Monday, September 30, 2024
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ममता बनर्जी को बड़ा झटका: TMC के कई सांसदों के BJP में शामिल होने की संभावना

पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को रथयात्रा से चुनावी अभियान शुरू करनी थी लेकिन राज्य सरकार द्वारा अनुमति न देने के कारण ये संभव न हो सका। अगर ताजा घटनाक्रमों की बात करें तो तृणमूल कॉन्ग्रेस के कई सांसद पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं और उनके पार्टी को छोड़ कर भाजपा का हाथ थामने की सम्भावना है। कल ही (9 जनवरी) तृणमुल कॉन्ग्रेस के 38 वर्षीय सांसद सौमित्र ख़ान अपने समर्थकों सहित भाजपा में शामिल हो गए थे, जिसे राज्य के राजनीतिक समीकरण में बड़े उलटफेर की सम्भावना के रूप में देखा गया। भाजपा नेता मुकुल रॉय ने इस अवसर पर कहा कि तृणमूल के छह सांसद उनके संपर्क में हैं, जो आम चुनावों से पहले भाजपा में शामिल होना चाहते हैं।

बोलपुर से सांसद अनुपम हाज़रा के भी भाजपा में शामिल होने की ख़बरों के बीच तृणमूल कॉन्ग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया है। ख़बरों के अनुसार वो भी जल्द ही भाजपा में शामिल होंगे।

बता दें कि मुकुल रॉय भी पूर्व में TMC के नेता रहे हैं, जो नवंबर 2017 में भाजपा में शामिल हुए थे। केंद्र सरकार में रेल मंत्री रह चुके रॉय और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सौमित्र ख़ान का भाजपा में स्वागत किया। इस अवसर पर ख़ान ने कहा कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ काम करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में सिंडिकेट राज और पुलिस राज साथ-साथ चल रहे हैं। वहीं प्रधान ने कहा कि 2019 के आम चुनावों में पूर्वी भारत प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बड़ा किला होगा और ये उसी दिशा में लिए गया एक स्टेप है।

भाजपा में शामिल होने से पहले विष्णुपुर से सांसद ख़ान ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से भी मुलाक़ात की थी। उनके पार्टी में आने के बाद भाजपा को पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में बड़ी बढ़त मिलने की उम्मीद है, जहाँ पहले ही 234 ग्राम पंचायत जीत कर पार्टी के हौसले बुलंद हैं। सूत्रों का ये भी कहना है कि अभी भी TMC में मुकुल रॉय के बहुत से वफ़ादार नेता हैं, जो जल्द ही भाजपा ज्वॉइन कर सकते हैं।

बंगाल के राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा भी काफी जोरों पर है कि भाजपा ज्वॉइन करने वाले तृणमूल नेताओं में अगला नंबर अर्पिता घोष और शताब्दी रॉय का हो सकता है। अर्पिता घोष बलुर से सांसद हैं और बंगाली फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री रही शताब्दी रॉय वीरभूमि से सांसद हैं।

बंगाल में पल-पल बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम और तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ भाजपा द्वारा चलाए जा रहे आक्रामक अभियान ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सकते में डाल दिया है। 19 जनवरी को भाजपा के खिलाफ़ शक्ति प्रदर्शन की तयारी कर रही तृणमूल कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा ममता बनर्जी की रैली को वामदलों ने भी नकार दिया है, जिससे उनके विपक्षी एकता दिखाने के मंसूबों पर पानी फिर सकता है। भाजपा के खिलाफ एक ‘संघीय ढाँचे’ को खड़ा करने की कोशिश में लगी ममता के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा रहा है। अब राजनीतिक पंडितों की निगाहें इस रैली की तरफ टिकी हैं, जिस से बंगाल की राजनीति में आगे का रुख़ तय होगा।

आरक्षण बिल पर अमित शाह ने रामगोपाल यादव को संसद में दिया करारा जवाब- याद दिलाया मुस्लिम आरक्षण

नए आरक्षण बिल के आ जाने के बाद विरोधियों में हड़कंप मचा हुआ है। ऐसी स्थिति में संसद सभा में गरीब सामान्य वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के ऊपर बहुत देर तक बहस हुई। गरमाई हुई इस चर्चा के दौरान सपा के नेता रामगोपाल यादव और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के बीच काफ़ी बड़ी बहस देखने को मिली।

इस बहस ने उस समय और भी ज्यादा तीखा रूप ले लिया जब सपा के नेता रामगोपाल यादव ने बीजेपी सरकार द्वारा लाए आरक्षण बिल को बेमतलब का बताया और कहा कि इस बिल का कोई भी फ़ायदा नहीं है। जिसके बाद अपनी पार्टी के इस ऐतिहासिक कदम के समर्थन में अमित शाह ने रामगोपाल को मुस्लिम आरक्षण की याद दिला दी।

दरअसल, संसद में सामान्य वर्ग को मिलने मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण पर चर्चा करते हुए रामगोपाल यादव ने कहा कि सरकार बिल ला रही है उससे कोई लाभ नहीं होने वाला है, उनका कहना है कि सरकार जिन गरीबों को आरक्षण देने की बात कहकर बिल लाई है, उन्हें लाभ नहीं मिलेगा।

अपनी इस बात पर रामगोपाल ने अपना आगे मत रखते हुए कहा, “उन लड़को की जब मेरिट आएगी तो वो को काफी ऊपर रहेगी। इसका मतलब है कि आप लोगों ने जो मेरिट का आँकड़ा था वो आपने छोटा कर दिया, आपने मेरिट को शॉर्ट कट कर दिया और संख्या को बढ़ा दिया। एक साल बाद आपको असर दिखने लगेगा।”

रामगोपाल यादव की इसी बात पर उन्हें बीच में रोककर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, “आप मेरिट की बात कर रहे हैं लेकिन जब आप मुस्लिम आरक्षण लाए, तब क्या मेरिट की संख्या कम नहीं हुई? आप तो मुस्लिम आरक्षण ले आए, तो मेरिट के बच्चों का क्या होगा, आप अपना 2012 का मेनिफेस्टो देख लीजिए।”

