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता और राजनीति से बाहर निकालने की बात कही। इतना ही नहीं, उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि मोदी के मुँह को चिपकने वाले सर्जिकल टेप से चिपका देना चाहिए। ममता ने कहा, “इस चुनाव में लोग उनके होठों पर ल्यूकोप्लास्ट चिपका देंगे ताकि वे झूठ ना बोल पाएँ। देश की खातिर उन्हें ना केवल कुर्सी (प्रधानमंत्री पद) बल्कि राजनीति से भी बाहर करना चाहिए।

उन्होंने पीएम पर आरोप लगाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने बंगाल को कोई मदद नहीं दी क्योंकि मोदी के पास किसानों और मध्य वर्ग की समस्याओं पर ध्यान देने का वक़्त नहीं था। वो अपने 5 साल के कार्यकाल में साढ़े चार साल दुनिया घूमने में ही व्यस्त रहे। ममता यही नहीं रुकीं, उन्होंने आगे कहा, “भारत में विभिन्न धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं लेकिन पीएम मोदी ये कैसे जानेंगे? क्योंकि उनका परिवार ही नहीं है और ना ही वो आप लोगों को परिवार मानते हैं।” इसके साथ ही ममता ने नोटबंदी और किसानों की आत्महत्या को लेकर भी पीएम मोदी पर टिप्पणी की।

गौरतलब है कि ममता बनर्जी ने कुछ दिनों पहले पीएम मोदी के वैवाहिक जीवन और पत्नी से उनके संबंध पर कटाक्ष किया था। अलीपुरदुआर संसदीय क्षेत्र के बारोबिसा में चुनावी सभा के संबोधित करते हुए ममता ने कहा था कि जो अपनी पत्नी का देखभाल नहीं कर सकता, वो देश के नागरिकों की क्या देखभाल करेगा? इससे पहले ममता बनर्जी मोदी को ‘तुगलक का दादा’ और ‘हिटलर का चाचा’ से लेकर ‘दंगाई’, ‘लुटेरा’ और ‘ख़ूनी’ तक कह चुकी हैं।

REVIEW: शास्त्रीजी की गुत्थी सुलझाते Terrorism और Secularism पर हमारे मन की बात है ‘द ताशकंद फाइल्स’

‘द ताशकंद फाइल्स’ 12 अप्रैल को रिलीज होने वाली है लेकिन ऑपइंडिया आपको 4 दिन पहले ही फ़िल्म की समीक्षा से रूबरू करा रहा है ताकि आपको फ़िल्म के बारे में सब कुछ पता चल जाए। ध्यान दें, ये कोई स्पॉइलर नहीं है, यहाँ फ़िल्म की कहानी नहीं बताई जाएगी बल्कि सिर्फ़ उसके कंटेंट के बारे में चर्चा की जाएगी। दिल्ली में हुई फ़िल्म की पहली स्क्रीनिंग के दौरान निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने वो कहानी दुहराई, जिसमें उन्होंने बताया था कि कैसे अच्छे स्कूल में पढ़ने वाले उनके बेटे को शास्त्रीजी के बारे में कभी नहीं बताया गया। विवेक अग्निहोत्री ने कहा कि इस फ़िल्म के लिए किसी प्रोड्यूसर के पास जाते, तो उन लोगों का एक ही जवाब होता- “यार, आज की जेनेरेशन में शास्त्रीजी को लेकर कौन इंटरेस्टेड है? युवा नहीं देखेगा। बोरिंग टॉपिक है।” खैर, फ़िल्म बनी और रिलीज होने को भी तैयार है।

‘द ताशकंद फाइल्स’: एक परिचय

अगर आपको नहीं पता हो तो बता दें कि ‘द ताशकंद फाइल्स’ भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन/हत्या के पीछे का पर्दा उठाने की कोशिश करती है। फ़िल्म शास्त्रीजी की मृत्यु की गुत्थी सुलझाने के क्रम में भारत से लेकर रूस तक भ्रमण कराती है। फ़िल्म की शुरुआत एक डॉक्यूमेंट्री की तरह होती है, जिसे देख कर आपको सत्यजीत रे की ऐसी फ़िल्मों की याद आ जाएगी, जिसमें वो कमर्शियल एलिमेंट्स को धता बताकर अपनी फ़िल्मों में संवाद प्रयोग किया करते थे। जहाँ ज़रूरी हो वहाँ पात्र अंग्रेजी में ही बोला करते थे। अगर आपने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ देख रखी है तो सत्यजीत रे की इस कला को आप भलीभाँति पहचानते होंगे।

विवेक अग्निहोत्री ने अंग्रेजों और रशियन पात्रों से जबरदस्ती टूटी-फूटी हिंदी नहीं बुलवाई है, सबटाइटल्स का सहारा लिया गया है। अजीब तरीके से हिंदी बोलते हुए विदेशी पात्र शायद ही आपको इस फ़िल्म में नज़र आएँ। फ़िल्म में जहाँ मिथुन चक्रवर्ती और नसीरुद्दीन शाह जैसे अनुभवी और वरिष्ठ कलाकार हैं तो पंकज त्रिपाठी के रूप में आज के दर्शकों के बीच लोकप्रिय हो रहा एक ऐसा चेहरा भी है, जो समय-समय पर एक गंभीर फ़िल्म में भी अपनी कॉमिक टाइमिंग से रोचकता बनाए रखता है। प्रकाश बेलवाड़ी और राजेश शर्मा जैसे सिनेमा के जाने-पहचाने चेहरे भी इस फिल्म में हैं। अगर आपने एयरलिफ्ट देख रखी है तो प्रकाश से अच्छी तरह परिचित होंगे। वहीं दूसरी तरफ अगर आपने ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखी होगी तो राजेश शर्मा के भी आप कायल हो चुके होंगे।

उपर्युक्त दोनों ही फ़िल्में सुपरहिट थी। अगर ‘द ताशकंद फाइल्स’ की बात करें तो इसमें अपना किरदार निभाने के लिए सभी अभिनेताओं ने मेहनत की है, जो कि दिखती है। अपने जमाने में एक्शन सुपरस्टार रहे मिथुन द्वारा ऐसे किरदार चुनना और उसे निभाना उन्हें तारीफ का पात्र बनाता है। इस फ़िल्म में डाक्यूमेंट्री वाली स्टाइल का सहारा लिया गया है, जैसा बीबीसी वाले अपनी सीरीजों में करते हैं। वैसे हमारा मानना है कि अगर ये फ़िल्म नेटफ्लिक्स जैसी वेब पोर्टल्स पर आए तो इसे दर्शकों के एक बड़े वर्ग तक पहुँचाया जा सकता है। आगे हम फ़िल्म का निर्देशन और स्क्रिप्ट की बात करेंगे।

निर्देशन, स्क्रिप्ट और सिनेमैटोग्राफी

विवेक अग्निहोत्री की पहले की फ़िल्मों को देखकर विश्वास नहीं होता कि ये फ़िल्म उन्होंने ही निर्देशित की है। जहाँ एक तरफ ‘चॉकलेट (2005)’ एक तेज़ सस्पेंस थ्रिलर की तरह बुनने की कोशिश की गई थी, वहीं रिवेंज ड्रामा ‘हेट स्टोरी (2012)’ में शायद कुछ ज्यादा ही ड्रामा था। 2014 में आई ‘ज़िद’ की बात ही न करें तो अच्छा है क्योंकि उसे क्यों बनाया गया था, इसे हम भी आज तक सोच रहे हैं। हाँ, ‘बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम (2014)’ से विवेक अग्निहोत्री ने बुद्धिजीवियों से लेकर युवाओं तक के बीच अपने निर्देशन का लोहा मनवाया। फ़िल्म अच्छी चली, चर्चा में आई और वास्तविक मुद्दों पर हाल के दिनों में सबसे बढ़िया फ़िल्मों में से एक है।

‘द ताशकंद फाइल्स’ में आपको दिल्ली की अच्छी-ख़ासी झलक दिखेगी। दिल्ली मेट्रो की आपाधापी और दिल्ली की सड़कों पर सुबह जॉगिंग करतीं अभिनेत्री श्वेता बासु प्रसाद, ये सभी दृश्य फ़िल्म को जीवंत बनाते हैं। फ़िल्म में अभिनेत्री श्वेता ने एक युवा पत्रकार का किरदार निभाया है और आपको बता दें कि उन्हें फ़िल्म में भी दिल्ली मेट्रो में सीट नहीं मिलती। अगर रात का समय हो तो वो सीट लेने में कामयाब हो जाती हैं। निर्देशक के तौर पर विवेक ने छोटी-मोती बातों का ध्यान रखा है। व्हीलचेयर पर बैठी पल्लवी जोशी (जो कि एक इतिहासकार का किरदार निभा रही हैं) या फिर कंठ में एक ख़ास इंस्ट्रूमेंट लगाकर बोलता बख़्शी, इन सबके पीछे विवेक की मेहनत आपको फ़िल्म देखने पर ही पता चलेगी।

फ़िल्म का नाम और थीम देखकर बहुत लोगों को ऐसा आभास हो सकता है कि ये फ़िल्म धीमी होगी, ड्रैग करेगी, स्लो स्पीड वाली होगी लेकिन इतना गंभीर मुद्दा उठाने और उसकी तह तक जाने के बावजूद फ़िल्म धीमी नहीं है। चीजें नियंत्रित तरीके से आगे बढ़ती हैं और दृश्य दर दृश्य घटनाक्रम आपको बोर नहीं करते। पत्रकारों के केबिन को कम्प्यूटर सिस्टम्स के साथ दिखाया गया है। मिथुन चक्रवर्ती जो कि एक नेता का किदार निभा रहे हैं, उनके बेढंगे बाल और बेढंगी धोती से किरदार में वास्तविकता लाने की कोशिश की गई है।

आजकल के कॉप थ्रिलर्स के कुछ मसाले भी फ़िल्म में प्रयोग किए गए हैं। हमने सिंघम में देखा था कि कैसे गुंडों द्वारा किसी को परेशान किया जाता है। उसमे सिंघम के घर की बत्ती बुझा दी जाती है, उसके घर के आसपास रात में कुछ संदिग्ध लोग दिखते हैं, इत्यादि। ‘द ताशकंद फाइल्स’ में भी ऐसे कुछ तत्वों का सहारा लिया गया है। जब फ़िल्म भारत से रूस पहुँचती है तो आपको ऐसा महसूस होगा जैसे कोई सस्पेंस थ्रिलर चल रही हो। कुछ ही पलों के लिए सही लेकिन आपको ‘चॉकलेट’ की झलक दिख ही जाती है। कुल मिलाकर स्क्रिप्ट बढ़िया है, कहानी सही तरीके से बनाई गई है और निर्देशन के पीछे मेहनत की गई है।

सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा: फ़िल्म का थीम

फर्स्ट हाफ में लाल बहादुर शास्त्री के प्रति इंटरेस्ट जगाने की कोशिश की गई है। उनकी आवाज़, उनका पार्थिव शरीर, उनके ओरिजिनल फुटेज और उनकी मृत्य के पीछे का रहस्य, इन सबके पीछे क्या है? आज के युवाओं को कुछ दिखाने के लिए पहले उसके बारे में इंटरेस्ट जगाना होता है और विवेक ने ये काम बख़ूबी किया है। शास्त्रीजी की समाधि के कुछ दृश्य हैं जो आपको अभिभूत कर देंगे। सीआईए, केजीबी, भारत सरकार, इतिहासकारों और मीडिया के बीच फँसे इस रहस्य को कैसे निकालने की कोशिश की गई है, ये आप फ़िल्म देखकर जानेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि फ़िल्म में इतिहास है, आज की भी कहानी है जो शास्त्रीजी की प्रासंगिकता के बारे में चर्चा करती है।

ये सब तो थी तकनीकी बातें। अब आपको फ़िल्म की थीम बताते हैं, कहानी के कोई भी अंश का ख़ुलासा किए बिना। विवेक अग्निहोत्री ने अपने पुत्र को लेकर जो बातें कही, वो फ़िल्म में उन्होंने मंदिरा बेदी (सामाजिक कार्यकर्ता) के मुँह से कहवाई है। फ़िल्म की रिलीज के बाद पंकज त्रिपाठी का सेकुलरिज्म वाला डायलॉग (जिसका कुछ अंश ट्रेलर में भी दिखाया गया है) सोशल मीडिया पर वायरल होगा – यह पक्का है। लेकिन, आतंकवाद और उसके विभिन्न प्रकारों की परिभाषा सहित व्याख्या जो मिथुन चक्रवर्ती के किरदार द्वारा दी गई है, उसे हम फ़िल्म का सबसे पसंदीदा और व्यापक असर डालने वाला दृश्य रेट करेंगे। इस दृश्य में मिथुन चक्रवर्ती ने देश के करोड़ों लोगों के मन की बात एक झटके में कह डाली है। इस बारे में विशेष आप फ़िल्म देखकर ही जान पाएँगे।

कुल मिलकर देखें तो आतंकवाद और सेकुलरिज्म पर विवेक जो कहना चाहते थे, उन्होंने उसे कहने में सफलता पाई है। अगर आपको लगता है कि ये केवल राइट विंग की फ़िल्म है तो आपको उस दृश्य का इन्तजार करना चाहिए, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती पंकज त्रिपाठी से कुछ कहते हैं। उसके बाद आपको पता चलेगा कि फ़िल्म को सिर्फ़ और सिर्फ किसी विचारधारा विशेष को प्रोमोट करने के लिए नहीं बनाया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता मंदिरा बेदी के किरदार पर इतिहासकार पल्लवी जोशी और इमरान क़ुरैसी के किरदार द्वारा कुछ महिला-विरोधी कमेंट किए जाते हैं, जिसके बाद के दृश्यों को देखकर आपको लगेगा कि विवेक ने काफ़ी अच्छी तरह से इन समस्याओं को भी सामने रखा है।

अगर आपने 1957 की ऑस्कर जीतने वाली हॉलीवुड फ़िल्म ’12 एंग्री मेन’ देख रखी है तो फ़िल्म में बहस के दौरान आपको उसकी कुछ झलक दिखेगी। फ़िल्म के बहस वाले दृश्य ज़ोरदार हैं, तर्कसंगत हैं और तथ्यों पर बात करते हैं। सारे किरदार एक सा नहीं सोचते, वे एक-दूसरे की बात से सहमत नहीं होते बल्कि एक-दूसरे को तथ्यों व फैक्ट्स से काटते हैं। फ़िल्म एक पक्ष को नहीं रखती बल्कि सभी पक्षों को बराबर मौक़ा देती है।

एक्टिंग और किरदार

मिथुन चक्रवर्ती के जो पुराने फैंस हैं, उन्हें शायद पता होगा कि वे अपने करियर की ऊँचाई के दिनों में भी रामकृष्ण परमहंस जैसे चुनौतीपूर्ण किरदार सफलतापूर्वक निभा चुके हैं। इस फ़िल्म में आपको कुछ दृश्यों में पुराने ‘विंटेज मिथुन’ की झलक दिखेगी। एक बंगाली नेता के रूप में उन्होंने अपने हाव-भाव में थोड़ी नाटकीयता तो लाई है लेकिन उनकी संवाद अदाएगी का स्टाइल ही यही है। नसीरुद्दीन शाह और उनका कुत्ता, दोनों ने ही ठीक-ठाक एक्टिंग की है। वो अभी भी ओंकारा हैंगओवर में ही जी रहे हैं। कुटिल गृहमंत्री का उनका किरदान रटा-रटाया है, इसमें कुछ भी नया नहीं है।

पंकज त्रिपाठी, राजेश शर्मा और प्रकाश बेलवाड़ी इस फ़िल्म के बहस वाले हिस्सों में ख़ासे प्रभावी रहे हैं। उनके बिना शायद ही इस फ़िल्म में जीवंतता की कल्पना की जा सके। यहाँ पल्लवी जोशी को स्पेशल मेंशन देना पड़ेगा क्योंकि उनका व्हीलचेयर पर बैठी इतिहासकार वाला किरदार चुनौतीपूर्ण था। शायद विवेक ने जेएनयू में ऐसे किसी इतिहासकार को देखा होगा, जिन पर पल्लवी का किरदार आधारित है। एक दायरे में रहकर एक्टिंग करना आपको बाँध देता लेकिन उन्होंने अपनी संवाद-अदाएगी से प्रभावित किया है।

फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री श्वेता बासु प्रसाद ने दिखाया है कि वो इस जेनेरेशन की कई अभिनेत्रियों से बेहतर है और इमोशनल दृश्यों में वो ख़ासी प्रभावी रही हैं। ख़ासकर, नशे वाली हालत में और शास्त्रीजी के समाधी वाले दृश्य में, इन दोनों में ही उनकी एक्टिंग शानदार है। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में उनका प्रदर्शन शानदार है। कई दृश्यों में वो काफ़ी सुन्दर भी लगी हैं।

‘द ताशकंत फाइल्स’: अंतिम वर्डिक्ट

‘द ताशकंद फाइल्स’ आज के युवाओं को देखनी चाहिए। फ़िल्म में सच्चाई से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। ज्यादा ड्रामा दिखाने के चक्कर में तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया है। ये कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि फ़िल्म के कुछ दृश्य ‘इंफॉर्मेटिव डॉक्यूमेंट्रीज’ की याद दिलाते हैं। इस फ़िल्म को थिएटर में देखें, शास्त्रीजी के लिए, निर्देशक व अभिनेताओं की मेहनत के लिए, सच्चाई की खोज के लिए और उस खोज को दिखाने में ईमानदारी के लिए। यह एक बहादुरी भरा प्रयास है, जिसकी सराहना होनी चाहिए।

किसी वास्तविक मुद्दे पर बिना ज्यादा ड्रामा ठूँसे ऐसी रोचक फ़िल्म हाल के दिनों में तो नहीं ही बनी है। निर्देशक विवेक अग्निहोत्री इसके लिए बधाई के पात्र हैं। जैसा कि हमने पहले ही कहा, इसे किसी बड़े वेब पोर्टल पर भी रिलीज करनी चाहिए ताकि ये दर्शकों के एक बड़े वर्ग तक पहुँचे।

स्थिर आँखों की एक हलचल जब जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत बन जाती है

मित्र हैं, बड़े भाई हैं, ज़िंदादिल और संवेदनशील व्यक्ति हैं। नाम नहीं लिख सकता क्योंकि ये पीड़ा हम में से बहुतों ने झेली होगी, और नाम रहने से ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। मुझे दो बार टीबी हुआ, एक बार दोनों फेफड़ों में कैविटी बन गई (छोटा छेद), दूसरी बार लीवर नाराज़ हो गया क्योंकि आँखों में घुसे कीड़े को मारने के लिए जिस ज़हरीली दवाई का प्रयोग किया गया था, उसने लीवर पर बहुत अत्याचार कर दिया।

पहली बार जब टीबी हुआ था तो मैं ख़ून की उल्टियाँ करता था, और लगभग 200-300 मिलीलीटर एक बार में। चूँकि मैं मरीज़ था तो मेरे लिए उल्टी करना और देखना, दोनों ही सामान्य बातें थी। फिर दिल्ली के कुछ दोस्तों ने उपचार में साथ रहकर हर संभव सहायता की। डैमेज इतना हो चुका था कि डॉक्टर ने सीटी स्कैन देखकर कहा था, “एक्सट्रीम केस में तो सर्जरी होती है, लेकिन दोनों लंग्स में कैविटी है, तो वो संभावना भी नहीं। अगर जीने की इच्छा होगी तभी बचेगा।”

ज़ाहिर है कि इच्छा थी, और बच गए। इसी समय में मेरी माँ, बिहार छोड़ कर पहली बार कहीं बाहर आई। गरीब घर की महिला ने बहुत कष्ट देखे और झेले होते हैं। लेकिन, अपनी संतान को ख़ून की उल्टी करते देख, वो बेहोश होकर गिर गई। जबकि मुझे सँभालने वाले लोग थे, पर उसने ख़ून देखा तो दरवाजा पकड़ कर बेहोशी में गिरी और बैठ गई।

साल भर बाद, मैं ठीक हुआ और फिर दूसरी बार इसी रोग ने लीवर के माध्यम से हमला बोला। सप्ताह भर में लगभग 22 किलो वज़न घट गया। मैं अपने पाँव पर खड़ा नहीं हो पाता था। शरीर का हर एक ज्वाइंट दर्द करता था। इस हालत में मैं अपने गाँव वापस गया। पहले से ही दुबले व्यक्ति के शरीर से आप 22 किलो और निकाल लीजिए, शरीर से ख़ून बस ज़िंदा रहने लायक ही बचा हो, चेहरा पीला पड़ जाए, तो वैसी संतान को घर पहुँचता देख किसी भी पिता को ख़ास ख़ुशी नहीं होती।

ये कहानी मैं पहले भी कह चुका हूँ, लेकिन आज फिर से बता रहा हूँ। संतान को खरोंच भी लगती है तो माँ-बाप के लिए उससे बड़ा दुःख नहीं होता। ऐसे मौक़ों पर, जब डॉक्टर ही आपका एकमात्र सहारा हो, आप अपनी संतान को तड़पते देखते हैं, और हर पल भीतर से मर रहे होते हैं।

सवालों के जवाब नहीं मिलते। कर्म फल के चक्कर में याद करते हैं कि आख़िर किस कर्म की सज़ा इस रूप में मिल रही है। याद करते हैं तो याद नहीं आता कि किसी का नुकसान किया हो। आदमी ऐसे समय में तर्क ढूँढने की कोशिश करता है, और तर्क होते नहीं। इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता कि ‘मेरे साथ ही क्यों?’

