Friday, November 8, 2024
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कश्मीर में सुरक्षा बलों को बड़ी कामयाबी; मोस्ट वॉन्टेड आतंकी ढेर

जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों को बड़ी कामयाबी मिली है। शनिवार (जनवरी 12, 2019) की रात कुलगाम में हुई मुठभेड़ में खूंखार आतंकवादी ज़ीनत उल-इस्लाम सहित दो आतंकवादी मारे गए। ख़बरों के अनुसार पुलिस को कुलगाम जिले के कटपोरा इलाक़े में आतंकवादियों के छिपे होने की सूचना मिली थी। इसके आधार पर सुरक्षा बलों ने वहाँ तलाशी अभियान चलाया। सुरक्षा बलों द्वारा घेराबंदी करने के बाद बौखलाए आतंकियों ने उन पर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दी, जिसका सुरक्षा बलों ने मुँहतोड़ जवाब दिया।

इसके अलावे मुठभेड़ स्थल से पुलिस ने भारी मात्रा में गोला-बारूद भी बरामद किया है। पुलिस ने आम नागरिकों को वहाँ न जाने की सलाह दी है क्योंकि उन्हें इस बात का अंदेशा है कि वहाँ बम पड़े हो सकते हैं। पुलिस के अनुसार उन्होंने मुठभेड़ के वक्त आतंकियों को आत्मसमर्पण करने को भी कहा लेकिन वो नहीं माने और गोलियाँ चलाते रहे।

मारा गया आतंकी ज़ीनत उल-इस्लाम मोस्ट वॉन्टेड की केटेगरी में था और अल-बद्र नमक आतंकी संगठन का सरगना था। इस से पहले वह कश्मीर के खूंखार आतंकी समूह हिज़बुल मुज़ाहिदिन से भी जुड़ा हुआ था। पुलिस ने बताया कि वह 2015 से ही घाटी में आतंक फैलाने के काम में लगा हुआ था। ज़ीनत ने अल-बद्र को मजबूत बनाने के लिए हिज़बुल से समझौता भी कर रखा था। उसे IED बम एक्सपर्ट के रूप में भी जाना जाता था। मारे गए दूसरे आतंकी की पहचान शक़ील डार के रूप में की गई है।

आतंकियों को मारे जाने के बाद सुरक्षाबलों पर पथराव शुरू कर दिया गया और इलाक़े में हिंसा भड़क गई। ताजा ख़बरों एक अनुसार ऐसी स्थिति को देखते हुए पूरे क्षेत्र में इंटरनेट सेवा ठप्प कर दी गई है। वहाँ और जवान तैनात कर दिए गए हैं ताकि हिंसा को काबू में किया जा सके। बता दें कि कुलगाम दक्षिण कश्मीर में स्थित है।

कश्मीर में हाल के दिनों में आतंकियों द्वारा IED बमों के इस्तेमाल करने की घटनाएँ बढ़ी हैं। शुक्रवार (जनवरी 11, 2019) को ही कश्मीर के राजौरी जिले में लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल के पास सेना के मेजर सही दो जवान शहीद हो गए थे। इन घटनाओं में ज़ीनत या उसके गैंग के हाथ होने की संभावना हो सकती है। फ़िलहाल पुलिस ने मामला दर्ज कर आगे की करवाई शुरू कर दी है।

सागरिका जी, मोदी के साथ सेल्फ़ी लेने पर बॉलीवुड कलाकार ‘भक्त’ हो गए, फिर आप क्या हैं?

जब से पत्रकारिता की तरफ रुख़ किया है, तबसे महिला पत्रकारों में सागरिका घोष और बरखा दत्त दो ऐसे नाम रहे हैं, जिन्हें हर दूसरे शख़्स के मुँह से मैंने सुना और जाना है। क्लास में टीचर के लेक्चर से लेकर सोशल मीडिया की टाइमलाइन पर आप लोगों के बारे में जब भी पढ़ने का मौक़ा मिला तो अपने समय में से समय निकालकर आप लोगों को समय दिया। वर्चुअल स्पेस में आप लोगों की बातचीत और सक्रियता ने ही हमको मौक़ा दिया कि हम आपसे न जुड़ते हुए भी आपसे, और आपकी शैली से, बहुत कुछ सीख सकें। क्योंकि, पता होना चाहिए देश में पितृसत्ता की इतनी कसी जकड़ में भी आप लोग उस मुकाम तक किस जज़्बे को लेकर पहुँची हैं, जहाँ तक जाने के हम सिर्फ़ सपने देख पाते हैं।

मैंने अभी इस मीडिया इंडस्ट्री में कदम रखा है और अभी से कुछ पत्रकारों को पढ़ते-समझते हुए कई बार असहमति की दीवार मानो जैसे मुझे घेर लेती है और फिर मैं कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती। आख़िर, जिन्हें हमेशा से पढ़ा और जाना है, उनकी बातों पर सवाल हम जैसे नए लोग कैसे उठा सकते हैं। फिर भी क्या आप लोगों को कभी नहीं लगता कि हम बतौर पत्रकार सही दिशा में जाने की जगह कहाँ पर जा रहे हैं और इसका प्रभाव हम जैसों नए लोगों पर क्या पडे़गा जो अभी अपनी शुरूआत ही कर रहे हैं?

मैं छोटे स्तर पर रहकर सोशल मीडिया पर चल रही धार्मिक, राजनैतिक लड़ाईयों से तंग आ जाती हूँ, बहुत समय तक मैं सोशल मीडिया से ही दूर रही सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे अपने आस-पास के लोगों को जीना था, न कि सोशल मीडिया पर पसरे ज़हर को अपने भीतर उतारकर उनसे बहसों में उलझना था।

मैं अभी नई हूँ, इसलिए ज़्यादा सवाल करना नहीं सीख पाई और न ही मैं अभी पूर्णत: अपने भीतर नारीवाद की आग को जला पाई हूँ, शायद इसलिए असहमति की दीवार मुझे हमेशा काली दिखती है।

बरखा दत्त द्वारा उठाया गया सबरीमाला विवाद हाल ही के मामलों में शामिल है। इस मामले को पीरियड्स से जोड़कर देखने वालों को सिर्फ़ अपना अधिकार दिख रहा है। उसके लिए चाहे वो पीरियड्स की उलाहनाएँ देते हुए ही पूरे प्रबंधन को कोसें। लेकिन, न जानें क्यों किसी को उस मंदिर में विराजमान अयप्पा भगवान द्वारा लिया ब्रहमचर्य का वो प्रण नहीं दिख रहा है, जिसकी वजह से सालों से उनकी आराधना एक तय तरीक़े से होती रही है। धर्म को आधार और श्रद्धा को भाव मानने वाले लोग इतने मतलबी कैसे हो सकते है कि अपनी अधिकारों की लड़ाई में वो किसी और के प्रण को तोड़ने पर ही आमादा हो जाएँ। अगर हमारे हिंदू धर्म में वाकई पीरियड्स को अछूत होने की दिशा में देखा जाता, तो देश के सबसे बड़े मंदिरों में से एक कामाख्या मंदिर में रजस्वला होती देवी की पूजा क्यों की जाती?

