Wednesday, October 9, 2024
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#महाशिवरात्रि का रहस्य: मंदिर या शिवाला में नहीं बल्कि यहाँ और ऐसे मिलेंगे भोलेनाथ

आध्यात्मिक रूप से ख़ुद को जागृत करने की रात, महाशिवरात्रि अर्थात शिव की विशेष कृपा की रात। इस वर्ष सोमवार 4 मार्च 2019 को है। वैसे तो हर चंद्र मास का चौदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का दिन शिवरात्रि होती है। एक कैलेंडर वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों में से, महाशिवरात्रि, को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जो हर वर्ष फरवरी-मार्च माह में आती है। इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य के भीतर ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर उठती है।

जब भी भारतीय सनातन संस्कृति की बात होगी तो वह बात उत्सवों के बिना अधूरी होगी। किसी समय, भारतीय संस्कृति में, एक वर्ष में 365 त्योहार हुआ करते थे। अर्थात वे साल के प्रति दिन, कोई न कोई उत्सव मनाने का बहाना खोजते थे। जीवन का पर्याय ही उत्सव था। हर कार्य के गीत हुआ करते थे। ये सभी उत्सव कर्म बोध से जुड़े थे, 365 त्योहार के पीछे कोई न कोई कारण जीवन के विविध उद्देश्यों से जुड़े ढूँढ लिए गए थे। इन्हें विविध ऐतिहासिक घटनाओं, विजय तथा जीवन की कुछ अवस्थाओं जैसे फसल की बुआई, रोपाई और कटाई आदि से जोड़ा गया था।

जीवन की हर अवस्था और हर परिस्थिति के लिए हमारे पास एक त्योहार था। कालांतर में नाहक व्यस्तता बढ़ती गई, या हमने खुद को इतना व्यस्त कर लिया कि ख़ुद से ही दूर होते गए और जीवन अपनी सहज-स्फूर्त गति खोकर, हमारे अपने ही जाल में घुटने लगी। अब हम इतने व्यस्त हैं कि अपने हर अनुभव के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। हम हर छोटी-बड़ी जानकारी कहीं और से हासिल करना चाहते हैं कि यह कैसा है?

महाशिवरात्रि आपको अपने बोध से परिचय कराने की रात्रि है। योग परम्परा के अनुसार बात की जाए तो ख़ुद को अस्तित्व से जोड़ लेने की रात। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति स्वयं मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है।

इस समय का उपयोग करने के लिए, सनातन परंपरा में, पहले पूरी रात उत्सव मनाते थे और आज भी यह परम्परा बरक़रार है। ख़ासतौर से दक्षिण भारत और काशी में, महाशिवरात्रि का उत्सव पूरी रात चलता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने और ऊपर उठने का पूरा अवसर मिले। आप अगर ध्यान और योग की परंपरा से नहीं भी जुड़े हैं तो भी बस अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए, पूरी रात का जागरण भी आपके अनुभव में अध्यात्म की अलख जगा सकती है।

महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व तो रखती ही है। यह उनके लिए भी अति महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक परिस्थितियों में हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं।

परंतु, साधकों के लिए, महाशिवरात्रि वह दिन है, जिस दिन शिव कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भाँति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यहाँ यह जानना ज़रूरी है, यौगिक परंपरा में, शिव को किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता। उन्हें आदि गुरु माना जाता है, पहले गुरु, जिनसे ज्ञान उपजा। ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के पश्चात्, एक दिन वे पूर्ण रूप से स्थिर हो गए। वही दिन महाशिवरात्रि का था। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं।

आधुनिक विज्ञान अनेक चरणों से होते हुए, आज उस बिंदु पर पहुँच चुका है, जहाँ वैज्ञानिकों ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि हम जिसे भी जीवन के रूप में जानते हैं, पदार्थ और अस्तित्व के रूप में जानते हैं, जिसे हम ब्रह्माण्ड और तारामंडल के रूप में जानते हैं; वह सब केवल एक ऊर्जा है, जो स्वयं को लाखों-करोड़ों रूपों में प्रकट करती है।

कैलाश पर्वत
वर्तमान में कैलाश पर्वत को ही शिव का प्रतीक माना जाता है।

यौगिक विज्ञान में, सनातन परम्परा में, यह वैज्ञानिक तथ्य प्रत्येक योगी के लिए एक अनुभव से उपजा सत्य है। यहाँ ‘योगी’ शब्द से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जिसने अस्तित्व की एकात्मकता को जान लिया है। जब ‘योग’ की बात होती है तो इसका तात्पर्य कोई विशेष अभ्यास या तंत्र नहीं। ब्रह्माण्ड के इस असीम विस्तार को तथा अस्तित्व में एकात्म भाव को जानने की सारी चाह, योग है। महाशिवारात्रि की रात, इसी अनुभव को पाने का परम अवसर है।

शिवरात्रि माह का सबसे अंधकारपूर्ण रात्रि होती है। प्रत्येक माह शिवरात्रि का उत्सव तथा महाशिवरात्रि का उत्सव मनाना ऐसा लगता है मानो हम अंधकार का उत्सव मना रहे हों। कोई तर्कशील मन अंधकार को नकारते हुए, प्रकाश को सहज भाव से चुनना चाहेगा।

परंतु शिव का शाब्दिक अर्थ ही यही है, ‘जो नहीं है’। ‘जो है’, वह अस्तित्व और सृजन है। ‘जो नहीं है’, वह शिव है। ‘जो नहीं है’, उसका अर्थ है, अगर आप अपनी आँखें खोल कर आसपास देखें और आपके पास सूक्ष्म दृष्टि है तो आप बहुत सारी रचना देख सकेंगे। अगर आपकी दृष्टि केवल विशाल वस्तुओं पर जाती है, तो आप देखेंगे कि विशालतम शून्य ही, अस्तित्व की सबसे बड़ी उपस्थिति है।

कुछ ऐसे बिंदु, जिन्हें हम आकाशगंगा कहते हैं, वे तो दिखाई देते हैं, परंतु उन्हें थामे रहने वाली विशाल शून्यता सभी लोगों को दिखाई नहीं देती। इस विस्तार, इस असीम रिक्तता को ही शिव कहा जाता है। वर्तमान में, आधुनिक विज्ञान ने भी साबित कर दिया है कि सब कुछ शून्य से ही उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाता है। इसी संदर्भ में शिव यानी विशाल रिक्तता या शून्यता को ही महादेव के रूप में जाना जाता है।

इस ग्रह के प्रत्येक धर्म व संस्कृति में, सदा दिव्यता की सर्वव्यापी प्रकृति की बात की जाती रही है। यदि हम इसे देखें, तो ऐसी एकमात्र चीज़ जो सही मायनों में सर्वव्यापी हो सकती है, ऐसी वस्तु जो हर स्थान पर उपस्थित हो सकती है, वह केवल अंधकार, शून्यता या रिक्तता ही है। सामान्यतः, जब लोग अपना कल्याण चाहते हैं, तो हम उस दिव्य को प्रकाश के रूप में दर्शाते हैं। जब लोग अपने कल्याण से ऊपर उठ कर, अपने जीवन से परे जाने पर, विलीन होने पर ध्यान देते हैं और उनकी उपासना और साधना का उद्देश्य विलयन ही हो, तो हम सदा उनके लिए दिव्यता को अंधकार के रूप में परिभाषित करते हैं।

प्रकाश आपके मन की एक छोटी सी घटना है। प्रकाश शाश्वत नहीं है, यह सदा से एक सीमित संभावना है क्योंकि यह घट कर समाप्त हो जाती है। हम जानते हैं कि इस ग्रह पर सूर्य प्रकाश का सबसे बड़ा स्त्रोत है। यहाँ तक कि आप हाथ से इसके प्रकाश को रोक कर भी, अंधेरे की परछाईं बना सकते हैं। परंतु अंधकार सर्वव्यापी है, यह हर जगह उपस्थित है।

सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं कि संसार के अपरिपक्व मस्तिष्कों ने सदा अंधकार को एक शैतान के रूप में चित्रित किया है। पर जब आप दिव्य शक्ति को सर्वव्यापी कहते हैं, तो आप स्पष्ट रूप से इसे अंधकार कह रहे होते हैं, क्योंकि सिर्फ अंधकार सर्वव्यापी है। यह हर ओर है। इसे किसी के भी सहारे की आवश्यकता नहीं है। प्रकाश सदा किसी ऐसे स्त्रोत से आता है, जो स्वयं को जला रहा हो। इसका एक आरंभ व अंत होता है। यह सदा सीमित स्रोत से आता है।

अंधकार का कोई स्रोत नहीं है। यह अपने-आप में एक स्रोत है। यह सर्वत्र उपस्थित है। तो जब हम शिव कहते हैं, तब हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता की ओर होता है। इसी रिक्तता की गोद में सारा सृजन घटता है। रिक्तता की इसी गोद को हम शिव कहते हैं। भारतीय संस्कृति में, सारी प्राचीन प्रार्थनाएँ केवल आपको बचाने या आपकी बेहतरी के संदर्भ में नहीं थीं। सारी प्राचीन प्रार्थनाएँ कहती हैं, “हे ईश्वर, मुझे नष्ट कर दो ताकि मैं आपके समान हो जाऊँ। तो जब हम शिवरात्रि कहते हैं जो कि माह का सबसे अंधकारपूर्ण रात है, तो यह एक ऐसा अवसर होता है कि व्यक्ति अपनी सीमितता को विसर्जित कर के, सृजन के उस असीम स्रोत का अनुभव करे, जो प्रत्येक मनुष्य में बीज रूप में उपिस्थत है।

महाशिवरात्रि एक अवसर और संभावना है, जब आप स्वयं को, हर मनुष्य के भीतर बसी असीम रिक्तता के अनुभव से जोड़ सकते हैं, जो कि सारे सृजन का स्रोत है। एक ओर शिव संहारक कहलाते हैं और दूसरी ओर वे सबसे अधिक करुणामयी भी हैं। वे बहुत ही उदार दाता हैं। यौगिक गाथाओं में वे, अनेक स्थानों पर महाकरुणामयी के रूप में सामने आते हैं। उनकी करुणा के रूप विलक्षण और अद्भुत रहे हैं।

इस प्रकार महाशिवरात्रि-2019 कुछ ग्रहण करने के लिए भी एक विशेष रात्रि है। इस रात में कम से कम एक क्षण के लिए उस असीम विस्तार का अनुभव करें, जिसे हम शिव कहते हैं। यह केवल एक नींद से जागते रहने की रात भर न रह जाए, यह आपके लिए जागरण की रात्रि होनी चाहिए, चेतना व जागरूकता से भरी एक रात!

नफ़रतों के तीर खा कर, दोस्तों के शहर में, हमने आपातकाल पुकारा (भाग 1)

शायरी से शुरू करने पर लोगों को लगता है कि लेजिटिमेसी की पहली सीढ़ी चढ़ ली, और लोग सीरियसली लेंगे बातों को। उसके बाद एक घंटे चार मिनट तक आप लगातार ऐसी-ऐसी बातें कहते हैं, जो हर बार अपने आप को ही गलत साबित करने जैसा होता है। 

कुछ ऐसे ही शुरू हुआ प्रोपेगेंडा पोर्टल ‘द वायर’ का एक इवेंट जिसमें पत्रकारिता की लाज बचाने में लगे रवीश कुमार के हाथ से लगातार साड़ी का कपड़ा निकलता जा रहा था। जो सभा में बैठे सुधिजन थे, वो ‘आह रवीश जी, वाह रवीश जी’ किए जा रहे थे। इस पूरे इवेंट में हुई चर्चा के दौरान रवीश जी ने कई बातों पर बात रखी, पर हमने कुल 38 बिंदु इकट्ठे किए जिसका विडियो यहाँ देखा जा सकता है।

शुरू हुई बात कि देश में ‘नफ़रतों का सैलाब’ आ गया है, और मीडिया इसमें लगातार अपना योगदान दे रही है। भाषा खराब हो चुकी है, और क्लास, कंटेंट का फ़र्क़ मिट गया है। ‘नफ़रत’, ‘डर का माहौल’, ‘भय’, ‘आपातकाल’ आदि वो जुमले हैं जिन्हें रवीश जी ने इतना बोला है, इतनी बार बोला है कि लोगों के लिए ये भारी-भरकम शब्द आम हो गए हैं। जबकि, ये शब्द आम नहीं होने चाहिए। क्योंकि जब ऐसे शब्द आम हो जाते हैं, तो फिर सही मौक़े पर इस्तेमाल करते हुए आप उस पूरी घटना को छोटा बना देते हैं, लोग गम्भीरता से नहीं लेते। 

जहाँ तक मीडिया में कंटेंट और क्लास के मिटने की बात है तो मेरे हिसाब से ये बेहतर ही हुआ है। एक समय तक अंग्रेज़ी मीडिया ने पोलिटिकल और सोशल चर्चा पर अपनी कैंसर जैसी पकड़ बना रखी थी। अंग्रेज़ी छोड़ भी दें, तो कुछ मठाधीश एक जगह से बोल या लिख देते थे, वही अविरल धारा बहती रहती थी। न कोई सवाल करने वाला, न जवाब देने की ज़रूरत। अब वो ‘क्लास’ खत्म हो चुका है, अब कोई भी सवाल पूछता है, फ़ीडबैक देता है, जो कई पत्रकारों को चुभने लगा है। 

रवीश जी आगे अर्णब का नाम लिए बग़ैर यह बताने लगे कि हिन्दी वालों को अंग्रेज़ी के मालिक चलाते हैं, और अंग्रेज़ी वालों को ‘सुप्रीम लीडर’ से आदेश आते हैं। आगे उन्होंने क्लियर किया कि उनका इशारा मोदी की ही तरफ था, और वो नाम लेने से नहीं चूके। पत्रकारिता में आप कुछ भी कहते हैं तो उसके प्रमाण आपके पास होने चाहिए, लेकिन आज के दौर में लोग लांछन लगाकर भागने में महारत हासिल कर चुके हैं। 

पहली बात, ‘सुप्रीम लीडर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल एक जन प्रतिनिधि के लिए करना, बताता है कि इनके दिमाग में अवसाद का स्तर कितना ऊपर पहुँच चुका है। इन दो शब्दों से रवीश कुमार ने देश के उन करोड़ों लोगों का अपमान किया है जिसने मोदी को प्रधानमंत्री चुना है। आपने दो शब्दों से उसे तानाशाह बना दिया! ये एक सामंतवादी सोच है कि आप जो कहें, वही सही। लेकिन रवीश कुमार को सर्टिफ़िकेट बाँटने का हक़ किसने दिया? उनकी इस सोच का आधार उनके विचार हैं, जो ड्राइंग रूम डिस्कशन तक तो ठीक हैं लेकिन पब्लिक स्पेस में इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए, रवीश ने अपनी ही बात को काटा है, जहाँ वो आगे ये कहते नज़र आए कि मीडिया में भाषा का स्तर गिर रहा है। 

रवीश जी, पॉलिश्ड शब्द बोलने से भाषा का स्तर नहीं उठता। आंचलिक शब्द या सड़क के शब्द भी संदर्भ में मर्यादित लगते हैं, और अंग्रेज़ी के विशेषण भी संदर्भ पाकर घटिया हो जाते हैं। एक पत्रकार ये बात जानता है, इसलिए वो आराम से अपने विचारों को उन पर थोप देता है जिन्हें इस बात की समझ नहीं है। 

आगे रवीश कुमार ने प्रोपेगेंडा पर बात की, जो कि हास्यास्पद है। जिन पोर्टलों और चैनलों के ये हिमायती हैं, वो सबसे ज़्यादा प्रोपेगेंडा फैलाने में व्यस्त रहता है। चुनावों के समय जस्टिस लोया पर तथाकथित खोजी पत्रकारिता हो जाती है, अमित शाह के बेटे पर स्टोरी की जाती है, अजित डोभाल के बेटों पर काले धन का मामला फेंका जाता है, लेकिन साबित कुछ नहीं हो पाता। कोर्ट में मानहानि का दावा आते ही ‘प्रेस फ़्रीडम’ की डुगडुगी बजने लगती है। 

प्रेस फ़्रीडम वन-वे स्ट्रीट नहीं है। फ़्रीडम के साथ ज़िम्मेदारी भी आती है कि आप जो बोल और लिख रहे हैं, उस पर बने रहिए। उसके लिए आपके पास तथ्य होने चाहिए, उसका फॉलोअप करते रहिए। लेकिन रवीश कुमार ने जिन-जिन संस्थानों का नाम लेकर ‘छोटी संस्थाओं ने ही बड़ी खबरें ब्रेक की हैं’ कहा, वो सारी खबरें झूठ साबित हुईं और इनके पत्रकार महज़ कहानी गढ़ने के, एक भी फॉलोअप नहीं कर सके। 

सरकार को घेर लेना कि ‘सरकार डरा रही है लिखने से’, बहुत आसान है अपने आप को विक्टिम की तरह पेश कर देना। हालाँकि, उससे साबित कुछ नहीं होता। पत्रकारिता निर्भीकतापूर्वक की जाती है, नहीं कर सकते तो सो जाइए। लेकिन हाँ, फर्जी के आरोप मत लगाइए कि सराकर डरा रही है। डरा रही है, तो आप मत डरिए, आप अपनी स्टोरी कीजिए और आगे बढ़िए। सबूत होंगे तो देश का सुप्रीम कोर्ट चार बजे सुबह में भी खुलता है, आतंकियों के लिए। आप तो फिर भी पत्रकार हैं! 

अपनी चर्चा के अगले हिस्से में रवीश जी ने पुरानी लाइन और लेंथ बरक़रार रखते हुए कहा कि ‘नागरिकता, धार्मिकता, लोकतांत्रिकता की बुनियाद पर हमले हो रहे हैं’। इसकी बात करते हुए कहा गया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम किया जा रहा है, मुस्लिमों में भय है आदि। पुरानी बातें जिसका कोई भी आधार नहीं है। सामाजिक झड़पें और सीट की लड़ाई को इसी रवीश कुमार ने बीफ से जोड़ा था। जब जाँच रिपोर्ट सामने आ गई तो आज तक माफ़ी नहीं माँग पाए हैं। 

आरोप लगाने में माहिर, लेकिन एक भी सबूत न देने वाले रवीश जी ने बताया कि समुदाय विशेष को पब्लिक और पोलिटिकल स्पेस से बाहर ढकेल दिया गया है। ये आरोप भी निराधार ही है। इसे विडम्बना कहिए या कुछ और, लेकिन भाजपा सरकार ने समुदाय विशेष के लिए पोलिटिकली जितना किया है, उतना किसी और सरकार ने शायद ही किया हो। दशकों से मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी घटिया, बेकार और अमानवीय प्रथाओं के चंगुल से बाहर निकालने की पहल इसी सरकार ने की। 

इसी सरकार ने आरक्षण का दायरा बढ़ाकर उसमें हर धर्म के वंचितों को जगह दिया। भले ही रवीश कुमार और उनका गिरोह ‘वो तो टोपी नहीं पहनता’ पर टिके रहें, लेकिन सत्य यही है कि मेट्रो ट्रेन पर मुस्लिम भी मोदी से मुस्कुराकर मिलता है, बातें करता जाता है। पब्लिक स्पेस से ढकेलने का काम तो मुस्लिमों के हिमायती पार्टियों ने किया है जिन्होंने इनके ‘एकमुश्त’ वोटों का प्रयोग तो खूब किया, लेकिन उनकी ज़िंदगी सुधारने के लिए एक भी क़दम नहीं उठाए जो योजना के नाम से बेहतर हो। 

इसी लेख की दूसरी कड़ी (भाग 2) में हम बात करेंगे कि कैसे ‘हम ही सही काम कर रहे हैं, बाकी पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं’ के मुग़ालते में रहने वाले रवीश जी को स्वनामधन्यता की ख़ुमारी से बाहर आना चाहिए और ये समझना चाहिए कि उनके यह कहने से कि ‘सवाल पूछने से रोका जा रहा है’, ‘आप तक सूचना पहुँचने ही नहीं दी जाती’, ‘दर्शकों को समर्थक बनाया जा रहा है’, ‘अब इन्फ़ॉर्मेशन की जगह परसेप्शन दिया जा रहा है’ आदि से ये बातें सही नहीं हो जातीं।

भाजपा की विजय संकल्प बाइक रैली को रोकने के लिए ममता की पुलिस ने किया लाठी चार्ज, कई घायल

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पुलिस ने रविवार को राज्य के मिदनापुर जिले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा शुरू की गई ‘विजय संकल्प बाइक रैली’ को रोकने के लिए लाठीचार्ज का सहारा लिया। बाइक रैली कैडर को सक्रिय करने और देश भर में हर संसदीय क्षेत्र में पार्टी की पहुँच को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से भाजपा के चुनाव पूर्व अभियान का हिस्सा है।

खबरों के अनुसार, पश्चिम बंगाल पुलिस ने बोर्ड परीक्षा और ट्रैफिक के मुद्दों का हवाला देते हुए रैली करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था, फिर भी राज्य के भाजपा नेता रैली निकाल रहे थे। हालाँकि यह पहली बार नहीं है जब ममता बनर्जी किसी बहाने की आड़ लेकर बीजेपी को बाइक रैली की अनुमति देने से इनकार किया हो, इसके पहले भी वह शीर्ष बीजेपी नेताओं को भी बंगाल में लैंड करने एवं रैली की अनुमति देने से इनकार कर चुकी हैं।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, रैली की अनुमति देने से इनकार किए जाने के बाद, जगह-जगह बैरिकेड्स लगाकर पुलिस ने रैली को रोकने की कोशिश की। जब भाजपा कार्यकर्ताओं ने मिदनापुर में रैली के दौरान बैरिकेड्स तोड़ आगे बढ़ने की कोशिश की तो ममता बनर्जी की पुलिस ने भाजपा कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज कर दिया। इस लाठी चार्ज में कई बीजेपी कार्यकर्ता घायल बताए जा रहे हैं।

इससे पहले भी, ममता बनर्जी ने राज्य में कानून और व्यवस्था संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए भाजपा को 42 निर्वाचन क्षेत्रों में रैलियाँ करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया है।

महाभारत में उत्तर-पूर्व भारत

अगर आप उत्तर-पूर्व भारत की महाभारत में चर्चा के बारे में जानना चाहते हैं तो इसके लिए आपको गर्दन को थोड़ी सी दाएंँ-बाएंँ भी घुमानी होगी। आम तौर पर इस चर्चा में कुछ नहीं कहा जाता है, क्योंकि चर्चा करने पर महाभारत को कहीं विदेश से आए आर्य हमलावरों का ग्रन्थ सिद्ध करने में दिक्कत होगी। ऐसी ही वजहों से तरह-तरह की अफवाहों के जरिए भारतीय लोगों को उनका अपना ही महाकाव्य पढ़ने से भी हतोत्साहित किया जाता है। जो इतना काफी नहीं था तो हा हुसैनी हिन्दुओं की बढ़ती आबादी तो कामचोरी के करेले को नीम पर चढ़ा ही देती है।

