Thursday, April 25, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देएक और जुलाई आई, राहुल गाँधी की 'मेधा' आई? जमीं जुम्बद, फलक ज़ुम्बद-न ज़ुम्बद,...

एक और जुलाई आई, राहुल गाँधी की ‘मेधा’ आई? जमीं जुम्बद, फलक ज़ुम्बद-न ज़ुम्बद, गुल मोहम्मद!

जो जानकारियाँ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं, वे राहुल गाँधी को उपलब्ध क्यों नहीं? उन्हें उपलब्ध नहीं हैं, क्या यह संभव है? यदि यह संभव नहीं है तो फिर ऐसे प्रश्न करने के पीछे मंशा क्या है?

राहुल गाँधी का राजनीतिक आचरण राहुल गाँधी की तरह ही हो गया है, पूरी तरह से अनियत। जैसे बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित या विश्लेषक यह नहीं बता पाता कि राहुल जी कब और क्यों कौन देश चले जाएँगे, वैसे ही राहुल जी यह नहीं बता सकते कि उनका बयान कौन दिशा में चल देगा। परंपरागत मीडिया को दिए गए बयान हों या फिर सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए, उन्हें देखकर लगता है जैसे कोई टीनेजर मन ही मन ‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम’ सोचते हुए कुछ भी बोल या लिख दे। या फिर ‘कुछ भी कह दो’ जैसे राजनीतिक दर्शन के सहारे कुछ भी कह दे। 

पता नहीं राहुल गाँधी अपने ये बयान किसी सोची समझी-रणनीति के तहत देते हैं या फिर ट्रायल एंड एरर जैसी किसी थ्योरी का सहारा लेते हुए, पर इन्हें देखते हुए ऐसा अवश्य प्रतीत होता है जैसे वे खुद अपने बयानों को गंभीरता से नहीं लेते। जैसे उनके लिए जितना ही प्रधानमंत्री बनना आवश्यक है, उतना ही बयान देना भी आवश्यक है। यह शोध का विषय होगा कि कोई राजनेता इस दशा में कब और कैसे पहुँचता है। शोध का निष्कर्ष चाहे जो निकले पर राजनीतिक सूझबूझ की दृष्टि से यह दशा दयनीय है। उस राजनेता के लिए तो और भी जो एक सौ पैंतीस करोड़ नागरिकों के राष्ट्र को नेतृत्व देने की मंशा रखता है। 

अब पता नहीं बैठे-बैठे या खड़े-खड़े, राहुल गाँधी ने ट्वीट करते हुए पूछा है, “जुलाई आ गया है, वैक्सीन नहीं आई।”

यह कैसा प्रश्न हुआ? प्रश्न का आधार क्या है? आखिर यह किसी तथ्य पर आधारित है या फिर जैसा मैंने पहले कहा कि; समय बिताने के लिए करना है कुछ काम नामक दर्शन के तहत बस कर दिया गया है। जैसे दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं वैसे ही प्रश्न उठते हैं। कोई इस बात से असहमत न होगा कि प्रश्न पूछना विपक्ष की राजनीति का आधार होता है, पर क्या ऐसे प्रश्न करने से यह आधार कमज़ोर नहीं होता? विपक्ष के इस दर्शन में तथ्यहीन प्रश्न आवश्यक क्यों हैं? यह समझना कितना कठिन है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष आवश्यक है, विरोध नहीं। हर बात पर विरोध किए बिना भी विपक्ष की भूमिका न केवल निभाई जा सकती है पर उसे प्रासंगिक भी रखा जा सकता है।  

यदि व्यवहारिकता की दृष्टि से देखें तो इस एक प्रश्न के उत्तर में आधा दर्जन प्रश्न खड़े हो सकते हैं। जैसे क्या राहुल गाँधी को यह नहीं पता है कि भारत में टीकाकरण कब से चल रहा है? क्या उन्हें यह पता नहीं कि टीके के कितने डोज़ किस दिन दिए गए? क्या उन्हें यह पता नहीं कि केंद्र सरकार या राज्य सरकारें इस तथ्य की जानकारी रोज देती हैं? क्या उन्हें किसी ने बताया नहीं कि अब तक देश में टीके के करीब 34 करोड़ डोज दिए जा चुके हैं? क्या उन्हें पता नहीं कि टीके के डोज की संख्या के मामले में भारत इस समय विश्व का अग्रणी देश है?  