इस गर्मा-गर्मी के दौरान रामगोपाल ने कहा कि उनकी पार्टी इस बिल का समर्थन करती है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सरकार यह बिल कभी भी ला सकती थी, लेकिन भाजपा सरकार का लक्ष्य आर्थिक रूप से गरीब सवर्ण की स्थिति सुधारना नहीं बल्कि 2019 का चुनाव है। उनका कहना है कि अगर बीजेपी के दिल में ईमानदारी होती तो 3 या 4 साल पहले यह बिल आ चुका होता।

TMC सांसद सौमित्र ख़ान ने भी थामा BJP का दामन – ममता की मुश्किलें बढ़ीं

तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसद सौमित्र ख़ान ने आख़िरकार बड़ा क़दम उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम ही लिया। इस तरह तृणमूल कॉन्ग्रेस को अपने कई साथियों को गँवाना पड़ा।

TMC के वरिष्ठ नेता का भाजपा में शामिल होने का क़दम ममता बनर्जी को इस साल के अंत में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले झटका देगा। भाजपा की नज़र बंगाल पर है और ऐसे में नेताओं द्वारा तृणमूल का साथ छोड़ना ममता के लिए एक बड़ा घाटा साबित हो सकता है।

जानकारी के अनुसार, भाजपा नेता और पूर्व TMC नेता मुकुल रॉय ने दावा किया है, कि कम से कम 5 और सांसद उनके संपर्क में थे और आम चुनाव से पहले भाजपा में शामिल होना चाहते थे। ऐसा होने से ममता के लिए यह विषय निश्चित तौर पर चिंता का विषय है।

TMC कैडरों के भगवा पार्टी में भारी सँख्या में शामिल होने से संबंधित ख़बरें पहले भी सामने आईं थी। इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी भविष्यवाणी की थी कि पार्टी बंगाल में 22 लोकसभा सीटें जीतेगी।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इन परिस्थितियों में ममता बनर्जी निश्चित रूप से राजनीतिक दबाव महसूस कर रही हैं और कहीं न कहीं भाजपा के खेल को खेलने के लिए मजबूर भी होंगी।

2018 में, पार्टी द्वारा राम नवमी के जश्न के दौरान भाजपा पर साम्प्रदायिक विभाजन का आरोप लगाने के एक साल बाद, TMC ने भी घोषणा की कि वह त्योहार मनाएगी। RSS ने इसे नैतिक जीत के रूप में स्वीकार किया।

मुख्य तौर पर राज्य में भाजपा के उदय ने पंचायत चुनावों के दौरान राज्य में राजनीतिक बदलाव को बढ़ावा मिला। हालाँकि, इस सबके बावजूद, ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा निरंतर साम्यवादी राज्य में वृद्धि-दर-वृद्धि कर रही है।

निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि राजनीति के बदलते परिवेश में भाजपा का क़द न सिर्फ़ बढ़ रहा है, बल्कि अन्य पार्टी के नेताओं के इस साकारात्मक रुख़ से आगामी चुनाव में अपना बेहतर प्रदर्शन करने और जीत का परचम लहराने की दिशा की ओर अग्रसर है।

31 जनवरी को पेश करेगी मोदी सरकार इस लोकसभा का अंतिम बजट

सरकारी सूत्रों के अनुसार संसद का बजट सत्र 31 जनवरी से 13 फ़रवरी के बीच आयोजित किया जाएगा और 1 फ़रवरी को अंतरिम बजट पेश किया जाएगा। संसदीय मामलों की कैबिनेट कमेटी (CCPA) में यह फैसला लिया गया है। यह बजट सत्र इस कारण भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अप्रैल-मई में आम चुनाव होने के कारण यह वर्तमान लोकसभा के लिए आखिरी बजट सत्र है और सरकार कुछ ज़रूरी घोषणाएँ भी कर सकती है।

क्योंकि यह बजट सत्र लोकसभा चुनावों से ठीक पहले होगा, इसलिए आम आदमी की निगाह सरकार की ओर रहने वाली है। मौजूदा शीतकालीन सत्र में सरकार कुछ ऐसे विधेयक पास कराने में सफल रही है, जो जनता के लिए बेहद चौंकाने वाले थे। इसमें, सरकार सामान्य श्रेणी के गरीबों के लिए 10% आरक्षण का 124वाँ  संविधान संशोधन विधेयक ला चुकी है, जिसे लोकसभा में पारित किए जाने के बाद राज्यसभा में पारित किया जाना बाकी है। इसके अलावा, नागरिक संशोधन विधेयक को पास किया जाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती साबित हुई है, हालाँकि सरकार ने इसे सदन में पारित कर दिया है।

पिछले सत्र की तरह ही विपक्ष इस बजट सत्र में भी व्यवधान डालकर सत्र का समय ख़राब करने की पूरी कोशिश कर सकता है। आख़िरी वर्ष के बजट सत्र में आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर विपक्ष पहले भी समय बर्बाद कर चुका है। सरकार अन्य लंबित मामलों को इस सत्र में लाने का प्रयास करेगी, इसलिए यह देखना होगा कि विपक्ष सरकार के क्रियाकलापों में बाधा डालने की फिर से कोशिश करता है या नहीं?

