Sunday, October 6, 2024
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’10 साल तक PM मनमोहन सिंह की सरकारी फ़ाइलें सोनिया के यहाँ जाती थीं’ – किताब में खुलासा

दिवंगत पत्रकार और पद्म भूषण से सम्मानित कुलदीप नैयर की अंतिम किताब “ऑन लीडर्स एंड आइकन्स: जिन्ना से मोदी तक” का विमोचन शुक्रवार को हुआ। ख़बर यह है कि इस पुस्तक विमोचन समारोह में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिरक़त नहीं की।

वहीं, कुलदीप नैयर के पुस्तक विमोचन में देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न्यूयॉर्क से वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिए हिस्सा लिया। जेटली ने इस कार्यक्रम में दिवंगत पत्रकार को देश के पिछले 6-7 दशक में देश के सबसे प्रसिद्ध पत्रकारों में से एक बताया।

दरअसल, मनमोहन सिंह ने कुलदीप नैयर की किताब में ज़िक्र किए गए कुछ हिस्से को लेकर आपत्ति ज़ाहिर की है और इस संबंध में उन्होंने दिवंगत नैयर की पत्नी भारती को एक पत्र लिखा।

इस किताब के एक हिस्से में इस बात का उल्लेख है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ‘सरकारी फ़ाइलें 10 जनपथ जाती थीं’ इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए सिंह ने नैयर की पत्नी को लिखे पत्र में कहा कि किताब में उल्लेखित यह बात सच नहीं है और यह जानने के बावजूद उनके लिए विमोचन में शामिल होना शर्मनाक होगा।

मनमोहन सिंह के समारोह से दूरी बनाने के बाद दिवंगत पत्रकार के बेटे राजीव नैयर ने बताया कि उनके पिता को विवादों में बने रहना पसंद था और सिंह ने ख़ुद ही इस विवाद को जन्म दिया है क्योंकि किताब में वही बात लिखी गई हैं जो उन्होंने ख़ुद उनके दिवंगत पिता से कही थीं। लेकिन अब किताब पढ़ने के बाद वो इस बात को नकार रहे हैं।

राजीव ने 1 फरवरी को पूर्व पीएम द्वारा भेजे गए पत्र को पढ़ा। इसमें मनमोहन सिंह ने लिखा था कि इस किताब को पढ़ने के दौरान पेज 172 पर एक संदर्भ मिला कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में सरकार की फ़ाइलें सोनिया गाँधी के घर पर जाती थीं। यह कथन सत्य नहीं है, क्योंकि कुलदीप नैयर ने कभी भी इस तरह की कोई बातचीत उनसे नहीं की।

कार्यक्रम के बाद पत्रकार राजदीप सरदेसाई और कॉन्ग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के बीच चर्चा हो रही थी। इस बातचीत में कपिल सिब्बल ने कहा कि जब वो मंत्री थे तो वे सभी फ़ैसले सीधे ले सकते थे। 10 साल पद पर रहने के बावजूद न तो उन्हें कभी पीएम ने फ़ोन ही किया और न ही कभी किसी फ़ाइल के सिलसिले में 10 जनपथ से फ़ोन आया।

इसके बाद सिब्बल ने कहा कि कभी-कभी ऐसा होता है कि जानकारियाँ बाहर आती हैं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वो सच ही हों। हालाँकि फिर उन्होंने दिवंगत नैयर पर सकारात्मक रुख़ अपनाते हुए कहा कि हमें उनके दृष्टिकोण की सराहना करनी चाहिए और उनसे सीख भी लेनी चाहिए।

वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित करते हुए अरुण जेटली ने कहा कि दिवंगत पत्रकार नैयर, देश के सम्मानित पत्रकारों में से एक थे। उनसे सहमति या असहमति हो सकती है लेकिन पिछले 60-70 सालों में उनसे बेहतर राजनीतिक रिपोर्टर शायद कोई नहीं हुआ।

…तो सोशल मीडिया पर भी छाएगी चुप्पी, चुनाव के 48 घंटे पहले ये है EC का प्लान

चुनाव आयोग ने क़ानून मंत्रालय को पत्र लिख कर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के सेक्शन 126 में संशोधन करके इसका दायरा सोशल माडिया, इंटरनेट, केबल चैनल्स और प्रिंट मीडिया के ऑनलाइन संस्करणों तक बढ़ाने की बात कही है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के सेक्शन 126 के अंतर्गत ‘इलेक्शन साइलेंस’ की बात आती है। इसके अनुसार चुनाव वाले क्षेत्र में मतदान से 48 घंटे पहले प्रचार पर रोक लगाने का प्रावधान है। साथ ही आयोग ने अधिनियम में अनुच्छेद 126(2) भी जोड़ने की बात की है, जिसके अंतर्गत इलेक्शन साइलेंस का दायरा बढ़ाने के बाद उल्लंघन पर कार्रवाई भी की जा सकेगी।

केंद्र सरकार को यह बातें लगभग तीन सप्ताह पहले ही पत्र के माध्यम से बता दी गई हैं। इस पर जल्द विचार करने का आग्रह किया गया, जिससे इसे साल 2019 में होने वाले आम चुनाव में लागू किया जा सके।

वर्तमान में सेक्शन 126 केवल सिनेमाघरों, टेलीविज़न या इसी तरह के उपकरणों के माध्यम से सार्वजनिक बैठकों या चुनावी मामले के किसी भी प्रदर्शन या आंदोलन को प्रतिबंधित करता है। चुनाव आयोग ने 17 जनवरी को विधि सचिव को भेजे गए अपने पत्र कहा कि इस सेक्शन में प्रिंट मीडिया का उल्लेख नहीं है। चुनाव आयोग ने लिखा, “राजनीतिक दल और उम्मीदवार इस अवधि के दौरान समाचार पत्रों में विज्ञापन जारी करते हैं, जिसमें मतदान का दिन भी शामिल होता है।”

चुनाव आयोग ने बताया कि उसने सेक्शन 126 के प्रावधानों की समीक्षा के लिए गठित एक समिति की 10 जनवरी की रिपोर्ट पर विचार किया था। 10 जनवरी की रिपोर्ट में समिति ने 48 घंटे पूर्व लगने वाले इस बैन के दायरे को बढ़ाने की सिफ़ारिश की थी। इसमें यह बात भी शामिल है कि कोई भी कोर्ट सेक्शन 126(1) के अंदर होने वाले उल्लंघनों का स्वतः संज्ञान नहीं ले सकता जब तक आयोग या राज्य चुनाव अधिकारी इसकी अनुशंसा नहीं करता। यह बात 13 जून 2014 को चुनाव आयोग को दिए गए एक राय में पूर्व अटॉर्नी जनरल अशोक देसाई द्वारा किए गए प्रस्ताव के अनुरूप थी।

