राजस्थान हाई कोर्ट की जयपुर पीठ ने बुधवार (29 जनवरी 2025) को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप समझौता करना और उसे पंजीकृत करना अनिवार्य करे। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लिव-इन संबंधों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाना समय की माँग है।
जस्टिस अनूप कुमार ढाड ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप समझौते को सक्षम प्राधिकारी/ट्रिब्यूनल द्वारा पंजीकृत किया जाना चाहिए, जिसे सरकार द्वारा स्थापित किया जाना आवश्यक है। सरकार द्वारा उचित कानून बनाए जाने तक ऐसे लिव-इन रिलेशनशिप के पंजीकरण के मामले को देखने के लिए राज्य के प्रत्येक जिले में सक्षम प्राधिकारी की स्थापना की जानी चाहिए।”
जस्टिस ढाड ने कहा कि ये प्राधिकारी ऐसे भागीदारों/दंपत्तियों की शिकायतों का समाधान करेगा, जो इस रिश्ते में रह रहे हैं और उनके बच्चे पैदा हुए हैं। हाई कोर्ट की एकल बेंच ने यह भी कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के कारण इस तरह के रिश्ते से उत्पन्न होने वाले मुद्दों के निवारण के लिए एक वेबसाइट या वेबपोर्टल की भी शुरुआत की जानी चाहिए।
हालाँकि, राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर पीठ ने बुधवार को यह मामला एक बड़ी पीठ को सौंप दिया, ताकि यह तय किया जा सके कि क्या विवाहित व्यक्ति, जो अपनी तलाक बिना किसी दूसरे व्यक्ति के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह सकता है या नहीं। इसके साथ ही वह अदालत से सुरक्षा आदेश प्राप्त करने का हकदार होगा या नहीं।
कोर्ट ने आगे निर्देश दिया कि जब तक केंद्र और राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में कोई कानून नहीं बनाया जाता, तब तक वैधानिक प्रकृति की एक योजना कानूनी प्रारूप में तैयार की जानी आवश्यक है। इनमें लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों के लिए नियम और शर्तें तय होनी चाहिए। न्यायालय ने उचित प्राधिकारी द्वारा एक प्रारूप तैयार करने का निर्देश दिया।
उसमें लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के इच्छुक जोड़ों/भागीदारों के लिए ऐसे संबंध में प्रवेश करने से पहले निम्नलिखित नियम और शर्तों के साथ प्रारूप भरना आवश्यक हो जाएगा:
(i) ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और पालन-पोषण की जिम्मेदारी वहन करने के लिए बाल योजना के रूप में पुरुष और महिला साझेदारों की जिम्मेदारी तय करना।
(ii) ऐसे सम्बन्ध में रहने वाली गैर-कमाऊ महिला साझेदार तथा ऐसे सम्बन्ध से उत्पन्न बच्चों के भरण-पोषण के लिए पुरुष साझेदार का दायित्व निर्धारित करना।
न्यायालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दे दी है, फिर भी कई लोगों की नजर में स्वीकार्य नहीं है। कोर्ट ने कहा, “हालाँकि लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा को समाज द्वारा अनैतिक माना जाता है और आम जनता भी इसे स्वीकार नहीं करती, लेकिन कानून की नजर में इसे अवैध नहीं माना जाता।”
न्यायालय ने कहा, “ऐसे संबंधों से पैदा हुए नाबालिग बच्चों का भरण-पोषण उनके माता-पिता और विशेष रूप से पिता द्वारा किया जाना अपेक्षित है, क्योंकि ऐसे संबंधों से पैदा हुई महिलाएँ भी अक्सर पीड़ित पाई जाती हैं। हालाँकि, इस संबंध में अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालयों द्वारा निर्देश जारी किए जा सकते हैं, लेकिन ऐसे ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के पुरुष साथी पर नैतिक दायित्व डाला जाना आवश्यक है।”
हाई कोर्ट ने कहा कि इस विषय में किसी विधायी ढाँचे के अभाव में कोर्ट के अलग-अलग दृष्टिकोण एवं फैसलों के कारण कई लोग भ्रमित हो सकते हैं। अदालत ने राज्य के मुख्य सचिव, विधि एवं न्याय विभाग के प्रधान सचिव तथा न्याय एवं समाज कल्याण विभाग, नई दिल्ली के सचिव को भी मामले की जाँच करने और 1 मार्च 2025 तक इसकी रिपोर्ट कोर्ट को सौंपने के लिए कहा है।
अदालत ने आगे कहा कि संसद और राज्य विधानमंडल को इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए और उचित कानून बनाना चाहिए या कानून में उचित संशोधन करना चाहिए, ताकि ऐसे रिश्ते में रहने वाले जोड़ों को अपने परिवार, रिश्तेदारों और समाज के सदस्यों के हाथों किसी भी तरह के नुकसान और खतरे का सामना न करना पड़े।
अदालत ने कहा कि कभी-कभी ऐसे रिश्तों में महिला साथी को तब तकलीफ होती है, जब ऐसे रिश्ते टूट जाते हैं। अदालत ने कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसे रिश्ते से पैदा होने वाले बच्चों की सुरक्षा की आवश्यकता है, भले ही ऐसा रिश्ता शादी की प्रकृति का न हो। न्यायालय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि लिव-इन वाले जोड़ों द्वारा पुलिस सुरक्षा की माँग करने वाली याचिकाओं की बाढ़ आ गई है।