ट्विटर पर एक वीडियो दिखा। तेलंगाना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता संगीत की धुन पर, हजारों की संख्या में, पुलिस के घेरे में, सड़क से मार्च करते हुए जा रहे हैं। पूरी तरह से अनुशासित कार्यकर्ताओं की यह भीड़, जो न किसी अराजकता में शामिल थी, न ही कोई नारेबाजी कर रही थी, उसे देख कर वामपंथियों की बुरी तरह से सुलग गई।
इनकी गिरोह के सदस्य इस वीडियो को शेयर करते हुए लिख रहे हैं कि ये ‘प्राइवेट आर्मी है जो भारत की सड़कों पर घूम रही है’। कोई लिख रहा है कि ये खाकी पहने हुए नाज़ी हैं। एक मूर्ख वामपंथन ने लिखा कि RSS शिवसेना की वैचारिक संतान हैं। एक मजहबी नाम वाले लौंडे ने लिखा है कि अतिवादी हिन्दुओं का यह पैरामिलिट्री समूह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, यूपी पुलिस के साथ मिल कर मजहब विशेष वालों के घरों में छापेमारी कर रही है।
ऐसे ट्वीट या सोशल मीडिया पोस्ट में ऐसी बहकी-बहकी बातें करने वाले लोगों के नाम या विचार देखेंगे तो आप पाएँगे कि वो या तो मजहब विशेष के नाम वाले लोग हैं जिन्हें इस्लामी आतंकवाद से कभी कोई समस्या नहीं रही, कभी वहाँ अतिवाद या कट्टरपंथ नहीं दिखा, वो हमेशा ‘हम तो शांतिप्रिय लोग हैं’ के हरे चोले में छुपते रहे, या फिर ये वो ज़हरीले वामपंथी हैं जिन्हें देश की कल्पना से ही समस्या है।
एक इस्लामी उम्माह की अवधारणा से चलता है जिसके लिए हर गैरमुस्लिम ‘वाजिबुल कत्ल’ है, और दूसरा वैश्विक कम्यून की अवधारणा से चलता है जहाँ ‘आज़ादी’ के नाम पर राष्ट्रविरोधी शक्तियों को पनपने का खाद-पानी दिया जाता है, और दो-दो रुपए की भीख से बीड़ी और गाँजा खरीदने की परम्परा से ‘गरीबी एक राष्ट्र प्रायोजित हिंसा है अतः सरकारी कर्मचारियों को मार देना उचित है’ जैसे सड़े हुए ख्याल आते हैं। दोनों विचारधाराएँ कट्टर हैं, दोनों में आम लोगों की हत्या को रोमेंटिसाइज किया जाता है, दोनों में रक्तपात और नरसंहार को जायज और जरूरी माना जाता है।
हाल के दिनों में इन्हीं दोनों विचारधाराओं के मजहबी उन्मादी लोग और वैचारिक आतंकवादियों ने सड़क और डिजिटल माध्यमों पर जो आग लगाई है, उससे देश के कई हिस्से उबल रहे हैं। जिन ‘प्रदर्शनों’ को, जो कि वास्तव में मजहबी और वैचारिक दंगे थे, इन्होंने स्वतःस्फूर्त (ऑर्गेनिक) कह कर बताया कि देश के लोग सड़कों पर हैं, उन सारे ही दंगों में सुरक्षा एजेंसियाँ अब बता रही हैं कि योजनाबद्ध तरीके से इसमें कट्टरपंथी संगठनों और वामपंथियों शहरी नक्सलियों का हाथ, पैर और पूरा शरीर लिप्त है।
