Wednesday, May 21, 2025
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उर्दू साइनबोर्ड में ‘गंगा-जमुनी तहजीब’, हिजाब में ‘मुस्लिम लड़कियों की सुरक्षा’: मिलिए जस्टिस सुधांशु धूलिया से, परिचित होइए उनकी न्यायिक भावुकता से

जस्टिस धूलिया के निर्णयों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं निजी गरिमा की आड़ में हिजाब का बचाव करना हो या सार्वजनिक भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू का लिखा होना सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बताना हो, उनके फैसले संवैधानिक पहलू के बजाय विश्व दृष्टिकोण एवं मानवतावाद को अधिक दर्शाते हैं, जो एक संप्रभु देश के लिए हर समय उपयुक्त नहीं होता है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने उर्दू को गंगा-जमुनी तहजीब का सबसे अच्छा नमूना बताते हुए महाराष्ट्र में एक नगरपालिका के साइनबोर्ड में उसके इस्तेमाल की अनुमति दी थी। मामले की सुनवाई कर रहे जस्टिस सुधांशु धूलिया ने कहा था कि कहा था कि भाषा एक संस्कृति है और इसे लोगों को विभाजित करने का कारण नहीं बनना चाहिए। जस्टिस धूलिया के कई निर्णयों में यह परिलक्षित है।

दरअसल, भारत के विशाल लेकिन विविधता से वंचित न्यायपालिका में जस्टिस सुधांशु धूलिया जैसे नाम कानूनी पहलू से कम, आदर्शवाद के आइने में फैसले के लिए अधिक चर्चित हैं। जस्टिस धूलिया का कर्नाटक हिजाब विवाद और अकोला नगर परिषद के उर्दू साइनबोर्ड मामले में भावनात्मक विश्वासों और चयनात्मक धर्मनिरपेक्षता की ओर झुकाव स्पष्ट तौर पर परिलक्षित हुआ।

महाराष्ट्र का उर्दू साइनबोर्ड मामले में भावनात्मक बहाव

सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल 2025 को महाराष्ट्र अकोला नगर परिषद के भवन में उर्दू साइनबोर्ड लगाने की रोकने की माँग वाली याचिका को खारिज कर दिया था। जस्टिस धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए उर्दू की शान में कसीदे पढ़े। पीठ ने तो यहाँ तक कह दिया कि अलग-अलग भाषा सीखने से ‘हम अधिक उदार, सहिष्णु और दयालु’ बनते हैं।

न्यायाधीश धूलिया ने कहा था, “भाषा विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है, जो अलग-अलग विचारों और मान्यताओं वाले लोगों को करीब लाती है। यह उनके बीच विभाजन का कारण नहीं बननी चाहिए।आइए हम उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करें। उर्दू भारत के लिए विदेशी नहीं है। इसका जन्म भारत में हुआ और यहीं इसका विकास हुआ है।”

कोर्ट ने आगे कहा था, “उर्दू के खिलाफ पूर्वाग्रह इस गलत धारणा से उपजा है कि उर्दू भारत के लिए विदेशी है। यह राय गलत है, क्योंकि मराठी और हिंदी की तरह उर्दू भी एक इंडो-आर्यन भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है, जिसका जन्म इसी देश में हुआ है। उर्दू भारत में अलग-अलग सांस्कृतिक परिवेश से जुड़े लोगों की ज़रूरत के कारण विकसित और फली-फूली।”

न्यायमूर्ति धूलिया ने अपने फैसले की शुरुआत मौलूद बेन्ज़ादी के एक कथन से की। उन्होंने कहा था, “जब आप कोई भाषा सीखते हैं, तो आप सिर्फ़ एक नई भाषा बोलना और लिखना ही नहीं सीखते। आप खुले विचारों वाले, उदार, सहिष्णु, दयालु और सभी मानव जाति के प्रति विचारशील होना भी सीखते हैं।”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “हमारी अवधारणाएँ स्पष्ट होनी चाहिए। भाषा धर्म नहीं है। भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। भाषा किसी समुदाय, क्षेत्र, लोगों की होती है, किसी धर्म की नहीं। भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है जो विभिन्न विचारों और विश्वासों वाले लोगों को करीब लाती है और यह उनके विभाजन का कारण नहीं बननी चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मसले पर भाषाई एकता पर निर्णय देने के बाद इसे उर्दू के महत्व को बताने में बदल दिया। न्यायमूर्ति धूलिया ने अपने फैसले को प्रशासनिक या कानूनी तर्क की कसौटी पर कसने के बजाय इसे भाषाई बहुलता और सांस्कृतिक एकता की बात करने लगे। इस तरह की टिप्पणी कानूनी कम और राजनीतिक ज्यादा नजर आती है।

कर्नाटक हिजाब मामले में जस्टिस धूलिया की असहमति

साल 2022 में कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पहनकर जाने को लेकर विवाद उभरा हुआ था। आखिरकार यह मामला कर्नाटक हाई कोर्ट पहुँचा। उस समय कर्नाटक हाई कोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में समान ड्रेस कोड लागू करने के राज्य सरकार के आदेश बरकरार रखा था। कर्नाटक हाई कोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस धूलिया ने असहमति जाहिर की थी।

उस दौरान जस्टिस धूलिया ने शिक्षण संस्थानों में हिजाब-बुर्का पहनकर जाने के पूरे विमर्श को मुस्लिम बालिकाओं की सुरक्षा के इर्द-गिर्द घूमा दिया। उन्होंने संविधान में दिए गए समान अधिकार के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक प्रतीकवाद एवं उसके दूरगामी परिणामों पर विचार करने से इनकार कर दिया। इस तरह छूटों को देश में अक्सर मुस्लिम तुष्टीकरण के रूप में देखा जाता है।

दरअसल, साल 2022 में भाजपा की नेतृत्व वाली तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने स्कूल-कॉलेज की परिक्षाओं में मुस्लिम लड़कियों को बुर्का-हिजाब पहनकर आने पर रोक लगा दिया था। तब मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध किया था। उनकी शह पर कुछ मुस्लिम लड़कियों ने सरकार के इस निर्णय का विरोध किया था और हिजाब पहनकर जाने पर अड़ी रहीं।

यह पूरा मामला स्कूल-कॉलेज में विद्यार्थियों के बीच एकरूपता और अनुशासन लाने की कोशिश की कवायद थी। हालाँकि, कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमला बता दिया और राजनीतिक मौका देखकर विपक्ष और वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने इसे राजनीतिक रंग दे दिया। वे भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता खतरे में’ है का राग अलापने लगे। हर तरफ से सरकार पर दबाव बनाया जाने लगा।

इतना ही नहीं, शैक्षणिक अनुशासन को मौलिक अधिकारों से जोड़ दिया गया। हर तरफ से एक दबाव बनाने की कोशिश की जाने लगी। इसके विरोध में मुस्लिम कर्नाटक हाई कोर्ट पहुँचे, लेकिन उन्हें वहाँ राहत नहीं मिली। हाई कोर्ट ने स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पर सरकार के लगाए प्रतिबंध को बरकरार रखा। इसके बाद मुस्लिमों ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने सुनवाई की और आखिरकार विभाजित फैसला सुनाया। इसमें जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हिजाब प्रतिबंध को बरकरार रखा, जबकि न्यायमूर्ति धूलिया ने इसके खिलाफ फैसला दिया। जस्टिस धूलिया ने कहा था कि मुस्लिम लड़कियों से हिजाब उतारने के लिए कहना उनकी निजता एवं गरिमा पर हमला और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा से वंचित करना है।

जस्टिस धूलिया ने कहा था, “हमारे स्कूल, खासकर प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज आदर्श संस्थान हैं, जहाँ हमारे बच्चों को… देश की समृद्ध विविधता को समझने की आवश्यकता है, उन्हें सलाह और मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ताकि वे सहिष्णुता और समायोजन के हमारे संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करें, खासकर उन लोगों के प्रति जो अलग भाषा बोलते हैं, अलग भोजन खाते हैं या यहाँ तक कि अलग कपड़े या परिधान पहनते हैं!”

जस्टिस धूलिया ने आगे कहा था, उन्होंने कहा, “यही वह समय है जब उन्हें हमारी विविधता से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि इस विविधता का आनंद लेना चाहिए और इसका जश्न मनाना चाहिए। यही वह समय है जब उन्हें यह एहसास होना चाहिए कि विविधता में ही हमारी ताकत है। हमारी संवैधानिक स्कीम के तहत हिजाब पहनना केवल एक विकल्प का मामला होना चाहिए।”

जस्टिस धूलिया ने हाई कोर्ट के इस निष्कर्ष पर भी आपत्ति जताई कि मुस्लिम विद्यार्थी कक्षा के भीतर अपने मौलिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा था, “स्कूल सार्वजनिक स्थान है, फिर भी स्कूल और जेल या सैन्य शिविर के बीच समानता स्थापित करना सही नहीं है। अगर हाई कोर्ट द्वारा उठाया गया मुद्दा स्कूल में अनुशासन के बारे में था तो उसे स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन यह स्वतंत्रता और गरिमा की कीमत पर नहीं होना चाहिए।”

उन्होंने कहा था, “एक प्री यूनिवर्सिटी स्कूली छात्रा से उसके स्कूल गेट पर हिजाब उतारने के लिए कहना, उसकी निजता और गरिमा पर आक्रमण है। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और 21 के तहत उसे दिए गए मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। अपनी गरिमा और निजता का यह अधिकार वह अपने निजी जीवन में रखती है, यहाँ तक कि अपने स्कूल गेट के अंदर या अपनी कक्षा में भी।”

इसके परिणामों पर चर्चा करते हुए जस्टिस धूलिया ने कहा था कि हिजाब पर प्रतिबंध के कारण कुछ छात्राएँ बोर्ड परीक्षाओं में शामिल नहीं हो पाई हैं और कई अन्य को संभवतः मदरसों में आवेदन करना पड़ा है, जहाँ शिक्षा का समान मानक नहीं मिल सकता है। उन्होंने पूछा था, “स्कूल प्रशासन और राज्य को जवाब देना चाहिए कि उनके लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है- एक बालिका की शिक्षा या ड्रेस कोड लागू करना!”

उन्होंने फैसले में उन्होंने विस्तार से लिखा था, “आज भारत में सबसे अच्छी चीजों में से एक है एक लड़की का अपनी पीठ पर स्कूल बैग लटकाए हुए सुबह स्कूल के लिए निकलना। वह हमारी उम्मीद है, हमारा भविष्य है। यह भी एक सच्चाई है कि एक लड़की के लिए अपने भाई की तुलना में शिक्षा प्राप्त करना आज बहुत मुश्किल है।”

उन्होंने आगे कहा था, “भारत के गाँवों और अर्ध शहरी क्षेत्रों में, एक लड़की के लिए अपने स्कूल बैग को पकड़ने से पहले अपनी माँ के दैनिक कामों जैसे सफाई और कपड़े धोने में मदद करना आम बात है… इसलिए इस मामले को एक लड़की द्वारा अपने स्कूल पहुँचने में पहले से ही सामना की जाने वाली चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए।”

उन्होंने कहा कि हिजाब पहनना धार्मिक प्रथा का मामला हो सकता है या नहीं भी हो सकता है, लेकिन यह अभी भी विवेक, विश्वास और अभिव्यक्ति का मामला है। अगर लड़की कक्षा में भी हिजाब पहनना चाहती है तो उसे रोका नहीं जा सकता। जस्टिस धूलिया ने कहा था, “इससे उसका रूढ़िवादी परिवार उसे स्कूल जाने की अनुमति देगा। उन मामलों में उसका हिजाब ही उसकी शिक्षा का टिकट है।”

जस्टिस धूलिया अपने फैसले के जरिए बताना चाह रहे थे कि स्कूल में अनुशासन बनाए रखने से ज्यादा महत्वपूर्ण एक रूढ़ीवादी परिवार की लड़की के विश्वास एवं उसकी अभिव्यक्ति को बनाए रखना है, क्योंकि उसका परिवार उसे स्कूल भेज रहा है। यह एक सामाजिक एवं व्यवहारिक सोच हो सकती है, लेकिन न्यायिक सोच इससे इतर संविधान एवं कानून पर टिका होता है। उनका तर्क इस्लामवादियों की सोच के बेहद करीब है।

जस्टिस धूलिया का अलग रूख

जस्टिस धूलिया का कुछ ऐसा ही रूख संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के मामले को लेकर भी था। दरअसल, अनुच्छेद 39(बी) पर एक महत्वपूर्ण फैसले में पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ ने दिग्गज न्यायाधीश कृष्ण अय्यर की लंबे समय से चली आ रही व्याख्या को पलट दिया था। अय्यर के 1978 में अपनी व्याख्या में कहा था कि निजी संपत्ति को ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ का हिस्सा माना जा सकता है।

तत्कालीन सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस पर असहमति जताई थी। उन्होंने कहा था, “न्यायमूर्ति अय्यर ने अपनी महान विरासत के बावजूद संविधान की व्यापक और अनुकूलनीय भावना के साथ अन्याय किया।” चंद्रचूड़ ने संवैधानिक लचीलेपन को बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया था। CJI चंद्रचूड़ की टिप्पणियों को जस्टिस धूलिया ने ‘कठोर और अनुचित’ कह दिया था। ये कुछ एक ही ढर्रे पर चलने वाली बात जैसी थी।

कानून के बजाय भावना पर जोर

जस्टिस सुधांशु धूलिया ने अपने कई निर्णयों में संविधान की व्याख्या सार्वभौमिक न्यायिक के सिद्धांतों के बजाय भावानात्मक एवं मानवतावाद को ध्यान में रखकर दिया। ये कुछ ऐसा ही है जैसे युद्धग्रस्त सीरिया का कोई समूह भारत में आ जाए और उसके जीवन के परवाह करते हुए उसे भारत में अवैध रूप से रहने एवं जीवकोपार्जन के लिए अनुमति दे दी जाए।

जस्टिस धूलिया के निर्णयों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं निजी गरिमा की आड़ में हिजाब का बचाव करना हो या सार्वजनिक भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू का लिखा होना सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बताना हो, उनके फैसले संवैधानिक पहलू के बजाय विश्व दृष्टिकोण एवं मानवतावाद को अधिक दर्शाते हैं, जो एक संप्रभु देश के लिए हर समय उपयुक्त नहीं होता है।

न्यायपालिका में सहानुभूति का आधार उसके परिणामों के परिप्रेक्ष्य में न्यायिक व्यवस्था के इर्द-गिर्द बने कानून सीमा के अंदर संतुलित रहना चाहिए। यह न्याय का सिद्धांत भी है। निर्णयों में कानून की व्याख्या, संबंधित केस की विवरण के बजाय अगर सामाजिक बहसों को शामिल किया जाता रहा तो अदालतों के निर्णय बाहरी जनप्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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