Thursday, October 3, 2024
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कश्मीर को अलग बताने वाली अरुंधति रॉय ने गुजरात दंगों को लेकर भी बोले थे झूठ: एहसान जाफरी की बेटियों से रेप और जिंदा जलाने का गढ़ा था किस्सा

यहाँ बताना जरूरी है कि दंगों में एहसान जाफ़री की हत्या की गई थी, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘नंगा किया गया’ और न ही ‘ज़िंदा जलाया गया’। उनके बेटे टीए जाफ़री ने एशियन एज को एक इंटरव्यू दिया था। इस इंटरव्यू को न्यूजपेपर ने 2 मई 2002 को 'Nobody Knew My Father’s House was the Target' शीर्षक से दिल्ली संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर छापा था।

दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा कश्मीर को भारत से अलग बताने वाली अरुंधति रॉय पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है। हालाँकि, दुख की बात है ये कि इसमें 14 साल लग गए। अरुंधति और उनके साथी न केवल भारत को एक राष्ट्र के रूप में नकारते हैं, बल्कि झूठे नैरेटिव गढ़कर कलह और असंतोष को भी बढ़ावा देते हैं।

हमें साल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान वामपंथी-फासीवादी गिरोह की शरारती भूमिका को याद रखना चाहिए। भारतीय पत्रिका ‘आउटलुक’ में 6 मई 2002 को गुजरात में हुई हिंसा पर ‘Democracy: Who’s she when she’s at home?’ शीर्षक से अरुंधति रॉय ने 7 पेज (लगभग 6,000 शब्द) का एक लेख लिखा था।

इस लेख में अरुंधति रॉय ने लिखा था, “कल रात बड़ौदा से एक दोस्त ने रोते हुए फोन किया। उसे यह बताने में पंद्रह मिनट लग गए कि मामला क्या था। यह बहुत जटिल नहीं था। केवल इतना था कि उसकी दोस्त सईदा को भीड़ ने पकड़ लिया था। उसके पेट को चीरकर उसे जलते हुए अंगारों से भर दिया गया था। उसके मरने के बाद किसी ने उसके माथे पर ‘ऊँ’ बना दिया था।”

इस घृणित ‘घटना’ से स्तब्ध होकर भाजपा के तत्कालीन राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज ने गुजरात सरकार से संपर्क किया। पुलिस जाँच में पता चला कि सईदा नामक किसी व्यक्ति से जुड़ा ऐसा कोई मामला शहरी या ग्रामीण बड़ौदा में दर्ज नहीं किया गया था। इसके बाद पुलिस ने पीड़िता की पहचान करने और उन गवाहों तक पहुँचने के लिए अरुंधति रॉय की मदद माँगी।

अरुंधति रॉय का सहयोग इस अपराध के दोषियों तक पुलिस कोे पहुँचा सकती थी, लेकिन पुलिस को कोई सहयोग नहीं मिला। इसके बजाय, रॉय ने अपने वकील प्रशांत भूषण के माध्यम से जवाब दिया कि पुलिस के पास समन जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। बलबीर पुंज ने 8 जुलाई 2002 को आउटलुक में ‘डिसिमुलेशन इन वर्ड एंड इमेजेस’ के रूप में प्रकाशित अपने जवाब में इस घटना को उठाया।

इतना ही नहीं, अरुंधति रॉय अपनी उसी लेख में आगे लिखा, “…कॉन्ग्रेस के पूर्व सांसद इकबाल एहसान जाफ़री के घर को भीड़ ने घेर लिया। पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त, मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किए गए उनके फ़ोन कॉल को अनदेखा कर दिया गया। उनके घर के आसपास मौजूद मोबाइल पुलिस वैन ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। भीड़ घर में घुस गई।”

अरुंधति रॉय ने लिखा, “उन्होंने (हिंदू भीड़ ने) उनकी (जाफरी की) बेटियों को नंगा कर दिया और उन्हें ज़िंदा जला दिया। फिर उन्होंने एहसान जाफ़री का सिर काट दिया और उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। बेशक, यह महज़ एक संयोग है कि जाफ़री फ़रवरी में राजकोट विधानसभा उपचुनाव के लिए अपने अभियान के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक थे।”

यहाँ बताना जरूरी है कि दंगों में एहसान जाफ़री की हत्या की गई थी, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘नंगा किया गया’ और न ही ‘ज़िंदा जलाया गया’। उनके बेटे टीए जाफ़री ने एशियन एज को एक इंटरव्यू दिया था। इस इंटरव्यू को न्यूजपेपर ने 2 मई 2002 को ‘Nobody Knew My Father’s House was the Target’ शीर्षक से दिल्ली संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर छापा था।

इस में टीए जाफरी ने कहा था, “अपने भाइयों और बहनों में मैं भारत में रहने वाला अकेला व्यक्ति हूँ और मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ। मेरी बहन और भाई अमेरिका में रहते हैं। मैं 40 साल का हूँ और मेरा जन्म और पालन-पोषण अहमदाबाद में हुआ है।” बलबीर पुंज ने 27 मई 2002 को अपने लेख ‘Fiddling With Facts As Gujarat Burns’ में अरुंधति के मनगढ़ंत दावों को खारिज़ किया था, जिसमें पुष्टि की गई थी कि जाफ़री की बेटी अमेरिका में सुरक्षित थी।

अपने लेख में बलबीर पुंज द्वारा तथ्यों का खुलासा करने के बाद अरुंधति रॉय को आउटलुक में माफीनामा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। ‘जाफरी परिवार से माफी’ शीर्षक से लिखे गए उनके फर्जी माफीनामे में कहा गया, “…मेरे लेख ‘Democracy: Who’s she when she’s at home?’ (6 मई) में एक तथ्यात्मक त्रुटि है। एहसान जाफरी की क्रूर हत्या का वर्णन करते हुए मैंने कहा कि उनकी बेटियों को उनके पिता के साथ मार दिया गया था।”

रॉय ने आगे कहा, “बाद में मुझे बताया गया कि यह सही नहीं है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार एहसान जाफरी को उनके तीन भाइयों और दो भतीजों के साथ मार दिया गया था। उनकी बेटियाँ उन 10 महिलाओं में शामिल नहीं थीं, जिनका उस दिन चमनपुरा में बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। मैं जाफरी परिवार से उनकी पीड़ा को और बढ़ाने के लिए माफी माँगता हूँ। मुझे सच में खेद है।”

अरुंधति ने आगे लिखा, मेरी जानकारी (जो कि बाद में गलत निकली) की दो स्रोतों से जाँच की गई। टाइम पत्रिका (11 मार्च) में मीनाक्षी गांगुली और एंथनी स्पैथ द्वारा लिखे गए लेख में और एक स्वतंत्र तथ्य-खोज मिशन द्वारा ‘Gujarat Carnage 2002: A Report to the Nation‘ में, जिसमें पूर्व आईजीपी त्रिपुरा केएस सुब्रह्मण्यम और पूर्व वित्त सचिव एसपी शुक्ला शामिल थे।”

तर्क देते हुए अरुंधति रॉय ने आगे कहा, “मैंने श्री सुब्रह्मण्यम से इस त्रुटि के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि उस समय उनकी जानकारी एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से मिली थी। (उस अधिकारी का नाम क्या था? न तो सुब्रह्मण्यम और न ही अरुंधति रॉय ने यह बताया!)…।”

यह माफ़ीनामा भी झूठा है, क्योंकि अरुंधति रॉय ने अपने झूठे माफ़ीनामे में भी दावा किया कि उस दिन 10 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और उन्हें मार दिया गया। असल में मार्च 2002 के पहले हफ़्ते में तत्कालीन अंग्रेज़ी अख़बारों को पढ़ने पर बलात्कार का कोई ज़िक्र ही नहीं मिलता। बलात्कार की ये कहानियाँ मार्च 2002 के मध्य में ही सामने आनी शुरू गईं, जब टाइम मैगज़ीन ने 11 मार्च 2002 के अपने अंक में झूठ गढ़ा।

इसी टाइम मैगजीन के झूठ को अरुंधति रॉय ने कॉपी की थी। न तो अरुंधति और न ही टाइम मैगजीन के संवाददाता ने इस मामले में किसी बलात्कार को साबित किया। अरुंधति ने सिर्फ़ जाफ़री परिवार से माफ़ी माँगी, न कि भाजपा या नरेंद्र मोदी से, क्योंकि उन्होंने अपने ग़लत दावे से उन्हें बदनाम किया। अरुंधति को देश से भी माफ़ी माँगनी चाहिए थी। उस लेख में अरुंधति रॉय ने और भी कई झूठ बोले थे।

उस झूठ के लिए उन पर धारा 153A, 499-500 (मानहानि), फर्जी खबरे फैलाने से संबंधित धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। अरुंधति ने लिखा था, “पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त (यानी पीसी पांडे), मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) ने जाफरी के फोन कॉल को नजरअंदाज कर दिया। जाफरी के घर के आसपास मौजूद मोबाइल पुलिस वैन ने भी हस्तक्षेप नहीं किया।”

पुलिस आयुक्त और मुख्य सचिव को कॉल किए जाने के सभी दावे झूठे हैं। एसआईटी ने पुलिस आयुक्त पांडे के कॉल रिकॉर्ड की जाँच की और पाया कि जाफरी द्वारा कोई कॉल नहीं किया गया था। इसका जिक्र इसकी अंतिम रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 203-04 पर है। हालाँकि, पांडे ने उस दिन यानी 28 फरवरी 2002 को 302 कॉल किए और प्राप्त किए। उस दिन मुख्य सचिव जी सुब्बाराव विदेश में थे।