जिस वर्ष लोकसभा चुनाव होते हैं उसमें मौजूदा सरकार ही अंतरिम बजट पेश करती है, बाद में नई सरकार पूरा बजट पेश करती है। फरवरी 2014 में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अंतरिम बजट पेश किया था, इसके बाद जुलाई में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में पूरा बजट लाए थे।

आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्गों को आरक्षण सही मायने में ‘सबका साथ सबका विकास’

जब संविधान निर्माताओं ने संविधान रचना की, तो उनके मन में यह सवाल था कि कैसे वंचितों को समाज में आगे बढ़ने की सहूलियत दी जाए। तब आरक्षण की व्यवस्था को सरंक्षण का साधन बनाया गया। वंचितों के रूप में सबसे पहले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान की गई। पिछड़ापन का आधार सामाजिक और शैक्षणिक तय किया गया। उस समय अर्थ को आधार इसलिए भी नहीं बनाया गया क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद बहुत बड़ी जनसंख्या ग़रीबी के चंगुल में थी।

शुरुआती क़दम के रूप में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आगे बढ़ने का रास्ता देना सबसे पहले ज़रूरी समझा गया। उन्होंने उनके लिए थोड़े समय के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी। उद्देश्य था कि वे अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ, कालान्तर में यह मामला राजनीतिक रंग में रंगता चला गया। सत्ता की सड़क पर चलने के लिए बैसाखी की तरह इसका इस्तेमाल लगभग हर राजनीतिक पार्टी अपनी सुविधानुसार करने लगी और इसकी मूल भावना लुप्त हो गई।

बाद में पिछड़ों की गिनती में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC) को भी शामिल करने की कवायद चली। कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें आरक्षण देने के फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल बिहार की राजनीति में अपनी पकड़ बनाने के लिए किया। परिणामस्वरुप उन्हें पिछड़ी जातियों का व्यापक समर्थन भी मिला था। उसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी मंडल कमीशन को लागू करके इस खेल को आगे बढ़ाया। मंडल कमीशन का गठन इंदिरा गाँधी ने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ही किया था।

उसके बाद उत्तर भारत में कांशीराम, मायावती, मुलायम और लालू की राजनीति तो दक्षिण भारत में करूणानिधि, जयललिता आदि लगभग सभी राजनेताओं की राजनीति कभी आरक्षण की वक़ालत कर तो कभी जनता को डराकर कि दूसरी पार्टियाँ, ख़ास तौर से बीजेपी, आरक्षण ख़त्म कर देंगी, चलती रही। आरक्षण न सिर्फ शिक्षण संस्थाओं बल्कि नौकरियों और यहाँ तक की प्रमोशन में भी दिया गया। इस तरह आरक्षण का खेल चलता रहा लेकिन आरक्षण का आधार जाति बानी रही क्योंकि भारत में जाति हमेशा से सामाजिक पहचान का कारण रही। जो जातिरुढ़ समाज बनने का प्रमुख कारण भी है। और आज एक तरफ़ हम समरसता पूर्ण समाज समाज चाहते हैं तो दूसरी तरफ़ आरक्षण की वज़ह से पिछड़ों की जातिगत पहचान भी क़ायम रखना चाहते हैं।

अगर हम राजनीति को एक तरफ़ रखकर सोचें तो, क्या लगता है आपको? क्या सिर्फ़ शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन ही पिछड़ापन है? अगर आपके पास धन-सम्पत्ति नहीं तो क्या आप अपना शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन दूर कर पाएँगे? ऐसे बहुत से लोग हैं जो कहने को अगड़े जाति (सामान्य) में आते हैं लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब है कि वो बेहद दयनीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। ऐसा नहीं है कि यह तथ्य अभी तक नज़रों से ओझल रहा हो। लेकिन अधिकांश दल एक तरह के आरक्षण को सही और दूसरे तरह के आरक्षण को गलत साबित करने में अपनी ऊर्जा खपाते रहें हैं।

और आज जब आर्थिक रूप से वंचितों को, जो अभी तक किसी भी तरह के सरंक्षण के दायरे में नहीं थे, को भी समाज की मुख़्य धारा में शामिल करने की एक कोशिश की जा रही है तो उसे राजनीति से प्रेरित बताकर ख़ारिज करने की कोशिश की जा रही है पर अफ़सोस ऐसा मंसूबा होने के बावजूद अधिकांश विपक्षी दल कसमसाहट के साथ ही सही, पर समर्थन देने को मज़बूर हैं।

आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण देने के मोदी सरकार के फ़ैसले को एक राजनीतिक फ़ैसला बताना और ये कहना कि इसका मक़सद चुनावी लाभ लेना है, उतना ही हास्यास्पद है जैसे छिपे तौर पर सही, बाक़ी दल इसका विरोध महान जनकल्याण के लिए कर रहे हों। उसका राजनीति से कोई लेना-देना न हो।

कोई भी राजनीतिक दल हो वह जनहित के फैसले लेते समय यह अवश्य देखता है कि उससे उसे कोई राजनीतिक और चुनावी लाभ मिलेगा या नहीं? इसी कारण एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम बना। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई और अन्य पिछड़ा वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। मनरेगा कानून भी राजनीतिक हित साधने के लिए ही अस्तित्व में आया और यहाँ तक कि खाद्य सुरक्षा कानून भी। कुल मिलाकर किसी भी राजनीतिक दल या फिर सरकार से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह जनहित का फैसला लेते समय अपने हित की चिंता न करे। एक तरह से, यह सही मायने में ‘सबका साथ सबका विकास’ ही है जो अब सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए लाए गए 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के रूप में सामने आया है।   

मोदी सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को, इसमें सिर्फ़ हिन्दू धर्मावलम्बी अनारक्षित जातियों को ही नहीं बल्कि मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों को भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10% आरक्षण देने का फैसला लिया गया है। केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत ने लोकसभा में इससे संबंधित बिल पेश किया। सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए संवैधानिक संशोधन विधेयक 2018 (कांस्टीट्यूशन एमेंडमेंट बिल टू प्रोवाइड रिजर्वेशन टू इकोनॉमिक वीकर सेक्शन-2018) लोकसभा में पेश किया। इस विधेयक के जरिए संविधान की धारा 15 व 16 में बदलाव सुनिश्चित किया गया है। बिल लोकसभा में लंबी चर्चा और उसके बाद हुई वोटिंग के बाद पास हो गया। राज्यसभा में इस बिल को पेश किया गया है। वहाँ से पास होते ही, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की औपचारिकताओं के बाद ये विधेयक कानून का रूप ले लेगी।  