ये बेहद शर्मनाक स्थिति है हमारे उस समाज की, कि हम आज नारीवाद के मामले में सिर्फ़ योनि से संबंधित बातों को ही करके अपनी छवि को बूस्ट कर पाते हैं, क्या हम थोड़ा सीधा होकर अपनी बात या रिपोर्ट नहीं कर सकते थे? लेकिन हाँ मैं समझती हूँ कि अगर सीधी तरीके से बातें होने लगीं तो मिर्च-मसाला टूथपेस्ट की ट्यूब में ही रह जाएगा।

बातों को किस तरह घुमाया जाता है वो तो ज़्यादा नहीं मालूम मुझे, लेकिन मैं लगातार कुछ आप जैसे कुछ लोगों को फ़ॉलो कर रही हूँ, बहुत दूर नहीं भी जा पाई तो आप जैसों तक थोड़ा तो पहुँच ही जाऊँगी।

इसके बाद एक बेहद मामूली-सा उदहारण है कि सागरिका घोष ने हाल ही में एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने बॉलीवुड की स्थिति को और मिडिया की स्थिति को एक जैसा ही बताया है। साथ ही, उनका ये भी कहना भी रहा कि सरकार का फ़िल्म इंडस्ट्री पर जो नियंत्रण है वो बेहद अनौपचारिक और अत्यधिक है। हालाँकि, इस ‘नियंत्रण’ पर कुछ साक्ष्य या तर्क के साथ उन्होंने कहीं कुछ लिखा हो, मुझे नहीं पता। उनका मानना है जैसे कुछ पत्रकार ‘भक्त’ हैं वैसे ही कुछ कलाकार भी ‘भक्त’ हैं। अब समझ नहीं आता मैं पहले ‘भक्त’ होने की परिभाषा नेट पर सर्च करूँ या फिर उनके इस को ट्वीट को समझने में अपनी पूरी मानसिक शक्ति लगाऊँ!

मैं नई धरातल पर आकर इतना समझ पा रही हूँ कि किसी के साथ सेल्फ़ी लेना हमें उसका भक्त नहीं बना सकता है, लेकिन आप इतनी बड़ी गलती कैसे कर रही हैं? अगर सिर्फ़ सेल्फ़ी लेने से और अपना झुकाव दिखाने से कोई भक्त हो जाता है, तो लालू प्रसाद के साथ ली आपकी सेल्फ़ी, जो बेहद ख़ूबसूरत है, उससे हम नए लोग क्या समझें?

मेरे जैसे नसमझ तो इसको यही समझेंगे कि अगर मोदी के साथ एक तस्वीर लेना भक्त हो जाने की परिभाषा है तो लालू प्रसाद संग ली गई तस्वीरों का मतलब यह है कि लालू द्वारा किए गए ‘शुभ कार्यों’ में सागरिका की भी भागीदारी रही होगी या उनसे प्रभावित होकर वो भी अपने क्षेत्र में लालू के तौर तरीकों को अपनाने लगी होंगीं।

मैं उम्मीद करती हूँ जिस तरह महज़ एक सेल्फ़ी पर सागरिका ने बॉलीवुड के सितारों को भक्त कह दिया, उन्हें किसी ने ‘लालू की लाली’ न कहा हो। नवाज़ शरीफ के साथ खिंचाई तस्वीर को देखकर क्या यह समझ लिया जाए कि आप पाकिस्तान की तरफ से हिंदुस्तान पर हँस रही हैं।?

लालू प्रसाद के साथ सागरिका
नवाज़ शरीफ के साथ राजदीप और सागरिका

ये बातें महज़ समझने वाली बातें हैं कि प्रधानमंत्री मोदी देश की सबसे ऊँचे पद पर है अगर कोई उनके साथ सेल्फ़ी लेकर पोस्ट करता है, तो ये आत्मीयता का भाव भी हो सकता है, या भविष्य में याद करने के लिए एक स्मृति कि हम देश के प्रधानमंत्री से मिले थे। आज के दौर में सेल्फ़ी लेना बहुत आम बात है। भक्त शब्द की परिभाषा बहुत गहरी है। आप किसी भी संदर्भ में इसका प्रयोग करके न सिर्फ़ अपनी साख हम जैसों की नज़रों में धूमिल कर रही है बल्कि भारत के सांस्कृतिक शब्दों से भी छेड़-छाड़ कर रही हैं।

सोशल मीडिया पर इस फोटो पर किया गया प्रयोग जो बहुत कुछ बयान करता है

आप जैसे पत्रकारों को लेकर जो हमारे भीतर सीखने की ललक है उसे बने रहने दीजिए। आपके इन सर्कास्टिक प्रयोगों से ऐसा लगता है कि अगर किसी के पास सोशल मीडिया पर उसके पाठक पहले से तैयार हों, तो वो भारी तादाद में नागरिकों को देश के प्रति भड़का और बरगला सकते हैं। अपनी विचारधारा में सनी हुई सोच से हर बात को जेनरलाइज़ करते हुए कुछ भी मत परोसिए, प्रतिक्रिया से समस्या नहीं है, जेनेरलाइज़शन से है। हम जैसे नए लोगों का भी ख्याल रखें, जो क्लासरूम से पत्रकारिता में नैतिकता वाला पाठ पढ़कर निकलते हैं, व्यवहारिकता में वही सच्चाई दिखाने का सपना देखते हैं, न कि किसी के साथ मानसिकता के साथ खेलने का!

ऐसा मत करिए! मेरा और मेरे जैसों के विश्वास को बने रहने दीजिए…

लद्दाख और कारगिल को जल्दी ही मिलेगा विश्व का सबसे बड़ा सोलर पॉवर प्लांट

भारत सरकार द्वारा पोषित राष्ट्रीय सोलर मिशन के अंतर्गत विश्व का सबसे बड़ा सोलर पॉवर प्लांट लदाख और कारगिल में बनने वाला है । इसकी कुल अनुमानित क्षमता 25,000 मेगावाट से भी अधिक आंकी गई है। नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) के अंतर्गत सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन द्वारा प्रोत्साहित इस परियोजना के प्रथम चरण में लदाख में 5000 मेगावाट और कारगिल में 2,500 मेगावाट क्षमता वाला सोलर पॉवर प्लांट बनेगा।

लदाख वाली यूनिट का निर्माण लेह से 275 किमी दूर हानले में होगा जहाँ विश्व की तीसरी सबसे बड़ी वेधशाला इंडियन एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जर्वेटरी भी स्थित है। कारगिल में सोलर पॉवर प्लांट ज़िला मुख्यालय से लगभग 250 किमी दूर ज़ंस्कर में सुरु में निर्मित होगा।   

लदाख वाले सोलर पॉवर प्लांट से निकलने वाली ऊर्जा हरयाणा के कैथल में जाएगी जिसके लिए बिजली की 900 किमी ट्रांसमिशन लाइन बिछाई गई है जबकि कारगिल में बनने वाले प्लांट की ऊर्जा श्रीनगर की ग्रिड में भेजी जाएगी। इस पूरी परियोजना पर लगभग ₹45,000 करोड़ का निवेश होगा और 2023 तक इसके पूर्ण होने का अनुमान है।

अच्छी बात यह है कि लेह तथा कारगिल प्रशासन ने क्रमशः 25,000 और 12,500 एकड़ ग़ैर-चरागाह भूमि चिन्हित की है जहाँ सोलर पॉवर प्लांट का निर्माण होगा। इस भूमि से स्वायत्तशासी पहाड़ी परिषदों ₹1200 प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से किराया प्राप्त होगा जिसमें 3% प्रतिवर्ष वृद्धि के भी प्रावधान हैं।

अच्छी बात यह है कि लेह तथा कारगिल प्रशासन ने क्रमशः 25,000 और 12,500 एकड़ ग़ैर-चरागाह भूमि चिन्हित की है जहाँ सोलर पॉवर प्लांट का निर्माण होगा। इस भूमि से स्वायत्तशासी पहाड़ी परिषदों ₹1200 प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से किराया प्राप्त होगा जिसमें 3% प्रतिवर्ष वृद्धि के भी प्रावधान हैं।

इस परियोजना से लेह लदाख और कारगिल क्षेत्र में विकास में तेज़ी आएगी और कार्बन उत्सर्जन में प्रतिवर्ष 12,750 टन की कमी आएगी जिससे ग्रीनहॉउस गैसों की मात्रा कम होगी और ग्लेशियरों के पिघलने की गति धीमी होगी।    

एक वर्ष पूर्व जनवरी 2018 में जम्मू कश्मीर सरकार और भारत सरकार के मध्य इस परियोजना को लेकर एमओयू पर हस्ताक्षर हुए थे जिसके बाद दिसंबर 2018 में टेंडर निकाले गए थे।     

कौन किसके साथ? ख़ुद में ही कन्फ़्यूज़्ड हैं महागठबंधन के नेता

आजकल मीडिया में एक शब्द जो बार-बार प्रयोग किया जा रहा है, वो है- महागठबंधन। ये शब्द लोगों को इतनी ज़्यादा बार सुनने और पढ़ने के लिए मिल रहा है कि उन्हें ये तक पता नहीं चल पा रहा कि आख़िर महागठबंधन में कौन शामिल हैं और कौन नहीं। महागठबंधन का स्क्रिप्ट 1981 में आई यश चोपड़ा की क्लासिक फ़िल्म सिलसिला से भी ज्यादा जटिल है।

दरअसल, सिलसिला में रिश्तों का ऐसा ताना-बाना बुना गया है, जो असल ज़िन्दगी में शायद ही कहीं देखने को मिले। इस फ़िल्म में जया भादुरी प्रेमिका तो होती हैं शशि कपूर की पर उनकी शादी हो जाती है अमिताभ बच्चन से लेकिन अमिताभ जया से प्रेम नहीं करते और उनकी प्रेमिका रेखा होती हैं। रेखा भी अमिताभ से ही प्रेम करती हैं लेकिन उनकी शादी संजीव कुमार से हो जाती है। फ़िल्मी परदे पर तो ये कहानी काफ़ी अच्छी लगती है, लोग कहानी में खो जाते हैं और उनका मनोरंजन हो जाता है। लेकिन, असल ज़िंदगी में अगर ऐसी खिचड़ी पकती रहे तो लोग पसंद न करें। महागठबंधन के रूप में हमें ऐसी ही खिचड़ी पकती दिख रही है।

सबसे पहले बात मायावती की। कभी भाजपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती आज राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो कॉन्ग्रेस के साथ हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में उन्होंने कॉन्ग्रेस से किनारा कर लिया है। राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के छह विधायक हैं जबकि मध्य प्रदेश में उनके दो विधायक हैं। दोनों ही राज्यों में बसपा कॉन्ग्रेस के साथ है और सत्ता के मजे ले रही है। वहीं उत्तर प्रदेश में पासा पलट जाता है। यहाँ ‘बहन’ जी ने अपने ‘भतीजे’ अखिलेश के साथ मिल कर कॉन्ग्रेस को नज़रअंदाज़ कर दिया। अर्थात यूपी में उनकी लड़ाई कॉन्ग्रेस और भाजपा- दोनों से ही होगी।

मायावती के ताजा बयानों से ये साफ़ है कि वो कॉन्ग्रेस और भाजपा- दोनों राष्ट्रीय दलों से समान दूरी बना कर चल रही हैं। हाल ही में उन्होंने दोनों को ही दलित-विरोधी पार्टी बताया था। मायावती जब भी कोई बयान देती हैं तो वह भाजपा और कॉन्ग्रेस- दोनों को ही लपेटे में लेती हैं। ऐसे में महागठबंधन रूपी खिचड़ी में यह जानना मुश्किल हो गया है कि आखिर बहन जी हैं किसके साथ? अगर वो कॉन्ग्रेस के विरोध में हैं तो फिर दो राज्यों में कॉन्ग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का स्वाद क्यों चख रहीं हैं? अगर वो कॉन्ग्रेस की विरोधी नहीं हैं तो फिर उत्तर प्रदेश में उन्होंने कॉन्ग्रेस पार्टी के भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा बनाने के इरादों पर पानी क्यों फेर दिया?

कभी प्रधानमंत्री की दौर में शामिल रहीं मायावती को आज राज्य में सत्ता पाने के लिए भी समझौते करने पर रहे हों तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें अपने सामने मोदी के रूप में एक ऐसा ख़तरा नज़र आ रहा है, जो उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए संकट बन गया है। हाल ही में अखिलेश यादव के साथ हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि कॉन्ग्रेस पार्टी से गठबंधन करने में उनका फायदा नहीं है। उनके शब्दों पर गौर करें तो हम पाएँगे कि मायावती सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़ायदे के लिए ही अखिलेश के साथ गठबंधन में शामिल हुई हैं। अब ये फ़ायदा कुछ भी हो सकता है- किसी भी तरह सत्ता की मलाई चखना, अपना अस्तित्व बचाना और आगामी लोकसभा चुनाव के बाद किंगमेकर बनना।

अब बात सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की। राहुल गाँधी ने कभी सपा-कॉन्ग्रेस गठबंधन की तुलना प्रयागराज के गंगा-यमुना संगम से की थी। आगामी आम चनाव के लिए बने ताजा हालात में वो गंगा-यमुना का संगम बिख़र गया है। अखिलेश यादव और मायावती के महागठबंधन ने ये साबित कर दिया कि इन इन क्षणिक गठबंधनों और इन्हें जनता के बीच पहुँचाने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले ‘गंगा-यमुना संगम’ जैसे मुहावरों का कोई मोल नहीं है। अवसरवाद की पराकाष्ठा को पार कर रहे ये गठबंधन सिर्फ और सिर्फ चुनावी होते हैं और एक हार के बाद ही बिखर जाते हैं।

सपा का समीकरण भी कुछ खिचड़ी की तरह ही है। अखिलेश यादव भाजपा के ख़िलाफ़ तो काफ़ी मुख़र हैं लेकिन कॉन्ग्रेस या फिर राहुल गाँधी के विरोध में बोलने से बचते रहे हैं। मायावती की तरह उनकी पार्टी में राजस्थान और मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस के साथ सत्ता भोग रही है लेकिन यूपी में हालात अलग हो गए हैं। प्रयागराज में तो आज भी गंगा और यमुना का संगम धाराप्रवाह है और शायद अनंतकाल तक रहे लेकिन राजनीति में ख़ुद को गंगा-यमुना बताने वाली ज़मात आज़ दो अलग दिशा में खड़ी है, कम से कम चुनाव परिणाम आने तक।

दोनों दलों ने कॉन्ग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ने का फ़ैसला लिया है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों से क्रमशः यूपीए अध्यक्षा सोनिया गाँधी और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी चुनाव लड़ते रहे हैं। कुल मिलाकर देखें तो इस खिचड़ी में जनता को यह समझना मुश्किल हो रहा है कि कौन किसके कितना साथ है और कौन किसके कितने विरोध में। राहुल गाँधी की बात करें तो वो सपा-बसपा का सम्मान करने की बात तो करते हैं लेकिन फिर उनके ख़िलाफ़ पूरी ताक़त से चुनाव में उतरने की बात भी करते हैं।

बिहार में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। यहाँ चेहरे की लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने ये कह कर कॉन्ग्रेस को सकते में डाल दिया है कि बिहार में महागठबंधन का चेहरा राहुल नहीं बल्कि लालू यादव होंगे। जीतन राम माँझी की ‘हम’ पार्टी ने भी इस मामले में राजद का समर्थन किया है।