एसआईटी की रिपोर्ट में पृष्ठ संख्या 312 पर किया गया था। अब जब सुब्बाराव भारत से बाहर छुट्टी पर थे तो जाफरी ने उन्हें कैसे कॉल किया होगा? एसआईटी के अनुसार, पूरे आवासीय परिसर में जाफरी का लैंडलाइन एकमात्र चालू फोन था। अरुंधति रॉय ने दावा किया था कि पुलिस ने एहसान जाफरी के घर में भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया।

वास्तव में कॉन्ग्रेस सांसद एहसान जाफरी के घर के बाहर पुलिस ने हस्तक्षेप किया था। इसका जिक्र भी एसआईटी की अंतिम रिपोर्ट की पृष्ठ संख्या 1 पर किया गया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस ने जाफरी के घर के बाहर चार हिंदुओं को गोली मार दी थी, 11 को घायल कर दिया। भीड़ पर लाठीचार्ज किया, 124 राउंड फायर किए और घटनास्थल पर 134 आँसू गैस के गोले दागे गए थे।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी 28 फरवरी 2002 को ऑनलाइन रिपोर्ट की थी कि पुलिस और फायर ब्रिगेड ने दंगाइयों को तितर-बितर करने की पूरी कोशिश की और कहीं भी पुलिस की ओर से किसी तरह की निष्क्रियता नहीं दिखाई गई। पुलिस के लिए करीब 20,000 से ज़्यादा लोगों की भीड़ को नियंत्रित करना असंभव था।

दरअसल, जाफ़री द्वारा भीड़ पर रिवॉल्वर से गोली चलाने के बाद भीड़ पागल हो गई थी। इसमें 15 हिंदू घायल हो गए थे और 1 की मौत हो गई थी। एसआईटी की पेज नंबर 1 पर इसका भी जिक्र है। इन सबके बावजूद, पुलिस ने इस घटना में 180 मुस्लिमों को अपनी जान जोखिम में डालकर बचाया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने पुलिस पर कुछ न करने का कहीं आरोप नहीं लगाया।

इंडिया टुडे के 18 मार्च 2002 के अंक में साफ तौर पर कहा गया कि जाफरी के घर के बाहर पुलिस ने कम-से-कम 5 दंगाइयों को गोली मार दी थी। पुलिस ने करीब 180 मुस्लिमों की जान भी बचाई, जबकि घर के अंदर मौजूद 250 लोगों में से 68 की मौत हो गई, क्योंकि सभी लापता लोगों को मृत घोषित कर दिया गया था।

एसआईटी की अंतिम रिपोर्ट के पेज 16 पर कहा गया है, “स्थानीय पुलिस के सामने अपने बयान में (6 मार्च 2002 को धारा 161 सीआरपीसी के तहत) उसने (एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी) कहा था कि जब उन्हें जेल वैन में गुलबर्ग सोसाइटी से शिफ्ट किया जा रहा था तो वहाँ जमा भीड़ ने उन सभी को मौत के घाट उतार दिया होता, अगर पुलिस ने समय रहते कार्रवाई नहीं की होती।”

भाजपा और अरुंधति रॉय के अन्य विरोधियों की गलती थी कि उन्होंने ऐसे झूठ के खिलाफ केस दर्ज नहीं किया। आउटलुक पर भी इस तरह की बकवास प्रकाशित करने के लिए मुकदमा दर्ज होना चाहिए था। उन्हें दिवंगत अरुण जेटली से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने दिसंबर 2015 में उन पर झूठे आरोप लगाने वाले AAP नेताओं पर मुकदमा दायर किया था और उन्हें बिना शर्त माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया था।

(लेखक एमडी देशपांडे ने ‘Gujarat Riots: The True Story’ नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें 2002 के दंगों – गोधरा और उसके बाद के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। वे www.gujaratriots.com के और ट्विटर हैंडल @gujaratriotscom के एडमिन में से एक हैं। उन्होंने ‘Why the Vajpayee Government lost the 2004 Lok Sabha polls- An analysis’ नामक पुस्तक भी लिखी है, जिसमें मीडिया के बहुत अधिक दुष्प्रचार को उजागर किया गया है, खासकर 2004 के लोकसभा चुनावों से पहले और 2002 के गुजरात राज्य विधानसभा चुनावों से पहले।)

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GujaratRiots.comhttp://www.gujaratriots.com/
Author of the book “Gujarat Riots: The True Story” which gives all the details about the 2002 Gujarat riots - Godhra and thereafter.

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