Wednesday, May 14, 2025
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सूरज की गर्मी से पिघलते हुए ग्लेशियर को मिलेगी ‘विज्ञान की छाया’, ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए ताप को कम करने पर काम कर रहे वैज्ञानिक: जानिए सब कुछ

इस प्रयोग में वैज्ञानिक सूरज की रोशनी को कम करने या परावर्तित कर वापस अंतरिक्ष में भेजने की कोशिश करेंगे। ब्रिटिश सरकार की एडवांस रिसर्च एंड इनवेंशन एजेंसी (ARIA) की ओर से इस प्रयोग के लिए लगभग ₹550 करोड़ रुपए (50 मिलियन यूरो) का फंड तय किया है।

विश्व भर के वैज्ञानिक तपती धरती को ठंडा करने के लिए एक नया प्रयोग करने जा रहे हैं। पिघलते ग्लेशियर बचाने और ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने को वैज्ञानिक अब सूरज की रोशनी को ठंडा करना चाहते हैं। इसके लिए वैज्ञानिकों ने तकनीक भी खोज ली है।

यूनाइटेड किंगडम (UK) के वैज्ञानिक ने ग्लोबल वॉर्मिंग कम करने के लिए एक प्रयोग पर काम कर रहे हैं। इस प्रयोग में वह सूरज की रोशनी को कम करने या परावर्तित कर वापस अंतरिक्ष में भेजने की कोशिश करेंगे। ब्रिटिश सरकार की एडवांस रिसर्च एंड इनवेंशन एजेंसी (ARIA) की ओर से इस प्रयोग के लिए लगभग ₹550 करोड़ रुपए (50 मिलियन यूरो) का फंड तय किया है।

द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, एरिया के प्रोग्राम डायरेक्टर प्रोफेसर मार्क साइम्स ने बताया कि ये कुछ ही जगहों पर किया जाएगा। उन्होंने कहा, “हम जो कुछ भी करेंगे वह सुरक्षित होगा। इस अनुसंधान के प्रति हम पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं।”

इस प्रयोग के जरिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला से इतर असल दुनिया में आने वाले परिणाम के आँकड़े जुटाना चाहते हैं ताकि इसको बड़े स्तर पर लागू करने के जोखिम पता किए जा सकें। सोलर जियोइंजीनियरिंग के जरिए किए जाने वाले इस प्रयोग का सीधा असर पर्यावरण पर होने का दावा किया जा रहा है।

इस प्रयोग के जरिए पृथ्वी ठंडी होने की बात कही जा रही है। यह भी बताया गया है कि बारिश के समय और तरीके में बदलाव हो सकता है। हालाँकि इस प्रक्रिया के कुछ नुकसान भी हैं, जिनका असर दीर्घकालिक हो सकता है।

क्यों हो रहा प्रयोग?

ग्लोबल वार्मिंग को लेकर पूरी दुनिया चिंता में है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इससे समुद्र का पानी गर्म हो रहा है और पहाड़ों पर मौजूद ताजे पानी के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसे कम करने को लेकर दुनिया भर में वार्ता, कार्यक्रम समेत कई जतन किए जा रहे हैं। कई सुझाव दिए जा रहे हैं।

इसके अलावा जीवाश्म ईंधन को ना जलाने, अक्षय ऊर्जा का उपयोग करने और वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग करने समेत तमाम तरह की बातें हो रही हैं। हालाँकि इन सब का अब तक कोई गंभीर परिणाम निकल कर सामने नहीं आ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र (UN) की 2024 की पर्यावरण को लेकर एक रिपोर्ट के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन वर्तमान में जिस गति से बढ़ रहा है, उसके जारी रहने से वर्ष 2100 में पृथ्वी का तापमान 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। उस स्थिति में दुनिया भर में सूखा, बाढ़ जैसी आपदाएँ आ सकती हैं।

इससे फसलें तक बर्बाद हो सकती हैं। समुद्र के बढ़े हुए जलस्तर से शहर डूब सकते हैं। कई बीमारियाँ फैल सकती हैं। इसके लिए पेरिस जलवायु समझौते में वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक कम करने का लक्ष्य दुनिया भर के कई देशों ने लिया था। हालाँकि, फिर भी बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग में ये लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लग रहा है।