मोदी सरकार ने आर्थिक तौर पर कमज़ोर लोगों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करके न सिर्फ़ एक सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ही काम किया है, बल्कि आरक्षण की राजनीति को भी एक नया मोड़ दिया है। इस फैसले के बाद आरक्षण माँगने के बहाने सड़कों पर उतरकर हंगामा करने की प्रवृत्ति पर भी कुछ हद तक लगाम लग सकती है।

हालाँकि हार्दिक पटेल और उन जैसे अन्य तमाम नेता जो आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग कर रहे थे। वे आज यह पूछ रहे हैं कि आखिर यह होगा कैसे? जो ऐसे सवाल पूछने में असहज़ता हो रही है। वे यह शोर कर रहे हैं कि आखिर मोदी सरकार इसे अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में ही क्यों लाई? ऐसे सवाल उठाने में हर्ज नहीं है, अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि 2014 में आम चुनाव की अधिसूचना जारी होने के ठीक पहले मनमोहन सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग के दायरे में लाने का फैसला किया था, जो कि सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था।

इसी तरह इसी सरकार ने 2011 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई थी जो आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन होने के कारण उस पर रोक लगा दी गई थी। यह भी याद रखना बेहतर होगा कि खाद्य सुरक्षा और शिक्षा अधिकार कानून भी आनन-फानन और बिना पूरी तैयारी के आए थे। इसी कारण उन पर प्रभावी ढंग से अमल नहीं हो सका।

10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण की एक बड़ी बाधा यह बताई जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे रखी है कि आरक्षण किसी भी सूरत में 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के बावजूद तथ्य यह है कि कई राज्यों में आरक्षण सीमा 60 प्रतिशत से भी अधिक है और वहाँ लोग आरक्षण का लाभ भी उठा रहे हैैं। हालाँकि, आर्थिक आरक्षण संबंधी कानून बनने में अभी देर है, लेकिन यह अंदेशा अभी से जताया जा रहा है कि ऐसे किसी कानून के संदर्भ में न्यायपालिका की ओर से यह कहा जा सकता है कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है। पता नहीं इस अंदेशे का आधार कितना पुख्ता है, लेकिन किसी को यह बताना चाहिए कि संविधान का मूल ढाँचा क्या है?

संविधान निर्माताओं ने कभी यह व्याख्यायित नहीं किया कि संविधान के कौन से अनुच्छेद मूल ढाँचे को बयान करते हैैं। खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने किसी फैसले में यह स्पष्ट नहीं किया कि संविधान का मूल ढाँचा है क्या? संविधान के मूल ढाँचे की व्याख्या इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को संविधान के मूल ढाँचे के विपरीत बताकर उसे खारिज तो कर दिया था, लेकिन जजों की नियुक्ति की वह कोलेजियम व्यवस्था बनाए रखी जो संविधान में है ही नहीं।

विपक्षी दलों को यह समझना मुश्किल हो रहा है कि वे मोदी सरकार के इस फ़ैसले का विरोध करें तो कैसे? उनके सामने मुश्किल इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि अतीत में वे स्वयं आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी और माँग करते रहे हैं। विपक्षी दलों की इसी दुविधा के कारण, इस बात के प्रबल आसार हैं कि आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण संबंधी विधेयक पर संसद की मुहर लग जाएगी, लेकिन यह कहना कठिन है कि यह विधेयक कानून का रूप लेने के बाद होने वाली न्यायिक समीक्षा में खरा उतर पाएगा या नहीं? इस बारे में तमाम किंतु-परंतु हैं, क्योंकि इसके पहले आर्थिक आधार पर आरक्षण के तमाम फैसले सुप्रीम कोर्ट में ख़ारिज हो चुके हैं। पहले के कई फैसलों के कारण हमारा आशंकित होना लाज़मी है कि दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण के फैसले को अमली जामा पहनाया जा सकेगा या नहीं?

इस आशंका का समाधान भी मोदी सरकार ने पहले ही ख़ोज लिया है, वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि अब तक ये इसलिए ख़ारिज होता रहा है क्योंकि संविधान में इसका प्रावधान ही नहीं किया गया था। इस बार संविधान में इसका प्रावधान किया गया है, इसलिए यह संविधान सम्मत है। उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि कोर्ट ने भी अपने फ़ैसले में ये साफ़ कर दिया था कि 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा केवल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के सन्दर्भ में थी।

इतना अवश्य है कि मोदी सरकार के इस फ़ैसले ने देश के राजनीतिक विमर्श को एक झटके में बदलने का काम किया है। जिसकी मोदी सरकार को सख़्त जरूरत थी। पिछले कुछ समय से, खासकर कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद से मोदी सरकार के प्रति शिकायत और निराशा भरे विमर्श को बल मिलता दिख रहा था। आर्थिक आधार पर आरक्षण के फ़ैसले ने अचानक राजनीतिक विमर्श के तेवर व स्वर बदल दिए हैं।

आर्थिक आधार पर आरक्षण केवल अनारक्षित सामान्य वर्गों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को राहत देने वाला ही नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को बल देने वाला भी है। यदि यह फ़ैसला अमल में आता है तो इससे एक लाभ यह भी होगा कि आरक्षण को घृणा की दृष्टि से देखने वालों की मानसिकता बदलेगी। स्पष्ट है कि यह फ़ैसला राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक विमर्श में भी एक बड़ा बदलाव लाने का प्रमुख साधन है। अब इस सोच को बल मिलेगा कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगों के साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए भी कुछ करने की जरूरत है। यह सोच अगड़े-पिछड़े की खाई को पाटने का काम करती नज़र आ रही है।

