सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम (Supreme Court Collegium System) को लेकर केंद्र की मोदी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तल्खी बढ़ती जा रही है। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट स्वघोषित ‘कॉलेजियम सिस्टम’ को ‘लॉ ऑफ लैंड’ बता रहा है तो दूसरी तरफ इसके बारे में देश की जनता को जानकारी देने से भी मना कर रहा है। इतना ही नहीं इसमें भाई-भतीजावाद और जातिवाद का ऐसा मिश्रण है कि न्यायिक क्षेत्र में इसे ‘अंकल कल्चर’ कहा जाने लगा है।
अन्य क्षेत्रों की तरह केंद्र की मोदी सरकार ने इसमें आवश्यक सुधार करने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने खुद को सर्वोच्च ऑथरिटी बताते हुए संसद में बने इस कानून को ही खारिज कर दिया। इसके कारण देश की जनता में पहले से ही बैठी आशंका और मजबूत हो गई कि सुप्रीम कोर्ट आखिर कॉलेजियम में पारदर्शिता तक क्यों नहीं लाना चाहता है।
कॉलेजियम से संबंधित एक याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की पीठ ने हाल ही में कहा कि कॉलेजियम में क्या चर्चा होती है और किस आधार पर होती है, इसकी भी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकती है। 9 दिसंबर 2022 को याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सूचना के अधिकार (RTI) कानून के तहत केवल अंतिम फैसले ही सार्वजनिक किए जा सकते हैं, न कि कॉलेजियम की बैठकों की चर्चा और जजों की नियुक्ति से संबंधित प्रक्रिया।
जिस व्यवस्था पर देश की जनता को सबसे अधिक भरोसा है, उसमें क्या हो रहा है और कैसे हो रहा है, इसकी जानकारी ही नहीं दी जा रही है। कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सोशल मीडिया पर लोग अपनी-अपनी बातें रख रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के इस रूख का विरोध कर रहे हैं। लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि यह राजनीतिक तानाशाही और सैन्य तानाशाही की तरह ही यह एक तरह की न्यायिक तानाशाही है।
देश में जब राजतंत्र था, तब कोई भी व्यक्ति अपना मुद्दा लेकर राजदरबार में पहुँच सकता था और अपनी समस्या कह सकता था। हालाँकि, अब जबकि देश में लोकतंत्र है, तब न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिख रहा है। इसके कारण आधुनिक भारत की यह न्याय प्रणाली प्राचीन न्याय प्रणाली से भी पिछड़ती हुई दिख रही है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एस अब्दुल नजीर ने दिसंबर 2021 में प्राचीन भारतीय न्याय प्रणाली की प्रशंसा की थी। उन्होंने कहा था कि भारत की प्राचीन कानूनी व्यवस्था में राजा को भी कानून के सामने झुकना पड़ता था। उनके परिजनों या यहाँ तक कि राजा के खिलाफ भी न्याय की माँग की जा सकती थी।
उन्होंने कहा था कि प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय माँगने की बात निहित थी, लेकिन इसके उलट ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में न्याय की गुहार की जाती है, न्याय के लिए प्रार्थना की जाती है और जजों को ‘लॉर्डशिप’ या ‘लेडीशिप’ कहा जाता है। न्यायाधीश ने कहा कि न्याय कोई अनुग्रह नहीं है, यह जनता का अधिकार है और इसका सम्मान होना चाहिए।
क्या है कॉलेजियम सिस्टम
कॉलेजियम सिस्टम सुप्रीम कोर्ट द्वारा खुद से विकसित किया हुआ एक सिस्टम है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति की जाती है। यह नियुक्ति फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के पाँच वरिष्ठ जजों की अनुशंसा पर ही की जाती है। हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह पर होती है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस और उस राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं।
कॉलेजियम सिस्टम कोई संवैधानिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने तीन फैसलों के आधार पर विकसित किया गया है। इसे ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है। पहला केस 1981, दूसरा 1993 और तीसरा 1998 के केस से जुड़ा है।
1981 के पहले केस को एसपी गुप्ता केस के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए। 1993 में दूसरे केस में 9 जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में मुख्य न्यायाधीश की ‘राय’ को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए। इस तरह 1998 के तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पाँच जजों का एक समूह बना दिया।