ये सड़ी हुई मानसिकता के जिहादी और समय पड़ने पर बाप का नाम बदल लेने वाली मजहबी भीड़ के पैदल सैनिक, पुलिस के एक डंडे पड़ने पर बाप-बाप करते हैं और ‘नाम पंकज तिवारी, बाप का नाम गौरी तिवारी’ कहते-कहते ‘अल्ला कसम मैं पत्थर नहीं चला रहा था’ बोलने लगते हैं। तस्वीरें सामने आ रही हैं जहाँ चेहरे पर कपड़े बाँधे ये आतंकी भीड़ में पिस्तौल लिए दिख रहे हैं। वीडियो में जिन छात्रों को वामपंथी गिरोह अपना लल्ला और लल्ली कह कर लॉलीपॉप चुसवा रहा है, वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का गेट तोड़ते और दंगा करते दिख रहे हैं।
सुरक्षा एजेंसियों ने बताया कि जामिया नगर में लगभग 150 कट्टरपंथी, जिनका ताल्लुक PFI से है, दंगों से दो दिन पहले से घात लगा कर बैठे थे। गौरतलब है कि जामिया वाले दंगे में तीन लोगों को कथित तौर पर गोली लगने की खबर है, जिसे पुलिस ने नहीं चलाया, कई बसें जलाई गई, पत्थरबाज़ी जम कर हुई। उसके बाद ये भीड़ जामिया मिलिया इस्लामिया के कैम्पस में घुस गई जहाँ पुलिस को घुसना पड़ा।
तो आप स्वयं तय करें, कि देसी कट्टे ले कर, पेट्रोल बम बना कर, बसें जलाने वाले अगर किसी इस्लामी कट्टरपंथी संगठन से वास्ता रखते हैं, और पुलिस पर हमला करने वाली भीड़ अगर मस्जिदों से निकल कर बाहर आती है, ट्रेन जलाती है, 61 पुलिस वालों को अपनी गोलियों से घायल करती है, 14-18 लोगों की गोली से हत्या करती है (जिसमें से एक पुलिस द्वारा आत्मरक्षा में मारा जाता है), उस भीड़ को पुलिस गालों पर चुम्मा ले कर शांत करेगी, या फिर डंडों से पीटते हुए तितर-बितर करेगी?
इन वामपंथियों और जिहादी मानसिकता वाले कई मजहबियों को इस बात से समस्या है कि जो लोग पकड़े जा रहे हैं, वो खासा मजहब से ही क्यों हैं! एक जहरीली वामपंथन ने दूसरे महामूर्ख द्वारा ट्वीट किए गए नामों की सूची को रीट्वीट करके पूछा कि ये सारे नाम मजहब विशेष वाले हैं तो लोग बताएँ कि यूपी पुलिस द्वारा की गई ये हत्याएँ साम्प्रदायिक और इस्लामविरोधी नरसंहार नहीं। सूची में कहा गया है कि यूपी के दंगों में 16 में से 14 मरने वाले मजहबी नाम वाले हैं।
इन दोनों मूर्खों से, और मजहबी जहर फैलाने वाली राणा अयूब से सवाल यह है कि ये दोनों इस परिणाम पर कैसे पहुँचे कि ये हत्याएँ पुलिस ने की हैं? दूसरी बात, अगर दंगे में कट्टरपंथी सड़कों पर आएँगे, देसी कट्टा चलाएँगे, पुलिस को गोली मारेंगे, तो गिरफ्तारी क्या हिन्दुओं की होगी क्योंकि देश में उनकी जनसंख्या ज्यादा है? ये भी कह दो सीलमपुर में पेट्रोल बम फेंकने वाले के हाथ में ही बम फट जाने का कारण भी हिन्दू ही हैं!