इन सभी वाक़यों को देखने के बाद ये साफ़ प्रतीत होता है कि महागठबंधन की दशा व दिशा, समय, जगह और परिस्थिति पर निर्भर है यानी कि इन तीनों के हिसाब से वो बदलती रहती है और भविष्य में भी बदलती रहेगी। कहीं ये पार्टियाँ एक-दूसरे का विरोध करेंगी तो कहीं समर्थन। आज ये किसी और के साथ रहेंगे और कल किसी और के साथ। साथ ही, किसी राष्ट्रीय दल या गठबंधन को बहुमत न मिलने की स्थिति में किंगमेकर बनने का दिवास्वप्न देख रहे ये दल चुनाव बाद किस पाले में होंगे- इसका अनुमान कोई भविष्यद्रष्टा भी न लगा सके।

जस्टिस काटजू ने अलोक वर्मा कांड पर ‘फ़र्ज़ी मीडिया’ की निकृष्टता पर जमकर ली क्लास

CBI के पूर्व डायरेक्टर आलोक वर्मा पिछले कुछ दिनों से चर्चा में थे। मीडिया-सोशल मीडिया हर जगह। सुप्रीम कोर्ट तक में भी। अब इस्तीफ़ा देकर खुद ही उन्होंने पूर्ण विराम लगा दिया है। लेकिन मीडिया को जो मसाला चाहिए होता है, वो दे गए। इसी मसाले पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने फेसबुक पर अपनी राय रखी और मीडिया की धज्जियाँ उड़ा दीं। पत्रकारिता और रिपोर्टिंग कैसे करनी चाहिए, इसकी सीख भी दे गए:

11 जनवरी, सुबह 9:30 – जस्टिस सीकरी का समर्थन

जस्टिस काटजू लिखते हैं – मुझसे कई लोगों ने एक दिन पुराने पोस्ट पर पूछा कि आलोक वर्मा को समिति (जिसमें जस्टिस सीकरी भी थे) द्वारा सुनवाई का अवसर क्यों नहीं दिया गया। इस पर उनकी राय जानने के लिए मैंने उन्हें फोन किया। फोन पर जस्टिस सीकरी ने कहा:

  • आलोक वर्मा के खिलाफ कुछ गंभीर आरोप थे, जिनकी प्रारंभिक जांच में सीवीसी को कुछ सबूत और निष्कर्ष मिले थे।
  • सीवीसी ने प्रथम दृष्टया सामने आ रहे निष्कर्ष को अपनी रिपोर्ट में दर्ज करने से पहले आलोक वर्मा को सुनवाई का मौका दिया था।
  • इन गंभीर आरोपों व सबूतों के आधार पर ही जस्टिस सीकरी इस फैसले पर पहुँचे कि जाँच पूरी होने तक आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर पद पर नहीं रहना चाहिए। जाँच के दौरान उन्हें उनकी रैंक के बराबर के किसी अन्य पद पर स्थानांतरित कर दिया जाए।
  • कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि वर्मा को बर्ख़ास्त किया गया है, जबकि ऐसा नहीं है। उन्हें तो निलंबित भी नहीं किया गया है। वर्मा को उनके स्तर के बराबर ही वेतन व रुतबे वाली दूसरी पोस्ट पर महज़ स्थानांतरित किया गया है।
  • जहाँ तक वर्मा का पक्ष नहीं सुनने की बात है तो बिना किसी सुनवाई के किसी को निलंबित करने की प्रक्रिया बहुत आम है। सिर्फ बर्ख़ास्तगी के मामले में सुनवाई जरूरी है।
  • वर्मा को न तो बर्ख़ास्त किया गया और न ही हटाया गया। उन्हें सिर्फ सीबीआई डायरेक्टर के बराबर स्तर वाले दूसरे पद पर ट्रांसफर किया गया।

11 जनवरी, शाम 4:46 – भारतीय मीडिया फ़र्ज़ी खबरों का पुलिंदा

आगे वो बताते हैं कि कैसे ट्विटर पर सीबीआई डायरेक्टर के पद से आलोक वर्मा को हटाए जाने पर कई पत्रकारों (जिनमें कुछ तो बहुत जानेमाने हैं) ने बकवास भरी बातें लिखीं, “उनमें से किसी ने भी जस्टिस सीकरी से संपर्क करके इस मुद्दे पर उनकी राय जानने की जरूरत भी नहीं समझी। इस मामले में जो 3 सदस्य समिति थी, वो न्यायिक कार्यवाही से संबंधित समिति नहीं थी।”

“ऐसे में मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि जस्टिस सीकरी से अगर कोई उनके फ़ैसले पर राय ज़ाहिर करने को कहता तो वो मना कर देते। हद तो तब हो गई, जब बिना उनकी राय जाने लोगों ने उन्हें पीएम मोदी की कठपुतली तक कह दिया। क्या मीडियाकर्मियों ने उनसे संपर्क करने की कोशिश की? क्या यही जिम्मेदार पत्रकारिता है?”

उन्होंने मीडिया की नैतिकता और जवाबदेही पर सवाल उठाते हुए कहा, “ऐसा लगता है कि हमारे अधिकांश पत्रकार केवल सनसनी पैदा करना चाहते हैं। तथ्यों की परवाह किए बिना मसाला घोंटने में विश्वास रखते हैं। इसीलिए मैं ज्यादातर भारतीय मीडिया को फ़र्ज़ी खबर कहता हूँ।”

12 जनवरी – मीडिया की कार्यशैली और विश्वसनीयता पर सवाल

मार्कंडेय काटजू फेसबुक पर ही नहीं रुके। कई बड़े TV चैनलों पर भी उन्होंने अपनी राय दी। लेकिन TV के शोर को छोड़, इस मुद्दे पर हम आपको ‘द वीक’ पर लिखे उनके आर्टिकल का सारांश समझाते हैं। यह मीडिया की कार्यशैली और विश्वसनीयता पर एक तमाचा है। ऊपर कही गई बातों के अलावा ‘द वीक’ का अहम हिस्सा (शब्दशः नहीं, सिर्फ भावार्थ):

मुझे पता चला कि आलोक वर्मा के खिलाफ सीवीसी द्वारा जांच की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस पटनायक ने एक बयान दिया था। इसमें कहा गया था कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं है। इसलिए, मैंने जस्टिस पटनायक को फोन किया और उनसे इस मुद्दे पर लंबी चर्चा की। उन्होंने इस चर्चा को मुझे दूसरों के साथ शेयर करने की अनुमति नहीं दी। हालाँकि उन्होंने मुझे यह उल्लेख करने की अनुमति दे दी कि एक को छोड़कर किसी भी पत्रकार ने उनके साथ इस मामले पर चर्चा करने के लिए संपर्क नहीं किया। और जिस एक ने उनसे संपर्क साधा, वो ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की एक महिला पत्रकार थीं। आश्चर्य कि उस महिला पत्रकार ने भी एक मिनट से भी कम देर तक बात की।

गौर कीजिए – एक मिनट से कम की बातचीत सिर्फ एक पत्रकार के साथ – लगभग सभी भारतीय मीडिया हाउस ने इस मुद्दे पर लंबे-लंबे आर्टिकल लिख छापे। सोशल मीडिया पर तो ख़ैर बाढ़ ही आ गई। और जिन्होंने ऐसा किया, उनमें से किसी ने भी (उस महिला पत्रकार को छोड़कर) जस्टिस पटनायक से संपर्क नहीं किया।

मिसाल के तौर पर, हिंदुस्तान टाइम्स की एक महिला पत्रकार ने लिखा कि हाई पावर्ड कमिटी का फैसला बहुत ज़ल्दबाज़ी में लिया गया। शायद, उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़ने की भी ज़हमत नहीं उठाई, जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि कमिटी को एक सप्ताह के भीतर फैसला करना होगा। साथ ही उसने यह भी लिखा कि कमिटी को वर्मा का पक्ष सुनना चाहिए था। अगर वह जस्टिस सीकरी (ईमेल आईडी [email protected] और फोन नंबर 23016022/23016044) से संपर्क करतीं तो शायद उन्हें उत्तर मिल जाता।