सूरज की रोशनी घटाने का विचार

विज्ञान के शोध और आविष्कार को प्रकाशित करने वाली अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर में 2014 में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया कि 2014 में आइसलैंड में एक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ जिससे बड़ी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड के कण हवा में पहुँचे। इससे बादलों में एक चमक देखी गई और पृथ्वी का तापमान भी कम हुआ।

लंदन स्थित इंपीरियल कॉलेज के सेबेस्टियन ईस्थम ने बताया, “विमान यात्रा के दौरान निकलने वाले जेट ईंधन में मौजूद सल्फर स्ट्रेटोस्फेयर (समताप मंडल) तक जाता है। सल्फर में कूलिंग इफेक्ट पहले से ही होते हैं तो इसका हम सही तरह से उपयोग कर सकते हैं।”

ये वैज्ञानिक तकनीक आ सकती है काम

इस प्रयोग के लिए वैज्ञानिक जियोइंजीनियरिंग की एक तकनीक स्ट्रेटोस्फेरिक एयरोसोल इंजेक्शन (SAI) की प्रक्रिया का उपयोग करेंगे। इस प्रक्रिया में हवाई जहाज के एक समूह से सल्फर या कैल्शियम कार्बोनेट के कण (एयरोसोल कणों) को स्ट्रैटोस्फेयर में छिड़का जाता है। इससे सूर्य की किरणें अंतरिक्ष की ओर परावर्तित हो जाती हैं। इससे पृथ्वी का वातावरण ठंडा हो जाता है।

जियोइंजीनयरिंग की दूसरी तकनीक मरीन क्लाउड ब्राइटनिंग है। इस प्रक्रिया में समुद्र के पानी से निकला वो नमक जिसको खाने लायक नहीं बनाया जा सकता, उसे बादलों में छिड़का जाता है। इससे बादल चमकदार बनते हैं जो सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में वापस भेजने में अपनी भूमिका निभाते हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सूर्य की रोशनी करने का ये प्रयोग सफल होता है, तो आगामी 10 वर्षों के भीतर इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है।

प्रयोग में कई खतरे भी

जियोइंजीनियरिंग तकनीक को लेकर वैज्ञानिकों में मतभेद है। कृत्रिम रूप से जलवायु को बदलने का प्रयास करने वाली इस तकनीक पर कई विशेषज्ञों का कहना है कि यह उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों से सिर्फ ध्यान भटकाने का एक कदम है। पृथ्वी पर उत्सर्जन जस का तस ही है।

मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइल्स एलन का कहना है कि इस प्रयोग को शुरू तो आसानी से किया जा सकता है लेकिन प्रयोग का सुरक्षित होना एक अलग मसला है जिसमें दशकों लग सकते हैं। उन्होंने बताया है कि इसके अलावा अगर ये प्रयोग एकदम से रोका जाता है तो पृथ्वी का तापमान अचानक 4 से 6 गुणा तक बढ़ जाएगा।

उनके अनुसार, ये धरती के लिए ग्लोबल वार्मिंग से कहीं अधिक नुकसानदायक सिद्ध होगा।

वैज्ञानिकों ने चेताया

इस तकनीक का प्रयोग ना करने के लिए 60 वैज्ञानिकों के एक समूह ने एक खुला पत्र लिखा है। उन्होंने कहा है कि एयरोसोल और पर्यावरण के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं होता तो पृथ्वी पर प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। ओजोन परत को नुकसान हो सकता है।

सूर्य की किरणें कमजोर हो सकती हैं तो प्रकाश संश्लेषण में कमी आ सकती है। इससे फसलों और प्रकृति को नुकसान होगा। कुल मिलाकर वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक रासायनिक हथियार के बराबर ही खतरनाक है।

निष्कर्ष

एक तरफ लगातार बढ़ते तापमान से हर कोई परेशान है तो इसे कम करने के वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक है। लोग ग्लोबल वार्मिंग से राहत तो चाहते हैं लेकिन संसाधनों का दोहन बंद नहीं करना चाहते। वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिकों के समूह का कहना है कि इस तरह के प्रयोग को धरातल पर लाने से पहले गहन पड़ताल जरूरी है क्योंकि ये विनाश का कारण भी बन सकता है।

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रामांशी
रामांशी
Journalist with 8+ years of experience in investigative and soft stories. Always in search of learning new skills!

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