चुनाव आयोग, मीडिया को परिभाषित करते हुए सेक्शन 126(2) को जोड़ना चाहता है। इसके अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इंटरनेट, रेडियो, टेलीविज़न, केबल चैनल, प्रिंट मीडिया के इंटरनेट या डिजिटल संस्करण आते हैं। वहीं प्रिंट मीडिया में न्यूज़ पेपर, मैग़ज़ीन और प्लेकार्ड को भी शामिल किया गया है।

आपको बता दें कि विधि आयोग ने अपने 255वें रिपोर्ट में सेक्शन 126 में संशोधन की बात कही थी। पूर्व चुनाव आयोग एसवाई क़ुरैशी ने भी 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चुनाव के 48 घंटे पूर्व प्रचार पर लगने वाले प्रतिबंध में प्रिंट मीडिया को शामिल करने के लिए पत्र लिखा था।

‘परिवारवाद’ की छवि को मिटाने की जुगत में कॉन्ग्रेस

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे कॉन्ग्रेस पार्टी अपने नए-नए चुनावी तरीक़े इस्तेमाल में ला रही है। अभी-अभी राजनीति में क़दम रखने वाली प्रियंका गाँधी वाड्रा को शायद फूँक-फूँक कर पाँव रखने के निर्देश दिए जा रहे हैं, जिन्हें वो बख़ूबी निभा भी रही हैं।

जानकारी के मुताबिक शुक्रवार (8 फ़रवरी 2019) को कॉन्ग्रेस की आधिकारिक बैठक में शामिल होने पहुँची प्रियंका गाँधी की सीट राहुल गाँधी के साइड में आवंटित न करके थोड़ा अगल की गई क्योंकि उस समय राहुल के साइड वाली सीट पर ज्योतिरादित्य सिंधिया बैठे थे। जब इस बात पर ग़ौर किया गया तो जो बात सामने आई वो हैरान कर देने जैसी थी।

ऐसा इसलिए किया गया ताकि पार्टी के अन्य सदस्यों के बीच यह संदेश जा सके कि कॉन्ग्रेस के लिए जितनी महत्वपूर्ण प्रियंका गाँधी हैं, उतने ही महत्वपूर्ण बाक़ी सब सदस्य भी हैं। बैठने की सीट पर किए गए इस मंथन को अगर राजनीतिक स्टंट ही कहा जाए तो बेहतर है।

चूँकि अभी प्रियंका गाँधी का राजनीतिक क़द बहुत छोटा है इसलिए उन्हें अधिक तवज्ज़ो देना तो वैसे भी किसी मायने में फिट नहीं बैठता। सबको एक बराबर दिखाने की भला ऐसी भी क्या नौबत आन पड़ी, ये सोचने वाली बात है। अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि शायद आज बरसों बाद कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी वंशवाद की राजनीतिक छवि से ऊपर उठने का प्रयास कर रही है।

सवाल यह है कि क्या केवल इतने भर से कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी बरसों पुरानी परिवारवाद की छवि को मिटाने में सफल हो सकती है? वैसे यह इतिहास रहा है कि राजनेताओं के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बनने की बजाए राजनीति को ही अपना करियर बनाते हैं। इसमें कोई नई बात तो नहीं है, लेकिन प्रियंका का राजनीति में क़दम रखना आए दिन तरह-तरह के अजीबो-गरीब इतिहास रचने की फ़िराक में रहता है।

सही मायने में तो अगर कहा जाए कि आज भी कॉन्ग्रेस अपने परिवारवाद के परंपरागत तरीक़े से निकल नहीं पाई है तो कहना ग़लत नहीं होगा। क्योंकि ऐसे तमाम अवसर हैं, जहाँ कॉन्ग्रेस ने अपनी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं के बच्चों के राजनीतिक करियर को सँवारने की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर ली। परिवारवाद के साये में फलती-फूलती कॉन्ग्रेस भला और कर भी क्या सकती थी। प्रियंका गाँधी की सीट का आवंटन इस ओर भी इशारा करता है कि कहीं न कहीं कॉन्ग्रेस को ख़ुद भी यह एहसास होता है कि वो वंशवादी परंपरा को आज भी जीवित रखे हुए है, जिसे दुनिया की नज़र से धूमिल करना होगा अन्यथा इसका ख़ामियाज़ा आने वाले समय में भुगतना पड़ेगा। फ़िलहाल कॉन्ग्रेस अपनी साम, दाम, दंड की हर नीति अपनाने में व्यस्त है जिससे पार्टी सत्ता में वापसी का रास्ता बना सके।

कॉन्ग्रेस खेमे में पूर्व नेताओं की संतानें हैं, जिनके राजनीतिक करियर को पंख इसी पार्टी ने दिए। ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठ खड़ा होता कि जो पार्टी ख़ुद परिवारवाद की राजनीति करती आई हो, वो पूर्व नेताओं की संतानों के राजनीतिक भविष्य को सँवारने का काम तो नहीं करने लगी?

कॉन्ग्रेस द्वारा जिनका भविष्य चमकाया गया उनमें कुँवर नटवर सिंह के बेटे जगत सिंह, दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह, कमलनाथ के बेटे नकुल नाथ, राजेश पायलेट के बेटे सचिन पायलेट, नवीन जिंदल जैसे कई नाम शामिल हैं जिन्होंने अपनी वंशवादी परंपरा को ज़िंदा रखा।

वैसे तो प्रियंका गाँधी के लिए राजनीति कोई नई बात नहीं है फिर पार्टी बैठक में सीट का आवंटन कॉन्ग्रेस की विचारधारा को स्पष्ट करता है। यह तो तय है कि प्रियंका गाँधी के बैठने के स्थान का निर्धारण पहले से ही तय रहा होगा, अब चाहे इस निर्धारण के पीछे राहुल गाँधी का हाथ रहा हो या सोनिया गाँधी का इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है।

