लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों के साथ ही यह बात भी साफ़ हो गई कि कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी अपनी संसदीय क्षेत्र अमेठी से सीट से हार गए। उन्हें स्मृति ईरानी ने 54,731 वोटों से हरा दिया। अमेठी में ईरानी को कुल 4,67,598 वोट मिले और राहुल गाँधी को 4,12,867 वोट मिले।
ज़रा पीछे चलें तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि इस जीत को सुनिश्चित करने के लिए स्मृति ईरानी ने अपने संसदीय क्षेत्र में काफी काम किया था। अमेठी और रायबरेली की संसदीय क्षेत्रों को कॉन्ग्रेस का गढ़ माना जाता है। इन सीटों पर कॉन्ग्रेस की हार इस बात का संकेत है कि जनता अब यह अच्छी तरह से जान चुकी है कि राजनीति किसी की बपौती नहीं होती बल्कि इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होती है। ‘वंशवाद’ की छवि को आगे रखकर राजनीति में बने रहना अब कॉन्ग्रेस के लिए आसान नहीं रहेगा।
इस लेख में हम राहुल गाँधी की हार और उनके बचाव में उतरे मीडिया गिरोह की बात करेंगे। आइये सबसे पहले उन कारणों पर नज़र डालते हैं जिनकी वजह से राहुल गाँधी को हार का मुँह देखना पड़ा।
राहुल गाँधी अपनी ‘पप्पू’ की छवि से नहीं उबर पाए
पहला कारण तो यही है कि राहुल गाँधी ख़ुद को एक नेता के रूप में स्थापित नहीं कर सके। राहुल गाँधी, अपनी एक ऐसी छवि बनाने में असफल रहे जिससे जनता उन पर भरोसा कर सकती। उनकी परिपक्वता के पैमाने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लोग उन्हें ‘पप्पू’ कहने से नहीं चूकते। राहुल गाँधी की पप्पू वाली जनता के बीच इतनी प्रचलित थी कि उससे आहत होकर कॉन्ग्रेस के सैम पित्रोदा को प्रेस कॉन्फ्रेंस तक करनी पड़ गई और यह तक कहना पड़ा गया कि राहुल गाँधी पप्पू नहीं है बल्कि बुद्धिमान हैं।
इतना ही नहीं, जब यह बात सामने आई थी कि उनके राज में अमेठी में कोई विकास कार्य नहीं हुआ, तो अमेठी की जनता राहुल गाँधी को आईना दिखाने से भी नहीं चूकी। कॉन्ग्रेस का गढ़ रहे अमेठी के साथ ऐसा क्या किया गया, या नहीं किया गया कि जनता ने राहुल गाँधी को नकार दिया, इस बात पर कॉन्ग्रेस को पिछले चुनावों से ही सोचना चाहिए था, जो कि उन्होंने नहीं किया। इस बात से कॉन्ग्रेस पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठता है, जिसका जवाब जनता ने उन्हें हराकर दिया।
वहीं, एक बात और ध्यान देने वाली है कि पिछले चुनावों में हार के बावजूद स्मृति ईरानी ने अमेठी का लगातार दौरा किया। बावजूद इसके कि वो अमेठी संसदीय क्षेत्र से सांसद नहीं थीं, उन्होंने वहाँ के विकास कार्यों पर अपनी पैनी नज़र बनाए रखी। यह उनके कड़े परिश्रम का ही फल है कि इस बार वो चुनावी मैदान में राहुल गाँधी को परास्त करने में सफल रहीं।
राफेल और ‘चौकीदार चोर है’ की टिप्पणी पड़ गई भारी
देश के प्रधानमंत्री को ‘चौकीदार ही चोर है’ की टिप्पणी राहुल गाँधी को काफ़ी महँगी साबित हुई। इस नारे की बदौलत राफ़ेल डील के मुद्दे को जमकर उछाला गया और इस पर मोदी सरकार को घेरने का अथक प्रयास किया गया। लेकिन, उनकी इस मेहनत पर उस वक़्त पानी फिर गया जब इसी मुद्दे पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट में नतमस्तक होकर माफ़ीनामा दाखिल करना पड़ा और यह स्वीकार करना पड़ा कि भविष्य में वो कभी कोर्ट के हवाले से कुछ नहीं कहेंगे। उनके ‘चौकीदार चोर है’ की टिप्पणी का जवाब तो जनता ने भी बख़ूबी दिया था जब मोदी के ‘मैं भी चौकीदार’ अभियान का हिस्सा बनकर उसे न सिर्फ़ पीएम मोदी के दल नेताओं और कार्यकर्ताओं ने आगे बढ़ाया था बल्कि जनता ने भी (सोशल मीडिया पर) अपने नाम के आगे चौकीदार लिखकर ख़ुद को पीएम मोदी का समर्थक बताया।