मेरे पिता ने जन्म से लेकर अभी तक बस मेहनत ही की है। आधे से अधिक जीवन वैष्णव होकर पूजा-पाठ और गृहस्थी में बीता है। मैंने अगर किसी का भला नहीं किया, तो बुरा भी नहीं किया है। फिर मुझे दो बार मृत्यु तक पहुँचाना किस कर्म का फल है? इसका जवाब न मेरे पिता के पास था, न मेरी माँ के। लेकिन प्रारब्ध को स्वीकार कर, जितना संभव हो सका, संतान की चलती साँसों में ही आधार ढूँढा और फिर मैं दोनों बार ठीक हो गया।

जिन बड़े भाई का ज़िक्र ऊपर किया है, उनके दुःख के सामने मेरे पिता का दुःख कहीं नहीं टिकता। हमेशा ज़िंदादिल रहने वाला व्यक्ति चाह कर भी हँस नहीं पाता, बोलता है तो एक अजीब तरह का भाव सुनाई देता है जिसे आप निराशा या नकारात्मकता नहीं कह सकते। वो भाव शायद वही है जो एक पिता या माता का अपने बच्चे की पीड़ा को देखकर उपजता है।

वह स्थिति जब आपके पास ‘मैं क्या करूँ’ का जवाब नहीं होता, जब जो चल रहा है, उस पर आपका वश नहीं, आप स्थिति को एक पैसा प्रभावित नहीं कर सकते, तब मजबूत व्यक्ति भी गिरने लगता है। लेकिन, वही अंत नहीं है। एक माँ हर मिनट एक उम्मीद से एक शांत से चेहरे को देखती रहती है कि अब वो बोल उठेगा, छोटी बहन रोना चाहती है, लेकिन रोती नहीं कि शायद भाई की आँखें देख लेंगी, पिता अपने पिता होने का बोझ लिए अपने भीतर ही भटकता रहता है, कुछ खोजता रहता है।

ऐसे समय में हम या आप उस व्यक्ति को क्या सलाह दे पाएँगे? कुछ नहीं। बात कर सकते हैं लेकिन एक अनुभवी व्यक्ति को, जिसने आप से अधिक दुनिया देखी और झेली है, ढाढ़स भी नहीं दे सकते। लगता है कि खानापूर्ति हो रही है। उन मौक़ों पर हम या आप भावनाओं के आदान-प्रदान से ही जुड़े रह सकते हैं, उसके अलावा हमारे हाथ में कुछ नहीं।

मौन का स्तर वैसा हो जाता है कि पिता और माता बिना कुछ कहे बात कर रहे होते हैं। दोनों का डर कि कहीं दूसरा न टूट जाए। माताएँ घर को घर और परिवार को परिवार बनाती हैं, पिता उसका ठोस आधार और ईंट होते हैं। संतान वो छोटे पौधे हैं जिन्हें हवा हिला देती है, बारिश का झोंका उनके पत्ते तोड़ देता है, दूसरा जीव नोंच लेता है।

माँ-बाप की बाँहों का दायरा हमें बचपन से लेकर उनकी मृत्यु तक रक्षा कवच की तरह घेरे रहता है। मेरी दादी का देहांत हुआ था तो मेरे पिता, 56 साल की उम्र में फूट-फूट कर रो रहे थे। मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे पिता जैसा विरक्त आदमी, मेरी जर्जर और अशक्त दादी की मृत्यु पर रो क्यों रहे हैं। मैंने पूछा तो उनका जवाब था, “वो जैसी भी थी, माँ थी। उसके पास मैं अभी भी अपने भाई-बहन के झगड़े, उनकी कटु बोलियाँ, उनकी बातों को लेकर शिकायत करने जाता था। अब किसके पास जाऊँगा?”

माँ-बाप का जीवन संतानोत्पत्ति के बाद पूरी तरह से बदल जाता है। उसके जीवन का हर महत्वपूर्ण पल उनके बच्चों की ओर हो जाता है। उनका निजी जीवन वहीं खत्म हो जाता है क्योंकि उस निजी जीवन से बड़े आनंद का पल बच्चे बनकर आते हैं। उस बच्चे के नन्हें पाँवों की मालिश से लेकर उनके मल-मूत्र तक में आप निर्विकार भाव से एक आनंद पाते हैं। निजी जीवन को आप कभी भी मिस नहीं करते, क्योंकि एक तरह से, आपका निजी जीवन व्यापक हो जाता है। किसी दूसरे की खुशी आपकी अपनी हो जाती है।

वही संतान जब दो महीने से आईसीयू में हो, बोलना चाहे और आवाज न निकले, लगातार सर्जरी होती रहे, डॉक्टर आपको बताते रहे कि इसमें समय लगेगा। आप धैर्य दिखाते हैं, आप पत्नी का हाथ पकड़ते हैं, दूसरे बच्चों को गोद में सुलाते हैं, उसे सरल शब्दों में बताते हैं कि उसका भाई कल की अपेक्षा आज बेहतर है।

मैं अभी भी किसी का बेटा और भाई हूँ, मैं पिता या माता की पीड़ा को देख तो सकता हूँ, लेकिन समझ नहीं सकता। उसके लिए उस स्थिति में होना पड़ता है। हर बार, अपने दोस्तों, उनके माता-पिता आदि को ऐसी स्थिति से गुज़रते देखता हूँ तो मनाता हूँ कि किसी को ऐसा समय न देखना पड़े। लेकिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, और आप तक ऐसी खबरें पहुँचती रहती हैं।