जिन पत्रकारों ने इस मुद्दे पर लिखा है, उनमें से किसी ने भी (उस महिला पत्रकार को छोड़कर, जिसने एक मिनट से भी कम बात की) जस्टिस सिकरी या जस्टिस पटनायक से संपर्क नहीं किया, न ही करने की कोशिश की।

पत्रकारों द्वारा बिना जाँच-पड़ताल के ख़बरें बनाना ही फ़ेक न्यूज़ हैं। ऐसे में डोनल्ड ट्रम्प जब कहते हैं -मीडिया ही लोगों का दुश्मन है- तो यह बात अमेरिकी मीडिया के लिए शायद सही है, शायद नहीं, लेकिन अधिकांश भारतीय मीडिया के लिए यह निश्चित तौर पर सच है। यहाँ की मीडिया संवेदनाओं को भड़काने और जनता को मसाला देने में विश्वास करती है। यही कारण है कि अब लोग अधिकांश मीडिया और पत्रकारों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं।

फ़ोटो फ़ीचर: भारतीय संस्कृति की थाती समेटे ‘संस्कृति ग्राम’ व ‘संस्कृति कुम्भ’ का वर्चुअल टूर

कुम्भ की महिमा का गान और सनातन संस्कृति का बखान करने के लिए मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ द्वारा उद्घाटन के बाद से ही गंगा पार प्रयागराज का अरैल स्थित ‘संस्कृति ग्राम’ आगन्तुकों के स्वागत के लिए धर्म और संस्कृति से जुड़ी कई मनोरम झाँकियों के साथ तैयार है। आप यहाँ सनातन परम्परा और संस्कृति के साथ ही कुम्भ के इतिहास से भी परिचित होंगे। इतना ही नहीं लोक संस्कृति की मनोरम झाँकियाँ देखनी हो, लोकगीतों की ताल पर झूमना हो तो पधारिए ‘संस्कृति कुम्भ’ जो अपनी पूरी भव्यता के साथ प्राचीन से नवीन भारत की तमाम खूबियों को समेटे आपकी राह देख रहा है।

यू. पी. नहीं देखा तो क्या देखा! (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

चलिए ले चलता हूँ, आपको एक वर्चुअल टूर पर ‘संस्कृति ग्राम’ की छोटी सी झलक के साथ संस्कृति कुम्भ दिखाने –


यहाँ शास्त्रीय संगीत से लेकर विभिन्न लोक कलाओं की झलक देखने को मिलेगी।

केवट प्रसंग- प्रभु राम केवट को गले लगाते हुए (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

राम मर्यादा पुरुषोत्तम माने गए हैं। बेशक़ उलझी हो उनकी अपनी ही जन्म नगरी कोर्ट-कचहरी में, पर उनकी गाथा सबको आत्मसात कर, वंचितों और असहायों को सदैव विजय की प्रेरणा देती रहेगी।

राम वन गमन (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

जंगल का जीवन बहुत सुखदायी तो कभी नहीं रहा होगा। पर पिता के वचन रक्षार्थ 14 वर्ष का वनवास। संयम, साहस, जीवटता का प्रतीक।

चल रहा महाभारत का रण (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

महाभारत की कई घटनाएँ आपको महामानव कृष्ण की याद दिलाएँगी। जीवन की निस्सारता और ‘जो है वही है’ के रूप में गीता का सस्वर ज्ञान सुनाएँगी। रामायण और महाभारत हमारे दो ऐसे महाकाव्य हैं, जिसमें जीवन के हर संग्राम में यशस्वी होने के बीज सूत्र हैं।

काली दह में कालिया नाग का मान मर्दन करते हुए श्री कृष्ण (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

कृष्ण न सिर्फ़ लीलाधर थे बल्कि मानव जीवन की सम्पूर्णता का पर्याय भी

जनक नन्दनी सीता माँ (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

संस्कृति ग्राम में न सिर्फ़ रामायण-महाभारत के प्रसंग, बल्कि समुद्र मन्थन से लेकर, पाषाण काल, आदिमानव से आधुनिक मानव और उसकी सांस्कृतिक विकास यात्रा भी देखने को मिलेगी

जीवन को व्यस्थित करने का पहला प्रयास (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

कभी सोचिएगा कि आदिकाल में, पुरापाषाण काल में कैसा रहा होगा जीवन… आदिकाल की उन कठिनाइयों को उकेर कर कलाकृतियों के माध्यम से उस दौर के जीवन को बखूबी समझाने की कोशिश

मराठा शान के प्रतीक शिवाजी (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

…और भी थे जो लड़े सनातन संस्कृति की आन-बान-शान के लिए

सनातन परम्परा को शब्द संसार में बाँधकर मानवता को सौंप देने वाले महापुरुष
(तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

तुलसी, बाल्मीकि से लेकर संस्कृति को अक्षुण्ण रखने वाले ऐसे ही कई और भी महापुरुषों की झाँकी

पूरा पाषाण काल (तस्वीर – ज्ञान प्रकाश पाण्डेय)

ये तो पूरी प्रदर्शनी की छोटी-सी झलक है। ‘संस्कृति ग्राम’ में सिंघु घाटी की सभ्यता, वैदिक काल की ऋचाएँ, रामायण युग, कृष्ण लीला, महाभारत काल की प्रमुख घटनाएँ, बुद्ध एवं महावीर के त्याग और ज्ञान की सांस्कृतिक विरासत, मौर्य काल, शुुंग एवं कुषाण काल, गुप्त काल, वर्धन साम्राज्य, भारत में मंदिर वास्तु का विस्तार, भक्ति काल, इंडो-इस्लामिक कला एवं स्थापत्य, मराठा साम्राज्य, 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, एवं सामाजिक जागरूकता से जुड़े आंदोलन तथा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कुछ ऐसी कहानियाँ जो इस देश की सनातन, गौरवशाली परम्परा का प्रतिनिधित्व करती हैं, विभिन्न कलाकृतियों, पेंटिंग एवं जीवन्त कलाकारों के माध्यम से प्रदर्शित की गई हैं।

भारतीय लोक कला संस्कृति का अनूठा संगम संस्कृति कुम्भ

इतना ही नहीं, इस बार कला कुम्भ में देश-विदेश के नाट्य एवं लोक कलाकारों का जमावड़ा भी हो रहा है। ये कलाकार विभिन्न मंचों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे। 16 फरवरी 2019 तक चलने वाले कार्यक्रम में भारत सहित 12 देशों के कलाकार अपने देशों की शैलियों में रामलीला का मंचन करेंगे। संस्कृति विभाग में अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक योगेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि इंडोनेशिया, त्रिनिदाद, थाईलैंड, रूस, मलेशिया, श्रीलंका, मॉरीशस, सूरीनाम, नेपाल, बांग्लादेश एवं न्यूजीलैंड के लोक कलाकार मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जीवनगाथा ‘रामलीला’ की प्रस्तुति देंगे

चंद कौड़ियों के लिए जब पादरी ने कर दिया था कैथोलिक लड़कियों का सौदा

सोलह साल की लड़की को सिर्फ 150 पौंड के लिए बेच दिया गया। उस मासूम की आह, दर्द और कराह को किसी ने नहीं सुना, बस उसका शारीरिक-शोषण होता रहा।

