क्यू.एस. वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग–2025 में अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देश भारत से बहुत ऊपर हैं। इसी प्रकार द टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग–2025 में एशिया के पहले 10 विश्वविद्यालयों में चीन के पाँच, हाँगकाँग के 2, सिंगापुर के 2 और जापान का एक विश्वविद्यालय शामिल है। इस रैंकिंग में भी भारत की स्थिति सम्मानजनक नहीं है। ये रैंकिंग भारत के उच्च शिक्षातंत्र की वर्तमान बदहाली को बयान करती हैं।
भारत के संकटग्रस्त शिक्षातंत्र का पुनरुत्थान करने और उसे गुणवत्तापूर्ण, पेशेवर और प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए लंबे समय से उसके अंतरराष्ट्रीयकरण की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अब उच्च प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में परिसर खोलने की अनुमति दी जा रही है ताकि भारत के शैक्षिक परिदृश्य में गुणात्मक सुधार किया जा सके।
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश के आवश्यक कारकों में से एक भारत की विशाल और निरंतर बढ़ती छात्र आबादी है। भारतीय छात्रों के बीच अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की भारी माँग है। सत्र 2023-24 में विदेश में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या जहाँ लगभग 15 लाख थी, वहीं 2024-25 में यह संख्या करीब 18 लाख हो गयी। पिछले 10 साल के आँकड़ों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि यह संख्या 15-20 प्रतिशत वार्षिक की दर से क्रमशः बढ़ रही है।
कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन स्थित संस्थान भारतीय छात्रों के सबसे पसंदीदा तीन अध्ययन स्थल हैं। इनके बाद जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और फ़्रांस जैसे देशों के संस्थान हैं। इतनी बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों के अध्ययन हेतु विदेश जाने से हमारे धन का लगभग 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर (₹34,14,14,36,40,000-34 लाख करोड़ रुपए से अधिक) बाह्यप्रवाह हो रहा है। यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 3% है।
इसका सीधा असर भारतीय वित्तीय और मानव पूँजी के चिंताजनक अभाव के रूप में दिखेगा। वित्तीय घाटे के अलावा, राष्ट्र को अपनी भारी मानव प्रतिभा का भी नुकसान झेलना पड़ रहा है, क्योंकि विदेशों में अध्ययन हेतु गए छात्र अक्सर वहीं काम करते रहने और बसने का विकल्प चुनते हैं। यह प्रतिभा पलायन और धन का बाह्यप्रवाह चिंताजनक है।
अभी हाल ही में ब्रिटेन के लिवरपूल विश्वविद्यालय ने भारत के बेंगलुरु शहर में अपना परिसर प्रारम्भ करने का निर्णय लेते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और शिक्षा मंत्रालय के साथ समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं। अब तक भारत में पाँच अन्य प्रतिष्ठित विदेशी संस्थान अपने परिसर खोलने की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं। इनमें ब्रिटेन का साउथैम्प्टन विश्वविद्यालय गुरुग्राम में, अमेरिका का इलिनॉयस इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी मुंबई में, ऑस्ट्रेलिया की डाकिन यूनिवर्सिटी और वोलोंगोंग यूनिवर्सिटी गिफ्ट सिटी, गुजरात में अपने परिसर खोल रहे हैं।
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने आशा व्यक्त की है कि इस वर्ष कम से कम 15 प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने परिसर प्रारंभ करेंगे। यह भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीयकरण की महत्वाकांक्षी परियोजना है। भारत में ऐसे नामचीन विश्वविद्यालयों द्वारा परिसर स्थापना भारत की वैश्विक शैक्षणिक साझेदारी की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी। यह भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, अन्तर्निहित अवसरों और संभावनाओं का परिणाम है। यह शैक्षणिक साझेदारी भारत को एक नॉलेज इकॉनोमी बनाते हुए उसकी सॉफ्टपॉवर को भी नई धार देगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP)-2020 में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव है। इसी संकल्पना के अनुरूप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में परिसर स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर रहा है। विदेशी विश्वविद्यालय/संस्थान अब भारत में अपने परिसर स्थापित कर पा रहे हैं,क्योंकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा भारत में विदेशी संस्थानों की स्थापना और संचालन के लिए ‘भारत में विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों के परिसर की स्थापना और संचालन विनियम -2023’ को लागू कर दिया गया है। इससे भारतीय उच्च शिक्षा के स्तर में गुणात्मक वृद्धि होगी और छात्रों के भारत छोड़कर विदेश जाने की संख्या में भी काफी हद तक कमी आएगी।
ये विनियम विदेशी विश्वविद्यालयों को उनकी प्रवेश प्रक्रिया, शुल्क संरचना, शिक्षकों की सेवाशर्तें और पारिश्रमिक तय करने और उनके द्वारा अर्जित धनराशि को स्थापना के दस वर्ष बाद स्वदेश भेजने की स्वायत्तता प्रदान करते हैं। यह भी तय किया गया है कि ये विश्वविद्यालय देश भर के अपने सभी परिसरों में ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा के बजाय ऑफलाइन माध्यम में पूर्णकालिक कार्यक्रम प्रदान करेंगे। सिर्फ वही विदेशी संस्थान भारत में अपने परिसर स्थापित कर सकेंगे जिन्होंने समग्र अथवा विषय-वार वैश्विक रैंकिंग के शीर्ष 500 में अपनी जगह बनाई हो या कि अपने गृह क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा प्राप्त कर रखा हो। नियमानुसार प्रारंभिक स्वीकृति 10 वर्षों के लिए दी जाएगी।
इससे भारतीय छात्रों को सस्ती कीमतों पर विदेशी विश्वविद्यालयों से प्राप्त होने वाली डिग्री, कौशल और शिक्षण अनुभव प्राप्त होगा। साथ ही भारत अध्ययन हेतु एशिया और अफ्रीका जैसे महाद्वीपों के छात्रों के लिए एक आकर्षक और वहनीय वैश्विक गंतव्य भी बनेगा। दिलचस्प बात यह है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार ने भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीयकरण हेतु गंभीर पहल की है, क्योंकि विदेशी संस्थानों के परिसरों को भारत में स्थापित करवाने के ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं।
पहली बार वर्ष 1995 में एक विधेयक लाया गया था लेकिन वह आगे नहीं बढ़ सका। साल 2007 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार के दौरान भी ऐसा ही एक प्रस्ताव सामने आया था, जिसका क्रियान्वयन न हो सका। शिक्षा का यह प्रारूप पहले से ही कई देशों में अपनाया जा चुका है; उदाहरण के लिए – न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के परिसर आबूधाबी और शंघाई में भी हैं। इनके अलावा इसके शिक्षण केंद्र बर्लिन, ब्यूनस आयर्स और मैड्रिड जैसे शहरों में भी हैं। इस प्रकार भारतीय शिक्षा प्रणाली में, यह समयबद्ध और ठोस कार्य योजना एक सर्वसमावेशी और वैश्विक दूरंदेशी दृष्टि की परिचायक सिद्ध होगी।
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों की स्थापना उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाने की इस प्रवृत्ति को निश्चित तौर पर कम कर सकती है और साथ ही विदेशी मुद्रा की आवश्यकता को भी कम कर सकती है। भारतीयों के साथ-साथ उपमहाद्वीप और अधिसंख्य विकासशील देशों के छात्र भी इन संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं जो कि बहु-संकृतिवाद को प्रोत्साहित करते हुए अन्यान्य देशों के साथ गहरे संबंध स्थापित करने में भारत की मदद करेगा।
कुशल कार्यबल के लिए बहुत सारे रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे क्योंकि नए परिसरों की स्थापना के लिए विशाल कार्यबल, निर्माण-सामग्री आदि की आवश्यकता होगी। साथ ही विदेशी विश्वविद्यालयों के पास बेहतर संसाधन उपलब्ध हैं; जैसे धन की उपलब्धता, प्रशिक्षित एवँ पेशेवर संकाय, आधुनिक बुनियादी ढाँचा, बेहतर शिक्षण /शोध पद्धतियाँ और तकनीकी संसाधन। इसलिए विदेशी विश्वविद्यालय प्रतिभाशाली प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं को बेहतर काम करने हेतु अवसर प्रदान करते हुए देश में अनुसंधान एवँ विकास को प्रोत्साहित करेंगे।
