Thursday, April 25, 2024
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…क्यूँकि ये बंगाल है: पहले लेफ्ट-अब TMC, वही किया जिसका सावरकर को दशकों पहले हो गया था एहसास

निहितार्थ वही हैं जो सावरकर ने कहा था, 'हिन्दू कभी एक साथ लामबंद नहीं हो सकते और हिन्दू ही हिन्दू के लिए खतरा है।'

अरस्तू ने लोकतंत्र को शासन का सबसे भ्रष्ट स्वरूप माना है। इसलिए माना है क्योंकि उन्होंने ‘लोकतांत्रिक मूल्य’ जैसी अवधारणा नहीं देखी थी। जबकि अरस्तू के बाद के राजनीति विज्ञानियों ने लोकतंत्र को लोकतांत्रिक मूल्यों के मनकों से सजाकर, इसे इतना माकूल बना दिया कि आज दुनिया का हर देश लोकतांत्रिक ‘दिखना’ चाहता है। चीन जैसा देश भी लोकतांत्रिक होने का दम भरता है।

पर ये लोकतांत्रिक मूल्य असल में हैं क्या? राजनीति की किताबों में लोकतंत्र के मायने बताते हुए वामपंथी बुद्धिजीवियों ने मोटे तौर पर यही कहा है, कि जहाँ चुनाव होते हैं, जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करती है… वहाँ लोकतंत्र है। जो नहीं लिखा, वहीं सारा खेल उलझा हुआ है।

आज पश्चिम बंगाल में खूनी खेल (खेला) हो रहा है। लोकतंत्र के मानकों पर चुनाव हुए, लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। कोरोना के बावजूद भी किया। सब दलों ने रैलियाँ की, कोरोना के बावजूद की। एक ओर रैलियों में जनता को मोह लेने वाले वायदे किए जा रहे थे, दूसरी ओर कोरोना लोगों को लीलता जा रहा था। यह सब होता रहा… लोकतंत्र को ज़िंदा रखने के लिए!

अब लोकतंत्र जिंदा है, पर बंगाल जल रहा है। कहीं तो लोकतंत्र की स्थापना में कोई मूलभूत सैद्धान्तिक चूक हुई है! स्वामी विवेकानंद ने आजादी के बारे में एक बार कहा था, ‘आजादी मिल जाना एक बात है, आजादी को सँभाल पाना दूसरी’। यही बात लोकतंत्र पर भी सटीक बैठती है। लोकतंत्र को सँभाल पाना बड़ी बात है। उसके लिए सभ्य समाज चाहिए। लोगों में कम से कम इतना धैर्य होना चाहिए कि वे अपनी हार (बंगाल में तो हार हुई भी नहीं) को स्वीकार सकें। यह बात सिर्फ बंगाल के लिए नहीं है, यही बात उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों को लेकर भी सही बैठती है। आखिर यहाँ भी तो बवाल हो ही रहे हैं… गोलियाँ चल ही रही हैं।

बंगाल में दंगे और वामपंथ

हाँ, एक बात और… संभवतः ये पहला ऐसा मामला है जहाँ वामपंथी भी चुनाव पश्चात हिंसा का शिकार हुए हैं। वरना ऐसा देखने- सुनने में आमतौर पर तो नहीं आता। क्योंकि जहाँ ये मजबूत हैं वहाँ खुद ही हिंसक भूमिका में होते हैं (केरल, बंगाल के पुराने दिन, और JNU इसके पुख्ता उदाहरण हैं) और जहाँ कमज़ोर हैं, वहाँ इतने कमज़ोर हैं कि हैं ही नहीं! इस बार बंगाल से इनका सूपड़ा साफ हुआ है। जनता ने इन्हें नकार दिया है। पर इनका वो कैडर तो है ही जो सालों से दमन का दम्भ भरता रहा है। पिछली पीढ़ियों के इनके कारनामे इतने क्रूर हैं कि लोग नफरत करते हैं इनसे।