पाँच दशक पहले की किसी वारदात पर खोजबीन करने निकलेंगे तो क्या हाथ आएगा? जिन मलयाली कैथोलिक लड़कियों ने मेट्रिक की परीक्षा पास कर ली हो, ऐसी लड़कियों को पादरियों ने रोजगार के अवसर के नाम पर बुलाना शुरू किया था। बीस लड़कियों का ऐसा पहला दल 1963 में केरल से विदेशों में भेजा गया और 1972 से इनके साथ दुर्व्यवहार की कहानियां सुनाई देने लगीं। ‘द गार्डियन’, ‘द टाइम्स’ और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जैसे अख़बारों/प्रकाशनों में जर्मनी भेजी गई इन लड़कियों की कहानियाँ आने से मामला प्रकाश में आया।

इसके बावजूद भारत में इनके बारे में कोई चर्चा करना किसी को ज़रूरी नहीं लगा। रॉयटर्स की फ़ेलोशिप के लिए लंदन गए फ़िल्मकार राजू ई राफ़ेल को सन 2000 में जब इसका पता चला तो उन्होंने इस विषय पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की सोची। के राजगोपाल के साथ मिलकर उन्होंने इस विषय पर ‘अरियाप्पेदथा जीवीथांगल’ नाम की डॉक्यूमेंट्री बनाई। इसे बनाना कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि शुरूआती दलों में गईं कई लड़कियों की या तो मृत्यु हो चुकी थी, या लौटकर वो कहीं दूरदराज के क्षेत्रों में मिशनरी काम कर रही थीं।

पादरी ने किया था 16 साल की किशोरी का सौदा

सोलह साल की जिस लड़की को पादरी ने सिर्फ 150 पौंड के लिए बेच दिया हो, उस किशोरी की तकलीफ की कल्पना करना भी मुमकिन नहीं। जब फ़िल्मकार उन बची हुई ननों से मिले तो हालात काफ़ी बदल चुके थे। कुछ मलयाली ननें भावनात्मक मुश्किलों से उबर पाई थीं। उनमें से कुछ अब वहाँ की चर्च में ऊँचे ओहदों पर हैं। कई ऐसी भी थीं जिनका मानसिक स्वास्थ बिगड़ गया। मजहब के नाम पर हुए ऐसे शोषण के बारे में आम तौर पर भारत में कोई बात नहीं होती। अक्सर इसे अल्पसंख्यक समुदाय का विशेषाधिकार मान लिया जाता है।

फिल्म के लिए शोध करने का काम जोस पुन्नापरम्बिल के जिम्मे था। लम्बे समय जर्मनी में रहने के कारण उनकी जान पहचान भी अच्छी थी। उनका कहना है कि अनोखी बात ये है कि कभी चंद पाउंड के लिए जर्मनी भेजी जा रही मलयाली ननों का ही अब वहाँ के चर्च में दबदबा है। जर्मन लोग मज़हबी कामों में अब कम रूचि लेते हैं, इसलिए उनकी गिनती घटती जा रही है। सिर्फ शोषण की कहानी तक ही अपनी डॉक्यूमेंट्री को सीमित रखने के बदले राजू ई राफ़ेल ने कहानी का अंत तक पीछा किया।

जो ननें जर्मनी भेजी गई थीं, उनमें से कुछ अपने गाँव लौटकर अब सेवानिवृत्त जीवन बिताती हैं। उन्हें तलाशते हुए राजू महाराष्ट्र, केरल और मध्यप्रदेश के गावों तक पहुँच गए। चालीस मिनट की इस फिल्म की विश्वसनीयता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि फ़िल्मकार ने शुरुआती बैच में गई कई ननों से मुलाकात और बातचीत भी रिकॉर्ड कर रखी है। ये एक ऐसी पुरानी कहानी है जो न चाहते हुए भी बार-बार उभर आती है।

‘स्पॉटलाइट’ फिल्म से सामने आया था पादरियों का काला कारनामा

दुनिया भर में चर्च के कैथोलिक पादरियों द्वारा किए जा रहे यौन-शोषण पर कुछ साल पहले ‘स्पॉटलाइट’ नाम की फिल्म बनी थी। ऑस्कर जीतने वाली ये फ़िल्म मुख्य धारा की चर्चा में कभी नहीं आई। “बॉस्टन ग्लोब” के शोध के आधार पर बनी इस फ़िल्म के पहले और बाद में कैथोलिक चर्च सिर्फ यौन शोषण के मामलों में करोड़ों का जुर्माना भर चुका है।

हाल ही में भारत में भी ऐसे मामले प्रकाश में आने लगे हैं। गौर करने लायक ये भी है कि ऐसे मुद्दों पर जब बरसों पहले सिस्टर जेसमी ने “ऐमन” (Amen) नाम की किताब लिखी थी तब उन्हें और उनकी किताब को चौतरफा विरोध झेलना पड़ा था।

भारत में ननों के शारीरिक शोषण पर आवाज़ उठाने का मतलब सांप्रदायिक होना क्यों?

भारत में आमतौर पर ननों के बलात्कार जैसे मामलों को भी सांप्रदायिक रंग देकर बहुसंख्यक समुदाय को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता रहा है। झाबुआ नन बलात्कार काण्ड (1998) में भी तब के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा करने की कोशिश की थी। बाद में पता चला कि बलात्कारियों में से 12 तो स्थानीय ईसाई आदिवासी ही थे! करीब-करीब ऐसा ही हाल में एक वृद्ध नन के बलात्कार के मामले में हुआ था। इस मामले में बाद में बंगलादेशी घुसपैठिए गिरफ्तार कर लिए गए। गिरफ्तारियों से पहले तक जॉन दयाल जैसे एवेंजलिस्ट इसके लिए हिन्दुओं को कसूरवार बताते रहे थे।

जालंधर के बिशप फ्रांको मुलक्कल पर नन के बलात्कार के अभियोगों के बाद से तो जैसे गटर से कोई ढक्कन ही हट गया है। देखने लायक ये होगा कि स्थापित मीडिया किसका साथ देती है? क्या उसमें सच का साथ देने की हिम्मत बची भी है? स्थापित किए गए नैरेटिव के सुविधाजनक माहौल में आराम से बैठकर खुद को निष्पक्ष घोषित करने का विकल्प भी खुला ही है!

26 जनवरी और 15 अगस्त के बीच का अंतर भूले जिग्नेश मेवानी

आँख मूँद कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गाली देने वालों में से एक नाम गुजरात में कॉन्ग्रेस पार्टी के सहयोग से विधायक बने जिग्नेश मेवानी का भी है। जिग्नेश मेवानी अक्सर प्रधानमंत्री के लिए आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करते रहे हैं। यही नहीं, ख़ुद को दलित नेता बताने वाले जिग्नेश बाबसाहब भीमराव अम्बेडकर की भी आलोचना कर चुके हैं। ताजा मामला उनके नए ट्वीट से जुड़ा है। इस ट्वीट में जिग्नेश मेवानी ने कहा,“आज प्रधानमंत्री राम लीला मैदान से देंगे भाषण। सवाल यह है कि आज ज़्यादा झूठ बोलेंगे कि 26 जनवरी के लिए हेवी डोज़ बाकी रखेंगे?”

इस ट्वीट में जिग्नेश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आज रामलीला मैदान में होने वाले उनके भाषण को लेकर कटाक्ष किया है। बता दें कि रविवार (जनवरी 13, 2019) को पीएम भाजपा राष्ट्रीय परिषद की बैठक को सम्बोधित करने वाले हैं।

लेकिन, पीएम पर कटाक्ष करते समय जिग्नेश मेवानी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के बीच अंतर भूल गए। अपने ट्वीट में जिग्नेश ने पूछा कि क्या प्रधानमंत्री 26 जनवरी के लिए भी कुछ बोलना बाकी रखेंगे?

