Saturday, June 28, 2025
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‘नॉर्वे-स्वीडन में इंडस्ट्री नहीं’ से ‘इंडस्ट्री से थोड़े रुकता है पलायन’ तक, CM बनने का ‘रोडमैप’ ही चोरी: बिहारियों को ‘सपना’ दिखा रहे PK खुद कितने समझदार?

जन सुराज पार्टी संस्थापक और राजनीतिक रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने एएनआई पर बिहार को लेकर इंटरव्यू दिया है। पूरे इंटरव्यू में दूसरे नेताओं की तरह बस शब्दों से खेलते नजर आए। विकास को लेकर उनका विजन नदारद दिखा।

नाम – प्रशांत किशोर, दावा – किसी को भी जिता सकते हैं चुनाव, काम – बिहारियों को सपने दिखाना, खुद का सपना – बिहार का मुख्यमंत्री बनना। कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचाने का दावा, तो कभी दुनिया के सबसे बेहतरीन चुनावी रणनीतिकार होने का दंभ। बीते कुछ सालों से बिहार की गलियों की खाक छान रहे हैं, जनता को बरगला रहे हैं, कभी छात्र आंदोलन में शामिल होने लगते हैं, तो कभी किसी राजनीतिक पार्टी का ठेका ले लेते हैं.. ताकि बिहार की राजनीति में खुद को चर्चा में बनाए रख सकें।

हालाँकि उनकी पार्टी उप-चुनाव में हिस्सा ले चुकी है। अब वो दावा करते हैं कि पैसा बहुत कमा लिया, अब बिहार को विकसित बनाएँगे। वैसे, इस दावे की हकीकत हर कोई जानना चाहता है। इसके लिए वो तमाम मंचों पर भी जाते हैं। कुछ नया दावा कर देते हैं और अपनी दुकानदारी बनाए रखते हैं। इस बीच, प्रशांत किशोर उर्फ पीके ने ANI नाम की न्यूज एजेंसी से 1 घंटे से भी ज्यादा समय तक बातचीत की, जिसमें उन्होंने बिहार के विकास और लोगों के काम धंधों से लेकर पलायन तक पर अपने विचार रखे हैं। कई मुद्दों में से कुछ ‘अराजनीतिक मुद्दों’ पर उनकी बातों पर हम भी चर्चा करने वाले हैं।

इस इंटरव्यू में प्रशांत किशोर ने तमाम बातें की हैं। जिसमें ‘पलायन’, ‘बिहार का विकास’ और ‘विदेशों का विकास’ जैसी बातें आम जनता के काम की है। उन्हें जानना सबके लिए जरूरी हैं। दरअसल, प्रशांत किशोर ने कहा, “बिहार को बड़े उद्योग धंधों की जरूरत नहीं है और न ही यहाँ बड़े इंडस्ट्रियल पार्क बन सकते हैं। हम चारों ओर से जमीन से घिरे हुए हैं और हमारे यहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक है। हमें अपनी शिक्षा और सेवा क्षेत्रों को बढ़ावा देना होगा, हमें बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करनी होगी और हमें लोगों के हाथों में अधिक संसाधन उपलब्ध कराने होंगे ताकि लोग अपने दम पर कुछ कर सकें। बिहार में लोग मेहनती और परिश्रमी हैं,”

उन्होंने ये भी तर्क दिया कि उद्योग केवल तटीय राज्यों में ही स्थापित किए जा सकते हैं।

अब बात ये समझ में नहीं आती कि प्रशांत किशोर को एक बड़े उद्योग के असर का अंदाज है या नहीं। एक बड़ा उद्योग लगने का असर सिर्फ वहाँ काम करने वाले लोगों के जीवन में ही बदलाव नहीं लाता, बल्कि उस पर निर्भर कई छोटे उद्योग खुद ब खुद विकसित हो जाते हैं क्योंकि ये उस उद्योग की जरूरत को पूरी करता है। इतना ही नहीं एक व्यक्ति की नौकरी पूरे परिवार का संबल होता है।