तस्वीरों में कट्टा ले कर घूमते दंगाइयों को देख कर यह तो नहीं लगता ये लोग ओलम्पिक में 10 मीटर पिस्टल इवेंट की तैयारी हेतु किसी फ़ायरिंग रेंज में हर दिन प्रैक्टिस करते होंगे। दूसरी बात जो कट्टे के साथ होती है, वो ये है कि कभी-कभी वो हाथ में ही फटता है, और अमूमन सीधा नहीं चलता। तीसरी बात यह है कि भीड़ में कट्टा ले कर उतरने वाले दंगाई को बस ट्रिगर दबाने से मतलब है, वो यह भूल जाता है कि बड़े भाई का कुर्ता और छोटे का पाजामा पहने दंगाइयों की भीड़ में गोली उसके बाप को भी लग सकती है। कट्टा ले कर आने का मकसद पुलिस को गोली मारना तो कम ही होता है, बल्कि यह उम्मीद होती है कि कोई मरे तो उसका लाभ उठाया जाए। अपनी ही प्रजाति का कोई दंगाई मरे तो राग-मायनोरिटी भी गाया जा सकता है।
इकोसिस्टम बाकी सँभाल लेता है
आपने कभी सोचा है कि ये भीड़ एक व्हाट्सएप्प मैसेज पर, या तुर्की के किसी मुफ्ती के ऐलान पर, या लाउडस्पीकर से आती अनजान आवाज पर भी सड़कों पर माचिस और पेट्रोल ले कर कैसे उतर आती है? आप और हम ऐसा करने से पहले दस बार सोचेंगे कि अगर पेट्रोल के साथ पकड़े गए तो क्या होगा? पत्थर उठाया तो किसी को लगने पर पुलिस ने देखा तो क्या होगा? दूसरे लोगों में पुलिस का डर रहता है। साथ ही, उन्हें नौकरी, घर चलाने, भीड़ में घायल होने का भी डर रहता है।
लेकिन इसके उलट मजहबी उन्माद के जहर में तले हुए इन दंगाइयों को भरोसा है कि वो भीड़ के नाम पर बच जाएँगे क्योंकि कई पार्टियों ने बाक़ायदा चुनावी रैलियों में इन पर से केस वापस लेने की बातें कही हैं। इन्हें विश्वास है कि वो जेल नहीं जाएँगे, जाएँगे भी तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में इनकी पैरवी करने वाले वकील जजों को डाँट कर, उन पर चिल्ला कर, उन्हें बाहर करवा लेंगे।
इन दंगाइयों को न तो घायल होने का डर है, न मरने का क्योंकि इनके माँ-बापों की आम मान्यता यही है कि दो-चार तो मर-खप भी गए तो वो किसी नेक काम में शहीद हुए हैं। कभी सुनिए आतंकियों के बापों की दलीलें कि आत्मघाती हमले में फट कर हवाओं में बिखरे हुए उसके बेटे पर उसे गर्व है कि वो इस्लाम के लिए नेक काम कर के गया है। ये एक बाप की मानसिक समस्या नहीं है, यह कई बापों की सामूहिक सोच है जो आठ-आठ साल के बच्चों को सड़क पर मशाल ले कर उतार देती है।
न मरने का डर, न घायल होने की चिंता, जेल जाने से बचने का आश्वासन है ही, फिर कोई पढ़ाई क्यों करे, दंगे में मजहब का नाम ऊँचा न करे! रही सही कसर इकोसिस्टम में बैठे योद्धा कर देते हैं जो उन्हें हमेशा पीड़ित, शोषित और सताए हुए लोगों की तरह दिखाते हैं। चैनलों में एक की मौत पर दस दिन बकवास चलता है। आपको यह विश्वास दिला दिया जाएगा कि अगर वो ‘शांतिप्रिय’ है, और हाथ में कट्टा ले कर पकड़ा गया है, तो उसकी कोई मजबूरी रही होगी।
एक कहानी निकल आएगी कि वो तो डॉक्टर बनना चाहता था, वो तो पाँच बजे जग कर पढ़ता था, वो तो UPSC की तैयारी कर रहा था। उसका दंगे में सड़क पर होना, उसका पुलिस कॉन्स्टेबल की पेट में गोली उतारना, सब जायज हो जाते हैं क्योंकि वो ‘शांतिप्रिय’ है और उसके घर वालों ने बताया है कि वो तो UPSC की तैयारी कर रहा था। जा कर पता कीजिए ओसामा बिन लादेन की डिग्री के बारे में। पूछिए किसी से भारत का दुर्दांत अपराधी सहाबुद्दीन कितना पढ़ा लिखा है। सर्च कीजिए गूगल पर हर आत्मघाती आतंकी की शैक्षणिक योग्यता के बारे में।
किसी के हाथों में किताब होने से और जीवन में एक लक्ष्य रखने भर से उसके दूसरे हाथ का कट्टा और भीड़ में शामिल हो कर दंगा करना जायज नहीं हो जाते। सारे डकैत काली माँ की पूजा करते हैं, हनुमान जी की आरती गाते हैं तब लूटने और हत्या करने निकलते हैं। तो क्या उन्हें क्लीन चिट दे दी जाए कि वो तो बड़ा ही धार्मिक व्यक्ति था?