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट में लगी फ़टकार का असर न सिर्फ़ अकेले राहुल गाँधी पर पड़ा था बल्कि जागरूक होती जनता पर भी पड़ा था, जिनके मन में राहुल गाँधी की छवि एक झूठ बोलने वाले व्यक्ति की बन गई थी।
‘मोदी-मोदी’ का जाप नहीं आया काम
राहुल गाँधी की हार का एक और सबसे कारण यह रहा कि वो और उनके बयान हमेशा मोदी के ईर्द-गिर्द ही घूमते नज़र आए। कोई मुद्दा न होते हुए भी उन्हें घेरकर रखने की अपनी बुरी आदत वो त्याग ही नहीं पाए। फिर भले ही देश के प्रधानमंत्री को नोटबंदी से घेरना हो या फिर जीएसटी के मुद्दे पर हो या फिर हो राफ़ेल डील। हर मुद्दे पर मोदी-मोदी कहने के अलावा कॉन्ग्रेस और उनके आला दर्जे के नेता कुछ कह ही नहीं पाए। राहुल गाँधी ने कोई मुद्दा ना पाकर अपनी छटपटाहट को दूर करने का एकमात्र साधन पीएम मोदी को बनाए रखा और यही उनके भूल साबित हुई।
‘NYAY’ योजना के नाम पर जनता को ठगने का किया काम
कॉन्ग्रेस ने किसानों और बेरोज़गारी को भी मुद्दा बनाया और इसके लिए भी मोदी पर ही निशाना साधा गया, जबकि राहुल गाँधी ने अपनी ‘न्याय’ योजना की असलियत से जनता को दूर रखा जिसके तहत लोगों को प्रतिवर्ष 72,000 रुपए देने की बात कही गई थी। जबकि इस योजना की हक़ीक़त यह है कि ‘NYAY’ योजना के लिए इतना फंड कहाँ से आएगा और वो इतना पैसा जनता में कैसे बाँटेगे जैसे तमाम सवालों पर पूरी योजना ही सवालों के घेरे में दिखी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस वादे को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के खिलाफ मानते हुए कॉन्ग्रेस पार्टी को नोटिस जारी किया। यहाँ तक कि ‘NYAY’ योजना के फ़र्ज़ी फॉर्म तक बँटवाने की ख़बरें भी सामने आई थीं।
आदिवासी को मारने के क़ानून पर मोदी को घेरना सार्थक नहीं रहा
राहुल गाँधी ने अपने हर बयान में कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर कहा कि जिससे उनकी फ़ज़ीहत होनी तय थी। एक रैली को संबोधित करते हुए राहुल ने मध्य प्रदेश में पीएम मोदी पर आरोप मढ़ते हुए कहा था कि पीएम मोदी ने ऐसा क़ानून बनाया है जिससे आदिवासियों को गोली से मारा जा सकेगा। दरअसल, सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर हुआ था जिसमें वो यह दावा करते दिखे कि प्रधानमंत्री मोदी ने जो क़ानून बनाया है उससे आदिवासियों पर आक्रमण होगा। राहुल गाँधी के इस बयान का सीधा मतलब था कि वो इस क़ानून के बहाने जनता को बरगलाने की पूरी कोशिश कर रहे थे।
महागठबंधन के नाम पर की गई नौटंकी भी व्यर्थ रही