इस प्रकार विदेशी संस्थानों का भारत में प्रवेश प्रतिभा पलायन रोकने के साथ कम लागत पर भारतीय छात्रों को बेहतरीन एवँ प्रतिभाशाली छात्रों के साथ शोध और अध्ययन करने का अवसर/अनुभव प्रदान करेगा। यह अनुमान लगाया गया है कि यदि भारत में पर्याप्त विदेशी विश्वविद्यालय स्थापित हो जाते हैं तो उच्च शिक्षा के लिए देश छोड़ने वाले 75 प्रतिशत भारतीय छात्र भारत में ही रह सकते हैं। यह निश्चित रूप से हमारी पूँजी के बहिर्वाह और प्रतिभा पलायन को रोकेगा। इसके अलावा सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराते हुए ‘ग्लोबल साउथ’ के बहुत से छात्रों को आकर्षित करते हुए विदेशी धन और प्रतिभा का आगमन भी सुनिश्चित करेगा।
भारत में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और 42000 से अधिक महाविद्यालय हैं। विश्व का सर्वाधिक वृहत उच्च शिक्षा तंत्र होने के बावजूद उच्च शिक्षा में भारत का सकल नामांकन अनुपात (G।R) सिर्फ 27.1% है, जो कि विश्व में सबसे कम है। ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहाँ वर्तमान भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु उचित कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, हमारा कोई भी विश्वविद्यालय QS रैंकिंग में शीर्ष 100 में नहीं है।
भारतीय अकादमिक संस्थानों का जोर मुख्य रूप से अंक देने और डिग्री बाँटने पर होता है। इसलिए अनुसंधान और विकास की अनदेखी कर दी जाती है। अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप, योग्य शिक्षकों और कर्मचारियों की कमी, कम टर्नओवर/निवेश, छात्रों का ड्रॉपआउट और राजनीतिकरण जैसी शिक्षण के मोर्चे की चुनौतियाँ भारतीय अकादमिक संस्थाओं के मूल्यवर्द्धन की बाधाएँ हैं।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के घोषित लक्ष्य, जो कि उच्च शिक्षा के माध्यम से मानव की पूर्ण क्षमता को विकसित करते हुए एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में उसकी राष्ट्र की प्रगति में भूमिका सुनिश्चित करना है, को ध्यान में रखते हुए हमें सीखने की प्रक्रिया में बदलाव कर वर्तमान समय की माँग के अनुरूप नए दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है। समय आ गया है कि उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और विकसित सूचना तकनीक के माध्यम से शैक्षणिक स्वायत्तता, न्यूनतम शासन, दूरदर्शी प्रबंधन, बेहतर फैकल्टी, उद्योगों और समाज के साथ समन्वय और छात्रों की बहुआयामी सक्रियता और कौशलपरक शिक्षा के मद्देनज़र भारत में उच्च शिक्षा के स्तर को बढ़ाने हेतु विदेशी संस्थानों का स्वागत किया जाय।
कैरियर परामर्श और रोजगारपरकता भी एक क्षेत्र है जिसमें भारतीय संस्थान अपने विदेशी समकक्षों से बहुत पीछे हैं। हमारा पाठ्यक्रम उन लोगों से चर्चाओं पर आधारित नहीं होता है जो अंततः हमारे छात्रों को रोजगार देते हैं या अपने यहाँ काम पर रखते हैं।
वहीं दूसरी तरफ, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भविष्य की संभावनाओं को समझने के लिए लगातार व्यापार, उद्योग, समाज और सरकार के साथ जुड़े रहते हैं। नौकरियों की संख्या और कर्मचारियों की माँगों में तेजी से बदलाव हो रहा है जो सीधे – सीधे शिक्षा प्रदाताओं को यह जिम्मेदारी देता है कि वे इस बदलाव का अनुमान लगाएँ और छात्रों को इसके अनुरूप तैयार करें।
विदेशी विश्वविद्यालयों ने अनुमान लगाने, परखने, छात्रों को तैयार करने की कला में महारत हासिल की है। विदेशी संस्थानों के आने की वजह से हमारे देश में में भी सीखने के लिए ऐसे अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होने की सम्भावना है जिसका सीधा प्रभाव छात्रों के दृष्टिकोण और व्यवहार पर पड़ेगा और शिक्षा के फलागम में वृद्धि करेगा।
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आगमन से भारत के उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का भाव भी पैदा होगा। ख्यातिलब्ध प्रोफेसरों, गहन शोधकर्ताओं और परिश्रमी और प्रतिभाशाली छात्रों को आकर्षित करने हेतु विदेशी विश्वविद्यालय भारत में मौजूद विश्वविद्यालयों के साथ स्वस्थ होड़ करेंगे। विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ शोध परियोजनाओं, पारस्परिक सहयोग और नवाचार, प्रतिभाशाली छात्रों और शिक्षकों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय विश्वविद्यालय अपने स्वयं के मानकों में वृद्धि को प्रेरित होंगे।
ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा विश्वविद्यालयों में शिक्षा के समग्र स्तर को सुधारने में मदद करेगी। भारतीय छात्रों को कम दाम में सर्वोत्तम शिक्षा मिलेगी। इन विश्वविद्यालयों द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कोर्स भारत में लाने से भारतीय छात्रों को विश्व स्तर पर क्रेडिट हस्तांतरण का मौका भी प्राप्त होगा। इसलिए ऐसी अपेक्षा की जा रही है कि विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच बढ़ाने में मदद करेंगे और भारत की आबादी को समर्थ, सक्षम और समृद्ध बनाने में भी सहायता प्रदान करेंगे।
भारत के लिए, छात्र गतिशीलता और वैश्विक स्तर पर छात्रों का आदान-प्रदान कोई नई अवधारणा नहीं है। तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला, शारदा, भद्रकाशी, पुष्पगिरी और उदन्तगिरी जैसे प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में शिक्षा के वैश्वीकरण के प्रतिष्ठित उदाहरण हैं। दुनिया भर के विभिन्न विषयों के हजारों छात्रों को ये विश्वविद्यालय आकर्षित करते थे। अब वैश्विक ब्रांडों के प्रवेश से देश में अत्याधुनिक विश्वस्तरीय परिसरों की संख्या में वृद्धि होगी। भारत फिर से उच्च शिक्षा के एक वैश्विक केंद्र के रूप में उभर सकता है और साथ ही दुनिया के विभिन्न हिस्सों के छात्रों को आकर्षित कर सकता है।
इससे न केवल विदेशी मुद्रा अर्जन के रूप में वित्तीय और मौद्रिक लाभ होगा बल्कि यह भारत के सॉफ्ट पावर को भी बढ़ावा देगा। दूसरी ओर, संभावित विदेशी विश्वविद्यालय, भारत में खुद को स्थापित करने हेतु एवँ स्थानीय वास्तविकताओं के अनुरूप बेहतर शैक्षणिक परिसर स्थापित करने हेतु विश्वसनीय स्थानीय उत्प्रेरक संगठनों, पेशेवर एजेंसियों और रचनात्मक व्यक्तियों के साथ सहयोग के आकांक्षी होंगे जो सीधे स्थानीय प्रतिभाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करेगा। इसके अलावा, ढाँचागत विकास से भारत में धन का सुलभ प्रवाह सुनिश्चित होगा जिसके परिणामस्वरूप हमारी अर्थव्यवस्था में गतिशीलता आएगी।
उच्च शिक्षातंत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने की भी आवश्यकता है। अगर सरकार ऐसा नहीं करना चाहती है तो पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप बढ़ाने की दिशा में विचार किया जा सकता है। विदेशी संस्थानों और स्वदेशी औद्योगिक घरानों को 49 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर निवेश बढ़ाया जा सकता है। ऐसा करके ही धन की कमी, खस्ताहाल आधारभूत ढाँचे और लालफीताशाही से जूझ रहे भारतीय संस्थानों में प्राण फूँके जा सकते हैं। इन संस्थानों के प्रबंधन और प्रशासनिक तंत्र को भी राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने एवँ पेशेवर बनाने की आवश्यकता है।
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों की स्थापना एक स्वागत योग्य कदम है। अकादमिक व्यवस्था, भूस्वामित्व, कराधान और शिक्षकों की भर्ती आदि से संबंधित नियामक तंत्र इत्यादि चिंता के सामान्य विषय हैं। पूर्व चेतावनी के रूप में, इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि विदेशी संस्थाएँ भारत में अपने परिसरों की स्थापना सहयोग और ज्ञान-साझाकरण को बढ़ावा देने हेतु करें, न कि इन मुख्य मुद्दों को दरकिनार कर, सिर्फ व्यावसायिक हितों के लिए काम करने वाली शिक्षा की दुकानें बन कर रह जाएँ।
इन संस्थाओं को केवल आभिजात्य और अमीर वर्ग के लिए अवसर न बनकर हाशिए पर रहने वाले और वंचित वर्गों से आने वाले छात्रों के हितों की रक्षा भी करनी चाहिए और उनके समावेशन के लिए विशेष प्रावधान भी करने चाहिए। इसलिए सरकार को शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के दायरे को बढ़ाने की दिशा में विचार करना चाहिए। प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को आकर्षित करने के अलावा उपरोक्त चिंताओं का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली का लक्षित और वास्तविक अंतरराष्ट्रीकरण सुनिश्चित किया जा सकता है।