राजनीति में प्रियंका गाँधी की एंट्री के साथ ही कई मुद्दों को भी हवा मिल गई। उनके सौन्दर्य से लेकर वाड्रा को ईडी कार्यालय तक छोड़ना और उन्हें वापस लाना। इन दिनों प्रियंका गाँधी को इस तरह से पेश किया गया जैसे भारतीय महिलाओं में इकलौती वो ही आदर्श महिला हैं, उदाहरण के लिए उनका पत्नी-रूप इन दिनों काफ़ी फेमस है। इसके बाद बारी आती है उनकी शक्ल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी (उनकी दादी) से मिलने-जुलने की। उनकी दादी से हूबहू मिलती-जुलती शक्ल कई दिनों तक सोशल मीडिया पर छाया रहा। मतलब ये कि किसी न किसी बहाने से ही सही लेकिन मुख्यधारा की मीडिया को मौक़ा तो मिल ही जाता है, जिसपर वो ख़बर बना डालते हैं। इस बात का सबूत तो रोज़ाना मिल ही जाता है।

वहीं अगर बात करें बीजेपी की तो शुरूआत करते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से। उनके बारे में जगज़ाहिर है कि वो किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते। उनका और उनके परिवार का राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। यह बात अलग है कि देशहित उन्हें राजनीति में ले आया। इस देशहित में पत्नी मोह भी उनके आड़े नहीं आया। बीजेपी के अन्य नेताओं पर भी अगर नज़र डाली जाए तो राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखने वालों की सँख्या न के बराबर या बहुत कम होगी।

कॉन्ग्रेस के लिए अब भी यह सोचने का वक़्त है कि केवल सीट का स्थान बदल लेने भर से परिवारवाद का ठप्पा नहीं हटता बल्कि उसके लिए कड़े फ़ैसले भी लेने पड़ते हैं। इसके लिए पारिवारिक स्वार्थों की आहुतियाँ देनी पड़ती हैं, और इनके लिए कॉन्ग्रेस न पहले कभी सहज थी और न अब। यदि ऐसा होता तो कॉन्ग्रेस का दामन इतने सारे क़द्दावर नेता कभी न छोड़ते।

इन नेताओं में जीके वासन, विजय बहुगुणा,रीता बहुगुणा जोशी, कृष्णा तीरथ, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्या, चौधरी बीरेंद्र सिंह, दत्ता मेघा, जगमीत सिंह बरार, अवतार सिंह भड़ाना, रंजीत देशमुख, मंगत राम शर्मा जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन नेताओं ने अपने हिस्से की ज़मीन न मिलते देख पार्टी से अपना नाता तोड़ना उचित समझा।

अंत में यही कहना सटीक लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कॉन्ग्रेस की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं, जिस पर समय रहते सोचा नहीं गया तो भावी परिणाम निश्चित रूप से उसके ख़िलाफ़ हो सकते हैं। इस पर कॉन्ग्रेस को अभी और गहन मंथन की आवश्यकता है।

कभी ना, कभी हाँ: 78 साल के शरद पवार फिर से लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार!

2018 में एक रैली के दौरान चुनाव लड़ने से मना करने वाले एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार ने संकेत दिए हैं कि वो 2019 लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। यह फै़सला उन्होंने शुक्रवार (फरवरी 8, 2019) राज्य स्तरीय मीटिंग के बाद लिया है।

78 साल के हो चुके शरद पवार ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए 10 सीटों का लक्ष्य रखा है। बता दें कि अगर शरद पवार लोकसभा चुनाव में लड़ने के लिए खड़े होते हैं तो वे माढा संसदीय सीट पर ही चुनाव लड़ेंगे। साल 2009 में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने इसी क्षेत्र से चुनावों में जीत हासिल की थी। फिलहाल, यहाँ के सांसद अभी मोहिते पाटिल हैं।

पुणे में 3 घंटे से ज्यादा देर तक चली एक मीटिंग के बाद शरद पवार के दोबारा चुनाव लड़ने का फ़ैसला लिया गया। पवार ने एनसीपी की इस राज्य स्तरीय मीटिंग के बाद कहा कि पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता और माढ़ा के सांसद विजय सिंह मोहिते पाटिल भी चाहते हैं कि वे चुनाव लड़ें।

शरद पवार ने कहा कि पार्टी के सब लोगों का कहना है कि वो उनका कहना मानेंगे। इसलिए उन्हें खुद भी कार्यकर्ताओं के फैसले को मानते हुए चुनाव लड़ना चाहिए। उन्होंने कहा कि वो इस बारे में सबको सोचकर सूचित करेंगे।

बता दें कि इस मीटिंग में शरद पवार, एनसीपी प्रदेश अध्यक्ष जयंत पाटील, छगन भुजबल और माढ़ा चुनाव क्षेत्र के सांसद विजयसिंह मोहीते पाटील मौजूद थे।

ग्राउंड रिपोर्ट #4: वो 3 नई तकनीकें, जिससे गंगा अब हो रही निर्मल

नमामि गंगे परियोजना के तहत गंगा को साफ़ करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। इनमें प्रमुख रूप से गंगा के किनारे घाटों को साफ़ करने से लेकर ‘गंगा ग्रामीण प्रहरी’ की नियुक्ति है।

इसी तरह सरकार ने गंगा के पानी को साफ़ करने के लिए भी सीवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट के अलावा तीन नई तकनीक का इस्तेमाल किया है। इनमें प्रमुख रूप से बायोरेमीडिएशन, जियो सिंथेटिक ट्यूब और इंस्टिट्यूट रेन ट्रिटमेंट है। प्रयागराज में कुम्भ के दौरान गंदे पानी को गंगा में जाने से रोकने के लिए इन तीनों तकनीक को ट्रायल के रूप में शुरू किया गया है।

प्रयाग राज में नाले पर इंस्टिट्यूट रेन ट्रीटमेंट से पानी साफ हो रहा है

दरअसल प्रयाग राज शहर के सभी नालों से निकलने वाले पानी को सीवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाना बेहद खर्चीला और मुश्किल होता है। प्रयाग राज शहर में इस समय 46 ऐसे नाले हैं, जिसका पानी सीधे गंगा में मिल रहा था। ऐसे में गंदे पानी को रोकने के लिए इंस्टिट्यूट रेन ट्रीटमेंट तकनीक के तहत 6 नाले, जियो ट्यूब तकनीक के माध्यम से 5 नाले जबकि 35 नालों को बायोरेमीडिएशन तकनीक से साफ़ किया जा रहा है।