करीब दो सौ साल पहले अरुणाचल प्रदेश में आई ब्लाक नाम के खोजी को एक किले के खंडहर मिल गए थे। सन 1848 में मिले इन खंडहरों पर काफी बाद (1965-70) में खुदाई करके पुरातत्व विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि ये कम से कम दूसरी शताब्दी के काल के तो हैं ही। दो हजार साल से ज्यादा पुराने ये अवशेष जिस इलाके में हैं, उसे भीष्मकनगर कहा जाता है। राजा भीष्मक का नाम ऐसे याद आना थोड़ा मुश्किल होगा। इनके सुपुत्र उन दो महारथियों में से एक थे, जो महाभारत के युद्ध में नहीं लड़े थे।

राजा भीष्मक के पुत्र थे रुक्मी। श्री कृष्ण के सम्बन्धी होने के कारण दुर्योधन ने उन्हें अपने पक्ष में नहीं लिया था और रुक्मी पहले दुर्योधन के पक्ष में शामिल होने गए थे, तो श्री कृष्ण ने उन्हें पांडवों के पक्ष में भी लेने से मना कर दिया था। भारत के पश्चिमी सिरे पर कहीं माने जाने वाले द्वारका के द्वारकाधीश की पत्नी रुक्मणी आज के अरुणाचल माने जाने वाले पूर्वी कोने के राजा भीष्मक की पुत्री थी। रुक्मणी और भीष्मक का जिक्र महाभारत के आदि पर्व में सड़सठवें अध्याय में मिल जाएगा। इसके पास के ही एक दूसरे राज्य मेघालय के लिए मान्यता थी कि उस पर पार्वती का शाप था। शाप के कारण यहाँ की युवतियों को विवाह के लिए पुरुष नहीं मिलते थे।

इस शाप का मोचन अर्जुन के इस क्षेत्र में आने पर होना था। महाभारत काल में चूँकि जमीन या सत्ता हथियाने की लड़ाई तो थी नहीं, इसलिए महाभारत के 18 दिन वाले धर्मयुद्ध में भी किसी हारे हुए राजा का राज्य नहीं हड़पा गया था। चक्रवर्ती के तौर पर युधिष्ठिर को स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ के दौरान जब अर्जुन मेघालय के क्षेत्र में पहुंचे तब इस शाप का विमोचन हुआ था। इसका जि़क्र महाभारत में प्रमिला के रूप में आता है और यहाँ की राजकुमारी प्रमिला का विवाह अर्जुन से हुआ था। राजकुमारी प्रमिला, चित्रांगदा या उलूपी की तरह अपने राज्य में ही नहीं रहती थीं, वो अर्जुन के पास हस्तिनापुर चली गई थीं।

ये कहानी जैमिनी महाभारत के अश्वमेध पर्व में मिलती है और दर्शन के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। देखने की तीन अवस्थाओं को उनमीलन, निमीलन, और प्रमिलन कहते हैं। जब आँखें बंद हों और केवल कल्पना से मस्तिष्क प्रारूप बना ले, वो पलक बंद की अवस्था उनमीलन, थोड़ी खुली पलकों से सिर्फ उतना ही देखना जितना आप चाहते हैं, या जो पसंद है उसे निमीलन कहते हैं और पूरी तरह खुली आँखों से देखने को प्रमिलन। श्री कृष्ण के साथ ना होने पर जैसे अर्जुन का बल और गाण्डीव की क्षमता क्षीण होने के लिए एक गोपियों का प्रसंग आता है। वैसे ही ये हिस्सा भी कभी-कभी सुनाया जाता है। श्रीकृष्ण के बिना उसकी क्षमता कुछ नहीं, ये समझने में “आँखें खुलना” यानि प्रमिला की कहानी। हाँ, हो सकता है कि प्रमिला आज के मेघालय की थी ये ना बताते हों।

असम को पहले प्रागज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था और यहाँ के कामाख्या मंदिर को जाने वाली अधूरी बनी सीढ़ियों की कहानी नरकासुर से जोड़ी जाती है। नरकासुर का बेटा उसके बाद यहाँ से शासन करता था। कलिकापुराण और विष्णुपुराण में यही जगह कामरूप नाम से जानी जाने लगती है। महाभारत में नरकासुर के बेटे का जि़क्र आता है, उसका नाम भगदत्त था और हाथियों की सेना के साथ वो कौरवों के पक्ष से लड़ा था। नरकासुर हमेशा से दुष्ट नहीं था, माना जाता है कि वो बाणासुर की संगत में बिगड़ गया था। बाणासुर की राजधानी गौहाटी से थोड़ी दूर तेजपुर के इलाके में है।

इस क्षेत्र को शोणितपुर कहा जाता था और बाणासुर यहीं से शासन करता था। उसकी पुत्री उषा को श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध से प्रेम था। मान्यताओं के हिसाब से जहाँ उषा-अनिरुद्ध मिला करते थे, वो जगह भी तेजपुर में ही है। बाणासुर शिव का बड़ा भक्त था और उषा से मिलने आए अनिरुद्ध को उसने पकड़ लिया था। जब उसे छुड़ाने श्रीकृष्ण आए तो बाणासुर को बचाने शिव आए। जिस प्रसिद्ध से हरी-हर संग्राम का कभी कभी जि़क्र सुना होगा, वो इसी वजह से हुआ था। श्री हरी विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण और हर अर्थात शिव के इस संग्राम को रोकने के लिए ब्रह्मा को बीच-बचाव करना पड़ा था।

श्री कृष्ण पांडवों और कौरवों से जुड़ी इतनी कहानियों में अभी हमने इरावन, बभ्रुवाहन, उलूपी और चित्रांगदा की कहानियाँ नहीं जोड़ी हैं। वो थोड़ी ज्यादा प्रसिद्ध हैं, इसलिए हम मान लेते हैं कि उन्हें ज्यादातर लोगों ने सुना होगा। भीम की पत्नी हिडिम्बा की कथाओं को भी इसी क्षेत्र से जोड़ा जाता है। महाभारत काल तक ये क्षेत्र किरात और नागों का क्षेत्र माना जाता था। परशुराम के इस क्षेत्र में जाने-रहने का जिक्र है। जैसे दक्षिण भारत के कलारिपयाट्टू का प्रवर्तक परशुराम को माना जाता है, वैसे ही इस क्षेत्र की शस्त्र-कलाओं से भी उनकी किंवदंतियां जुड़ी मिल सकती हैं।

आज जरूर हाथी दक्षिण भारत के मंदिरों से जुड़े महसूस होते हों लेकिन लम्बे समय तक हाथियों की पीठ पर से लड़ने के लिए पूर्वोत्तर का क्षेत्र ही जाना जाता रहा है। हाल के अमीश त्रिपाठी के मिथकीय उपन्यासों में भी ऐसा ही जि़क्र आता है। जीवों का अध्ययन करने वाले मानते हैं कि पहले भारत में सिर्फ शेर होते थे। बाद में पूर्वोत्तर की ओर से ही भारत में बाघ आए। इस सिलसिले में ये भी गौर करने लायक होगा कि महाभारत में दुर्योधन की उपमा के तौर पर नरव्याघ्र भी सुनाई देता है। दिनकर की रश्मिरथी में भी एक वाक्य है “क्षमा, दया, तप त्याग मनोबल सबका लिया सहारा, पर नरव्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?”

महाभारत पढ़ते समय आप इस पर भी अचंभित हो सकते हैं कि जब लगातार विद्रोह होते रहे, लड़ाइयाँ लगातार चलती रहीं, तो भारतीय विदेशी हमलावरों के गुलाम कब और क्यों माने गए? आखिर पूरी तरह हम हारे कब थे? और हाँ, प्रतिरोध की सबसे लम्बी परम्परा होने, पूर्व की ओर बढ़ते रेगिस्तानी लुटेरों, उपनिवेशवादियों, मजहबों को राजनैतिक विचारधारा का नकाब पहनाए आक्रमणकारियों के खिलाफ सबसे लम्बी आजादी की लड़ाई जारी रखने वाली गौरवशाली सभ्यता होने पर गर्व करना तो बनता ही है!