लेकिन इकोसिस्टम यही करता है। वो बुरहान वनी के बाप के हेडमास्टर होने को प्रमुखता से छापता है। वो आदिल अहमद डार के पुलवामा हमलों को यह कह कर जायज बताना चाहता है कि उसे बचपन में एक आर्मी अफसर ने उठक-बैठक करवाई थी। ये गिरोह हमेशा यही कहता है कि गरीबी और अशिक्षा के कारण वो मजबूर था हथियार उठाने को! और ऐसा कहते-कहते आतंकियों के हिमायती मीडिया वाले, जहरीले वामपंथी सूअरगुच्छ आपको यह समझा देंगे कि ये हमलावर, ये आतंकी, ये दंगाई अपनी जगह पर न सिर्फ सही हैं, बल्कि कोई भी ऐसी स्थिति में यही करता।
ये इकोसिस्टम आपको मध्यप्रदेश की पुलिस द्वारा गाँधी के भजन गाते छात्र-छात्राओं को घसीटने की बात पर, उन्हें ठंढ में जंगल में ठिठुरने को छोड़ने पर पुलिस की बर्बरता नहीं देख पाता क्योंकि वहाँ की सरकार कॉन्ग्रेस की है। लेकिन यही इकोसिस्टम लगभग 6000 दंगाइयों को, जिसमें 327 पर प्राथमिकियाँ दर्ज हुईं, जिसमें 19 की मौत हुई, जिसमें 288 पुलिस वाले घायल हुए, जिनमें से 61 पुलिस वाले गोलियों से जख्मी हुए हैं, प्रदर्शनकारी कह कर उन्हें मासूम बना देता है।
शब्दों से लगातार खेलते रहना इनकी पुरानी अदा है। प्रदर्शनकारी पुलिस से अनुमति ले कर ही प्रदर्शन कर सकते हैं। अगर आपके पास अनुमति नहीं है, और आप इकट्ठा हो रहे हैं, या फिर अनुमति ले कर इकट्ठा हो रहे हैं कि प्रदर्शन शांतिपूर्ण होगा, और घर से पेट्रोल की बोतलें और माचिस, देसी कट्टे और गोलियाँ ले कर निकले हैं, दंगों से दो दिन पहले से घात लगा कर बैठे हुए हैं, तो फिर आप दंगाई और आतंकी हैं, प्रदर्शनकारी नहीं।
सहिष्णुता की परीक्षा आखिर कब तक?
हमारे पूरे इतिहास में, खास कर पिछले हजार सालों की बात करें तो हिन्दुओं की सहिष्णुता ने आज तक हिन्दुओं को बस ‘घंटा’ ही दिया है पकड़ने को। सहिष्णुता का अचार बना कर खाते रहे हिन्दू और आज आलम यह है कि इस्लामी विश्वविद्यालयों की दीवारों पर ख़िलाफ़त की माँग उठने के साथ-साथ, हिन्दुओं को कैलाश भेजने की तहरीरें दिख रही हैं। वहाँ बुलंद आवाज हिन्दुत्व की कब्र खोदने की बातें हो रही हैं। जामिया मिलिया के कट्टरपंथी छात्र ‘हिन्दुओं से आजादी‘ की बात कह रहे हैं। वो भीड़ में कह रहे हैं कि ‘वक्त आ गया है’ कि सड़कों पर निकला जाए और मु###नों को संगठित किया जाए।
और आपको लगता है कि ये मासूम हैं? आपको लगता है कि जिनके जेहन में हिन्दुओं के लिए नफरत के सिवा और कुछ है ही नहीं, वो नागरिकता कानून के प्रावधानों को पढ़ कर विरोध करने आएँगे? आपको लगता है कि अपने साक्षर होने का सबूत ये जामिया और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्र इस बात से देंगे कि NRC तो आया ही नहीं तो हल्ला किस बात का? आपको ये नहीं दिख रहा कि PFI के 150 छात्र अगर जामिया दंगों से दो दिन पहले उस इलाके में घुस चुके थे, तो उनका संबंध वहाँ के छात्रों से नहीं रहा होगा? आप यह क्यों भूल जाते हैं कि 750 फर्जी आईकार्ड उसी जामिया के कैम्पस पर हाल के दिनों में मिले थे?
तो आपको लगता है कि ये विरोध तो नागरिकता कानून का है! ये विरोध इनके भीतर बैठी उस घृणा से उपजा है जहाँ ये ललबबुआ बने, चूल में तेल और आँखों में काजल लगा कर ‘हिन्दुओं से आजादी’ और ‘गजवा-ए-हिन्द’का ख्वाब देखते हैं। ये उस हिन्दूघृणा की परिणति है जहाँ इनके भीतर एक डर बैठाया गया कि तुम्हें वो जीने नहीं देंगे। ये डर पाला गया, इनकी बहू-बेटियों को शिक्षा से दूर रखा गया, इनके बच्चों को मदरसों से बाहर आने ही नहीं दिया गया, और आज भी इनकी शिक्षा का स्तर बस यही है कि कथित तौर पर UPSC की तैयारी करने वाला सुलेमान कॉन्स्टेबल मोहित के पेट में गोली मार देता है!
इनको बार-बार नीचे ही रखा गया, उन्हीं पार्टियों के द्वारा जो इन्हें कहते रहे कि वो ही इनके एकमात्र तारणहार हैं। अगर मजहब विशेष वाला पढ़ लिख लेगा तो वो भाजपा के विरोध में, किसी भी पैजामाछाप नेता के उकसाने पर सड़क पर क्यों उतर जाएगा? वो तो यह सोचेगा कि गलती से भी पुलिस केस दर्ज हो गया तो सरकारी नौकरी मिलने की उम्मीद तो गई! इसलिए, इन्हीं के कथित हिमायतियों ने इन्हें कहा कि तुम अपनी कट्टरता पालो, प्रदर्शन करो क्योंकि तुम्हें सताया जा रहा है।
इन्होंने कभी पलट कर पूछा नहीं कि जब सारी सरकारी योजनाएँ, जो भारत के हर नागरिक के लिए होती हैं, उसके लाभ के साथ-साथ, इनके लिए स्पेशल योजनाओं का भी लाभ इन्हें मिल रहा है तो इन्हें आखिर सता कौन रहा है? इन्हें पागल बनाया गया दुनिया में बस एक ही मस्जिद है जो आतंकी बाबर ने बनवाई थी, रामजन्मभूमि के मंदिर को तोड़ कर, तो वो अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी हिन्दुओं को दे दिया, तो भी तुम्हारे साथ धोखा हो गया है! इन्हें यह कहा गया कि तुम्हारी बहनों के हक के बारे में सोचने वाली सरकार, जो तीन तलाक जैसे घृणित परम्परा को अपराध बनाती है, वो इनकी दुश्मन है।
इन्हें विश्वास दिलाया गया कि तुम्हारा कट्टरपन ही तुम्हारी असली ताकत है और जब तक आग लगाते रहोगे, तुम्हारा फायदा होता रहेगा। अब बात यह है कि फायदा इस भीड़ का हुआ है या फिर कुछ नेताओं का जिन्हें यही लोग दोबारा वोट देंगे? उस दौर में जब नौकरियाँ कम हो रही हैं, दुनिया में AI और मशीन लर्निंग की बातें हो रही हैं, फोन न्यूरल इंजन वाले प्रोसेसर से चल रहा है, कुछ लोग चाहते हैं कि भारत के बीस करोड़ लोगों में से कुछ लाख अपने बिस्तर के नीचे पेट्रोल से भिंगाई हुई मशाल रखें।
ये चाहते हैं कि ये कुछ लाख मजहब वाले उनकी कही बातों को आँख मूँद कर मान लें और एक मैसेज पढ़ कर कट्टे ले कर भीड़ में निकल जाएँ। किस इंसान को ऐसा लगता है कि इस कट्टेबाजी, पत्थरबाजी और ‘हिन्दुओं से आजादी’ के नारे से सौ करोड़ हिन्दुओं को इस देश में उनके डर से सबकुछ हासिल हो जाएगा? किस मजहबी ‘शांतिप्रिय’ को ये लगता है कि कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में दंगा न कर के, सिर्फ भाजपाशासित जगहों पर आग लगाने, योगी की पुलिस पर गोली चलाने और दिल्ली में बस जलाने से समुदाय विशेष का भला हो जाएगा?