बायो रेमीडिएशन तकनीक के जारिए प्रयाग राज में पानी को साफ़ किया जा रहा है

इन तकनीक के बारे में जानकारी देते हुए उत्तर प्रदेश जल निगम के अधिकारी पीके अग्रवाल ने बताया कि अभी इन सभी नई तकनीक का हम ट्रायल कर रहे हैं। इसके बाद एक टीम रिसर्च करेगी कि कौन सी तकनीक कम पैसे में ज्यादा बेहतर तरह से पानी को साफ़ कर रही है।

क्या हैं ये तीन तकनीक, कैसे करते हैं काम

  • इंस्टिट्यूट रेन ट्रीटमेंट : यह तकनीक नेशनल एंवायरमेंटल इंजीनियर रिसर्च इंस्टिट्यूट (नेरी) के प्रयास से प्रभाव में आई है। नमामि गंगे अधिकारियों के मुताबिक नाले के गंदे पानी को साफ़ करने के लिए कम पैसे में यह एक बेहतर तकनीक है। इस तकनीक पर काम करने वाले नेरी संस्थान के छात्र ने बताया कि यह एक तरह का पोर्टेबल एसटीपी है। इसमें सबसे पहले गंदे पानी के साथ आने वाले सॉलिड कचरे को रोकने के लिए नाले में व्यवस्था की जाती है। इसके बाद सैप्टिक टैंक व एनॉक्सिक टैंक है। इस टैंक में बैक्टीरियल ग्रोथ होती है। यह बैक्टीरिया छोटे-छोटे सॉलिड कचरे को समाप्त कर देती है। इसके बाद नाले में एरोकॉन ब्लॉक लगाया जाता है, जिसमें बैक्टीरिया आसानी से फंस जाते हैं। इसके बाद साफ़ पानी निकलता है, जिसे गंगा में जाने दिया जाता है।
  • जियो ट्यूब तकनीक : इस तकनीक के बारे में प्रधानमंत्री अपने मन की बात में चर्चा कर चुके हैं। इस तकनीक में सबसे पहले नाले के पानी से सॉलिड कचरे को अलग किया जाता है। इसके बाद पानी को डोजिंग यूनिट में लाया जाता है। इस मशीन में ही पॉलिमर को मिलाया जाता है। इसके बाद पानी में मौजूद छोटे-छोटे सॉलिड को समाप्त करने के लिए यहीं बैक्टीरिया को भी पैदा किया जाता है। इसके बाद इस पानी को जियो ट्यूब के अंदर ले जाया जाता है, जहाँ पानी में मौजूद सॉलिड कचरा ट्यूब के अंदर रह जाता है। इसके बाद साफ पानी ट्यूब से बाहर आता है। ट्यूब से बाहर आ रहे पानी को गंगा में जाने दिया जाता है जबकि ट्यूब से निकलने वाले कचरे को जलावन या खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
  • बायोरेमीडिएशन : इस समय प्रयागराज में इस तकनीक के जरिए सबसे अधिक नालों को साफ़ किया जा रहा है। इस तकनीक में नाले के अंदर कुछ-कुछ दूरी पर पानी में रूकावट के लिए साधन लगाए जाते हैं। इस तरह ठोस कचरे को बाहर कर लिया जाता है। इसके बाद पानी को एक टैंक में जमा किया जाता है। इस टैंक के पानी में बैक्टीरिया पैदा करने के लिए बैक्टो क्लीन केमिकल डाला जाता है। इसके बाद एक तरह पानी में मौजूद सभी बैक्टीरियल गंदगी यहाँ पानी से अलग हो जाता है। इसके बाद पानी को नदी में बहने दिया जाता है।

इसी कड़ी का तीसरा लेख यहाँ पढ़ें: ग्राउंड रिपोर्ट #3: दिल्ली की बीमार यमुना कैसे और क्यों प्रयागराज में दिखने लगी साफ?

इसी कड़ी का दूसरा लेख यहाँ पढ़ें: ग्राउंड रिपोर्ट #2: नमामि गंगे योजना से लौटी काशी की रौनक – सिर्फ अभी का नहीं, 2035 तक का है प्लान

इसी कड़ी का पहला लेख यहाँ पढ़ें: ग्राउंड रिपोर्ट #1: मोदी सरकार के काम-काज के बारे में क्या सोचते हैं बनारसी लोग?

कोलकाता पुलिस ने CBI के पूर्व अंतरिम निदेशक की पत्‍नी के घर पर मारा छापा

पश्चिम बंगाल में टकराव की राजनीति बढ़ती जा रही है ताज़ा मामला जुड़ा है, कोलकाता पुलिस ने सीबीआई के पूर्व निदेशक नागेश्वर राव से जुड़ी कंपनियों पर छापा मारा है से। राव के जिन ठिकानों पर पुलिस ने छापा मारा उनमे से एक सेंट्रल कोलकाता में है और दूसरा सॉल्ट लेक में उनकी पत्नी एंजेला मर्केंटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस बात की प्रबल आशंका है कि पुलिस ने ये छापा CBI द्वारा कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के घर पर मारे गए छापे का बदला लेने के लिए मारा है। इस बीच, राजीव कुमार शिलॉन्ग पहुंच गए हैं। शारदा घोटाले के सिलसिले में शनिवार को मेघालय की राजधानी में सीबीआई द्वारा उनसे पूछताछ की जाएगी।

वहीं नागेश्वर राव ने इसे पूरे छापे को एक प्रोपेगेंडा करार दिया। इससे पहले 30 अक्टूबर 2018 को उन्होंने एक बयान जारी कर एंजेला मर्केंटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड से कोई भी संबंध होने से इंकार किया था। राव ने अपनी सफाई में 2010 से लेकर बाद के वर्षों के घटनाक्रमों को सामने रखा है।

बता दें कि एंजेला मर्केंटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड (AMPL) एक गैर-बैंकिंग वित्त कंपनी (NBFC) है।  यह कथित तौर पर फ़रवरी 1994 में शुरू की गई थी। शशि अग्रवाल, प्रतीक अग्रवाल, प्रवीण अग्रवाल और सुनील कुमार अग्रवाल इस कंपनी के निदेशक हैं।

बता दें कि शारदा चिटफंड मामले की जाँच कर रहे सीबीआई के अधिकारियों को रविवार को राजीव कुमार के कोलकाता के पार्क स्ट्रीट स्थित रेजिडेंस में घुसने नहीं दिया गया और उन्हें हिरासत में ले लिया गया था। सीबीआई अधिकारी राजीव कुमार से पूछताछ करना चाहते थे।

सीबीआई के इन अधिकारियों को पहले पार्क स्ट्रीट थाने और फिर सेक्सपियर सरनी थाने में ले जाया गया था। इस पूरे बवाल के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ हल्ला बोलते हुए धरने पर बैठ गईं थीं।

रवीश जी, आर्टिकल ट्रान्सलेट करने के बाद भांडाफोड़ होने पर लेख क्यों नहीं लिखते?