ऐसी स्थिति में एक दोस्त बन पाने के सिवा हमारे हाथ में कुछ भी नहीं होता। दोस्त की कोई तय परिभाषा नहीं होती। वो आपके तमाम रिश्तों का एक मिश्रण होता है। इसलिए दोस्त कभी पिता की तरह बोलता है, कभी बड़े भाई की तरह, कभी पत्नी की तरह सहृदय होता है, कभी छोटी बहन की तरह जिद करता है, कभी माँ की तरह आपका ख़्याल रखता है। दोस्त अहित नहीं करता।

एक-दूसरे की शारीरिक पीड़ा को हम भले न बाँट सके, लेकिन मानसिक पीड़ा को अवश्य बाँटें। कई बार पति अपनी पत्नी या परिवार से वो बातें नहीं कह पाता, जो वो एक दोस्त से कहना चाहता हो। ऐसे मौक़ों पर, एक बेहतर दोस्त बना जा सकता है। बात की जा सकती है। सर के भीतर उस चौबीस घंटे बजने वाली घंटी से ध्यान दूसरी तरफ लाया जा सकता है।

और बाकी तो हमारे हाथ में कुछ भी नहीं, भावनाओं के जाल में हम उलझे हुए वो लोग हैं, जो मूलतः प्रेम करना जानते हैं। जब डॉक्टर ने मेरे सीटी स्कैन को देखकर यह कहा था कि मेरी इच्छा होगी तो मैं बच जाऊँगा, तो उसका मतलब यह था कि सिर्फ़ दवाई ही हमें स्वस्थ नहीं करती, हमारा प्रेम, हमारी जिजीविषा हमें भी ज़िंदा रखती है, और हमारे साथ के लोगों को भी। अतः, किसी की जिजीविषा को अपने प्रेम से सींचने की कोशिश कीजिए, यह सोच कर मत रुकिए कि आपके होने या कुछ करने से क्या होगा।

गडकरी का गणित: विकास पुरुष ‘रोडकरी’ के आगे चित कॉन्ग्रेस ने नागपुर में पहले ही मानी हार

उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें महाराष्ट्र में हैं और भाजपा का शासन होने के चलते पार्टी के लिए यहाँ अच्छा प्रदर्शन करना प्रतिष्ठा का विषय है। और बात जब महाराष्ट्र के नागपुर की हो रही हो तो कहना ही क्या! राज्य की शीतकालीन राजधानी नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का मुख्यालय होने के कारण इस सीट पर देश-दुनिया की नज़रें हैं और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का क्षेत्र होने के कारण भाजपा के लिए यहाँ से भी जीत दर्ज करना ज़रूरी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में सड़क परिवहन और गंगा संरक्षण सहित कई अहम विभाग संभाल रहे गडकरी देश के ऐसे नेताओं में से हैं जिनकी प्रशंसा करते विपक्षी भी नहीं थकते। पार्टी लाइन से ऊपर उठकर नेतागण इनकी प्रशंसा कर चुके हैं यही नहीं राहुल गाँधी और अरविन्द केजरीवाल भी गडकरी के गुण गा चुके हैं।

यहाँ हम नागपुर सीट के चुनावी समीकरण की बात करेंगे और जानेंगे कि क्या कॉन्ग्रेस ने इस सीट पर पहले ही हार मान ली है? विश्लेषण की शुरुआत कल शनिवार (अप्रैल 6, 2019) को इलाक़े में हुई नितिन गडकरी की जनसभा से करते हैं। 2011 में दंगों का गवाह बन चुके मोमिनपुरा में गडकरी की जनसभा को देखनेवाला व्यक्ति यह जान जाएगा कि गडकरी का अपने क्षेत्र में क्या प्रभाव है? दरअसल, यहाँ नितिन गडकरी की सभा में हज़ारों की संख्या में मुस्लिम उपस्थित थे। कोई कुछ भी अगर-मगर करे लेकिन इस सच्चाई को सभी जानते हैं कि अधिकतर भाजपा नेताओं की रैलियों में मुस्लिमों की बड़ी भीड़ नहीं जुटती। गडकरी इसके अपवाद हैं।

समुदाय विशेष से घिरे गडकरी

2011 में जब मोमिनपुरा में हिंसक सांप्रदायिक तनाव भड़का था, तब राज्य और देश, दोनों ही जगह कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी। 2014 के बाद से यहाँ शांति है। शनिवार की जनसभा में मुस्लिमों से घिरे गडकरी ने जब उन्हें अपने विकास कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया तो सभी प्रभावित दिखे। वैसे गडकरी का मुस्लिमों के बीच जाना और दूसरे नेताओं के उनके बीच जाने में फ़र्क है। जहाँ चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता मुस्लिमों के बीच जाकर नमाज़ रूम बनवाने और टीपू सुल्तान को पूजने की बात करते हैं, गडकरी धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर सड़कों और मेट्रो की बातें करते हैं।

नागपुर में 2015 में मेट्रो कार्यों का वास्तविक शिलान्यास हुआ और 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे हरी झंडी दिखाने पहुँचे। गडकरी का कहना है कि वो जिन परियोजनाओं का शिलान्यास करते हैं, उसका उद्घाटन भी करते हैं। ये सही है क्योंकि उनके नेतृत्व में न सिर्फ़ नागपुर बल्कि देश भर में सड़क योजनाओं का तेज़ी से सफल समापन हुआ है। नागपुर तो उनका क्षेत्र है, यहाँ की योजनाओं पर उनकी पैनी नज़र रही है, चाहे वो किसी भी विभाग का हो। नागपुर मेट्रो के उद्घाटन के समय उन्होंने कहा भी था कि वे आए दिन शिलान्यास और उद्घाटन में व्यस्त रहते हैं लेकिन अपने गृह क्षेत्र में मेट्रो परियोजना के उद्घाटन में सम्मिलित होना उनके लिए सबसे बड़ा अनुभव है।