इस बार इनकी खराब हालत की एक बानगी तो यही है कि चुनाव लड़ने के लिए कैंडिडेट तक नहीं मिले इन्हें। JNU से प्रोफेसर और स्टूडेंट्स को उठा-उठाकर चुनाव लड़ाया इन्होंने। उसके लिए भी इतनी जद्दोजहद कि पर्चा दाखिल करने की तारीख से दो दिन पहले बुलाकर टिकट दे दिया। ऐसे में हरना तो था ही! प्रशांत किशोर ने अपने साक्षात्कार में साफ कहा कि उन्हें यकीन था कि बंगाल में मुसलमान एकजुट होकर वोट करेंगे, पर यही बात हिंदुओं के बारे में सच नहीं है। आश्चर्य है कि ऐसी ही बात विनायक दामोदर सावरकर ने दशकों पहले कह दी थी, उन्होंने कहा था कि हिंदुओं को खतरा किसी और धर्म से नहीं, बल्कि खुद हिंदुओं से है। बंगाल में वामपंथियों के सौजन्य से यही हुआ है!

बंगाल में दंगों का इतिहास

आज जो बंगाल में हो रहा है वह बंगाल के लिए नया नहीं है। पर बीजेपी के लिए नया है। बंगाल में राजनीतिक हिंसा का पुराना इतिहास रहा है। सरकार चाहे वामपंथियों की रही हो या तृणमूल की सबने हिंसा के रास्ते से अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश की है। 1946 में जिन्ना के द्वारा करवाया गया ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का नरसंहार बंगाल के लिए दुर्भाग्यशाली जरूर था पर दुर्भाग्य से… आखिरी नहीं था। बंगाल ने नंदीग्राम भी देखा है और मरीचझापी भी।

चीन के पुराने नेता रहे माओ की वह बात कि ‘सत्ता का रास्ता बंदूक नाल से होकर गुजरता है’ को यहाँ लोगो ने बहुत गंभीरता से लिया है। और लें भी क्यों न! आखिर ‘माओ’ को भगवान मानने वाले लाल गिरोह का गढ़ रहा है बंगाल। आज जब बंगाल की जनता ने लाल झंडे को नेस्तनाबूद कर जमीन में मिला दिया है तो भी लाल गिरोह ने हिंसा की जो राह पिछले दशकों में बनाई है वो इतनी जल्दी खत्म कैसे हो जाएगी?

आज जब वामपंथी दलों के पार्टी कार्यालयों को फूँका गया, जब उनके कार्यकर्ताओं को मारा गया तब उन्हें शायद इस बात का एहसास हुआ होगा कि हिंसा बुरी बात है। इन सब बातों के आलोक में देखें तो हम पाएँगे कि हिंसा यहाँ कोई नई बात नहीं थी। राजू बिस्ता जी याद करते हैं कि जब उन्हें दार्जिलिंग लोक सभा क्षेत्र का प्रत्याशी बीजेपी ने बनाया तो उनके पास बधाई देने के लिए बहुत से फोन आए। लेकिन एक बात जो हर शुभचिंतक फोन पर दुहरा रहा था वो था कि आपको बहुत होशियार रहना है। आपके पास बॉडीगार्ड रहने चाहिए… क्यूँकि ये बंगाल है! यहाँ ‘क्यूँकि ये बंगाल है’ से आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं होती है। यह स्वतः स्पष्ट है कि हिंसा यहाँ होनी ही है।

बंगाल में दंगों का पैटर्न

बंगाल में जो हिंसा हुई उसके पैटर्न को भी देखने की जरूरत है। बंगाल में सत्ता परिवर्तन के कुछ ऐतिहासिक मोड़ रहे हैं। स्वतन्त्रता के बाद कॉन्ग्रेस तब तक बंगाल में बनी रही जब तक नेहरू का प्रभाव रहा। उसके बाद बंगाली भद्रलोक की राजनीति शुरू हुई और वामपंथ का बंगाल की राजनीति पर कब्जा हो गया। वामपंथ का शासन में आने का मतलब था वामपंथी मंसूबों को खुली छूट मिल जाना। बंगाल में वामपंथियों के संरक्षण नरसंहार के कई वाकये हुए। बात यहाँ तक पहुँची की एक ओर तो ‘भद्रलोक’ और दूसरी ओर हिंसा इस तरह बंगाल की राजनीति में घर कर गई कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को शुभकामना के साथ सावधान रहने का मशविरा देना भी आम हो गया।

ममता बनर्जी भी जब राजनीति में मुखर होकर उतरीं तो उन्हें भी वामपंथ की हिंसा का सामना करना पड़ा। कॉन्ग्रेस की कार्यकर्ता रहीं ममता पर जानलेवा हमले हुए। पर ममता की किस्मत अच्छी रही और वे राजनीति के शिखर तक पहुँचीं। ममता जब कॉन्ग्रेस से अलग होकर तृणमूल कॉन्ग्रेस के माध्यम से चुनावों आईं तो उनके साथ जो लोग जुड़े वे वही लोग थे जो किसी जमाने में वामपंथी गिरोह का हिस्सा थे। उन लोगों का तृणमूल से जुड़ना ये संदेश था कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन होना तय है। यही हुआ भी! ममता तृणमूल के रास्ते से बंगाल की सत्ता में आईं। पर उनके साथ वामपंथ का डीएनए भी सत्ता में आया। और यही कारण है कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन तो हुआ पर बंगाल की राजनीति से हिंसा समाप्त नहीं हुई।

अब आगे क्या? अब एक बार फिर से सत्ताधारी दल का एक बड़ा खेमा बीजेपी में शामिल हुआ है। बीजेपी इस बार के चुनावों में बहुत तेज़ी से उभरी है। ये संकेत है आने वाले समय में होने वाले सत्ता परिवर्तन का। ये बंगाल में होने वाले सत्ता परिवर्तन का पैटर्न है। बंगाल में चुनाव जीतते ही हिंसा का खूनी खेला जो तृणमूल ने खेला है, उसने बंगाल के लोगो को भी यह एहसास जरूर दिला दिया होगा कि उन्होने तृणमूल को सत्ता देकर उचित निर्णय शायद नहीं लिया।

बंगाल में दंगों का स्वरूप

एक सवाल और है। बंगाल में जो दंगे हुए उनका स्वरूप क्या था? क्या वे केवल राजनीतिक दंगे थे या राजनीति के लबादे में लिपटे हुए सांप्रदायिक दंगे थे? जवाब पाने के लिए वापस से इस बार के चुनावों में ममता बनर्जी के रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर के बयान को ध्यान से देखें तो हम पाएँगे कि वे शुरू से ही सांप्रदायिक लामबंदी के बल पर ही इस चुनाव को लड़ रहे थे। उन्होंने मुसलमानों की लामबंदी को ही ममता की जीत का मंत्र बताया था। चुनाव के बाद उन्होने खुद यह स्वीकारी भी! मुसलमानों की लामबंदी कैसे की गई? बीजेपी को हिंदुओं मात्र की पार्टी बताकर!

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि मुसलमानों की लामबंदी हिंदुओं के खिलाफ की गई। उनमें हिंदुओं के खिलाफ भावनाएँ, घृणा और गुस्सा भरा गया। अब जब चुनाव पश्चात वही गुस्सा हिंदुओं पर काल बनकर टूटा तो आश्चर्य कैसा? हिन्दू तो हिन्दू है, चाहे वो वामपंथी हो या बीजेपी का! यहाँ तक कि टीएमसी के खुद के हिन्दू नेताओं ने जब इस हिंसा पर बोलने की हिमाकत की तो उन्हें भी रौंदा गया। इन सब बातों के निहितार्थ क्या हैं?

निहितार्थ वही हैं जो सावरकर ने कहा था, ‘हिन्दू कभी एक साथ लामबंद नहीं हो सकते और हिन्दू ही हिन्दू के लिए खतरा है।’ निहितार्थ वह भी है जो जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन डे को लेकर साजिश किया था, बंगाल को मुस्लिम बहुल राज्य बनाना। आज बंगाल में बढ़ती हुई बंगलादेशी घुसपैठियों और रोहिंग्या लोगों की आबादी इस दिशा में बढ़ता प्रमाण है।

एक तरफ ये सबकुछ हो रहा है। दूसरी तरफ इस देश के वामपंथी हैं, जिन्हें इस देश की व्यवस्था को कोसने का एक और मौका मिल गया है। आने वाले समय में ये वामपंथी लोकतंत्र को तरह तरह से गरियाएँगे। बिल्कुल वैसे ही जैसे ट्रम्प के समय में अमेरिका में हो रहा था। अब इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों को परिभाषित करने की जरूरत महसूस होगी। इन्हें लगेगा कि लोकतंत्र के शासन में ‘रूल ऑफ लॉ’ गड़बड़ा जाता है। पर ये तो खैर वामपंथी हैं, कहते रहेंगे।

(लेखक प्रशान्त शाही, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं)

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