बनता-बिगड़ता महागठबंधन अपने आप में एक असुलझी पहेली थी। पीएम पद को पाने की लालसा सभी विपक्षी दलों के नेताओं की थी। इस पर अकेले राहुल गाँधी भला कर भी क्या सकते थे। इसकी वजह है कि देश में पीएम पद केवल एक है और उसके दावेदार अनेक। वहीं, दूसरी तस्वीर यह है कि राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने पर एकमत नहीं थे बल्कि पीएम पद को लेकर आपस में ही भिड़ रहे थे। इसका असर भी जनता पर पड़ा। विपक्ष की तरफ से राहुल गाँधी को पीएम के रूप में न स्वीकारना भी उनकी हार का एक बड़ा कारण था। यही वजह रही कि महागठबंधन के नाम पर बैठकों का दौर तो जोर-शोर पर चला, लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका।
उदारवादी हिन्दू बनने का ढोंग भी न आया काम
राहुल गाँधी ने ख़ुद को हिन्दू साबित करने के लिए ख़ूब एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया। अब इसके लिए वो कभी जनेऊधारी बने तो कभी गंगा आरती के लिए घाट पर पहुँचे। भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेंडे का मुक़ाबला करने के लिए राहुल गाँधी ने अपना जनेऊ तक दिखाया, लेकिन वो सब काम नहीं आ सका। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। दरअसल, अपने हिंदू होने का प्रमाण देने के चक्कर में राहुल यह भूल गए कि जनता होशियार हो गई है, उसे धर्म के नाम पर बरगलाना आसान नहीं है। जनता अब यह समझते देर नहीं लगाती कि गाँधी-वाड्रा परिवार ने भ्रष्टाचार की सारी हदें लगभग पार कर दी जिसका ख़ामियाज़ा राहुल गाँधी को अब हार के रूप में स्वीकारना पड़ रहा है।
राहुल गाँधी की हार के बाद अब उस मीडिया गिरोह की बात करते हैं जिन्होंने हताशा के इस आलम में भी उनका (राहुल गाँधी) साथ नहीं छोड़ा और उनकी हार का मातम मनाने की बजाए उनके बचाव में खड़े हैं।
NDTV चैनल के एंकर ने अपने पत्रकार सुनील प्रभु से राहुल गाँधी के नेतृत्व पर सवाल पूछा। इस पर पत्रकार ने हालिया स्थिति पर तो बात की ही साथ में राहुल के नेतृत्व को लेकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जीत का ज़िक्र भी किया। पत्रकार का रुख़ जब राहुल की ग़लतियों की तरफ़ बढ़ने तो एंकर ने उसे रोकते हुए अन्य प्रश्नों की दुहाई दी और अपना अपनी चर्चा का रूख़ बदल दूसरे प्रश्नों पर बदल लिया। बता दें कि पत्रकार महोदय इस ख़बर की रिपोर्टिंग गाँधी परिवार के घर के बाहर से कर रहे थे। हो सकता है कि रिपोर्टिंग के बाद शायद वो राहुल गाँधी को उनकी हार के लिए दिलासा देने उनके घर तक पहुँच जाएँ। आख़िर इस क़रारी हार में यही मीडिया गिरोह उन्हें थोड़ी राहत पहुँचा सकता है।
Rahul Gandhi’s leadership question within Congress. Will he offer to resign? NDTV’s Sunil Prabhu reports from outside Mr Gandhi’s home#ResultsWithNDTV #ElectionResults2019 #Verdict2019 pic.twitter.com/xZycMjaPQ3
— NDTV (@ndtv) May 23, 2019
NDTV पर नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गाँधी के मुक़ाबले पर लाइव चर्चा के दौरान कॉन्ग्रेस प्रवक्ता शमा मोहम्मद ने अपने विचार शेयर किए। लाइव चर्चा में मोदी नेतृत्व और राहुल गाँधी के नेतृत्व की तुलना पर पूछे गए सवाल पर शमा ने कहा कि यह कोई नेतृत्व की लड़ाई नहीं थी बल्कि इसके पीछे कई कारण थे। शमा ने मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए उन पर नफ़रत की राजनीति करने का आरोप लगाया। शमा ने यह भी कहा कि बालाकोट घटना को बीजेपी द्वारा कई अवसरों पर इस्तेमाल किया गया, अपने कैंपेन के तहत इस घटना को शामिल करके जनता को भरमाने का प्रयास किया।