खुद बिहार में जब 1907 में जमशेदपुर में टाटा स्टील का कारखाना लगाया गया था तो वहाँ खनिज तो मौजूद था लेकिन बाकी जरूरतों को टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी ने अपने हिसाब से पैदा किया। इस पर निर्भर सैकड़ों उद्योग आज भी आदित्यपुर जैसे इलाकों में चल रहे हैं। इन उद्योगों ने हजारों लोगों को रोजगार दिया है। इतना ही नहीं इसकी वजह से बने बाजार और रिहायशी इलाके अपने आप रोजगार पैदा कर रहे हैं। तो कहने का मतलब ये है कि जब आप माहौल देंगे और नई कंपनियाँ लगेंगी तो रोजगार सृजन होगा।

कभी विकसित राज्यों में से एक था बिहार

झारखंड को छोड़ भी दें तो बिहार में भी कई कंपनियाँ थी। भागलपुर की सिल्क इंडस्ट्री, मुजफ्फरपुर, दरभंगा की चीनी मिलें, बक्सर और बिहटा की पेपर मिलें, बरौनी का ऑयल रिफाइनरी, खाद कारखाना बिहार की शान हुआ करती थी।

एक रिपोर्ट के मुताबिक 1951 में पूरे देश मे 6982 रजिस्टर्ड फैक्ट्री थी। इनमें से 455 अकेले बि​हार में थी यानी कुल रजिस्टर्ड फैक्ट्री का 6.51% अकेले बिहार में थी। आजादी के बाद पूरे देश में 56 चीनी मिलें थी। इनमें से 33 बिहार में थी जो रोजगार का 29.50% उपलब्ध कराता था। चीनी मिलों में सकरी,रैयाम, लोहट काफी मशहूर थे। इसी तरह मधुबनी का मलमल, किशनगंज का कागज उद्योग, दरभंगा के हाथी दाँत के सामान प्रसिद्ध थे। खगड़िया, किशनगंज, मुंगेर, पूर्णिया भी कई कृषि आधारित उद्योगों के लिए मशहूर थे। कुछ के नाम आप भी जान लीजिए…

  1. गया और पूर्णिया का लाख उद्योग
  2. पटना, मुंगेर, शाहाबाद का तेल मिल
  3. डालमिया नगर, समस्तीपुर, दरभंगा, पटना, बरौनी का कागज उद्योग
  4. हाजीपुर का प्लाईवुड
  5. गया, दीघा, मोकामा का चमड़ा उद्योग
  6. डालमिया नगर, खेलारी का सीमेंट उद्योग
  7. मुंगेर, बक्सर, गया, आरा का तंबाकू उद्योग
  8. मुंगेर, पटना, मानपुर, पंचरूखी का शराब उद्योग
  9. पटना का शीशा उद्योग
  10. मुंगेर का बंदूक उद्योग मशहूर था, लेकिन अब ये पुरानी बात हो गयी है।

इनमें से अधिकतर उद्योग धंधे 1985-2005 के बीच गलत नीतियों और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। यही वजह है कि बिहार की प्रति व्यक्ति आय प्रतिशत 2012 में वही था जो 60 साल पहले 1951 में था।

इन कंपनियों में नई जान फूँकने के लिए मोदी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। राज्य सरकार चाहे तो इनमें गति ला सकती है। अगर प्रशांत किशोर इन उद्योग धँधों के विकास के लिए कोई प्लान बताएँ, तो बिहार का भला हो सकता है।

पलायन रोकने के लिए PK के पास नहीं कोई रणनीति

इस इंटरव्यू में प्रशांत किशोर ने कहा कि बिहार से लोग पलायन कर रहे हैं क्योंकि लोगों के पास रोजगार नहीं है। साथ ही ये भी कहते हैं कि बड़े उद्योगों से रोजगार की समस्या हल नहीं होगी। उन्होंने यह नहीं बताया कि अगर उद्योगों से नहीं तो नौकरियाँ कहाँ से आएँगी?

इंटरव्यू के दौरान अजीब तर्क देते हुए उन्होंने कहा, “दिल्ली में निर्माण कार्य करने वाले अधिकांश श्रमिक बिहार से हैं। जब बिहार के पास पैसा होगा, तो इन लोगों को दिल्ली आने की जरूरत नहीं होगी, वे बिहार में ही बिल्डिंग फिटिंग, प्लास्टरिंग और अन्य काम कर लेंगे।” बिहार की दुर्गति की शायद यही वजह है कि नेता उद्योग धंधों की महत्ता को कमतर आँकते रहे हैं।

दरअसल बिहार में कॉन्ग्रेस और आरजेडी के जमाने में उद्योग धंधों की उपेक्षा की गई। ऐसे कानून बनाए गए जिससे बिहार के खनिज संसाधन राज्य के बाहर इस्तेमाल होने लगे। रेल भाड़ा सामान्यीकरण कानून ऐसा ही कानून था। स्वतंत्रता के बाद केंद्र सरकार का बनाया यह कानून 90 के दशक में खत्म हुआ था।

इस कानून के तहत धनबाद से राँची कोयला की ढुलाई में जितना रेल किराया लगता था, उतने ही भाड़े में यह धनबाद से मद्रास (अब चेन्नई) भी पहुँच जाता था। इसने उद्योगपतियों को समुद्र किनारे कोयला आधारित उद्योग लगाने को प्रोत्साहित किया। इसका असर बिहार पर अर्थव्यवस्था पर दिखा।

कॉन्ग्रेस के बाद 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव का राज रहा. इस वक्त उद्योगों के बजाए सोशल जस्टिस पर जोर रहा। जातीय हिंसा का लोग शिकार हुए। उद्योग धंधे एक के बाद एक ढहते चले गए। जातिवादी राजनीति, गुंडागर्दी ने बिहार से लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर किया। किसानी से घर चलाना मुश्किल हुआ तो लोग दूसरे राज्यों की ओर चल पड़े और अब ये हाल है कि छोटे-छोटे किसान अब दूसरे राज्यों में मजदूर बन गए हैं।

फिनलैंड, नार्वे का नाम लेकर किया गुमराह

बिहार में रोजगार सृजन के लिए औद्योगीकरण की आवश्यकता नहीं है, इस तर्क के समर्थन में उन्होने छोटे-छोटे विकसित देशों न्यूजीलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और अन्य देशों का उदाहरण दिया। उन्होंने दावा किया, “इन देशों से किसी भी देश में कोई बड़ा उद्योग धंधा नहीं है और फिर भी ये देश अत्यधिक विकसित हैं।”

वैसे प्रशांत किशोर दुनिया के कई देशों में घूमने का दावा करते हैं। वो कहते हैं कि भारत में सोशल मीडिया क्रांति ही वो लेकर आए। खुद को पॉलिटिकल ‘ठेकेदारी’ का भी अगुवा बताते हैं। लेकिन इस इंटरव्यू में वो इतना बढ़-चढ़कर बोलने लग जाते हैं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहता कि रुकना कहाँ है। दरअसल, जिन देशों का नाम प्रशांत किशोर ने लिया, सिर्फ माहौल बनाने के लिए, उन देशों के बारे में सही जानकारी इन्हें है ही नहीं।

ऐसा इसलिए, क्योंकि बाल्टिक देशों (नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड) और न्यूजीलैंड जैसे जिन देशों का नाम वो ले रहे हैं, पहली बात वो बेहद विकसित देश हैं। विकास एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। हालाँकि ये सभी देश महज 200-300 सालों में आगे बढ़े हैं। अब अगर इन देशों की अर्थव्यवस्था, उद्योग धंधों की बात करें तो प्रशांत किशोर का दावा है कि इन देशों के पास कोई इंडस्ट्री नहीं है। जबकि उनका दावा बिल्कुल बकवास है।