जो जानकारियाँ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं, वे राहुल गाँधी को उपलब्ध क्यों नहीं? उन्हें उपलब्ध नहीं हैं, क्या यह संभव है? यदि यह संभव नहीं है तो फिर ऐसे प्रश्न करने के पीछे मंशा क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि; उनके ऐसे बयान हिटलर के शासन के उस सिद्धांत पर आधारित हैं जिसके अनुसार किसी झूठ को बार-बार बोलकर उसे सच बनाया जा सकता है। क्या ऐसा संभव है? वैसे इस रणनीति के ऐसे कोई ठोस परिणाम नहीं आए हैं जिसकी वजह से राहुल गाँधी या कॉन्ग्रेस पार्टी इस रणनीति को बार-बार राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए लगाए। 

ऐसा नहीं है कि उनके किसी बयान पर पहली बार चर्चा हो रही है। ऐसा भी नहीं है कि आगे कभी और न होगी, पर प्रश्न यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के नेता के लिए अपने बयानों पर चर्चा करवा लेना ही क्या राजनीतिक सत्ता की कुँजी है? यह ऐसा प्रश्न है जिस पर राहुल गाँधी विचार करें या न करें, उनकी पार्टी को अवश्य विचार करना चाहिए। वे भले ही न सोचें पर उनकी पार्टी को यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या केवल अनियत और ऐसे बयान जिनका तथ्यों से दूर-दूर तक नाता नहीं है, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि खराब करने के लिए पर्याप्त हैं?

यदि यह रणनीति कारगर होती तो फिर पिछले बीस वर्षों में कभी तो सफल होती हुई दिखती क्योंकि नरेंद्र मोदी के विरुद्ध आरोप और बयानों का सिलसिला बहुत पुराना है और समय-समय पर अलग-अलग नेताओं द्वारा ऐसे प्रयास पहले भी किए जा चुके हैं। राहुल गाँधी जो पिछले सात वर्षों से कर रहे हैं वह कोई नई बात नहीं है। अंतर केवल इतना है कि पहले लगाए जाने वाले आरोपों और दिए जाने वाले बयानों की तुलना में राहुल गाँधी के बयान बहुत अधिक बचकाने लगते हैं। 

यह स्थिति राहुल गाँधी के लिए अच्छी नहीं है। ऐसा करके वे अदालतों तक में फँस चुके हैं और माफ़ी भी माँग चुके हैं पर पता नहीं किस मुगालते में लगातार ऐसा करते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे बयान उनके राजनीतिक भविष्य के लिए रोड़ा ही हैं, खासकर इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया पर ऐसे एक बयान के जवाब में तथ्य लिए हुए एक लाख उत्तर आते हैं जो निश्चित तौर पर गाँधी ब्वाय की रणनीति के लिए सही नहीं हैं। उन्हें समझने की आवश्यकता है कि भारत अब 1980 के दशक से बहुत आगे आ चुका है और प्रश्न, उत्तर या विमर्श केवल झूठ पर आधारित नहीं हो सकते। वे समझेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि अभी तक यही संदेश मिला है कि;

जमीं जुम्बद, फलक ज़ुम्बद,
न ज़ुम्बद, गुल मोहम्मद!
  

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

लोकसभा चुनाव 2024: दूसरे चरण की 89 सीटों पर मतदान, 1198 उम्मीदवारों का फैसला करेंगे मतदाता, मैदान में 5 केंद्रीय मंत्री और 3 राजघरानों...

दूसरे चरण में 5 केंद्रीय मंत्री चुनाव मैदान में हैं, जिसमें वी. मुरलीधरन, राजीव चंद्रशेखर, गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी और शोभा करंदलाजे चुनाव मैदान में हैं।

कॉन्ग्रेस ही लेकर आई थी कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण, BJP ने खत्म किया तो दोबारा ले आए: जानिए वो इतिहास, जिसे देवगौड़ा सरकार की...

कॉन्ग्रेस का प्रचार तंत्र फैला रहा है कि मुस्लिम आरक्षण देवगौड़ा सरकार लाई थी लेकिन सच यह है कि कॉन्ग्रेस ही इसे 30 साल पहले लेकर आई थी।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe