Thursday, June 19, 2025
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गाँव जलाया, पैसे लूटे… 400 बंगाली हिन्दुओं की कर दी हत्या: त्रिपुरा का ‘मंडई नरसंहार’, जब टुकड़ों में कटे मिले बच्चे

मंडई नरसंहार के बाद त्रिपुरा के अन्य जिलों में भी हिंसा और आगजनी की घटनाएँ हुईं। अनुमान है कि इस हिंसा में 2,000 से 10,000 लोगों की मौत हुई। हिंसक और पूर्व नियोजित हमलों के चलते करीब 1,50,000  से 2,00,000 लोग जिनमें ज्यादातर बंगाली थे, अपने घर छोड़कर विस्थापित हो गए।

त्रिपुरा के मंडई गाँव में 8 जून 1980 को एक भीड़ ने सैकड़ों बंगाली हिंदुओं की हत्या कर दी थी। इस घटना में करीब 350 से 400 लोग मारे गए, जिसके बाद इस नरसंहार को ‘मंडई नरसंहार’ के नाम से जाना गया और यह स्वतंत्र भारत में जातीय व धार्मिक हिंसा की सबसे भयानक घटनाओं में से एक बन गई।

मंडई गाँव, त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से लगभग 30 किलोमीटर दूर है। वहाँ बड़ी संख्या में जनजातीय लोग रहते थे। यहाँ रहने वाले बंगाली हिंदू अल्पसंख्यक थे, जो 20 साल पहले बांग्लादेश (तब के पूर्वी पाकिस्तान) से शरणार्थी बनकर आए थे।

1970 के दशक की क्षेत्रीय राजनीति और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद त्रिपुरा में बड़ी संख्या में बंगाली हिंदू शरणार्थियों के आने से जनजातीय आबादी में नाराजगी बनी हुई थी। इसी माहौल में बंगाली विरोधी भावना के आधार पर एक कट्टरपंथी जनजातीय राजनीतिक पार्टी ‘त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति (TJUS)’ का उदय हुआ।

16 जून, 1980 को पिट्सबर्ग पोस्ट-गजट द्वारा मंडाई नरसंहार पर प्रकाशित एक लेख का स्क्रीनशॉट

मंडई नरसंहार पीछे माहौल तैयार करने में त्रिपुरा के सशस्त्र जनजातीय चरमपंथी समूह जैसे त्रिपुरा नेशनल वॉलंटियर्स (TNV) और संगक्राक आर्मी ने अहम भूमिका निभाई। इन समूहों ने उस समय की उग्र राजनीतिक स्थिति का फायदा उठाया।

नरसंहार से पहले की एक घटना ने तनाव को और भड़का दिया, जब लेम्बुचेरा बाजार में कुछ दुकानदार (जो शायद बंगाली था) उसने एक जनजातीय लड़के पर हमला किया। इसके बाद 1000 से ज्यादा जनजातियों की भीड़ ने बाजार पर हमला कर दिया, दुकानों में तोड़फोड़ की और लोगों को मार डाला।

त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति (TJUS) के आंदोलन के चलते बाजार एक हफ्ते तक बंद रहा, जिससे माहौल और भी तनावपूर्ण हो गया। सशस्त्र जनजातीय चरमपंथी समूह ‘सांगक्राक आर्मी’, जो मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) से हथियार खरीद रहा था, उसने हालात का फायदा उठाते हुए थेलाकुंग और गुलिराई जैसे बाजारों पर हमला किया।

इसके बाद 8 जून 1980 को करीब 1,000 जनजातीय लोगों की भीड़ ने हथियारों के साथ जिनमें बंदूक, भाला, तलवार, धनुष-तीर और दाओस (दरांती) लेकर मंडई गाँव के बंगाली हिंदू निवासियों पर अचानक हमला कर दिया, जिससे एक अलग ही हिंसा भड़क उठी।

16 जून, 1980 को सेंट जोसेफ गजट द्वारा मंडई नरसंहार पर प्रकाशित एक लेख का स्क्रीनशॉट सेंट जोसेफ गजट

चरमपंथियों ने पहले बंगाली हिंदू ग्रामीणों से पैसे की माँग की, जिनके पास मौजूद करीब 250 डॉलर (लगभग ₹21000) की सारी नकदी ले ली। इसके बाद पीड़ितों को गाँव के बाजार क्षेत्र में इकट्ठा किया गया और जबरन अपने घरों को जलते हुए देखने के लिए मजबूर किया गया।

टाइम मैगज़ीन की एक रिपोर्ट जो (दिनांक 30 जून 1980) में प्रकाशित हुई थी। उसके अनुसार  “मंडई गाँव में सबसे भयानक नरसंहार में, जनजातियों ने पहले पैसे की माँग की, फिर गाँव के बाजार में बंगालियों को घेर लिया। भयभीत निवासियों को ये सब देखने के लिए मजबूर होना पड़ा, जबकि बंदूकों, भालों और दरांतियों से लैस जनजातियों ने घरों में आग लगा दी और उनमें रहने वालों को मार डाला।”

चरमपंथियों ने मंडई में हमला करते समय कोई दया नहीं दिखाई। भारतीय सेना को गाँव में कम से कम 350 बंगाली हिंदुओं के शव मिले, जिनके सिर कुचले हुए थे, अंग कटे हुए थे और बच्चों को चाकू से मारा गया था। कई सड़ी-गली लाशें नदियों में तैरती मिलीं।

एक दर्दनाक मामला 6 महीने के शिशु का था, जिसका शव उसकी माँ की लाश के पास टुकड़ों में फेंका गया था। सेना को पीड़ितों को उथली कब्रों में दफनाना पड़ा। मंडई पूरी तरह खंडहर में बदल गया था, चारों तरफ राख, जली हुई दीवारें, टूटे हुए बर्तन और सिलाई मशीनें बिखरी थीं।

पीड़ितों को समय पर पुलिस सुरक्षा नहीं मिल पाई, क्योंकि सबसे नजदीकी पुलिस चौकी लगभग 11 किलोमीटर दूर जिरानिया में थी।

17 जून, 1980 को द मॉन्ट्रियल गजट द्वारा मंडई नरसंहार पर प्रकाशित एक लेख का स्क्रीनशॉट

मंडई नरसंहार के बाद त्रिपुरा के अन्य जिलों में भी हिंसा और आगजनी की घटनाएँ हुईं। अनुमान है कि इस हिंसा में 2,000 से 10,000 लोगों की मौत हुई। हिंसक और पूर्व नियोजित हमलों के चलते करीब 1,50,000  से 2,00,000 लोग जिनमें ज्यादातर बंगाली थे, अपने घर छोड़कर विस्थापित हो गए।

मंडई में भारतीय सेना की टुकड़ी 9 जून 1980 को कमांडर मेजर R राजमणि ने हत्याओं की क्रूरता की तुलना वियतनाम में हुए ‘1968 माई लाई नरसंहार’ से की। न्यूयॉर्क टाइम्स से बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैंने माई लाई के बारे में सुना है। मुझे आश्चर्य है कि क्या वह यहाँ की तुलना में आधी भी भयानक थी।”

उन्होंने आगे कहा, “उस पहले दिन, मैंने एक 6 महीने के बच्चे को दो टुकड़ों में कटा हुआ देखा और प्रत्येक टुकड़ा उसकी मृत माँ के दोनों ओर पड़ा हुआ था। मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा, और न ही मैं ऐसा देखना चाहता हूँ।”

17 जून 1980 को द टेलीग्राफ हेराल्ड द्वारा मंडई नरसंहार पर प्रकाशित एक लेख का स्क्रीनशॉट

UNIके एक रिपोर्टर ने मंडई की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा कि वहां खुली कब्रें थीं, जिनमें से एक में से एक हाथ बाहर निकला हुआ था। तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक सत्यव्रत बसु ने इस घटना को स्पष्ट रूप से ‘नरसंहार’ बताया था।