एक बात तो तय है कि राहुल के बचाव में उतरी शमा ने लोकसभा चुनाव 2019 में पीएम मोदी की जीत को जनता की जीत तो बिल्कुल नहीं माना।
Narendra Modi vs Rahul Gandhi a no-contest once again? Congress’ Shama Mohamed shares her views#ResultsWithNDTV #ElectionResults2019 pic.twitter.com/5XfD5mbvEu
— NDTV (@ndtv) May 23, 2019
राहुल गाँधी के बचाव में आई उनकी क़रीबी साध्वी खोसला ने भी अपने मन की बात रखने के लिए ट्विटर का सहारा लिया और लिखा- @INCIndia को @RahulGandhi की ज़रूरत है- लेकिन उन्हें अपने सलाहकारों, रणनीतिकारों, कुलीन उदारवादी थिंक टैंक को बदलने की ज़रूरत है… उन्हें एक ऐसी टीम की ज़रूरत है, जो ज़मीनी तौर पर विनम्र हो जो बेहतर भारत बनाने के लिए, उसकी ज़रुरतों के लिए बेहतर सोच रखता हो। @priyankagandhi
I will once again reiterate- @INCIndia needs @RahulGandhi – but he needs to change his advisors, strategists, elite liberal think tank… he needs a team which is grounded, humble and understands the needs of changing aspirational India better. @priyankagandhi https://t.co/KMxQGByWzy
— Sadhavi Khosla?? (@sadhavi) May 23, 2019
लगभग इसी बात को दोहराते हुए सोशल मीडिया पर राहुल गाँधी को लेकर यह लिखा गया कि पार्टी के नेतृत्व के लिए @RahulGandhi को बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन्होंने इन चुनावों के लिए बहुत मेहनत की है। लेकिन उन्हें अपने रणनीतिकारों, अभियान टीमों और थिंक टैंकों को बदलने की ज़रूरत है। वे लगातार उन लोगों के सम्पर्क में रहते हैं जो भारत के लोगों के साथ तालमेल बिठाने में सक्षम नहीं हैं।
There is no need for changing @RahulGandhi as a leader. He has worked extremely hard for these polls. But he needs to change his strategists, campaign teams and think tanks. They are consistently tanking party with ideas which are not in sync with people of India.
— Friends of Congress (@friendscongress) May 23, 2019
इसके अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनसे पूछे जाने वाले सवाल भी आए दिन चर्चा का विषय बने रहे। इसमें विपक्ष समेत कई बड़े मीडिया हाउस यह बताने का भरसक प्रयास करते रहे कि कि पीएम मोदी कठिन सवालों के जवाब नहीं देते या उनसे जो सवाल पूछे जाते हैं, उनमें किसानों की समस्या और रोज़गार जैसे बड़े मुद्दे शामिल ही नहीं होते। दावा तो यहाँ तक किया गया कि पीएम मोदी के साक्षात्कार में केवल हँसी-ठिठोली, मनोरंजन और उनकी पसंद के व्यंजनों से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं। जबकि ‘समोसे के स्वाद और गुड़ की जलेबी’ वाले सवालों पर राहुल गाँधी कभी कुछ बोलते नहीं दिखे।
स्मृति ईरानी की जीत एक और बात सिद्ध करती है कि अब जनता पहले से अधिक सजग, जागरूक और समझदार हो चुकी है। वो किसी बहकावे में आने की बजाए इस अंतर को समझने में सक्षम हो चुकी है कि विकास के मुद्दों पर बात करना या घोषणा करना और उसे अमली जामा पहनाना दोनो अलग-अलग बातें है। इसलिए जनता ने ख़ुद ही तय कर लिया कि उसे देश में ऐसी सरकार चाहिए, जो मात्र घोषणाएँ ही न करे बल्कि उसके क्रियान्वयन पर भी ठोस क़दम उठाए।