पत्रकारिता के स्वघोषित चरम मानदंड ने, जो बराबर किसी न किसी अंग्रेज़ी प्रोपेगेंडा का अनुवाद हिन्दी में अपने वाल पर डालते रहते हैं ये कहकर कि हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी पाठकों का नुकसान ही किया है, आज ‘द हिन्दू’ की चिरकुटई (जो आधे घंटे में धो कर सुखा दी गई) का अनुवाद किया।

वीडियो में इसी लेख को यहाँ देखें

चूँकि सरकार के ख़िलाफ़ वाली बात थी, तो हमेशा की तरह ख़बर या ख़ुलासे ‘चौंका देने वाले’ से लेकर अब ‘सन्न कर देने’ वाले तक पहुँची है। रवीश जी आजकल हर फ़र्ज़ी ख़बर का अनुवाद करते हुए सन्न हो जाते हैं, चौंक जाते हैं, अघोषित आपातकाल देखने लगते हैं, या छत पर जाकर बार-बार देखने लगते हैं कि एनडीटीवी का केबल तो अमित शाह काट नहीं रहा!

जस्टिस लोया वाली बात पर सुप्रीम कोर्ट के जवाब आने के बाद इन्होंने कोई आर्टिकल नहीं लिखा। अमित शाह के बेटे पर सवाल उठाने वाले आर्टिकल का भी अनुवाद करने के बाद इन्होंने उसके फ़र्ज़ी और ‘स्पिन-फ़्रेंडली’ पाए जाने पर कुछ ज्ञान नहीं दिया। कारवाँ द्वारा अजित डोभाल के बेटे पर सवाल उठाने वाले फ़र्ज़ीवाड़े का भी अनुवाद करने के बाद इन्होंने कोई माफ़ी नहीं माँगी।

चलिए माफ़ी भी मत माँगिए, लेकिन ये तो लिख ही सकते हैं कि चौंकाने और सन-सननन-साँय-साँय कराने से लेकर ‘बताता है कि इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं’ वाले लेख को सत्य मानकर आपने जो ब्रह्मज्ञान अपने फ़ेसबुक वाल और प्राइम टाइम में दिया, उस पर लेटेस्ट ये चल रहा है। जब आदमी कोर्ट में केस करता है तो फिर आप ‘फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन’ पर आ जाते हैं, प्रेस फ़्रीडम पर अटैक दिखने लगता है आपको!

मतलब, आपने जो लिख दिया वही अंतिम सत्य है, और एक नागरिक को कोर्ट जाने का भी अधिकार नहीं क्योंकि आपने उस आर्टिकल का अनुवाद किया है? या आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के जज तभी तक कंपीटेंट हैं जब तक वो आपके मतलब की बातें करते हैं, और बाकी समय वो बेकार हो जाते हैं? ये किस तरह का अप्रोच है?

आप आधे समय टीवी नहीं देखने की बात करते हैं, और यह भी बताते हैं कि टेलिग्राफ़ का घटिया शीर्षक कैसे नए पत्रकारों के लिए सीखने लायक है। जबकि आपको पता है कि वो सीखने लायक नहीं, खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे से आगे कुछ भी नहीं है।

आज भी आपने राफ़ेल वाले मुद्दे पर एन राम के लेख का अनुवाद करते हुए आपने विस्तार से लिख दिए। आधे घंटे में सरकार ने, उस नेगोशिएशन टीम ने और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने ख़ारिज कर दिया। यही नहीं, आपके सामने भी तो उसी सोशल मीडिया पर उस नोट का पूरा भाग आया होगा, क्या आपने उसी नोट का सही हिस्सा कभी लगाया अपने वाल पर?

लेख लिखने के 8 घंटे बाद तक भी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिखा इनके वाल पर

या आपको लगता है कि आपने जो लिख दिया वो लिख दिया? क्या आपकी बुद्धि इतनी क्षीण पड़ गई है कि आपको ये पता नहीं चल रहा कि ‘द हिन्दू’ ने जानबूझकर ऊपर और नीचे के हिस्सों को क्रॉप कर दिया था? क्या आपने कहीं ये लिखा कि इससे एन राम की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है?

आपने नहीं लिखा, क्योंकि वो आपको सूट नहीं करता। हो सकता है आप शाम में प्राइम टाइम भी कर दें, और ये साबित करने में तैंतीस मिनट निकाल दें कि ‘अगर इतना कुछ हो रहा है तो जाँच क्यों नहीं करा लेती सरकार’? जबकि, आपको अच्छे से पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपना निर्णय दे दिया है। आपको अच्छे से पता है कि रक्षा मसलों को पब्लिक में गोपनीयता और द्विपक्षीय संधियों के कारण नहीं रखा जा सकता।

लेकिन इससे आपका मन नहीं भरता। क्योंकि आप लगातार झूठ की चाभी टाइट करके अपने करियर को रेंगने के लिए ऊर्जा दे रहे हैं। जब पूरे भारत में बिजली आती है तो आप चौंतीस मिनट बताते हैं कि तीन गाँव में तो नहीं आई। इस बात पर आप तीन मिनट ही बोलते कि ‘सरकार का दावा गलत है, लेकिन बिजली पहुँचाना एक बहुत बड़ी बात है’, तो भी समझ सकता था।

झूठ बोल कर निकल लेना आपकी आदत और मजबूरी दोनों ही है। आप आज के प्राइम टाइम में फिर से यही बात कहेंगे कि ‘जाँच से पीछे क्यों हट रही है सरकार’। आपको देखने वाले रवीश भक्त भी सोशल मीडिया पर बवाल काट देंगे कि ‘हाँ भाई, जाँच से क्यों भाग रही है सरकार’। जबकि आप जानते हैं, आप ये कहते रह सकते हैं, क्योंकि जो जाँच होनी थी वो हो गई, बस आपको मैग्निफाइंग ग्लास लेकर राफ़ेल के कॉकपिट में राहुल गाँधी के साथ बुलाना रह गया है!