मारा गया जैश-ए-मुहम्मद चीफ मसूद अजहर, #Balakot में मौजूद था वह जब IAF का गिरा था बम: रिपोर्ट्स

वैश्विक स्तर पर पाकिस्तान की किरकिरी के बीच बड़ी खबर यह है कि आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद का सरगना मसूद अजहर की मौत हो गई है। मीडिया रिपोर्ट से मिली जानकारी के अनुसार उसकी 2 मार्च 2019 को ही मौत हो गई थी। अभी तक किसी भी मीडिया हाउस ने इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं की है। बताया यह भी जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना की अनुमति के बाद ही मसूद की मौत की आधिकारिक घोषणा की जाएगी।

हाल ही में CNN को दिए एक इंटरव्यू में पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने कहा था,  “जितना मेरी जानकारी है वह काफी बीमार है। वह इतना बीमार है कि वह घर से बाहर नहीं जा सकता।”

ज्ञात हो कि भारतीय वायुसेना सेना ने 26 फरवरी को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी शिविरों और लॉन्च पैड्स को तबाह कर दिया था। इसके दो दिन बाद ही खूंखार आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद के संस्थापक मसूद अजहर के गुर्दे खराब होने की खबरें लगातार सामने आ रही थीं। वहीं, कुछ मीडिया रिपोर्टस् में दावा किया गया है कि मसूद अजहर की मौत हो चुकी है। कहा जा रहा है कि सेना की एयर स्ट्राइक के दौरान मसूज अजहर आतंकी शिविर में ही मौजूद था।

यह भी कहा जा रहा है कि मसूद अजहर एयर स्ट्राइक के दौरान आतंकी शिविर में सो रहा था। मीडिया रिपोर्टस् के अनुसार, पाकिस्तान के रावलपिंडी के एक सैन्य अस्पताल में उसकी मौत हो गई है।

बता दें कि भारतीय सेना ने इस एयर स्ट्राइक में मिराज-2000 लड़ाकू विमान का प्रयोग किया था। एयर स्ट्राइक दौरान भारतीय वायुसेना ने PoK और बालाकोट में लगभग 1000 किलो बम की बरसात की थी। मीडिया रिपोर्ट में यह भी दावा किया जा रहा है कि मसूद के साथ ही आईएसआई का कर्नल सलीम भी मारा गया है।

जो भी हो जब तक आधिकारिक सच्चाई सामने नहीं आ जाती तब तक कुछ भी मान लेना जल्दबाजी होगी। विभिन्न मीडिया संस्थान पाकिस्तान की तरफ से इसकी आधिकारिक पुष्टि के लिए टकटकी लगाए हुए हैं।

पाक से गोलाबारी की काट: पुंछ व राजौरी में बनेंगे 400 अतिरिक्त बंकर, प्रशासन ने दी मंजूरी

भारतीय वायु सेना की तरफ से किए गए एयर स्ट्राइक से बौखलाया पाक लगातार सीजफायर का उल्लंघन कर रहा है। जिसकी वजह से नियंत्रण रेखा पर हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। सीमा पर बढ़ते तनाव को देखते हुए जम्मू एवं कश्मीर सरकार ने शनिवार को पुंछ और राजौरी जिलों के निवासियों के लिए 400 अतिरिक्त बंकर बनाने की अनुमति दे दी है।

प्रशासन ने अधिकारियों को इन बंकरों का तेजी से निर्माण करने का निर्देश दिया है। एक आधिकारिक बयान के मुताबिक, एक महीने के अंदर दोनों जिलों में 200-200 बंकर बनेंगे। इन बंकरों के निर्माण के लिए धनराशि ग्रामीण विकास विभाग के जरिए संबंधित उपायुक्तों को उपलब्ध कराया जाएगा।

वहाँ के स्थानीय लोगों का कहना है कि पाकिस्तान द्वारा सीमा पार से की जाने वाली गोलीबारी के दौरान बंकर काफी प्रभावी होते हैं। ये बंकर गोलाबारी के दौरान सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले नागरिकों को सुरक्षित स्थान मुहैया करवाते हैं।

राजीव कंधे पर लाए थे कम्प्यूटर, सोनिया ने अभिनंदन को बिठाया था कॉकपिट में

बहुत समय पहले की बात है। तब सिर्फ पत्थर ही पत्थर हुआ करता था। लोग पत्थर खाते थे, पत्थर ही पहनते थे। पूरी मानव जाति तब पत्थरों के इस अहसानी बोझ के तले दबे हुई थी। ऐसे में एक युग पुरुष का जन्म हुआ। वो देखने में ही ‘कुछ अलग’ लगता था। उसकी माँ बड़ी खुश हुई। गोद में उठाया। लेकिन यह क्या! बच्चे ने माँ का आंचल पकड़ने के बजाय अपना पंजा दिखाया। और जोर से बोला – कॉन्ग्रेस।

नेहरू पर कबूतर (फोटो साभार: BCCL)

जी हाँ। कॉन्ग्रेस बोला। एक दिन के सामान्य बच्चे को जहाँ माँ के दूध के अलावा कुछ दिखता नहीं, वहीं उसने हाथ उठाकर पंजा भी लहराया और कॉन्ग्रेस भी बोला। वो बच्चा ‘अलग’ था। पूरी धरती पर किसी ने कॉन्ग्रेस शब्द नहीं सुना था। लेकिन उसने कहा… क्योंकि वो अलग था। जैसे-जैसे वो बड़ा होता गया, उसने पत्थरों का नामो-निशां मिटा दिया। उसके जादू से सबके पास थाली भर खाना और थान भर कपड़े हो गए। लोग उसके दीवाने हो गए। फिर एक दिन ऐसा आया कि उसने सबसे कॉन्ग्रेस का जयकारा लगवा दिया।

PM ‘प्रतिभा’ की धनी इंदिरा

वो ‘कुछ अलग’ था। इसलिए उसकी पीढ़ियाँ भी दिखने में अलग लगने लगीं। इकलौती बेटी तो खैर इतनी अलग दिखीं कि लोग उनके ऑरिजनल नाम इंदिरा को कम जबकि दुर्गा से ज्यादा जानने लगे। और यह शायद कइयों को (खासकर ‘भक्तों’ को) बुरा लग सकता है लेकिन जहानाबाद स्थित राष्ट्रीय युद्ध म्यूजियम (शाही दवाखाना के पीछे) में इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि साल 71 की लड़ाई में बुरी तरह हारती भारतीय सेना का साथ देने अगर खुद ‘इंदिरा द दुर्गा’ भाला-कटार-तलवार लेकर नहीं जातीं तो आज बांग्लादेश नहीं होता। यही कारण है कि मुस्लिम राष्ट्र बांग्लादेश में 1008 मीटर की सबसे ऊँची मूर्ति ‘इंदिरा द दुर्गा’ की ही है। हर साल वहाँ जगराता होता है और कॉन्ग्रेस के लोग 1008 बार दण्ड देते हुए वहाँ जयकारा लगाते हैं।

दिखने में PM जैसा लगते थे राजीव लेकिन कर्मठ इतने कि खुद कम्प्यूटर ‘उठा’ के भारत ले आए थे

वक्त गुजरा। ‘इंदिरा द दुर्गा’ को दो बेटे हुए – बेटे क्या, समझो साक्षात् PM के दर्शन। एक भले ही PM न बन पाया लेकिन उसके आगे ‘बड़े-से-बड़ा’ भी दुम दबाए खड़ा रहता था। दूसरा जो किसी विमान कंपनी में ड्राइवर (अंग्रेजी में पता नहीं लोग उसको पायलट काहे बोलते हैं) थे, वो चूँकि दिखते ही PM जैसे थे, इसलिए PM बने भी। उन्होंने देश को कम्प्यूटर दिया – खुद लाकर। कभी बैलगाड़ी से तो कभी कंधे पर रख कर। कम्प्यूटर के लिए बहुत पसीना बहाया उन्होंने। गूगल वाले भी उनके यहाँ इंटर्न थे, तब जाकर आज इतनी बड़ी कंपनी खड़ी कर पाए।

इनसे ‘दुर्गावतार’ का एक दौर शुरू हुआ

अब जमाना आया महिला सशक्तीकरण का। बरबाद होती कॉन्ग्रेस को सोनिया मैडम ने अपनी ‘धारदार हिन्दी’ से सींचा। दिखने में ये भी PM जैसी ही थी लेकिन बनीं नहीं। ‘शरद ऋतु’ ने इस महान कार्य में पंगा कर दिया था। खैर। प्रतिभा रोके से रुकती है भला! PM भले ही कोई और थे, काम सारा 10 जनपथ से ही होता था। और क्या काम हुआ साब! एयरपोर्ट से लेकर सड़क और हॉस्टल तक सब जगह इन्होंने अपने ‘नाम का डंका’ बजवा दिया।

सोनिया PM भले न बनीं, लेकिन उनके बिना थके-बिना रुके काम के प्रति लगन का ही परिणाम है ये हॉस्टल

फिर आई एक ‘काली-अंधेरी रात’… ऐसी रात जिसकी अलगे 5-10 साल तक कोई सुबह नहीं। लेकिन इन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी। लगे रहे। दुर्गा से दुर्गावतार का दौर चला दिया। राम हों या कृष्ण, सबकी शरण में गए।

प्रियंका ‘माँ दुर्गा’ बहुत क्यूट लगती हैं

फिलहाल भी जा रहे हैं – लेकिन अब विदेशी देवताओं के साथ। राफेल नाम के एक देवता हैं – फ्रांस में। हर दिन, हर पल उनको याद करते हैं। रा(हुल)-रा(फेल) के योग से रा(हु) का दोष कटता है, ऐसा ऋगवेद में कहा गया है। राफेल देव अभी फल देने ही वाले थे कि एक हादसा हो गया।

33 करोड़ अवतारों में से हर को पूजना संभव नहीं, इसलिए अभी इसी एक से काम चलाइए… और हाँ दिखने में यह भी PM जैसे लगते हैं

तकनीक की कम समझ के कारण कॉन्ग्रेस के एक ‘छुटभैये नेता’ सलमान (खान नहीं खुर्शीद) ने एक ट्वीट कर दिया। भक्त लोग उसके पीछे पड़ गए। अब सलमान भाई की बात भक्त लोग मानें भला! जबकि बात उन्होंने सही कही है, एकदम 16 आने सही। लेकिन भक्त कैसे समझें कि देश के हर एक जेट फ़ाइटर को पानी के पाइप से राहुल खुद धोते थे और प्रियंका उनमें तेल भरा करती थीं। तब कहीं जाकर उस फाइटर प्लेन से F16 को मार गिराने में सफलता मिली। वरना ऐसा करना असंभव है, असंभव। समझने और कॉन्ग्रेस के आगे सिर झुकाने के बजाय उल्टे लोगबाग सलमान भाई अंड-बंड बोलने लगे।

याद रखिए, इस देश में जो भी हुआ वो कॉन्ग्रेस ने ही किया है। वरना आज भी सिर्फ पत्थर ही पत्थर होता। हम पत्थर खाते और पत्थर ही बाहर भी आता!

डियर ‘The (Liar) Wire’, J&K आज भी नहीं है सेक्युलर राज्य, तो RSS के कम्युनल होने की बात क्यों

द वायर, चिरकुट वामपंथियों की ऐसी जमात है जो स्वयं तो मूर्ख है ही अपने पाठकों को भी मूर्ख समझती है। इस जमात के लेखकों ने समय-समय पर बेहूदा तर्कों से भरे अनेकों लेख लिखकर अपना बौद्धिक स्तर सिद्ध किया है। ताज़ा उदाहरण 1 मार्च को प्रकाशित लेख का है जिसमें द वायर की एक स्वघोषित पत्रकार ने लिखा कि जमात ए इस्लामी की भाँति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी जम्मू कश्मीर राज्य में एक प्रतिबंधित संगठन है।

इस निष्कर्ष के समर्थन में यह तर्क दिया गया कि जम्मू कश्मीर सरकारी कर्मचारी नियमों (J&K Government Employees Conduct Rules, 1971) के अनुसार जमात ए इस्लामी और संघ दोनों ‘एंटी सेक्युलर’ और ‘कम्युनल’ संगठन हैं इसलिए जम्मू कश्मीर राज्य का कोई भी सरकारी कर्मचारी इनका सदस्य नहीं बन सकता। बहरहाल, यह तर्क तो सही है लेकिन इन ‘पाक-अधिकृत-पत्रकार’ महोदया को शायद जम्मू कश्मीर राज्य के तथाकथित ‘सेक्युलर’ इतिहास का ज्ञान नहीं है।

हमारे देश में जब भी मज़बूत इरादों वाले प्रधानमंत्री की चर्चा होती है तो प्रायः ‘लोहा लेडी’ श्रीमती इंदिरा गाँधी का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। यह अलग विषय है कि तथाकथित लोहा लेडी जी ने 1971 में पाकिस्तानी फ़ौज के एक लाख मुस्टंडों को खिला पिलाकर उनके वतन वापस भेजा था। दस्तावेजों के अनुसार उसी साल जम्मू कश्मीर सरकारी कर्मचारी नियम भी लागू हुए थे जिनमें जमात ए इस्लामी और संघ को एंटी सेक्युलर और कम्युनल घोषित किया गया था।

जानने लायक बात यह है कि सन 1976 में लोहा लेडी जी ने भारत के संविधान में संशोधन कर उद्देशिका (Preamble) में सेक्युलर शब्द जोड़ा था। लेकिन 1957 में लागू हुए जम्मू कश्मीर राज्य के संविधान में सेक्युलर शब्द आज तक नहीं लिखा गया है। यही नहीं 1976 में जब भारतीय संविधान में सेक्युलर शब्द जोड़ा गया था तब जम्मू कश्मीर राज्य ने यह लिखकर दिया था कि हमारे यहाँ सेक्युलर शब्द लागू नहीं होगा।

आज के दौर में जहाँ रसम और भरतनाट्यम के कारण अल्पसंख्यकों की हितकारी सेक्युलर विचारधारा खतरे में पड़ जाती है वहाँ कश्मीरियत की दुहाई देकर 70 वर्षों से लोकतंत्र के सबसे पवित्र ग्रंथ भारतीय संविधान का अपमान किया जा रहा है। इस अपमान के विरोध में आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली कॉन्ग्रेस भी दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं पड़ती। जम्मू कश्मीर राज्य में सेक्युलरिज़्म लागू नहीं होता यह जानकर भी पाक-अधिकृत-पत्रकारों के होठ सिले हुए हैं। वे इसी बात पर लहालोट हुए जा रहे हैं कि जम्मू कश्मीर राज्य के सरकारी कर्मचारियों को फलां-फलां संगठन का सदस्य बनने की अनुमति नहीं है। जबकि सत्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकार के किसी भी कर्मचारी को सर्विस में रहते हुए किसी भी राजनैतिक पार्टी अथवा संगठन का सदस्य बनने की अनुमति नहीं होती। यह सभी सरकारी कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होता है।

अब सवाल यह उठता है कि जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया था? दिनांक 28 फरवरी, 2019 के गज़ेट नोटिफिकेशन द्वारा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जमात ए इस्लामी (जम्मू कश्मीर) पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी करते हुए लिखा कि यह संगठन ऐसी गतिविधियों में शामिल रहा है जो आंतरिक सुरक्षा और लोक व्यवस्था के लिए हानिकारक है और जिनमें देश की एकता और अखंडता को को भंग करने का सामर्थ्य है।

केंद्र सरकार ने जमात ए इस्लामी (जम्मू कश्मीर) को विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Act) के अंतर्गत प्रतिबंधित किया है। ध्यान देने वाली बात है कि आज देश में आतंकवादी गतिविधियों को परिभाषित करने और उनपर लगाम लगाने वाला एकमात्र कानून UAPA ही शेष है। पोटा तो कॉन्ग्रेस की सरकार ने 2004 में सत्ता में आते ही हटा दिया था।

जमात ए इस्लामी नामक दो संगठन हैं। एक जमात-ए-इस्लामी-हिन्द है जिसे आज़ादी से पहले 1938 में मौलाना मौदूदी द्वारा स्थापित किया गया था। दूसरा जमात ए इस्लामी (जम्मू कश्मीर) के नाम से 1942 में शोपियाँ में मौलवी गुलाम अहमद अहर ने स्थापित किया था जिस पर प्रतिबंध लगाया गया है। जमात ए इस्लामी (जम्मू कश्मीर) आरंभ से ही अलगाववादी संगठन रहा है जिस पर पहले भी (1990 में) प्रतिबंध लग चुका है। यह आतंकवादी संगठन हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन का जनक है और कश्मीर में इसकी हज़ारों करोड़ रुपए की संपत्ति है जिसको सरकार ने सीज़ किया है।

जगमोहन ने अपनी पुस्तक My Frozen Turbulence in Kashmir में लिखा है कि जमात ए इस्लामी (जम्मू कश्मीर) के (पूर्व) सरगना सैयद अली शाह गिलानी के अनुसार “किसी भी मुस्लिम को सोशलिस्ट और सेक्युलर विचार नहीं अपनाने चाहिए।” गिलानी जैसे लोगों के विचारों से यह स्पष्ट है कि कश्मीर के अलगाववादियों की विचारधारा क्या है।

इसके विपरीत संघ की बात करें तो आरएसएस ने प्रारंभ से ही जम्मू कश्मीर राज्य को भारत का अभिन्न अंग माना है। संघ का किसी भी आतंकवादी संगठन से कभी कोई संपर्क सिद्ध नहीं हो सका। हिन्दू आतंकवाद के शिगूफ़े की असलियत भी आर वी एस मणि ने अपनी पुस्तक The Myth of Hindu Terror में लिख दी है।

वास्तविकता तो यह है कि जब महाराजा हरि सिंह अधिमिलन पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करने में टालमटोल कर रहे थे तब सरदार पटेल ने द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर को हरि सिंह के पास भेजा था ताकि वे उन्हें अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मना सकें। वह भेंट 18 अक्टूबर 1947 को हुई थी जिसके बाद 26 अक्टूबर को महाराजा के हस्ताक्षर करते ही जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा बना। यह तथ्य माओवादी अर्बन नक्सल गौतम नवलखा ने भी 1991 में EPW में प्रकाशित अपने लेख में स्वीकार किया है।

लेकिन द वायर के पाक-अधिकृत-पत्रकारों को पाठकों के सामने झूठ परोसने और जमात ए इस्लामी और संघ को एक ही नज़रिये से देखने में मज़ा आता है। इन्हें कम्युनल और सेक्युलर शब्द तो बिना चश्मे के दिखता है लेकिन आतंकवादी और टेररिस्ट जैसे शब्दों को देखने के लिए माइक्रोस्कोप की आवश्यकता पड़ती है।

प्रियंका के ‘जय हिंद’ से Pak को मिर्ची, UNICEF Ambassador पद से हटाने की मांग

पुलवामा हमले के बाद भारतीय वायु सेना की तरफ से किए गए एयर स्ट्राइक के बाद पूरे देश ने सेना को सलाम किया और साथ ही बधाई भी दी। इस मामले में बॉलीवुड स्टार्स भी पीछे नहीं रहे। वो भी खुलकर सेना को बधाई देते दिखे। इसी कड़ी में बॉलीवुड एक्ट्रेस प्रियंका चोपड़ा ने भी इंडियन एयरफोर्स की बहादुरी को सलाम करते हुए एक ट्वीट किया। प्रियंका ने इस ट्वीट में तिरंगे का इमोजी बनाते हुए “जय हिंद” लिखा था।

प्रियंका का ये ट्वीट पाकिस्तान को रास नहीं आया। जिसके बाद पाकिस्तान ने अभिनेत्री के खिलाफ ऑनलाइन याचिका दायर करते हुए उन्हें यूनीसेफ के गुडविल एंबेसडर पद से हटाने की माँग की है। पाकिस्तान द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि दो देशों के बीच अगर न्यूक्लियर वॉर होती है तो इससे सिर्फ और सिर्फ त्रासदी ही होगी। यूनीसेफ की ब्रैंड एंबेसडर होने के नाते प्रियंका चोपड़ा को इंडियन एयर फोर्स के फेवर में ट्वीट नहीं करना चाहिए था। अभिनेत्री को शांति और निष्पक्षता का परिचय देने की ज़रूरत थी। उनके द्वारा किया गया ट्वीट एक यूनीसेफ की ब्रैंड एंबेसडर होने के नाते गलत है और वो यह पद डिजर्व नहीं करती है।

बता दें कि इन दिनों पाकिस्तान में एक पेटीशन भी साइन करवाई जा रही है कि प्रियंका शांति को नहीं बल्कि युद्ध को प्रमोट करती हैं, इसलिए उन्हें इस पद से हटा दिया जाए। जिसमें अब तक दो हजार लोगों ने साइन भी कर दिया है। ऐसे में अब देखना यह होगा कि प्रियंका इस पर क्या जवाब देती है? क्योंकि यूनीसेफ की ब्रैेंड एंबेसडर होने से पहले वो एक भारतीय हैं और भारतीय होने के नाते उन्होंने अपनी सेना के पराक्रम को सलाम किया है।

…और प्रधानमंत्री रैलियाँ कर रहा है!

नहीं, तो क्या करे प्रधानमंत्री? कोने में सर झुका कर भोक्कार पार कर रोता रहे? क्या करना चाहिए प्रधानमंत्री को? आपकी तरह की गिरी हुई राजनीति कि आप उसे पंद्रह दिन में क्रमशः, ‘कहाँ है 56 इंच’, ‘ये तो एयरफ़ोर्स ने किया’, ‘मोदी के कारण ही पकड़ा गया’, ‘जेनेवा कन्वेंशन के कारण वापस आएगा’, ‘इमरान ने दे दिया’, ‘मोदी का क्या हाथ है इसमें’, ‘मोदी रैलियाँ करने में बिजी है’, कहते हुए एसी-डीसी करते रहे? 

प्रधानमंत्री ने जो किया है वो ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इस लिहाज से कि प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री की तरह काम किया है जो कि जनता का प्रतिनिधि होता है। उसका काम जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए, देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा की चिंता करते हुए, उन लोगों को इसकी सुरक्षा की योजना बनाने की स्वतंत्रता देनी चाहिए जो इस क़ाबिल हैं। इस मामले में तीनों सेनाध्यक्ष, कश्मीरी मामलों के जानकार, आतंकी ऑपरेशन्स को हैंडल करने वाले दिग्गज सैन्य अधिकारी, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आदि वो लोग हैं जो इस कार्य के क़ाबिल हैं।

प्रधानमंत्री ने इन्हें अपना काम करने की स्वतंत्रता दी और नतीजा सामने है कि 40 के बाद 350 तबाह कर दिए गए जिसका रोना वही आतंकी रो रहे हैं जो कैंप चला रहे थे। ये बात और है कि दिग्विजय से लेकर ममता तक सबूत माँगते फिर रहे हैं। उनके पास विदेशों के समाचार पत्र पढ़ने के लिए संसाधन हैं, और उन पर विश्वास है लेकिन भारतीय सेनाओं के आला अधिकारियों के प्रेस कॉन्फ़्रेंस में दिए गए सबूत और बयान काफी नहीं। इनको लाइव टेलिकास्ट चाहिए था। इसीलिए चुटकुला चलता है कि अगली बार मिग के ऊपर दीदी, बाबू, बेबी सबको बिठाकर ले जाना चाहिए एयर स्ट्राइक्स के लिए। 

प्रधानमंत्री अगर एक दिन बैठ जाए तो कितने कार्यक्रम टल जाएँगे, उसकी बात कोई नहीं करता। लोग भूल जाते हैं कि इन रैलियों को संबोधित करने से पहले मोदी कितने हजारों करोड़ की योजनाओं की शुरुआत करने से लेकर लोकार्पण तक करता है। लोगों की समस्या यही है कि मोदी कुछ भी करे, वो काफी नहीं है। 

क्या ये लोग बताएँगे कि मोदी को कितने दिन तक रुक कर रैलियाँ करना चाहिए था? कितने दिन का शोक होना चाहिए था? क्या शोक मनाने का ज़िम्मा मोदी पर ही है, वो भी आपके तरीके से? आप भी तो इस तरह की बेहूदी और बेसिरपैर की बातें नहीं करके जवानों के बलिदान का सम्मान कर सकते थे? लेकिन नहीं, आप अपनी राजनीतिक रोटी सेंकिए, लेकिन मोदी राजा रामचंद्र बनकर चौदह साल के वनवास पर निकल जाए! 

आपने तो बहुत कोशिश की कि साबित हो जाए कि हमले की ख़बर मिलने के बाद मोदी जिम कॉर्बेट में विडियो बनवा रहा था, लेकिन वहाँ आपकी तृष्णा शांत नहीं हो पाई। आपने बहुत कोशिश की यह फैलाने की कि मोदी ने ही चुनावों को देखते हुए ये हमले कराए। आपने यहाँ तक कहा कि आत्मघाती हमलावर का शव कहाँ है, ये हमला तो भाजपा वालों ने कराया है! आपने क्या-क्या नहीं कहा और लिखा! 

आपने मोदी के नेतृत्व को पहले चैलेंज किया, फिर नकारा, फिर उपहास किया, फिर उसे क्रेडिट देने से मना किया… ये चलता रहा, और ग़ज़ब की बात तो देखिए कि मोदी ने आपके लिए एक भी शब्द ख़र्च नहीं किए। उसे पता है कि उसको जवाब जनता को देना है, और सीमा की रक्षा का दायित्व सेना पर है, वही इसको बेहतर तरीके से करेंगे, तो उसने उन्हें स्वतंत्रता दे रखी है। जितनी जानकारी लेनी होती है, वो मोदी तक पहुँच जाती है। 

मेरे ही एक मित्र ने कह दिया कि वो सवाल नहीं कर सकता क्या कि मोदी रैली क्यों कर रहा है? ये सवाल है ही नहीं, ये सवाल में छिपा एक जवाब है जो कि मीडिया और राजनैतिक विरोधियों द्वारा फैलाया जा रहा अजेंडा है जिसके केन्द्र में यह बात साबित करने की कोशिश है कि देखो, मोदी सैनिकों का अपमान कर रहा है। 

आप मोदी को सैनिकों के विरोध में खड़ा करना चाह रहे हैं। आप उसके सर ‘शहीदों का दर्जा’ नहीं देता का प्रोपेगेंडा चलाते हैं। आप उस व्यक्ति को ही सेना के विरोध में दिखाना चाहते हैं जिसने सेना की बेहतरी के लिए बुलेट प्रूफ वेस्ट से लेकर, कश्मीर में पैलेट गन के प्रयोग की अनुमति, वन रैंक वन पेंशन जैसे क़दम उठाए। और इन सब बातों के द्वारा आप किसको लेजिटिमेसी दे रहे हैं? राहुल गाँधी को? महागठबंधन के चोरों को? अपनी ज़मीन तलाशिए कि कहाँ खड़े हैं आप। 

आप ही तो वो हैं न जो आरोप लगाते हैं कि मोदी ही हर जगह है, किसी को अपना काम करने नहीं देता है? अब जब वो एयरफ़ोर्स या आर्मी को अपना काम करने दे रहा है, और वो प्रधानमंत्री के तौर पर लोगों के लिए लोककल्याणकारी योजनाओं पर काम कर रहा है, तो आपको समस्या है कि वो रोता हुआ कहीं कोने में क्यों नहीं दिखता? 

मैं चाहूँगा कि ये सवाल पूछने वाले लोग इस सवाल के बाद के तर्क भी रखें कि रैलियाँ करना गलत क्यों है, कैसे है। साथ ही, लोग यह भी बताएँ कि कितने दिन कमरे में बंद रहने के बाद मोदी को बाहर आकर काम शुरू करना चाहिए था। प्रश्नवाचक चिह्न को गले में स्वैग बनाकर घूमने वाली जनता यह भी बता दे कि पुलवामा के कुछ ही दिन बाद छः जवान MI17 हेलिकॉप्टर क्रैश में बलिदान हुए, कुपवाड़ा में कल ही चार जवान हुतात्मा हुए, तो क्या उनके लिए शोक न मनाया जाए? 

घाटी में स्थिति इतनी संवेदनशील है कि हर सप्ताह हमारे जवानों का बलिदान होता है। आप जरा सोचिए कि प्रधानमंत्री रुक जाए, कैबिनेट रुक जाए? या जो इससे निपटने के लिए सक्षम हैं, उन्हें इस पर कार्य करने दे? हर जवान का शव किसी एक परिवार, उसके यूनिट, उसके दोस्तों, उसके गाँव-घर के लिए उतना ही महत्व रखता है, जितना एक साथ चालीस का आना। एक भी जवान बिना युद्ध के नहीं बलिदान होना चाहिए, लेकिन देशविरोधी ताक़तें ऐसा होने नहीं देतीं। 

यही कारण है कि हम लगातार उनसे संघर्ष करते रहते हैं। हम रुकते नहीं क्योंकि काम करते रहना हमें संवेदनहीन नहीं बनाता। सवाल तो यह भी है कि आप पुलवामा के बलिदानियों की चिता की आग और कब्र की मिट्टी के दबने का भी इंतजार कहाँ कर पाए, आप तो स्वयं ही ऐसे सवाल उठाकर अपनी संवेदनहीनता का उम्दा सबूत पेश कर रहे हैं। 

आपने ऑफिस जाना बंद कर दिया? आपने लोगों से बात करना छोड़ दिया? ओह! आप तो जनप्रतिनिधि नहीं हैं। लेकिन आप मानव तो हैं न? वस्तुतः, आप तो उससे भी आगे देशभक्त व्यक्ति हैं जो कि प्रधानमंत्री से ज़्यादा ध्यान देते हैं ऐसी बातों पर, फिर आप क्या कर रहे हैं संवेदना प्रकट करने के लिए? फेसबुक पोस्ट लिखकर, व्हाट्सएप्प में ये पूछ रहे हैं कि मोदी रैलियाँ क्यों कर रहा है? क्या कहीं लिखा है कि जनप्रतिनिधि ही संवेदनशील होता रहे? पूछिए ये सवाल, आपको जवाब मिल जाएगा। 

आप बेचैन प्राणी हैं, या अजेंडाबाज व्यक्ति जिसके लिए कहीं से ऐसे सवाल भेजे जाते हैं, और आप बिना सोचे पूछ देते हैं। मैं बताता हूँ आपको कि अगर प्रधानमंत्री रुक जाता तो आप क्या करते। आपके पास सवाल पहुँचाए जाते कि राजनाथ सिंह फ़लाँ जगह स्पीच क्यों दे रहे हैं? फिर वो भी चुप रहते तो आप ले आते कि हर्षवर्धन जी फ़लाँ जगह पर फ़ीता काट रहे थे… आप ये चलाते रहेंगे क्योंकि आपको सैनिकों की चिंता नहीं है, आपको ब्राउनी प्वाइंट्स लेने हैं। दुःख की बात यह है कि आप अपनी इस नीचता को भी ठीक से स्वीकार नहीं पाते।