दरअसल, इन देशों में ऐसे उद्योग हैं जो उनके सकल घरेलू उत्पाद में काफी योगदान देते हैं। फिनलैंड की बात करें तो यहाँ उद्योग दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। सर्विस सेक्टर के बाद इसका नंबर आता है। यहाँ मेटल इंडस्ट्री, कैमिकल इंडस्ट्री, फॉरेस्ट इंडस्ट्री, फूड अल्कोहल और तंबाकू इंडस्ट्री के अलावा टैक्सटाइल और लेदर इंडस्ट्री भी है।

प्रशांत किशोर ने दुनिया में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय वाले देश नॉर्वे का भी नाम लिया। नॉर्वे में तेल और गैस पर आधारित पेट्रोलियम उद्योग अर्थव्यवस्था में काफी अहम योगदान देते हैं। इस देश में विनिर्माण उद्योग भी काफी आगे है। सर्विस सेक्टर यहाँ तीसरे स्थान पर है। मछली पकड़ना, खेती-बाड़ी और हाइड्रो पावर सेक्टर भी यहाँ काफी विकसित है।

न्यूजीलैंड में कृषि, डेयरी, माँस और ऊन उद्योग काफी विकसित हैं। इसके अलावा एल्यूमिनियम जैसे धातु आधारित उद्योग, लकड़ी और पेपर आधारित उद्योग, कैमिकल आधारित उद्योग भी काफी हैं। इसके अलावा खनन और सेवा उद्योग जैसे स्वास्थ्य सेवा, वित्त और आईटी शामिल हैं। ऐसे में प्रशांत किशोर का सिर्फ उद्योग धंधों के बिना इन देशों के विकसित होने का दावा करना महज फिजूल की बात है, क्योंकि वो ये नहीं बताते कि इन देशों का विकास कैसे हुआ। सबसे अहम बात, ये देश उपनिवेशीकरण के दौर में आगे बढ़े-जिसकी चर्चा फिर कभी।

प्रशांत किशोर के पास बिहार को आगे ले जाने का कोई रोडमैप नहीं

वैसे, प्रशांत किशोर ने बिहार में जॉब यानी नौकरी पैदा करने की जरूरत पर भी बात की। उन्होंने कहा, “जब लोगों को शिक्षा के साथ-साथ संसाधन और काम करने के लिए अनुकूल माहौल मिलेगा, तो बिहार से पलायन रुक जाएगा। इंडस्ट्री से पलायन नहीं रुकता है। पलायन रोकना है तो लोगों के लिए जॉब जेनरेट करनी होगी। “

चलिए, ये बात तो है कि प्रशांत किशोर बिहार में नौकरी पैदा करने की जरूरत को मानते हैं, लेकिन ये होगा कैसे? बस, इसी सवाल का जवाब उनके पास नहीं मिलता। प्रशांत किशोर आरजेडी, कॉन्ग्रेस, जेडीयू और बीजेपी को भला- बुरा कह रहे हैं। पीएम मोदी से लेकर लालू यादव, तेजस्वी यादव, राहुल गाँधी सबका नाम ले रहे हैं और उनकी कमियाँ गिना रहे। राज्य में क्या है, क्या नहीं? सबकी बात करते हैं लेकिन विकास का विजन गायब है। दूसरे नेताओं की तरह शब्दों को चासनी में डाल कर बस जनता को बरगलाते नजर आ रहे हैं। ऐसे में जनता प्रशांत किशोर की बात से कितना ‘कन्विंस’ हो पाएगी, ये तो समय ही बताएगा।

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रुपम
रुपम
रुपम के पास 20 साल से ज्यादा का पत्रकारिता का अनुभव है। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा। जी न्यूज से टेलीविज़न न्यूज चैनल में कामकाज की शुरुआत। सहारा न्यूज नेटवर्क के प्रादेशिक और नेशनल चैनल में टेलीविज़न की बारीकियाँ सीखीं। सहारा प्रोग्रामिंग टीम का हिस्सा बनकर सोशल मुद्दों पर कई पुरस्कार प्राप्त डॉक्यूमेंट्री का निर्माण किया। एडिटरजी डिजिटल हिन्दी चैनल में न्यूज एडिटर के तौर पर काम किया।

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