इन तीन केसों के आधार पर कॉलेजियम सिस्टम को विकसित किया गया और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की राय को अनिवार्य बना दिया गया। इनकी राय के बिना सुप्रीम कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं की जा सकती।
जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहता है संविधान
सारा काम इसी ‘राय’ को ‘सहमति’ बनाने को लेकर है। संविधान में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति करेंगे। संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट और उसमें जजों की नियुक्ति और अनुच्छेद 217 में हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति से संबंधित प्रावधान है।
संविधान के अनुच्छेद 217 में कहा गया है कि राष्ट्रपति हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से विचार-विमर्श करने के बाद निर्णय लेंगे।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने ‘जजेज केसेस’ में संविधान में उल्लेखित शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या करके ‘सहमति’ कर दी। यानी विचार-विमर्श को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ‘सहमति’ के रूप में संदर्भित कर दिया।
मोदी सरकार का न्यायिक सुधार और सुप्रीम कोर्ट का अड़ंगा
साल 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायिक क्षेत्रों में भी सुधार करने की कोशिश की। मोदी सरकार ने साल 2014 में संविधान में 99वाँ संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (NJAC) अधिनियम लेकर आई। इसमें सरकार ने कॉलेजियम की जगह जजों की नियुक्ति के लिए NJAC के प्रावधानों को शामिल किया था।
NJAC में 6 सदस्यों का प्रावधान किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज, केंद्रीय कानून मंत्री और दो अन्य विशेषज्ञ शामिल हैं। इन दो विशेषज्ञों का चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मिलकर करेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि ये दो विशेषज्ञ हर तीन साल पर बदलते रहेंगे।
इसके साथ ही साल 2014 में संविधान संशोधन करके केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति के मामले में बड़ा बदलाव किया। इस संशोधन में संसद को यह अधिकार दिया गया कि भविष्य में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़े नियमों को बना सकता है और जरूरत पड़ी तो उसमें बदलाव भी कर सकता है।
केंद्र सरकार द्वारा इस कानून को बनाने के बाद साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्युडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन अधिनियम को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘संविधान के आधारभूत ढाँचे से छेड़छाड़’ बताते हुए रद्द कर दिया। बता दें कि संविधान में सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में बताया गया है, जबकि देश में कानून बनाने का अधिकार सरकार और संसद के पास ही है।
कॉलेजियम पर भाई-भतीजावाद और गुटबाजी का आरोप
कॉलेजियम सिस्टम पर जजों की नियुक्ति के मामले में अक्सर भाई-भतीजावाद का आरोप लगता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भयानक भाई-भतीजावाद और जातिवाद का आरोप लगता है। इतना ही नहीं इस प्रक्रिया में गुटबाजी के कारण केसों के प्रभावित होने के आरोप लगते हैं।
न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते है। इसके तहत अधिकांश ऐसे जजों को ही चुना जाता है, जिनके परिवार से कोई जज रह चुका होता है या जिनकी न्यायपालिका में ऊँचे पदों पर जान-पहचान है। कहा जाता है कि देश की न्यायिक व्यवस्था सिर्फ 300 परिवारों के इर्द-गिर्द घुमती है।
यह भी कहा जाता है कि कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स और गुटबाजी होती रहती है। इसके कारण जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने। इससे न्यायिक व्यवस्था प्रभावित होती है। बताते चलें कि इस समय देश में लगभग 5 करोड़ केस विभिन्न न्यायालयों में पेंडिंग हैं।
कानून मंत्री कॉलेजिम सिस्टम पर वार
