सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों के डिपोर्टेशन और उनकी रहने की स्थिति से जुड़े मामलों में गुरुवार (8 मई 2025) को सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने डिपोर्टेशन पर कोई रोक नहीं लगाई और मामले को 31 जुलाई, 2025 को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया। सुनवाई के दौरान कुछ चौंकाने वाले खुलासे हुए। याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने आरोप लगाया कि सुनवाई से ठीक एक रात पहले कुछ रोहिंग्या शरणार्थियों (महिलाएँ और बच्चे भी शामिल) को पुलिस ने हिरासत में लिया और संभवतः म्यांमार डिपोर्ट कर दिया गया। ये शरणार्थी संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (UNHCR) के कार्डधारक थे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट की बेंच में जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एन. कोटेश्वर सिंह शामिल थे। सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 8 अप्रैल, 2021 के एक आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि डिपोर्टेशन केवल कानून के अनुसार होगा। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंसाल्वेस और प्रशांत भूषण ने दावा किया कि रात में शरणार्थियों को हिरासत में लिया गया और यह कोर्ट की अवमानना है। गोंसाल्वेस ने कहा कि यह घटना ‘चौंकाने वाली’ है और पिछले 10 साल से कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों को संरक्षण दिया था।
प्रशांत भूषण ने बताया कि मणिपुर सरकार ने हाल ही में एक हलफनामा दायर कर कहा कि म्यांमार रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस स्वीकार नहीं कर रहा, क्योंकि उन्हें वहाँ ‘राज्यविहीन नागरिक’ माना जाता है। उन्होंने यह भी बताया कि UNHCR संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी है, जो भारत में दो दशक से काम कर रही है। हालाँकि, सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि भारत शरणार्थी संधि का हिस्सा नहीं है और 2021 के आदेश के आधार पर डिपोर्टेशन का अधिकार है।
जस्टिस दीपांकर दत्ता ने 2021 के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि रोहिंग्या शरणार्थी UNHCR कार्ड के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं माँग सकते। उन्होंने यह भी कहा कि एक अंतरिम आदेश बाद के चरणों में रेस ज्यूडिकाटा (पहले तय हो चुका मामला) के रूप में काम करता है। भूषण ने तर्क दिया कि मामला केवल शरणार्थी संधि तक सीमित नहीं है, बल्कि नरसंहार संधि (जिसे भारत ने स्वीकार किया है) को भी देखना होगा।
जस्टिस सूर्य कांत ने कहा, “हम इन मामलों की अंतिम सुनवाई करेंगे। यह बेहतर होगा कि अंतरिम आदेश (स्टे ऑर्डर) देने के बजाय हम यह तय करें कि क्या उनके पास यहाँ रहने का अधिकार है। अगर है, तो इसे स्वीकार किया जाएगा, और अगर नहीं, तो कानून के अनुसार डिपोर्टेशन होगा।”
जस्टिस दत्ता ने असम में रोहिंग्या डिपोर्टेशन से जुड़े एक पुराने मामले का जिक्र किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में खारिज कर दिया था। गोंसाल्वेस ने इसे ‘प्रवासियों’ का मामला बताया, लेकिन जस्टिस दत्ता ने इसे शरणार्थियों का मामला माना। जस्टिस दत्ता ने कहा, “रोहिंग्या विदेशी हैं और अगर वे विदेशी अधिनियम के दायरे में आते हैं, तो उनके साथ उसी के अनुसार व्यवहार होगा।” गोंसाल्वेस ने NHRC बनाम अरुणाचल प्रदेश मामले का हवाला दिया, लेकिन जस्टिस दत्ता ने कहा कि यह दो जजों की बेंच का फैसला था, जो मौजूदा तीन जजों की बेंच पर बाध्यकारी नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार तो हैं, लेकिन अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत भारत में बसने का अधिकार नहीं है।
बता दें कि कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या बच्चों के दिल्ली के स्कूलों में दाखिले से जुड़ी एक याचिका को खारिज करते हुए कहा कि बच्चों को पहले सरकारी स्कूलों में आवेदन करना चाहिए। अगर दाखिला नहीं मिलता, तो वे दिल्ली हाई कोर्ट जा सकते हैं। एक अन्य जनहित याचिका में कोर्ट ने कहा कि सभी बच्चों को बिना भेदभाव शिक्षा मिलनी चाहिए, लेकिन पहले रोहिंग्या परिवारों की निवास स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।