ऐसा ट्वीट करते समय जिग्नेश को ये बात याद नहीं रही कि 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री का नहीं बल्कि राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है। हालाँकि, राजपथ पर होने वाले इस समारोह में प्रधानमंत्री सहित देश के सभी बड़े नेता उपस्थित रहते हैं लेकिन मुख्य अभिभाषण भारत के राष्ट्रपति का होता है। अर्थात आगामी गणतंत्र दिवस पर महामहिम रामनाथ कोविंद राष्ट्र को संबोधित करेंगे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं।

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का अभिभाषण होता है। अपने ट्वीट में मोदी की आलोचना करने के चक्कर में जिग्नेश मेवानी 26 जनवरी को 15 अगस्त समझ बैठे।

इस से पहले टाइम्स नाउ के एक एक्सक्लूसिव वीडियो में बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर की आलोचना करते हुए जिग्नेश मेवानी ने कहा था कि बाबासाहब ने जो कहा वो पत्थर की लकीर नहीं है। उनके इस बयान पर बाबासाहब के पोते प्रकाश अम्बेडकर ने भी आपत्ति जताई थी।

जब बार-बार लुटयन मीडिया ने राहुल गाँधी के राफ़ेल झूठ पर कहा ‘जिने मेरा दिल लुटया, ओहो!’

आपने अंग्रेजी मेनस्ट्रीम मीडिया में पढ़ा होगा कि संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को “दिन में पाँच झूठ बोलने वाला” कहा, खासकर राफ़ेल सौदे के बारे में। लेकिन मुझे यक़ीन है कि आपने जेटली द्वारा अपने बात के समर्थन में उल्लेखित उदाहरणों को नहीं पढ़ा होगा। चाहे वो इंडियन एक्सप्रेस हो, हिंदुस्तान टाइम्स हो, द हिंदू, या द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, सभी लुटयन मेनस्ट्रीम मीडिया ने उन “उदाहरणों” को अपने रिपोर्ट्स से ग़ायब कर दिया।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है – लुटयन मीडिया कभी भी राहुल गाँधी को उनके झूठ पर घेरकर नहीं पटकती। राहुल गाँधी को ठीक से पता है कि वह बहुत सहजता से झूठ बोल सकते हैं और अंग्रेजी मेन स्ट्रीम मीडिया ऐसे समय मदहोश रहती है। उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं देता। उनकी माँ सोनिया गाँधी के दो दशक के कार्यकाल पर, उनके ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं निकला। और न ही पिछले पाँच सालों में राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ कुछ ऐसा जिसे आप आलोचना की श्रेणी में भी रख सकें। आप वित्तमंत्री जेटली के राफ़ेल पर 2 जनवरी को संसद में दिए ज़वाब के इस वीडियो (नीचे संलग्न) को देख सकते हैं और जज कर सकते हैं कि आपका न्यूज़ पेपर हर दिन आपको कैसे बेवकूफ़ बनाता है, और राहुल गाँधी का इस तरह बचाव करता है जैसे उनके ही अधीन हो।

मैं शर्त लगा सकता हूँ कि अरुण जेटली द्वारा ऑफ़सेट भागीदारों पर राहुल गाँधी के झूठ और अनिल अंबानी के रिलायंस को दिए गए फ़ेवर के बारे में दिए बयान को किसी भी मेनस्ट्रीम मीडिया में, आपने कभी पढ़ा हो। जेटली ने कहा: “राहुल गाँधी 1.30 लाख करोड़ रुपए (फ़ेवर की राशि) का हवाला देते रहते हैं। यह UPA ही थी जिसने 2005 में निर्णय लिया कि भारत में ऑफ़सेट भागीदारों को कुल ख़र्च का 30-50 प्रतिशत ही प्राप्त होगा। चूँकि, कुल सौदा ही जब 58,000 करोड़ रुपए का है, तो इस हिसाब से यह 29,000 करोड़ रुपए बैठता है। दसाँ (Dasault) ने कहा है कि रिलायंस के साथ व्यापार 10 वर्षों में, केवल 3-4 प्रतिशत या 800 करोड़ रुपए के आसपास आता है। फिर ये 1.30 लाख रुपए का आँकड़ा कहाँ से उद्धृत किया जाता है जब पूरी डील ही केवल 58,000 करोड़ रुपये की है?” क्या आपने इस तथ्य को कभी किसी मेन स्ट्रीम मीडिया में पढ़ा है?

जेटली ने राहुल गाँधी को पीएम मोदी को गलत तरीक़े से राफ़ेल सौदे में घसीटने के लिए भी लताड़ा: “(राहुल ने कहा कि) ये पूरी प्रक्रिया ही ग़लत है। दोनों पक्षों के समितियों के बीच जब कुल 74 बैठकें हुई थी, फ़िर भी न कोई निगोशिएशन समिति, न कोई रक्षा अधिग्रहण परिषद, न सुरक्षा पर कोई कैबिनेट समिति। झूठा और मनगढ़ंत आरोप सिर्फ़ एक आदमी (पीएम नरेंद्र मोदी) पर। समितियों के बैठकों के बीच ये कैसे संभव है? जबकि हमने पूरी प्रक्रिया का विवरण सर्वोच्च न्यायालय में  प्रस्तुत किया था। SC ने अपने निर्णय में कहा कि वह पूरी प्रक्रिया से संतुष्ट है।” क्या आपने इसे अपने मेन स्ट्रीम मीडिया के किसी भी न्यूज़ पेपर में पाया?

जेटली ने साफ़-साफ़ बताया कि हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को एक ऑफ़सेट साझेदार के रूप में क्यों नहीं चुना गया? “यूपीए ने ही HAL को अनुबंध देने से मना कर दिया था। HAL ने काम के लिए आवश्यक “2.7 घण्टे ज़्यादा मानव श्रम” की बात पर बल दिया था। जिससे न केवल कीमत बढ़ती बल्कि समय बढ़ने से पाकिस्तान और चीन भी भारत से आगे निकल जाते।” क्या आपने इसे भी कहीं पढ़ा?

“सौदे के बाद, जो प्रेस विज्ञप्ति आई थी उसमें कहा गया कि यह दो सरकारों के बीच का समझौता (inter-governmental agreement) था। यह उस कीमत से सस्ता है, जिस पर यूपीए ने बातचीत की थी।” क्या आपने इसे भी कहीं पढ़ा है?

जेटली ने राफ़ेल मूल्य निर्धारण पर झूठ बोलने के लिए कॉन्ग्रेस नेता शशि थरूर को फटकार लगाई और कहा था कि कम से कम बाद में तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले पढ़ लिए होते। “सुप्रीम कोर्ट ने कीमत माँगी, हमने उन्हें सीलबंद लिफाफा में दिया। उन्होंने इसे खोला और फिर निर्णय दिया कि वह मूल्य निर्धारण की न्यायिक समीक्षा से संतुष्ट है।”

जेटली ने उल्लेख किया कि राफ़ेल जेट विमानों के पहले बैच की डिलीवरी के लिए यूपीए ने 11 वर्षों के लिए अनुबंध किया था, “और वे हमसे पूछ रहे हैं कि 2016 में अनुबंध पर हस्ताक्षर किए जाने पर 2018 में कोई राफ़ेल जेट क्यों नहीं दिया गया।”

जेटली ने संयुक्त संसदीय समिति (JPC) की जाँच को सिरे से खारिज़ कर दिया, “जेपीसी नीति के मामलों में ज़रूरी है, जाँच के लिए नहीं।” इसके अलावा, जेटली ने कहा कि जेपीसी का रवैया “पक्षपातपूर्ण पार्टी लाइनों” पर है। उन्होंने बोफ़ोर्स का हवाला दिया जहाँ किकबैक को भी जेपीसी ने “रिश्वत” नहीं कहा था, और सभी आरोपों को रफ़ा-दफ़ा कर दिया था।