नागपुर के चुनावी समीकरण की बात करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि यहाँ दलित मतदाताओं की जनसंख्या अच्छी-ख़ासी है और इसीलिए दलित हितों की रक्षा का दावा करनेवाली पार्टियाँ यहाँ अच्छा प्रदर्शन करती आई हैं। भीमराव आंबेडकर के रिपब्लिकन आंदोलन का असर यहाँ देखा जा सकता है। यही कारण है कि यहाँ हुए चुनावों में रिपब्लिकन नेता अच्छा प्रदर्शन करते आए हैं। 2004 के बाद से यहाँ मायावती की बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन भी अच्छा रहा है। इस सबके बीच भाजपा 2009 में हार चुकी थी। तीन बार यहाँ से सांसद रहे वरिष्ठ नेता बनवारीलाल पुरोहित की हार के बाद भाजपा ने नितिन गडकरी के रूप में अपने तरकश का सबसे मज़बूत तीर निकाला। बनवारीलाल अभी तमिलनाडु के राज्यपाल हैं।

गडकरी को 2014 में हुए आम चुनाव में पौने छह लाख से भी ज्यादा मत प्रात हुए थे। 54% से भी अधिक मत पाकर उन्होंने अपने विरोधी विलास मुट्टेमवर को 26% से भी अधिक मतों से पराजित किया। वरिष्ठ नेता विलास कॉन्ग्रेस सरकारों के दौरान केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं और क्षेत्र में अच्छा प्रभाव रखते हैं। 7 बार सांसद रहे विलास को भारी मतों से हराकर गडकरी ने साबित कर दिया कि वे न सिर्फ़ एक कुशल प्रशासक हैं बल्कि जनता के बीच भी उनकी स्वीकार्यता उतनी ही है। इस बार मुट्टेमवर ने शायद जनता की भावनाओं को पहले ही भाँप लिया था। 2018 में नागपुर से ही कॉन्ग्रेस के पूर्व सांसद गेव अवारी ने विलास मुट्टेमवर पर पार्टी लाइन के विरुद्ध काम करने का आरोप लगाया था। उन्होंने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को पत्र लिखकर शिकायत की थी

नागपुर में कॉन्ग्रेस भारी आतंरिक कलह से जूझ रही है। तभी क्षेत्र के बाहर से नाना पटोले को लाकर यहाँ लड़ाया जा रहा है। उम्मीदवारों के चयन में देरी का कारण भी यही था। बहरी उम्मीदवार को लेकर कॉन्ग्रेस ने स्थानीय पार्टी गुटों में कलह के रोकथाम की कोशिश की है। नाना पटोले ने 2014 में भाजपा के टिकट पर भंडारा-गोंदिया से जीत दर्ज की थी लेकिन तीन साल बाद उन्होंने पार्टी से असंतुष्ट होकर त्यागपत्र दे दिया था। ऐसे में, कॉन्ग्रेस ने उन्हें नागपुर से लोकसभा प्रत्याशी बनाया है। नागपुर के भीतर आने वाली सभी छह विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा है। दक्षिण-पश्चिमी सीट पर तो ख़ुद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जीत दर्ज की थी।

गडकरी के वचनंनामे के बारे में स्थानीय अख़बार में छपी ख़बर

प्रकाश अम्बेडकर की पार्टी भी यहाँ से दम ठोक रही है। बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर दलित-मुस्लिम गठजोड़ के जरिए इस सीट पर अपनी निगाह पैनी कर दी है। नितिन गडकरी का कहना है कि वो पटोले को गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते और अपनी सभाओं में उनका नाम तक नहीं लेते। जबकि पटोले का पूरा का पूरा चुनाव प्रचार ही गडकरी के आसपास केंद्रित है। वो नागपुर के लोगों के बढ़ते ख़र्च के लिए गडकरी को जिम्मेदार ठहराते हैं और उनके विकास कार्यों में भ्रष्टाचार की बू देखने की कोशिश करते हैं। बसपा और अम्बेडकर की पार्टी के उम्मीदवारों के होने से दलित मतदाता भ्रमित है और उसके भाजपा की तरफ जाने की ही उम्मीद है।

कुल मिलाकर देखें तो आंतरिक कलह, समाज के सभी वर्गों के बीच गडकरी की स्वीकार्यता और सबसे अव्वल उनके विकास कार्यों की आड़ में दबी कॉन्ग्रेस ने यहाँ उम्मीदवार तो उतार दिया लेकिन कार्यकर्ताओं की नाराज़गी के कारण पार्टी शायद पहले से ही इस सीट को हारी हुई मान कर चल रही है। तभी तो राहुल गाँधी की नागपुर में हुई रैली में वे गडकरी को निशाना बनाने से बचते रहे। उन्होंने अम्बानी, मोदी, राफेल सबका नाम लिया लेकिन गडकरी पर हमला करने से बचते रहे। नागपुर से देश के छह बड़े शहरों में विमान सेवाएँ मुहैया कराने का वादा कर के गडकरी ने राहुल की बोलती बंद कर दी।

