Friday, October 4, 2024
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‘हिंदुआ सूरज’ के नाम से विख्यात महाराणा प्रताप सिंह से क्यों भय खाता था मुगल बादशाह अकबर? दिवेर के युद्ध में छिपी है कहानी

मोही के युद्ध को लेकर 'अकबरनामा' में अबुल फजल लिखा है, "राणा के आदमियों ने मोही पर हमला करके फसलें बर्बाद करना शुरू कर दिया। उस समय कुँवर मान सिंह कच्छवाहा मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों में चले गए। मोही के थानेदार मुजाहिद बेग को सूचना मिली तो वह हथियारों सहित आया और आखिर में शहीद हो गया।"

महाराणा प्रताप सिंह एक ऐसा नाम है, जिसे भारत ही नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में बेहद सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। महाराणा प्रताप सिंह को ‘हिंदुआ सूरज’ और ‘हिंदू अधिपति’ के नाम से जाना जाता है। वहीं, उनके परम प्रतापी दादा महाराणा संग्राम सिंह उर्फ राणा सांगा को ‘हिंदूपति’ के नाम से जाना जाता है। दोनों ही दादा-पोते का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है, जो भारत के रहने तक कभी मिट नहीं सकता।

मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह को मुगल बादशाह अकबर के साथ संघर्ष के लिए जाना जाता है। हल्दी घाटी युद्ध का नाम आज भी भारत के बच्चे-बच्चे के जुबान पर है। यह एक ऐसा युद्ध था, जिसमें महाराणा प्रताप सिंह ने 20,000 की सेना के साथ अकबर की 80,000 की सेना के साथ महायुद्ध किया था। इस युद्ध के परिणाम को लेकर अलग-अलग दावे किए जाते हैं, लेकिन इस युद्ध ने महाराणा प्रताप सिंह के पराक्रम को साबित कर दिया।

इस युद्ध से इतर महाराणा प्रताप का अकबर की सेना का एक और युद्ध का जिक्र इतिहास की किताबों में मिलता है, जिसमें उन्होंने मुगल बादशाह की भारी-भरकम सेना को उन्होंने बुरी तरह परास्त किया था। यह युद्ध इतिहास में दिवेर के युद्ध के नाम से जाना जाता है। देश के लोग इस युद्ध के बारे में कम जानते हैं और हमारे देश के पाठ्य-पुस्तकों में हल्दी घाटी के युद्ध के बारे में तो बताया जाता है, लेकिन दिवेर के युद्ध के बारे में कभी नहीं बताया गया।

सन 1576 में हल्दी घाटी के युद्ध के बाद मेवाड़ का अधिकांश हिस्सा मुगलों के अधिकार क्षेत्र में चला गया था। हालाँकि, महाराणा प्रताप ने इस युद्ध के बाद भी हार नहीं मानी। वे लगातार अपने खोये राज्य को पाने के लिए संघर्षरत रहे। इसमें महाराणा का साथ स्थानीय भील समुदाय, जैन समाज के संतों, व्यवसायियों और स्थानीय लोगों ने खुले दिल से साथ दिया। हल्दी घाटी युद्ध के सात साल बाद यानी 1583 में राजस्थान के दिवेर में वह युद्ध लड़ा गया।

हल्दी घाटी युद्ध के तुरंत बाद महाराणा प्रताप ने भामा शाह और तारा शाह को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। ये दोनों भाई जैन समाज से आते थे। इन लोगों ने आगे की लड़ाई के लिए धन इकट्ठा करना शुरू कर दिया। ये मुगलों द्वारा हिंदुओं से लूटे गए माल को जब्त करते और उसे महाराणा के सामने आगे के अभियान के लिए प्रस्तुत करते थे। महाराणा अपनी छोटी सी सेना के साथ अकबर के खिलाफ छापामार युद्ध जारी रखे हुए थे।

ओमेंद्र रत्नू की पुस्तक ‘महाराणा: सहस्त्र वर्षों का धर्मयुद्ध’ का अंश

उदयपुर पर अधिकार करने के बाद अकबर ने उसका नाम मुहम्मदाबाद कर दिया था और वहाँ मुगलों के सिक्के चलवा दिए थे। लेकिन, मई 1577 में महाराणा प्रताप ने उदयपुर पर अधिकार कर लिया इसका नाम फिर से बदलकर उदयपुर कर दिया। इसके पहले वे गोगूंदा को जीत चुके थे और अब अगला निशाना मोही था। महाराणा प्रताप ने भाटी क्षत्रियों के साथ मिलकर आखिरकार इसे भी आजाद करा लिया।

डॉक्टर ओमेंद्र रत्नू अपनी शोधपरक पुस्तक ‘महाराणा: सहस्र वर्षों का धर्मयुद्ध’ में लिखते हैं कि मोही के युद्ध को लेकर ‘अकबरनामा’ में अबुल फजल लिखा है, “राणा के आदमियों ने मोही पर हमला करके फसलें बर्बाद करना शुरू कर दिया। उस समय कुँवर मान सिंह कच्छवाहा मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों में चले गए। मोही के थानेदार मुजाहिद बेग को सूचना मिली तो वह हथियारों सहित आया और आखिर में शहीद हो गया।”

मान सिंह वही व्यक्ति हैं, जो अकबर के सेनापति थे। कहा जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में भी मान सिंह ने महाराणा प्रताप को घायलावस्था में युद्ध भूमि से निकलने में परोक्ष मदद की थी। मोही में भी महाराणा के आक्रमण के दौरान मान सिंह पहाड़ी इलाकों में चले गए थे। यानी सब कुछ बहुत सुनियोजित तरीके से हो रहा था और इसमें मान सिंह परोक्ष रूप से महाराणा प्रताप सिंह की मदद कर रहे थे।

इसके बाद बाँसवाड़ा का युद्ध हुआ, जिसमें कई क्षत्रिय कुलों ने मदद की और महाराणा प्रताप ने जीत हासिल की। अब बारी दिवेर की थी। इसके लिए महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्ति सिंह, भामा शाह, तारा शाह, चूड़ावत, शक्तावत सहित कई सरदार भी अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ महाराणा से कदम ताल मिला रहे थे। महाराणा ने भीलों की सैन्य टुकड़ी को पहाड़ी इलाकों में तैनात किया गया था।

इतिहासकारों के अनुसार, सितंबर 1583 में विजयदशमी का वह दिन आ गया जब महाराणा प्रताप सिंह ने अपने सात साल के छापामार युद्ध को पूर्ण युद्ध में बदल दिया और लगभग 20,000 सैनिकों की सेना लेकर मेवाड़ पर हमला कर दिया। दिवेर युद्ध में दोनों पक्ष की सेनाएँ आमने-सामने थीं। राजपूतों के मन में युद्ध जीतने की प्रबल लालसा थी।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह का मुकाबला एक बार फिर मुगल सेनापति बहलोल खाँ उज्बेक से हुआ। हल्दी घाटी के युद्ध में वह बच गया था, लेकिन दिवेर युद्ध में वह बच नहीं सका। महाराणा प्रताप ने उस पर ऐसा वार किया कि बहलोल खाँ दो हिस्सों में कट गया। बहलोल का घोड़ा भी आधा कट गया। महाराणा के इस रूप को देखकर क्षत्रिय जोश से भर गए और मुगलों की सेना को गाजर-मूली की तरह काट डाला।

इस तरह मुगल सेना को परास्त करके महाराणा प्रताप सिंह की सेना ने अपने पुरखों की जमीन मेवाड़ की एक-एक इंच भूमि को स्वतंत्र करा लिया। मुगलों के कुल 36 थानों को महाराणा ने अपने अधिकार में ले लिया। महाराणा प्रताप सिंह के इस अभियान में अन्य क्षत्रिय सरदारों के साथ-साथ उनके बेटे एवं मेवाड़ के उत्तराधिकारी कुँवर अमर सिंह भी साथ थे। दिवेर युद्ध में विजय मिली, लेकिन महाराणा यहीं नहीं रूके।

उन्होंने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक का नेतृत्व अपने बेटे अमर सिंह को दिया और उन्हें भागते हुए मुगल सैनिकों का पीछा करने का आदेश दिया। इस तरह अमर सिंह ने आमेर तक मुगल सेना का पीछा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। दूसरी तरफ, आधी सेना लेकर महाराणा खुद कुंभलगढ़ को चल पड़े। वहाँ महाराणा ने मुगल सूबेदार शाहबाज खान का वध करके कुंभलगढ़ को अपने कब्जे में ले लिया।

दिवेर युद्ध और उसके बाद के अभियानों में महाराणा प्रताप सिंह और उनकी सेना ने मुगल सैनिकों का वो संहार किया कि भारत का सबसे शक्तिशाली मुगल शासक कहा जाने वाला अकबर अपनी जिंदगी में फिर कभी मेवाड़ की ओर नहीं देखा। इस तरह महाराणा प्रताप 1597 ईस्वी तक निष्कंटक राज किया।

कहा जाता है कि महाराणा प्रताप सिंह मुगल काल के इतिहास के अकेले ऐसे राजा थे, जिन्होंने मुगलों से अपनी इंच-इंच भूमि को वापस जीता था। महाराणा के स्वर्गारोहण के बाद उनके पुत्र महाराणा अमर सिंह ने भी मुगलों के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा। कहा जाता है कि मोही अभियान के बाद अकबर को मान सिंह पर शक हो गया था कि वे महाराणा के खिलाफ परोक्ष मदद कर रहे हैं।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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