हो सकता है, आर्थिक आरक्षण के भावी कानून में कुछ कमजोरियाँ हों, अगर ऐसा कुछ सामने आता है तो उन्हें दूर किया जाएगा। लेकिन आरक्षण को आर्थिक आधार प्रदान करने की यह पहल, वह विचार है जिसे अमल में लाने का सही समय आ गया है। इसी के साथ यह भी समझना होगा कि संविधान लोगों के लिए होता है, लोग उसके लिए नहीं होते। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि लोकतंत्र में लोग ही सर्वोच्च होते हैैं।

अगस्ता-वेस्टलैंड: रक्षा मंत्रालय की याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट में 28 फ़रवरी को होगी सुनवाई

देश के रक्षा मंत्रालय ने दिल्ली हाई कोर्ट में अगस्ता-वेस्टलैंड के खिलाफ़ मध्यस्थता की कार्रवाई के लिए याचिका दायर किया। सरकार के पक्ष को सुनने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट ने रक्षा मंत्रालय की याचिका को स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने सुनवाई की अगली तारीख़ 28 फ़रवरी तय कर दी है। कोर्ट ने दोनों पक्षों को हलफ़नामा दायर करने के लिए 5 सप्ताह का समय भी दिया है।

हाई कोर्ट की याचिका में रक्षा मंत्रालय ने इस बात का जिक्र किया है कि अगस्ता-वेस्टलैंड केस में कई आपराधिक मामले की कार्रवाई एक चल रही है, जिसकी वजह से मध्यस्थता कार्रवाई की अनुमति नहीं दी जा सकती है। ऐसे में सरकार ने इस मामले पर सुनवाई के लिए हाई कोर्ट में अपील की, जिसके बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने सरकार के इस अपील को स्वीकार कर लिया है।

अगस्ता-वेस्टलैंड मामला क्या है?

भारतीय वायुसेना के लिए 12 वीवीआईपी हेलि‍कॉप्टरों की खरीद के लिए इटली की कंपनी अगस्ता-वेस्टलैंड के साथ साल 2010 में करार किया गया। 3,600 करोड़ रुपये के करार को जनवरी 2014 में भारत सरकार ने रद्द कर दिया। जानकारी के लिए बता दें कि इस करार में 360 करोड़ रुपये के कमीशन के भुगतान का आरोप लगा था। इटली कंपनी और सरकार के बीच के इस करार में कमीशन की ख़बर सामने आते ही 12 एडब्ल्यू-101 वीवीआईपी हेलीकॉप्टरों की सप्लाई पर सरकार ने फ़रवरी 2013 में रोक लगा दी।  

क्रिश्चियन मिशेल को अगस्ता मामले में हिरासत में लिया गया था

दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट अदालत ने 3,600 करोड़ रुपये के अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआईपी हेलीकॉप्टर मामले में सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किए गए क्रिश्चियन मिशेल को 22 द‍िसंबर को ईडी की 7 दिन की हिरासत में भेज दिया था। विशेष न्यायाधीश अरविंद कुमार ने मामले में कथित बिचौलिए मिशेल की जमानत याचिका खारिज कर दी थी।

वामपंथी प्रोपेगेंडा गिरोह द्वारा 10% आरक्षण बिल पर फैलाए जा रहें हैं ये 4 झूठ!

NDA सरकार द्वारा किया गया 124वॉं संविधान संशोधन एक ऐतिहासिक कदम है, जिसमें गरीब लोगों को रोज़गार के क्षेत्र में और शिक्षा के क्षेत्र में 10 प्रतिशत का आरक्षण दिया जाएगा। ये फ़ैसला देश के हर कोने में सराहा जा रहा है। राजनैतिक उठा-पटक के चलते भी कई लोगों द्वारा इस बिल का समर्थन किया गया है। लेकिन, इसके बावजूद कई नेता, कई राजनैतिक पार्टियाँ और उनके कार्यकर्ता बेवजह इस बिल से जुड़े झूठ फैलाने में जुटे हुए हैं।

इस बिल से संबंधित चार झूठों के बारे में हम आपको बताते हैं, जो इस समय धड़ल्ले से हर जगह विरोधियों और विपक्षियों द्वारा फैलाए जा रहे हैं। इन झूठ को फैलाने में कई मीडिया संस्थान भी शामिल हैं और कई राजनैतिक पार्टी के समर्थक भी।

इन झूठों को फैलाने के लिए सबसे महत्तवपूर्ण रोल भारतीय मीडिया का ही है। बिल के आने से पहले ही इस बात पर बहस छेड़ी जा रही थी कि ये बिल सिर्फ ऊँची जाति वालों के लिए ही होगा न कि पूरी जनरल कैटेगरी के लिए। अब बिल के आने के बाद भी ये झूठ लगातार दर्शकों और पाठकों को परोसा जा रहा है। जबकि, बिल में ऊँची जातियों को आरक्षण दिया जाएगा, इसका कहीं पर भी वर्णन नहीं है।

बिल में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि ये आरक्षण केवल आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए है, इसमें जाति, धर्म और पंथ पर कोई बात नहीं की गई है।

दूसरा झूठ – इस बिल को लेकर फैलाया जा रहा है वो ये कि इस बिल को लाने के बाद भाजपा एससी, एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले जातिगत आरक्षण को खत्म कर देगी और सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाएगा। भाजपा द्वारा इस बात को बार-बार दोहराया गया है कि इस बिल को लाने के साथ उनकी मंशा जाति के आधार पर मिलने वाले आरक्षण में हस्तक्षेप करने की बिल्कुल भी नहीं है। फिर भी विरोधियों द्वारा इस तरह झूठ को फैलाना बताता है कि वो देश की जनता को अपनी मन से गढ़ी हुई बातों में फँसाकर उलझाना चाहते हैं।