पत्रकारिता सरकार के विरोध में ही नहीं होती, पत्रकारिता समाज को सूचित करने को कहते हैं। सरकार की ख़ामियों को भी बताइए, और उपलब्धियों को भी। उपलब्धियों के प्रतिशत में हेर-फेर लगे तो बत्तीस मिनट उपलब्धि पर बोलकर, तीन मिनट बताइए कि डेटा गलत दे रही है सरकार। मैं अब ये नहीं कहता कि मैं रवीश का प्राइम टाइम देखा करता था, क्योंकि अब आपने सुधरने की उम्मीद छोड़ दी है। मतलब, संभावना नहीं दिखती।

आपको तो अनुभव है इतना कि आप पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ सकते हैं। एन राम जैसे लोगों का पतन देखकर लगता है कि पत्रकारिता विचारधारा से ऊपर कभी नहीं उठ सकती। ये लोग स्तम्भ हुआ करते थे, लोग आपके रिपोर्ट की क़समें खाते थे, आईएएस बनने की इच्छा रखने वाले इसी ‘हिन्दू’ को पढ़कर इंटरव्यू में कोट करते थे।

अब यही एन राम, यही हिन्दू और यही रवीश कुमार हर दिन ऐसे कारनामे कर रहे हैं कि मुझे कोई कल को पूछे कि पत्रकारिता में क्या नहीं करना चाहिए तो इनके नाम बताने में झिझक नहीं होगी। आप और आपका गिरोह पत्रकारिता के नाम पर कलंक है। आप टीवी पर आने वाले एक अवसादग्रस्त व्यक्ति हैं, पत्रकार नहीं।

आपको आयुष्मान योजना का लाभ लेकर मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए, उसके बाद अपने पुराने संस्थान में लौटकर, नए लोगों से बात करनी चाहिए। और अंत में अपनी ही रिपोर्ट देखनी चाहिए जो आपने नौकरियों पर की, एसएससी पर की, गाँवों पर की, राजनीति पर की। आप वो कार्यक्रम देखिएगा जो आपने राजनीति पर की, न कि किसी नेता या पार्टी पर।

एयर मार्शल प्रमुख एसबीपी सिन्हा ने कहा ‘हिंदू रिपोर्ट राफ़ेल डील को खराब करने का प्रयास है’

राफ़ेल सौदे में भारत की तरफ़ से कीमतों को तय करने वाली टीम का नेतृत्व करने वाले एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा ने कहा कि एयर- II के उप सचिव एसके शर्मा इस टीम का हिस्सा नहीं थे।

एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा ने राफ़ेल सौदे के लिए भारतीय वार्ता टीम (INT) का नेतृत्व किया था। उन्होंने राफ़ेल मुद्दे पर द हिंदू की रिपोर्ट पर आश्चर्य व्यक्त किया है। सिन्हा ने कहा इस रिपोर्ट में तथ्यों को छिपाकर पेश किया गया है। सिन्हा ने आगे यह भी कहा कि इस तरह के लेख राफ़ेल सौदे को खराब करने का प्रयास है।

एसपी सिन्हा ने कहा कि हिन्दू में इस मामले में लेख लिखने वाले एसके शर्मा इस टीम का हिस्सा ही नहीं थे। सिन्हा ने लेख पर सवाल उठाते हुए कहा कि शर्मा ने रक्षा सौदे को बिगाड़ने के लिए कहीं किसी के इशारे पर यह लेख तो नहीं लिखा है?

दरअसल इंडियन नेगोशिएटिंग टीम (INT) का नेतृत्व भारतीय वायु सेना के उप-प्रमुख द्वारा किया गया था। संयुक्त सचिव और अधिग्रहण प्रबंधक (वायु), संयुक्त सचिव (रक्षा ऑफसेट प्रबंधन विंग), संयुक्त सचिव और अतिरिक्त वित्तीय सलाहकार इस टीम के हिस्सा थे। इसके अलावा वायु स्टाफ के सहायक प्रमुख (योजना) सदस्य के रूप में, प्रबंधक (वायु) सलाहकार (लागत) भी इस टीम में होते हैं।

ऐसे में यह आश्चर्य की बात है कि एसके शर्मा जब इस दल के हिस्सा ही नहीं थे, तो उन्हें राफ़ेल डील से जुड़ी कोई जानकारी कैसे हो सकती है।

उन्होंने यह भी कहा कि द हिंदू के लेख में जो लिखा गया है वह राफ़ेल डील से जुड़ी आंतरिक सूचना है। ऐसे में एयर II के उप सचिव एसके शर्मा को डील से जुड़ी जानकारी नहीं है तो उन्होंने बगैर किसी तथ्य के यह लेख कैसे लिखा यह सोचने वाली बात है।

यह एक आतंरिक नोट है। एसपी सिन्हा ने यह भी कहा कि इस नोट का भारतीय निगोशिएशन टीम से कोई लेना-देना नहीं है। संयुक्त सचिव और एक्वीजीशन मैनेजर (एयर) ने भारतीय निगोशिएशन टीम का हिस्सा होने के बावजूद उस नोट को कैसे आगे बढ़ाया जिसे रक्षा मंत्रालय ने ख़ारिज कर दिया था। निगोशिएशन टीम को बताए बगैर उन्होंने ऐसा करके रक्षा मंत्रालय के नियमों का उल्लघंन किया है।

‘द हिंदू’ की राफ़ेल कहानी का उल्लेख करते हुए, एसपी सिन्हा ने यह भी कहा कि यह लेख तथ्यों को छिपाकर 36 राफ़ेल जेट की खरीद के लिए हुई बातचीत को खराब करने का प्रयास था। उन्होंने कहा कि नोट एक आंतरिक मामला था और इसका भारतीय वार्ता टीम से कोई लेना-देना नहीं था।

सिन्हा की मानें तो अखबार में छपी बातों का राफ़ेल के मूल्य निर्धारण से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा कि यह बातचीत न केवल मूल्य निर्धारण के लिए बल्कि अन्य चीजों के लिए भी है। उन्होंने अखबार में छपी खबर के बारे में कहा कि यह संप्रभु गारंटी और सामान्य नियमों और शर्तों के बारे में था। इससे ज्यादा इसका निगोशिएशन से कुछ लेना देना नहीं है।