बंगाली हिंदू पीड़ितों ने सुनाई आपबीती

मंडई नरसंहार में जीवित बचे लोगों में से एक 20 वर्षीय बंगाली नाई हरधेम सील था, जिसने इस भयावह हमले में अपने माता-पिता, तीन बहनों और तीन भाइयों को खो दिया था। उन्होंने टाइम पत्रिका को बताया, “हर जगह खून ही खून था। एक आदमी ने मुझे अपने दाओ से मारा। मैं गिर पड़ा, फिर कई लाशें मेरे ऊपर गिरीं। शायद इसी वजह से मेरी जान बच गई।”

एक जीवित बची सुवर्णा प्रभा देब ने बताया कि मंडई में उनकी दो बेटियों और एक पोते की हत्या कर दी गई, जबकि उनका बेटा गंभीर रूप से घायल हो गया। एक अन्य जीवित बचे 65 वर्षीय अबानी डे ने बताया कि उन्होंने पहले पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में मुस्लिम भीड़ की हिंसा में अपने माता-पिता और बहन को खोया था।

“जब हम आए, तो यहाँ के जनजातीय लोगों ने हमारा स्वागत किया और हमें बसने में मदद की। हमें लगा कि हमें एक सुरक्षित जगह मिल गई है। अब यह। हम कहाँ जा सकते हैं?” उन्होंने मंडई नरसंहार के बाद मीडिया को बताया, जिसमें उन्होंने अपने 15 वर्षीय बेटे को खो दिया था।

उन्होंने दुख जताते हुए कहा, “एक जनजातीय आदमी ने उनके बाल पकड़े और एक दरांती से उनका सिर काट दिया। हम दूर से यह सब देख रहे थे।” एक अन्य जीवित बचे, नागेंद्र साहा (45) ने बताया कि कैसे उनके 2 बेटों को बेरहमी से मार दिया गया।

उन्होंने जोर देकर कहा, “जैसे ही जनजातीय लोग हमारे करीब आए, हमने जोर से प्रार्थना की कि हे भगवान, हमें बचाओ। जैसे ही हम बाहर निकले, उन्होंने हम पर अपने दाओ से हमला कर दिया। एक आदमी ने मेरे सिर पर वार किया और मैं बेहोश हो गया। मुझे मारने से पहले, मैंने देखा कि उसने एक बूढ़ी महिला को ज़मीन पर लेटने के लिए मजबूर किया और दाओ से उसका सिर कुचल दिया। मेरे दो बेटे एक-दूसरे के कुछ सेकंड के भीतर मर गए।”

1980 के मंडई नरसंहार के बाद त्रिपुरा के बंगाली बहुल इलाकों में जनजातीय लोगों पर भी हमले हुए। कई जगहों पर आगजनी हुई और शरणार्थियों का पलायन शुरू हो गया। जनजातीय समुदाय के लिए 12 से अधिक शरणार्थी शिविर बनाए गए। एक पीड़ित सुहेद देब बर्मन ने कहा, “हम अपनी ही ज़मीन पर शरणार्थी बन गए हैं।”

मंडई नरसंहार पर राजनीतिक प्रतिक्रिया

त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “यह पूरी तरह से पूर्व नियोजित हमला लगता है। वे हत्याओं की होड़ में लगे हुए हैं… लेकिन कोई भी इस तरह के नरसंहार की कल्पना नहीं कर सकता था।”

पीड़ितों ने आरोप लगाया कि इंदिरा गाँधी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने त्रिपुरा में बढ़ते जनजातीय असंतोष के बीच समय पर कोई सैन्य सहायता नहीं भेजी। राज्य सरकार को बर्खास्त करने पर विचार हुआ, लेकिन ये कदम नहीं उठाया गया। मंडई नरसंहार के बाद केंद्रीय गृह मंत्री जैल सिंह ने त्रिपुरा का दौरा कर हालात का जायजा लिया।

केंद्र ने राहत के तौर पर 5000 टन चावल भेजा और पीड़ितों के पुनर्वास का आश्वासन दिया। बचे हुए लोगों के लिए अस्थायी शरणार्थी शिविर बनाए गए।

17 जून, 19 को सरसोटा हेराल्ड-ट्रिब्यून द्वारा मंडई नरसंहार पर प्रकाशित एक लेख का स्क्रीनशॉट

त्रिपुरा की बदलती जनसांख्यिकी

त्रिपुरा में जातीय-धार्मिक तनाव की जड़ें दशकों पुरानी हैं। त्रिपुरी शासकों द्वारा बंगालियों को बसाने के प्रोत्साहन, 1947 के विभाजन और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद बंगालियों की बड़ी संख्या में आबादी बढ़ी, जिससे विवाद पैदा हुआ।

1980 के दशक में जनजातीय समुदायों (जो तेजी से ईसाई बन रहे थे) और बंगाली हिंदुओं के बीच संबंध बेहद तनावपूर्ण हो गए, जिसके चलते हिंसा और नरसंहार की घटनाएँ बढ़ीं। इसी दौरान जनजातीय आबादी घटकर 1971 में सिर्फ 28.95% रह गई, जिससे असंतोष और बढ़ गया।

बंगाली हिंदू आबादी, जिन्हें गैर-जनजातीय कहा जाता है, उन्हे 1947 और 1971 में मुस्लिम भीड़ की हिंसा से बचने के लिए त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में शरण लेनी पड़ी। हालाँकि, व्यापार, सेवाओं, आर्थिक प्रगति, राजनीतिक प्रभाव और मैदानी इलाकों तक बेहतर पहुँच के चलते इन शरणार्थियों का प्रभाव बढ़ा।

इससे मूल जनजातीय आबादी में असंतोष और उग्रवाद को बढ़ावा मिला। 1980 का मंडई नरसंहार इस जातीय-धार्मिक संघर्ष का एक बड़ा और भयावह उदाहरण था, लेकिन यह आखिरी नहीं था।

2000 में बागबेर नरसंहार के दौरान प्रतिबंधित ईसाई त्रिपुरी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) के आतंकवादियों ने बंगाली हिंदू शरणार्थियों को गोली मार दी, और 2002 के सिंगिचेरा नरसंहार में 16 निहत्थे बंगाली हिंदुओं की बेरहमी से हत्या कर दी।

उग्रवाद का अंत और एक सकारात्मक पहलू

मंडई नरसंहार ने त्रिपुरा में बंगाली और जनजातीय दोनों ही समुदायों की सामूहिक स्मृति पर गहरे निशान छोड़े, और घटना के बाद गाँव के अधिकांश बंगाली निवासी भाग गए। मंडई 2009 तक उग्रवाद और जनजातीय उग्रवाद का केंद्र बना रहा, लेकिन इसके बाद यहाँ काफी सुधार हुआ।

नवंबर 2015 में यह रिपोर्ट किया गया कि मंडई ब्लॉक ने वित्तीय साक्षरता और समावेशन के क्षेत्र में देश के 6,835 अन्य ब्लॉकों से बेहतर प्रदर्शन किया, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मंडई ब्लॉक को सम्मानित भी किया।

पूर्व डीएम (पश्चिम त्रिपुरा) अभिषेक सिंह ने बताया, “मंडई ब्लॉक ने बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं तक पहुंच प्रदान करने में 100% से अधिक लक्ष्य हासिल किया है और दूसरों के लिए एक आदर्श बन गया है। वित्तीय समावेशन के परिणामस्वरूप, ब्लॉक के अधिक से अधिक जनजातीय लोग अब सरकारी सहायता तक पहुँच के लिए बैंकों से जुड़ रहे हैं।”

त्रिपुरा में जातीय-धार्मिक संघर्ष अब कम हो गए हैं क्योंकि अधिकांश जनजातीय चरमपंथी संगठन आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं। आज त्रिपुरा प्रगति और विकास के नए युग में प्रवेश कर चुका है और अपने पुराने विवादों को पीछे छोड़ रहा है।

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Dibakar Dutta
Dibakar Duttahttps://dibakardutta.in/
Centre-Right. Political analyst. Assistant Editor @Opindia. Reach me at [email protected]

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