नितिन गडकरी ने अनोखी पहल करते हुए अपने क्षेत्र के लिए ‘वचननामा’ जारी किया है। इसमें क्षेत्र में एक और मेडिकल कॉलेज खोलने से लेकर ग़रीबों का कैंसर व हृदयरोग का मुफ़्त में इलाज कराने की बात कही गई है। रेलमार्ग, नई ट्रेनें, विमानतल का विस्तार सहित कई सुविधाओं के साथ मेट्रो शहर नागपुर व आसपास के क्षेत्र को वर्ल्ड क्लास बनाने का वादा किया गया है। गडकरी के इस वचननामे से विपक्ष चित है और उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गडकरी ने स्वदेशी मॉल विकसित करने की बात कह स्थानीय महिलाओं व कामगारों में उम्मीद की एक नई किरण जगाई है। अब देखना यह है कि विपक्ष इस क्षेत्र में गडकरी को तोड़ ढूँढ पाता है भी या नहीं?

देश की अखंडता को हज़ार खतरे हैं साहब! बंद कीजिए ‘अहीर-चमार’ रेजीमेंट बनाने की लड़ाई

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने शुक्रवार(अप्रैल 5, 2019) को अपनी पार्टी का घोषणा पत्र जारी किया। इसमें उन्होंने चुनाव जीतने पर अहीर रेजीमेंट बनाने का वादा किया है। जिसके बाद भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर रावण ने उनपर जमकर निशाना साधा। दरअसल, चंद्रशेखर ने अखिलेश की अहीर बख्तरबंद रेजीमेंट और गुजरात इन्फैंट्री वाले बिंदु को आधार बनाकर कहा कि अखिलेश ने अपनी पार्टी के घोषणा पत्र में अहीर रेजीमेंट बनाने का वादा किया है, लेकिन वो चमार रेजीमेंट बनाना भूल गए हैं।

चंद्रशेखर ने 7 अप्रैल को ट्वीट करते हुए कहा, “अखिलेश यादव जी आपको अहीर रेजिमेंट तो याद रही परंतु चमार रेजिमेंट को भूल गए, जबकि हम काफी समय से चमार रेजिमेंट को बहाल करने की माँग कर रहे हैं। अभी से हमारे समाज की अनदेखी करना शुरू कर दिया है। प्रमोशन में रिजर्वेशन बिल पर भी आपने अबतक जुबान नहीं खोली है।”

सपा और बसपा में हुए गठबंधन के बाद एक तरफ जहाँ चंद्रशेखर रावण कई मौकों पर खुद को मायावती का बेटा बताते रहे हैं, वहीं सपा से उनका मनमुटाव समय-समय पर देखने को मिलता रहा है। हाल ही में अखिलेश और मुलायम सिंह को वह बीजेपी का एजेंट तक बता चुके हैं। इस छींटाकशी का कोई अंत नहीं है क्योंकि एक बार तो चंद्रशेखर रावण मायावती को मनुवादी भी बता चुके हैं

ऐसी परिस्थितियों में कहना गलत नहीं होगा कि इस समय पूरे विपक्ष की हालत एक जैसी हो चुकी है। सब भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए लुभावने वादे कर रहे हैं। कॉन्ग्रेस का हाल हम उसके घोषणा पत्र में देख ही चुके हैं। अब अखिलेश, मायावती और चंद्रशेखर की राजनीति भी उनपर सवालिया निशान लगा रही है। एक तरफ जहाँ सरकार ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देकर देश को एकजुट करने का प्रयास कर रही है, वहीं ये नेता देश में अलग-अलग जातियों की रेजीमेंट बनाने को चुनावी मुद्दा मानकर बैठे हुए हैं।

दलितों के उत्थान पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये लोग आज जातिवाद को खत्म करने की जगह पर जातियों को पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। यकीनन आजादी से पहले बाद के भारत में दलितों को ‘दलित’ बताकर पहचान दिलाने के लिए ऐसे ही राजनेता जिम्मेदार हैं, जो जाति को आधार बनाकर राजनीति करते नहीं थकते। यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि भारतीय सेना में रेजिमेंट सिस्टम अंग्रेज़ों का बनाया हुआ है। अंग्रेज़ों ने कुछ क्षेत्रों और जातियों के लोगों को ‘मार्शल कास्ट’ घोषित किया था। ब्रिटिश अधिकारी नस्लभेदी विचारधारा से ग्रसित होते थे इसीलिए कुछ क्षेत्र विशेष या जाति के लोगों के प्रति उनकी यह धारणा थी कि उस जाति के लोगों का जन्म युद्ध लड़ने के लिए ही हुआ है।

क्षेत्र और जाति विशेष के आधार पर ही अंग्रेज़ों ने सेना की इन्फैंट्री में रेजिमेंट बनाई थी। आज की भारतीय सेना एक मॉडर्न फ़ोर्स है और वह उस पुरातन औपनिवेशिक अवधारणा में विश्वास नहीं करती। हालाँकि रेजीमेंट सिस्टम आज भी हैं और प्रत्येक रेजिमेंट का अपना गौरवशाली इतिहास है। लेकिन यह भी सत्य है कि सेना में देश के प्रत्येक क्षेत्र या जातीय समुदाय की अपनी अलग रेजिमेंट नहीं है। और यदि किसी क्षेत्र या जाति के नाम पर रेजिमेंट नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस क्षेत्र अथवा जाति, समुदाय, पंथ के लोग हीन हैं। वास्तव में स्वतंत्रता के बाद भारतीय सेना ने यह निर्णय लिया था कि रेजिमेंट का नाम किसी क्षेत्र या समुदाय के नाम पर नहीं रखा जाएगा।