सरकार के इस कानून को नकारने के बाद सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच तानातानी बढ़ गई। केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने अक्टूबर 2022 को कहा कि देश के लोग कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं हैं और संविधान की भावना के मुताबिक जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है। केंद्र ने तो यहाँ तक कह दिया कि जज इस सिस्टम के जरिए अधिकतर समय राजनीति और गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं।
उन्होंने कहा था कि आधे समय न्यायाधीश नियुक्तियों को तय करने में व्यस्त होते हैं, जिसके कारण उनका जो प्राथमिक काम न्याय प्रदान करना होता है, वह प्रभावित होता है। उन्होंने कहा कि संविधान में पूरी तरह स्पष्टता है कि भारत के राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। इसका मतलब है कि कानून मंत्रालय भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा।
25 नवंबर 2022 को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति को ‘संविधान से परे’ और एलियन बता दिया। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली में कई खामियाँ हैं और लोग आवाज उठा रहे हैं कि यह पारदर्शी नहीं है और ना ही इसमें जवाबदेही है।
किरेन रिजीजू ने कहा, “भारत का संविधान जनता और सरकार के लिए ‘धार्मिक दस्तावेज’ है। कोई चीज जो संविधान से अलग है, उसे सिर्फ अदालत के कुछ जजों ने तय किए जाने के कारण आप कैसे माना सकता है कि उसका पूरा देश समर्थन करता है। आप बताएँ कि कॉलेजियम प्रणाली किस प्रावधान के तहत निर्धारित की गई है।”
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने आगे कहा कि जिस प्रकार मीडिया पर निगरानी के लिए भारतीय प्रेस परिषद है, उसी प्रकार न्यायपालिका पर निगरानी की भी व्यवस्था होनी चाहिए। लोकतंत्र में कार्यपालिका और विधायिका पर निगरानी की व्यवस्था मौजूद है, लेकिन न्यायपालिका के भीतर ऐसा कोई तंत्र नहीं है।
उन्होंने कहा, “हमारे कार्यपालिका और विधायिका अपने दायरे में बिल्कुल बँधे हुए हैं। अगर वे इधर-उधर भटकते हैं तो न्यायपालिका उन्हें सुधारती है। समस्या यह है कि जब न्यायपालिका भटकती है तो उसको सुधारने का व्यवस्था नहीं है।” उन्होंने कहा था कि अगर न्यायपालिका यह काम खुद करे तो अच्छा है।
उप-राष्ट्रपति की कॉलेजियम और सुप्रीम कोर्ट पर तल्ख टिप्पणी
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी कॉलेजियम सिस्टम पर चिंता जता चुके हैं। दिसंबर 2022 में उपराष्ट्रपति ने कहा कि संसद द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द करना एक गंभीर मुद्दा है। संसद अगर कोई कानून पारित करता है तो वह लोगों की इच्छा को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कभी किया हो ऐसा उदाहरण दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका द्वारा एक दूसरे के क्षेत्र में कोई भी घुसपैठ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हो, शासन की गाड़ी को अस्थिर करने की क्षमता रखती है। उन्होंने कहा था कि अधिनियम पूरी लोकसभा और राज्यसभा में एकमत से पास हुआ था। केवल एक राज्यसभा सदस्य की अनुपस्थिति थी। संसद की एकजुटता के बाद अध्यादेश एक संवैधानिक प्रावधान में बदल गया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की भावना यानी लोगों की भावनाओं को दरकिनार कर उसे रद्द कर दिया।
कॉलेजियम छोड़ने को तैयार नहीं सुप्रीम कोर्ट
किरेन रिजेजू और उपराष्ट्रपति के बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को लेकर और सख्त हो गया। हाल में में कोर्ट ने कहा कि जब तक कॉलेजियम सिस्टम है, उसे सरकार को मानना पड़ेगा। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा था कि अगर उसे कॉलेजियम के खिलाफ कोई कानून पास करना है तो करे, लेकिन उसकी न्यायिक समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के ही पास है। यह सीधे शब्दों में धमकी थी।
कोर्ट ने केंद्र सरकार से यहाँ तक कह दिया कि वह अपने मंत्रियों को कॉलेजियम के खिलाफ सार्वजनिक रूप बोलने पर रोक लगाए। 8 दिसंबर 2022 को अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी से कहा कि सरकार उन्हीं कानूनी सिद्धांतों के तहत काम करे, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है। जस्टिस संजय किशन कौल ने कॉलेजियम की तुलना संसद में बनाए गए कानून से की।