वित्तमंत्री जेटली ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष और उनकी पार्टी ने द्वारा फैलाए गए झूठे आरोपों की कड़ी निन्दा की, “उन्होंने (राहुल गाँधी) कहा कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्राँ ने ख़ुद (रिलायंस के ऑफ़सेट पार्टनर के बारे में) उनसे कहा था। मगर फ़्रांस सरकार ने इससे इनकार कर दिया।” अरुण जेटली ने कॉन्ग्रेस द्वारा फ़र्ज़ी काग़ज़ात पेश करने के मामले का भी हवाला दिया। उन्होंने कहा कि (पूर्व पीएम) वीपी सिंह के बेटे का सेंट किट्स में एक विदेशी बैंक खाता भी था। पाठकों, आपको यह भी पता नहीं नहीं होगा।

जेटली ने कॉन्ग्रेस और उसके नेताओं को याद दिलाया। कि ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने मनमोहन सिंह के बारे में लिखा था, “जो प्रधानमंत्री पद पर हैं, लेकिन सत्ता में नहीं।” अरुण जेटली ने फिर याद दिलाया, “यह आदमी (राहुल गाँधी) बार-बार झूठ बोलता है। वह दिन में पाँच बार झूठ बोलने वाले हैं।”

संसद सत्र के दौरान कॉन्ग्रेस के सांसदों और उनके अध्यक्ष का आचरण इतना ख़राब था कि अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने हंगामा करते हुए कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी से कहा, “यदि आपको सुनना नहीं हैं, तो आपको प्रश्न नहीं पूछने चाहिए।” कल फ़िर से वही सवाल दोहराएँगे।

हाँ, राहुल गाँधी ने ही राफ़ेल पर बार-बार विवाद खड़ा किया, झूठे आरोप लगाए और अब ज़वाब सुनने के लिए भी तैयार नहीं। धन्यवाद, मेनस्ट्रीम मीडिया, इस तरह से राहुल गाँधी का बार-बार ढाल बनने के लिए। उनके हर झूठ पर पर्दा डालने के लिए। आप नहीं जानते होंगे पर ऐसा मेनस्ट्रीम अंग्रेजी मीडिया अपने संपादकीय नीति के तहत ही करता है।

वित्तमंत्री अरुण जेटली के भाषण का वीडियो :

मूलतः हमारी अंग्रेज़ी साइट पर लिखे गए इस लेख का अनुवाद रवि अग्रहरि ने किया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने माना- सुश्रुत थे प्लास्टिक सर्जरी के जनक

प्राचीन भारतीय विज्ञान में रुचि रखने वालों के लिए एक बहुत ही अच्छी ख़बर है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने ये माना है कि प्लास्टिक सर्जरी की जड़ें भारत में है। आज के युग में प्लास्टिक सर्जरी का ख़ासा चलन है। हॉलीवुड के बड़े अभिनेता-अभिनेत्रियों से लेकर प्रसिद्ध खिलाड़ियों तक- कई सेलेब्रिटीज़ आज करोड़ों रुपए ख़र्च कर प्लास्टिक सर्जरी करवाते हैं ताकि वो और आकर्षक दिख सकें। लोग अपनी नाक, होंठ या गाल की संरचना में इच्छानुसार बदलाव लाने के लिए भी प्लास्टिक सर्जरी का ही सहारा लेते हैं। आज प्लास्टिक सर्जरी का बाज़ार इतना विशाल और व्यापक है कि सिर्फ अमेरिका में एक साल में इस पर 16 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा ख़र्च किए जाते हैं।

ऐसे में अगर कोई आपको कहे कि प्लास्टिक सर्जरी की उत्पति भारत में हुई थी, तो आप एक पल के लिए चौंक जाएँगे क्योंकि ये बात न हमारे स्कूली सिलेबस में पढ़ाई जाती है और न ही आम लोगों को इस बारे में ज्यादा पता है। लेकिन प्राचीन भारत में कई सारी ऐसी चीजें है जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। दरअसल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने ‘मेडिसिन का इतिहास’ (History of medicine) के अंतर्गत एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है जहाँ प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी और इसके द्वारा नाक की संरचना में बदलाव कराए जाने की बात कही गई है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है:

“क्या प्लास्टिक सर्जरी एक मॉडर्न लक्ज़री है? यह पता चला है कि कॉस्मेटिक और पुनर्संरचनात्मक प्रक्रियाओं की जड़ें 2500 से भी अधिक वर्ष पीछे जाती हैं। यह एक सामान्य गलत धारणा है कि ‘प्लास्टिक सर्जरी’ में ‘प्लास्टिक’ एक कृत्रिम सामग्री को संदर्भित करता है जब यह वास्तव में ग्रीक शब्द, प्लास्टिकोस से निकलता है, जिसका अर्थ “ढालना” या “रूप देना है।”

कोलंबिया यूनिवर्सिटी भारत को इस खोज का श्रेय देते हुए कहा कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान, सर्जरी के जनक के रूप में प्रसिद्ध सुश्रुत नाम के एक भारतीय चिकित्सक ने चिकित्सा और शल्य चिकित्सा पर दुनिया के शुरुआती कार्यों में से एक लिखा था। सुश्रुत के महान योगदान की पुष्टि करते हुए कोलंबिया यूनिवर्सिटी आगे कहती है:

“सुश्रुत संहिता ने 1100 से भी अधिक बीमारियों के निदान बताए, सैकड़ों औषधीय पौधों के उपयोग को समझाया और सर्जरी के कई सारे तौर-तरीक़ों को समझाया। इनमे तीन प्रकार के त्वचा-ग्राफ्ट और नाक का पुनर्निर्माण भी शामिल है। सुश्रुत का ग्रंथ एक फोरहेड फ्लैप राइनोप्लास्टी का पहला लिखित रिकॉर्ड प्रदान करता है। यह एक ऐसी तकनीक है जो आज भी उपयोग की जाती है। इस से माथे के त्वचा की पूरी मोटाई का टुकड़ा नाक को फिर से बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।”

बता दें कि महर्षि विश्वामित्र के वंश से ताल्लुक़ रखने वाले सुश्रुत को ‘फादर ऑफ सर्जरी’ कहा जाता है। उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थ सुश्रुत संहिता को आयुर्वेद का मूलभूत टेक्स्ट माना जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि इसे छठी शताब्दी ईसापूर्व में लिखा गया था, यानी कि आज से करीब 2500 साल पहले। आपको अगर उनके योगदान के बारे में और पढ़ना है तो आप इस रिसर्च जर्नल के कुछ हिस्से यहाँ पढ़ सकते हैं। वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब ने अपनी पुस्तक A People’s History of India 20 – Technology in Medieval India, c. 650–1750 में लिखा है कि भारत में ऐसे सर्जन हुआ करते थे जो जाँघ या गाल का मांस काटकर प्लास्टिक सर्जरी करते थे।

इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद ये पता चलता है कि आजकल विश्व में कई सारी ऐसी प्रसिद्ध तकनीक है, जिस की जड़ें प्राचीन भारत में हैं। महाभारत ग्रन्थ में भी सुश्रुत का ज़िक्र किया गया है और उन्हें विश्वामित्र का पुत्र बताया गया है। आज दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग प्लास्टिक्स सर्जरी के बाज़ार पर निर्भर है। कई देशों से लोग प्लास्टिक सर्जरी कराने के लिए दक्षिण कोरिया का रुख करते हैं। ऐसे में इस सवाल का उठना लाज़िमी है कि क्या भारत अपने धरोहरों की सही तरीके से पहचान नहीं कर पाया? या फिर, हम अपने ही द्वारा खोजी गई तकनीकों को पूरी तरह से उपयोग में लाने और उनका प्रचार-प्रसार करने में विफल हो गए?