तीसरा झूठ – इस 10 प्रतिशत आरक्षण बिल द्वारा 50 प्रतिशत मिलने वाले आरक्षण की सीमा का उल्लंघन किया है। अब आपको बताएँ कि संवैधानिक संशोधन के ज़रिए पास हुआ ये आरक्षण बिल अनुच्छेद 15(6) और अनुच्छेद 16(6) द्वारा प्रस्तावित किया गया है। 50 प्रतिशत मिलने वाला आरक्षण केवल जाति के आधार पर है, जबकि ये 10 प्रतिशत मिलने वाला आरक्षण आर्थिक स्थिति के आधार पर है। जिससे अब ये भी साबित होता कि विरोधियों और विपक्षियों द्वारा फैलाई जाने वाली ये अफवाह भी बिलकुल झूठी है कि 10 प्रतिशत आरक्षण बिल 50 प्रतिशत मिलने वाले आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करती है।

चौथा झूठ किसी घर का एक अकेला व्यक्ति यदि 8 लाख रूपए सालाना कमाता है तो वो भी आरक्षण के तहत आएगा। आरक्षण बिल को लेकर कही जाने वाली ये बात बिलकुल झूठ है। इस आरक्षण बिल में कहा गया है कि यदि किसी परिवार की सालाना आय ₹8 लाख तक है तो वो इस आरक्षण का फाएदा उठा सकता है। किसी परिवार में अकेले इंसान की आय ₹8 लाख होने से ही वो इस आरक्षण का फ़ायदा नहीं उठा सकता है। ऐसी बात केवल लोगों को बरगलाने के लिए फैलाई जा रही हैं।

हमें इंटरनेट पर पसरे प्रोपगेंडा पर ग़ौर करने से ज्यादा समझना चाहिए कि संसद कोई छोटी चीज़ नहीं है। वहाँ पारित किया जाने वाला हर बिल अपने आप में बहुत बड़ा उद्देश्य लिए होता है। हमें इन पारित बिलों के बारे में पूरी तरह पढ़कर ही अपना मत तैयार करना चाहिए। हमें समझना चाहिए यदि देश में केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लोग ही प्रभावित नहीं है, बल्कि वो लोग भी प्रभावित है जिनके जाति प्रमाण पत्र पर जनरल होने का टैग भी लगा हुआ और खाने के लिए रोटी भी नहीं है।

ऐसे में क्या बुरा है यदि उन्हें रोज़गार और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण मिल रहा है? लोगों के हित में यदि सरकार उनके लिए कदम उठाती है तो सरकार का विरोध करने से ज़्यादा उसको सराहा जाना चाहिए ताकि आने वाले समय में भी देश के हर वर्ग के हित में काम होता रहे।

भारत को रेपिस्तान कहने वाले IAS शाह फ़ैसल ने छोड़ी नौकरी, राजनीति में लेगा इंट्री!

2009 में सिविल सर्विस परीक्षा में भारत में पहला रैंक हासिल करने वाले शाह फ़ैसल ने ब्यूरोक्रेसी छोड़ कर राजनीति में कूदने का फैसला ले लिया है। शाह फ़ैसल इस कठिन परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल करने वाले पहले कश्मीरी हैं। ख़बरों के अनुसार उन्होंने उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ़्रेन्स ज्वाइन करने का मन बना लिया है और कभी भी इसकी घोषणा की जा सकती है। उन्होंने अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया है जिसके मंज़ूर होने के बाद वो NC में शामिल हो जाएँगे। कुपवाड़ा के रहने वाले शाह फ़ैसल के वहीं से लोकसभा चुनाव लड़ने के भी कयास लगाए जा रहे हैं।

जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर उनके इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहा कि उनके राजनीति में शामिल होने से ब्यूरोक्रेसी का नुकसान है लेकिन राजनीति को उनकी उपस्थिति से फायदा मिलेगा।

वहीं फ़ैसल ने अपने इस्तीफ़े की जानकारी अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से दी। उन्होंने केंद्र सरकार की कश्मीर नीति को अपने राजनीति में आने की वजह बताई।

उन्होंने अपने ट्वीट में कहा:

“कश्मीर में चल रही निर्बाध हत्याओं और केंद्र सरकार द्वारा किसी भी प्रकार के विश्वसनीय पहल के अभाव में, मैंने IAS से इस्तीफ़ा देने का निर्णय लिया है। कश्मीर की ज़िंदगियाँ मायने रखती है। मैं शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मलेन करूँगा।”

इसके अलावे उन्होंने फ़ेसबुक पर अपने विस्तृत बयान में कहा कि मेनलैंड भारत में हाइपर-नेशनलिज़्म के कारण असहिष्णुता और घृणा की भावना बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि हिंदुत्व ताकतों ने 20 करोड़ मुस्लिमों को हाशिये पर भेज दिया है और उन्हें दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह सीमित कर दिया गया है। उन्होंने केंद्र सरकार पर NIA, CBI और RBI जैसी संस्थाओं को ध्वंस करने का आरोप भी मढ़ा और कहा कि ये सरकार देश की संवैधानिक सम्पदा को नष्ट करना चाहती है। साथ ही उन्होंने अपने बयान में दावा किया कि इस देश में ज्यादा दिन तक आवाज़ों को दबा कर नहीं रखा जा सकता।

बता दें कि शाह फ़ैसल काफी विवादित अधिकारी रहे हैं और अक्सर उलूल-जलूल बयानों के कारण सुर्ख़ियों में बने रहते हैं। इसी साल अप्रैल में उन्होंने भारत को रेपिस्तान कहा था जिसके कारण वो सोशल मीडिया पर लोगों के गुस्से का शिकार हुए थे।

उनके इस बयान के बाद जनरल एडमिनिस्ट्रेशन विभाग (GAD) द्वारा उन्हें नोटिस जारी किया गया था। अपने नोटिस में GAD ने कहा था कि फ़ैसल आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में पूर्ण ईमानदारी और अखंडता बनाए रखने में कथित रूप से विफल रहे हैं। इस नोटिस और लोगों के गुस्से का सामना करने के बावजूद उन्होंने अपने ट्वीट को डिलीट करने से इंकार कर दिया था और साथ ही कहा था कि वो भविष्य में फिर से ऐसे ट्वीट करने से नहीं हिचकेंगे। उस समय उन्होंने सरकार को बदल देने की बात भी कही थी। उस समय भी उमर अब्दुल्ला ने उनका समर्थन किया था और उनको नोटिस भेजे जाने की निंदा की थी।

इस से भी पहले 2016 में भी वो इस्तीफा देने की धमकी दे चुके हैं। विवादित अधिकारी फ़ैसल ने उस समय उन्होंने राष्ट्रीय मीडिया पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए कहा था कि बुरहान वानी से उनकी उनकी तुलना कर उनके ख़िलाफ़ एक दुष्प्रचार चलाया जा रहा है।

इसके अलावे वह इस साल जुलाई में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का भी समर्थन कर चुके हैं। इमरान ख़ान का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि वो तो शांति की प्रक्रिया स्थापित करना चाहते हैं लेकिन भारत में ही ऐसे लोग हैं जो ये होना नहीं देना चाहते। उन्होंने इमरान को बदलाव लाने वाला नेता भी बताया था।

अब देखना यह है कि शुक्रवार को होने वाले प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में फ़ैसल क्या करवट लेते हैं और राजनीति में आगे उनका क्या रुख रहेगा।

रायसीना डायलॉग में थलसेनाध्यक्ष जनरल रावत के बयान के मायने


गत तीन वर्षों में रायसीना डायलॉग सत्ता पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभाव रखने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा है। यहाँ मीठी, कड़वी, साधारण, गरिष्ठ सभी प्रकार की बातें कही जाती हैं। यहाँ जो कुछ भी कहा जाता है वह सुर्खियाँ बटोरने की हैसियत रखता है। इसी क्रम में थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने भी रायसीना डायलॉग में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं।

जनरल रावत ने एक बार फिर विश्व समुदाय को संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव संख्या 1373 की याद दिलाई और कहा कि आतंकवाद को समाप्त करने की प्रक्रिया में पहले उसे परिभाषित करना आवश्यक है। ध्यातव्य है कि विश्व में अभी तक आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं गढ़ी गई है।

आतंकवाद के प्रत्येक भुक्तभोगी देश के लिए अपनी अलग परिभाषा है ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य में किसी हिंसक घटना के लिए यह निर्धारित करना कठिन हो जाता है कि वह आतंकी घटना है भी या नहीं।

सुन त्ज़ू ने भी आर्ट ऑफ़ वॉर में कहा था कि शत्रु को तभी समाप्त किया जा सकता है जब उसकी पहचान निश्चित हो जाए। जब तक आतंकवाद की परिभाषा नहीं गढ़ी जाएगी उसे समाप्त करने की बात करना बेमानी है। जनरल रावत ने यह भी कहा कि आतंकवाद को आर्थिक पोषण देने वाले अफ़ीम और चरस के धंधे भी बंद होने चाहिए।

जनरल रावत के वक्तव्य का सबसे महत्वपूर्ण अंग आतंकवाद को लेकर मीडिया में प्रसारित किए जा रहे समाचार और उससे जनता में उपजे दृष्टिकोण को लेकर रहा। इस संदर्भ में जैसा कि अक्सर होता है मुख्य धारा के मीडिया ने जनरल रावत के वक्तव्य को गलत तरीके से प्रस्तुत किया।

जनरल ने मीडिया पर लगाम लगाने को नहीं कहा बल्कि उन्होंने कहा कि मीडिया जिस स्तर पर आतंकवादी घटनाओं को कवरेज देता है उससे आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ता है। आतंकवादी भी यही चाहते हैं कि उनकी कृत्यों का अधिक से अधिक प्रचार हो जिससे भय का वातावरण स्थाई रूप से बना रहे।

उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे ‘terro-vision’ का नाम दिया और कहा कि आतंकवादी संगठन प्रोपेगंडा युद्ध का सहारा लेते हैं और आतंकी घटनाओं का आवश्यकता से अधिक प्रचार उनके मंसूबों को बढ़ावा देता है।

साथ ही जनरल रावत ने सोशल मीडिया के माध्यम से ज़हरबुझे मज़हबी उन्माद को तेज़ी से फ़ैलने से रोकने की वकालत भी की। उनका संकेत कश्मीर की ओर था जहाँ कुछ समय पहले व्हाट्सप्प ग्रुप बनाने वालों को निकटतम पुलिस थाने में अपनी पहचान दर्ज कराना अनिवार्य किया गया था।

पाकिस्तान का नाम न लेते हुए जनरल रावत ने कहा कि जब तक राज्य की सत्ता द्वारा आतंक पोषित होता रहेगा तब तक वह समाप्त नहीं होगा। इतिहास भी हमें यही बताता है कि भारत से अलग होकर जब पाकिस्तान बना तभी से वह क़ुर्बान अली के उस सिद्धांत पर चल रहा है जिसने भारत को हजार घाव देने का संकल्प लिया था।

पहले पाकिस्तान ने प्रत्यक्ष युद्ध लड़े जिसमें असफल होने पर अफ़ग़ानी मुजाहिदों के बल पर आतंकवाद का सहारा लिया। अब जब हमने उसका भी मुँहतोड़ जवाब देना सीख लिया है तब पाकिस्तान प्रोपेगंडा युद्ध का सहारा लेता है जिसमें मानवाधिकार हनन इत्यादि जैसे मुद्दों को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर जोर-शोर से उठाता है।

रायसीना डायलॉग में जनरल बिपिन रावत का वक्तव्य

‘भारत के लिए ईरान, तालिबान पर अपने ‘प्रभाव’ का इस्तेमाल कर सकता है’

ईरान के सूत्रों के मुताबिक़, तेहरान अफ़गान सरकार की ओर से तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के लिए तैयार है। अगर भारत आतंकवादी संगठन के साथ बातचीत के लिए तेहरान की मदद का इस्तेमाल करना चाहता है तो वो हमेशा इसके लिए तैयार हैं।