राहुल गाँधी के नित्य उड़ते ‘राफ़ेल’ और देश की धूमिल होती छवि

जोसेफ गोएबल्स का एक कथन है कि झूठ को इतनी बार बोलो कि वह सच बन जाए। दुर्भाग्य से कॉन्ग्रेस पार्टी आजकल यही कर रही है। राफ़ेल खरीद को लेकर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी इतने झूठ बोल चुके हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी कही गई किसी भी बात को अब सच मान लिया जाएगा। लेकिन अपने इन सैकड़ों झूठ के पीछे की सच्चाई या तो राहुल गाँधी समझ नहीं पा रहे हैं या समझने से जी चुरा रहे हैं।

किसी भी देश की रक्षा व्यवस्था उसके समूचे सुरक्षा ढाँचे का महत्वपूर्ण अंग होता है। आजकल पारंपरिक युद्धों का ज़माना तो रहा नहीं फिर भी जल, थल और नभ में तैनात बड़े और भारी भरकम हथियार आयुध भंडार की शोभा बढ़ाते हैं। बड़ी-बड़ी मिसाइलें, विमान वाहक युद्धपोत, परमाणु पनडुब्बियाँ, और युद्धक विमान शत्रु को पहले हमला न करने देने के मकसद से बनाए जाते हैं। इसे हम ‘deterrence’ कहते हैं। आज विश्व का पूरा हथियार उद्योग इसी ‘deterrence’ पर टिका हुआ है।

भारत को किन देशों से खतरा है यह ऐसे नहीं समझ में आता। जब हम दक्षिण एशिया का सामरिक मानचित्र देखते हैं तब समझ में आता है कि पाकिस्तान और चीन ने अपने आयुध भंडार में हमारे विरुद्ध कितने सारे हथियार जमा कर लिए हैं। इसी कारण भारत को भी दक्षिण एशिया में अपनी सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए मिसाइलों, एयरक्राफ्ट करियर और परमाणु क्षमता वाले युद्धक विमानों की आवश्यकता है।

भारतीय वायुसेना में कम से कम 44 स्क्वाड्रन की आवश्यकता है लेकिन हमारे पास अभी केवल 32-35 स्क्वाड्रन हैं। अटल जी ने प्रधानमंत्री रहते हुए वायुसेना की स्क्वाड्रन बढ़ाने के लिए राफ़ेल विमान खरीद को मंज़ूरी दी थी। रक्षा क्षेत्र में खरीद और तकनीकी हस्तांतरण की नीति भारत में एक दिन में नहीं उपजी बल्कि विगत दो दशकों में इसका क्रमिक विकास हुआ।

दरअसल सन 2001 से पहले भारत के पास कोई स्थाई रक्षा खरीद एवं प्रबंधन की लिखित प्रक्रिया नहीं थी इसीलिए बोफोर्स और अन्य घोटाले सामने आते थे या होने की आशंका बनी रहती थी। 2001 के बाद रक्षा मंत्रालय ने क्रमशः 15 वर्ष, 5 वर्ष और सालाना एक्वीजीशन प्लान के अंतर्गत नीतियाँ बनाईं और यह निर्धारित किया कि हमें क्या कब और किस मात्रा में खरीदना है।  

सन 2001 में पहली बार Defence Procurement Management Structures and Systems बनाया गया और उसके बाद 2002 में पहली बार Defence Procurement Procedure (DPP) दस्तावेज़ तैयार हुआ। इस दस्तावेज़ में तब से अब तक कई संशोधन हो चुके हैं। अंतिम DPP 2016 में जारी हुई थी। राफ़ेल की खरीद और ऑफसेट नीति इसी दस्तावेज़ की नियमावली पर आधारित है जिसके अनुसार वर्ष 2019 के अंत तक राफ़ेल युद्धक विमानों की पहली खेप भारतीय वायुसेना को मिल जाएगी।

ऑफसेट नीतियों के अनुसार रिलायंस और अन्य कंपनियों को विमान के पार्ट बनाने का ठेका और अन्य तकनीक हस्तांतरित की जाएगी। लेकिन राहुल गाँधी ने राफ़ेल की खरीद पर लगातार अनर्गल बचकाने बयान और आरोपों की झड़ी लगाते हुए 18 वर्षों में हुई इस प्रगति की छवि उसी तरह धूमिल करने का प्रयास किया जैसे उनके पिताजी ने बोफोर्स खरीद में हुए घोटाले के आरोपी क्वात्रोच्चि को भगाकर किया था।

आखिर प्रधानमंत्री पर अपने बेसिरपैर के आरोपों से राहुल गाँधी क्या सिद्ध करना चाहते हैं? यही कि उन्हें भारत का मानचित्र देखने की भी फुर्सत नहीं है? या फिर वो यह बताना चाहते हैं कि देखो कॉन्ग्रेस की सरकार में एक अदद रक्षा खरीद नीति तक नहीं निर्मित हो पाई थी? स्पष्ट है कि राहुल गाँधी को देश की सामरिक ताक़त बढ़ने से कोई मतलब नहीं है। वो केवल ढेला फेंक कर भागने वाली टुच्ची राजनीति करने में मशगूल हैं। और इस कृत्य में उन्होंने एन राम जैसे खलिहर पत्रकारों को भी मिला लिया है।

वैसे राहुल गाँधी की अधिक गलती भी नहीं है। उनके ख़ानदान में तो सेना के मनोबल को गिराने वाले प्रधानमंत्रियों का इतिहास रहा है। नेहरू के समय ही जीप घोटाला हुआ, इंदिरा गांधी के समय 1971 का युद्ध जीतने के पश्चात् वन रैंक वन पेंशन खत्म कर दी गई थी। कहते हैं कि जब जनरल सर रॉय बुचर डिफेंस मॉडर्नाइजेशन का प्लान लेकर नेहरू के पास गए थे तो नेहरू ने उनसे कहा था कि भारत को सेना की ज़रूरत ही नहीं है। यह नेहरूवियन मानसिकता ही है जिसके कारण देश में रक्षा-सुरक्षा विषयों के उत्कृष्ट जानकार पत्रकारों की कमी है। जो हैं वे लुटियन दिल्ली में बैठकर सेना की एक टुकड़ी के एक मूवमेंट को सैन्य तख्तापलट साबित करने का षड्यंत्र रचते हैं।     

2004-14 तक सोनिया गाँधी सत्ता में प्रत्यक्ष दखलंदाज़ी करती थीं, तो ऐसा क्या हुआ था कि डॉ मनमोहन सिंह ने अंतिम चरण में पहुँच चुकी (कॉन्ग्रेस के अनुसार) राफ़ेल डील पर हस्ताक्षर नहीं किए? इसका जवाब राहुल गांधी क्यों नहीं देते? डॉ मनमोहन सिंह ने अपने  कार्यकाल में किससे पूछ कर भारत-पाक के मध्य ‘सॉफ्ट बॉर्डर’ बनाने के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था? सियाचेन का विसैन्यीकरण कर नियंत्रण रेखा को स्थाई सीमा बनाने का विचार मनमोहन सिंह के दिमाग में कैसे आया था? राहुल गांधी को बचकाने सवालों के राफ़ेल उड़ाने से पहले इन सवालों के जवाब देने चाहिए।

लाशों में गौ सेवा और शराब ले आने वाले संवेदनहीन अखिलेश अपने समय की 33 मौतें भूल गए

उत्तर प्रदेश में ज़हरीली शराब को पीने के कारण सहारनपुर के अलग-अलग गाँवों में 16 लोग और कुशीनगर में 10 लोग अपनी जान से हाथ धो चुके है। यूपी में इन ज़हरीली शराबों की वजह से कुल 26 मौतें हो चुकी हैं। साथ ही दर्जनों लोग अस्पताल में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं।

ज़ाहिर है ऐसे संवेदनशील मामले पर सरकार द्वारा सख़्त कार्रवाई की जानी चाहिए। इसलिए प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने मामले में सख़्ती बरतते हुए जिलाधिकारियों को जल्द कार्यवाई करने के आदेश भी दिए हैं।

एक तरफ जहाँ इन घटनाओं से प्रदेश में दहशत फैली हुई है और प्रशासन में भी हड़कंप मचा हुआ हैं, वहीं मौके का फ़ायदा उठाते हुए पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने इस मामले पर भी राजनीति करनी शुरू कर दी। ज़हरीली शराब के कारण लगातार हो रहीं मौतों के बीच अखिलेश ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तंज कसते हुए इन मौतों का ज़िम्मेदार मुख्यमंत्री योगी और उनकी सरकार को बताया।

अखिलेश के बयान पर बात करने से पहले बता दें कि कुछ दिनों पहले यूपी सरकार ने पूरे राज्य में गोशालाएँ बनाने के लिए गौ कल्याण उपकर (सेस) लगाने का फ़ैसला किया था। इसके तहत 0.5 प्रतिशत सेस शराब के अलावा यह ‘कर’ उन सभी वस्तुओं पर है, जो उत्पाद कर के दायरे में आती हैं। लेकिन अखिलेश ने सरकार के फैसले को अपने बयान के साथ खूब तोड़-मरोड़ कर पेश किया।

अखिलेश ने लखनऊ स्थित सपा के दफ्तर में कहा कि योगी सरकार ने शराब पर गौ कल्याण टैक्स लगाया है। सरकार ने लोगों को लालच दिया है कि गाय सेवा सिर्फ़ तभी अच्छी होगी जब लोग शराब ज्यादा पिएँगे। अखिलेश का कहना है कि ग़रीब को नहीं पता है कि उसे कौन-सी शराब पीनी है। लेकिन सरकार को सब पता है, शराब पीने वालों को बढ़ाना चाहती है। उनका मानना है कि सरकार को यह भी पता है कि कौन ऐसी ज़हरीली शराब बना रहा है।

अखिलेश यादव के ऐसे बयानों को सुनकर लगता है कि योगी सरकार पर लगातार किसी भी मामले में, किसी भी तरह से आरोप लगाने वाले पूर्व सीएम अपना समय भूल गए हैं। योगी सरकार पर उँगली उठाने वाले अखिलेश भूल रहे हैं कि उनके राज में उन्नाव और लखनऊ में 33 लोगों की मौतें ज़हरीली शराब पीने से हुई थी। इसके बाद तात्कालीन सरकार और प्रशासन की ओर से काफ़ी बड़े-बडे़ दावे भी किए गए थे।

ऐसे में अखिलेश का इस मामले पर योगी सरकार को घेरना बेहद शर्मनाक है क्योंकि अखिलेश भी ऐसी स्थिति का सामना अपने शासनकाल में कर चुके हैं। जिनका सामना आज योगी आदित्यनाथ की सरकार कर रही है। अगर कोई शख़्स अपने घर पर शराब पी ले और उसे कुछ हो जाए तो उसकी ज़िम्मेदारी राज्य की नहीं होती। स्थिति को सुधारने पर बात करने से ज़्यादा अखिलेश का सरकार पर आरोप मढ़ना दर्शाता है कि वो सिर्फ़ मौक़ापरस्त राजनीति को हवा दे रहे हैं।

ज़हरीली शराब पीने से कई राज्यों में कभी न कभी दुर्भाग्यपूर्ण मौतें होती रही हैं। ऐसे लोगों पर, जो ऐसी शराब बनाते हैं, किसी सरकार ने एक्शन लिया होगा, किसी ने नहीं। ये हमें पता नहीं चलता क्योंकि मीडिया मौत की संख्या बता कर, सरकारों को कोस कर नए मुद्दे तलाशने में लग जाती है।

ख़ैर, अच्छा होता कि अखिलेश यादव अपनी संवेदनहीनता को, अपने समय में मौत होने के बावजूद, इस बात तक ही सीमित रखते कि उत्तर प्रदेश में ज़हरीली शराब कौन बना रहा है। उनका ये सवाल उचित होता कि प्रशासन आख़िर क्यों इन शराब की भट्टियों को चलने देता है। अगर वो लाइसेंस वाले हैं, तो अखिलेश यादव उन पर हत्या के मुक़दमे चलाने की बात कर सकते थे।

लेकिन नहीं, इन तार्किक बातों को छोड़कर उन्होंने लोगों की मौत को गाय और राजस्व से जोड़ दिया। इस तरह की बयानबाज़ी बताती है कि अखिलेश को लोगों की मौत से कोई लेना-देना नहीं, उन्हें बस मुस्कुराते हुए मज़े लेने की आदत है क्योंकि आजकल बुआ-बबुआ गठबंधन के बाद खाली बैठे हैं।