ईरानी विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ़ ने द्विपक्षीय वार्ता के लिए भारतीय नेताओं से मुलाक़ात की, और साथ ही ‘रायसीना डायलॉग’ को संबोधित भी किया। इस द्विपक्षीय वार्ता के मद्देनज़र तेहरान के तालिबान के साथ संबंध होने की बात का ख़ुलासा हुआ।

तालिबान पर अपने प्रभाव के इस्तेमाल को ईरान ने स्वीकारा

हाल ही में, एक ईरानी प्रतिनिधिमंडल तेहरान में तालिबान से मिला, हालाँकि उच्च-स्तरीय ईरानी सूत्रों का कहना है कि पहली बैठक मॉस्को में हुई थी। उन्होंने कहा, “तालिबान पर हमारा कुछ प्रभाव है, लेकिन हम आमतौर पर अफ़ग़ान सरकार की तरफ से इसका इस्तेमाल करते हैं। हमें भारत के लिए भी इसका इस्तेमाल करके खुशी मिलेगी।”

फ़िलहाल, भारत द्वारा ऐसे किसी भी प्रकार के प्रस्ताव को स्वीकारने की बात सामने नहीं आई है। अनुमान के तौर पर पिछले 17 वर्षों में भारत ने कुछ संपर्क बनाए हैं, हालाँकि इस बात की कोई पुष्टि नहीं है कि ये संपर्क कितने व्यापक और गहरे हैं।

किसी भी मामले में, भारत की स्थिति काबुल सरकार की तरफ से चारो तरफ से घिरी है। सूत्रों की मानें तो तालिबान के साथ किसी तरह का संपर्क आवश्यक रूप से इस स्थिति पर प्रभाव डालेगा।

अफ़ग़ानिस्तान में अपने क़दम पीछे ले सकता है ट्रम्प प्रशासन

वाशिंगटन से ‘लीक’ हुई एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रम्प प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान में अपने क़दम पीछे ले सकता है, क्योंकि अमेरिका को ऐसा लगता है कि 7,000 अफ़ग़ानी सेनानियों ने तालिबान के साथ मिलकर क्षेत्रीय युद्धाभ्यास को फिर से शुरू कर दिया है।

सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, अमरीका ने तालिबान के साथ सीधी बातचीत की थी, जिसका चौथा दौर बुधवार को क़तर में होगा। ख़बरों के अनुसार, अमेरिका ने क़तर में वार्ता आयोजित करने की तालिबानी माँग के आधार पर रियाद जाने से इनकार कर दिया, जिसकी योजना पहले निर्धारित थी।

अमेरिका बना पड़ोसी देशों के उपहास का पात्र

रिपोर्टों के मुताबिक़, समझौते के मसौदे में देश के नागरिकों के हस्तक्षेप के चलते अमेरिकी सैनिकों की वापसी शामिल थी। अन्य लोगों के मुताबिक़ मुख्य शहरी केंद्रों को तालिबान से दूर रखते हुए, अमेरिका आतंकवाद-विरोधी भूमिका के लिए ख़ुद पर प्रतिबंध लगा सकता है। लेकिन, अभी तक इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार की स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है, इस कारण से अमेरिका पड़ोसी देशों के उपहास का पात्र बन गया है।

दूसरी ओर, ईरानी सूत्रों के मुताबिक़ यह ‘समझौता’ देशों के पुराने समूह – सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान को एक साथ एक ही मंच पर वापस लाया है, ये वो देश हैं जिन्होंने तालिबान सरकार का समर्थन किया था।

संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने की थी पाकिस्तान की आर्थिक मदद

1990 के दशक में, अमरीकी विशेष दूत जलमय ख़लीलज़ाद का भी तालिबान के साथ बातचीत करने का एक लंबा इतिहास रहा है, जो तब अमेरिकी तेल हितों के लिए काम कर रहा था। पाकिस्तान की मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने पाकिस्तान की आर्थिक मदद भी की थी जिससे वो तालिबानी वार्ता के लिए इस्लामाबाद को आगे ला सके।

वार्ता के लिए अफ़ग़ान के साथ मंच साझा करने से तालिबान का इनकार

अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA), हमदुल्ला मोहिब, जो पिछले सप्ताह भारतीय अधिकारियों के साथ बातचीत के लिए दिल्ली आए थे, उनसे किसी भी तरह की बातचीत के लिए मना कर दिया गया था, जिसमें प्रभावकारिता संबंधी शांति वार्ता शामिल थी।

इसके बाद हमदुल्ला मोहिब ने दिसम्बर के अंत में यूएई, सऊदी अरब और अमेरिका के साथ हुई बैठक में अफ़ग़ान सरकार का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन अफ़ग़ान सरकार द्वारा वार्ता में शामिल होने की माँग के बावजूद, तालिबान ने उसे एक मंच पर आने से दूर रखा।

अफ़ग़ान सरकार के लिए, तालिबान वार्ता एक ‘जल्दबाज़ी’ का मामला है, इसकी वजह अमेरिका के भीतर अलग-अवग विचारधारा का होना है।

तालिबान का बढ़ता क़द, देशों पर मँडराता ख़तरा

ईरान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने एक विश्वास पत्र आपस में साझा किया है जो उन्होंने भारत सरकार के साथ भी साझा किया, कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान और भारत दोनों देशों की सुरक्षा के लिए तो ख़तरा साबित होगा ही, लेकिन ‘पाकिस्तान के लिए तो उसके अस्तित्व को नष्ट करने के समान होगा’।

अब यह पाकिस्तान पर निर्भर करता है कि वो इस स्थिति को किस नज़रिये से देखता है। लेकिन इस कटु सत्य से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि तालिबान एक अन्य महाशक्ति के रूप में तेजी से उभर रहा है, जिसका आकार दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।

इस बाबत, भारत सरकार ने रूस के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव के साथ बातचीत की और आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर अमेरिकी दूत जलमय ख़लीलज़ाद के शामिल होने की भी उम्मीद है।