वो तो भला हो हिन्दुओं का जो सहिष्णु नहीं, अतिसहिष्णु हैं कि उन्हें ऐसे प्रदर्शनों का हिस्सा बनने से बेहतर घरों में टीवी देखना पसंद है, वरना ये दंगे कौन-सा रूप ले लेते कोई नहीं जानता। लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। हिन्दुओं के एकमात्र बड़े देश में, पूरे धर्म की ही कब्र खोदने की बातें हो रही हैं! ये नारा सामान्य नारा नहीं है। ‘हिन्दुत्व’ की ‘कब्र’ खोदने की बात कही जा रही है, जिसका मतलब बिलकुल स्पष्ट है कि पूरे धर्म, उसकी धार्मिकता, उसके प्रतीकों को समूल नष्ट करने की बात हो रही है। क्योंकि हिन्दुओं को तो कई बार मिटाने की कोशिशें हुईं, फिर भी सौ करोड़ यहीं हैं।
दूसरी बात, हिंदुत्व को ये जलाना नहीं चाहते, उसकी कब्र खोदना चाहते हैं। ये मामूली नारा नहीं है, इसमें इस्लामी घृणा लिजलिजा रही है। ये पूरे धर्म को, उसकी धार्मिकता को इस्लामी तरीके से दफनाने की बात कर रहे हैं। ये हिन्दुओं से आजादी की बात कर रहे हैं। और ये वो लोग हैं जो रिसर्च स्कॉलर हैं, बीए हैं, एमए हैं, शोधकर्ता हैं, तहजीब और शिक्षा के दीपक हैं, अपने समाज की अगली पंक्ति के लोग हैं ये। और इनकी पढ़ाई का उद्देश्य क्या है: हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी, AMU की छाती पर!
ऐसे कुत्सित विचारों को पनपने किसने दिया? वामपंथियों की चालाकी देखिए कि जब इनके काडर कम होने लगे, इन्हें जेएनयू जैसी जगहों पर भी नितम्ब चिपका कर, चार पार्टियों के गठबंधन में चुनाव लड़ना पड़ रहा है, हर राज्य से खदेड़े जा रहे हैं, तब इन लोगों ने कथित अल्पसंख्यकों का रहनुमा बन कर आगे आने की योजना बनाई। यहाँ उन्हें कट्टरपंथी के रूप में बैठे-बिठाए वामपंथी कार्यकर्ता मिल गए। दोनों वैचारिक स्तर पर एक ही तरह से मार-काट की सोच रखने वाले, एक ही तरह की अवधारणा में पले कि हिंसा तो जरूरी और जायज है, पूरक बन कर नजर आने लगे।
पहले इन्हें कॉन्ग्रेस वाले जगह देते थे, अब जब इनका उग्र रूप सामने आने लगा तो वामपंथी इन्हें इकोसिस्टम का लाभ देने लगे हैं। इनको आज तक ये पता नहीं चल पाया है कि पैदल सिपाही बन कर उनके दादा भी पत्थर फेंकते थे, पोता भी फेंक रहे हैं, कम से कम छोटी टुकड़ी के सेनापति ही बन जाते, लेकिन न जाने क्यों नहीं बन पाए! सत्य तो यह है कि इनमें डर बिठा कर, उस डर को पाला गया, और उसका फायदा लिया जाता रहा। ये पिसते रहे, खुद को समझाते रहे कि इनके साथ तो बड़ी ज्यादती हुई है और हिन्दू तो बस उन्हें अब मार ही देगा।
यही कारण है कि एक अनुशासित स्वयंसेवकों का मार्च, जो कि पुलिस के दायरे में है, कोई नारेबाजी नहीं हो रही, वो भी किसी शहर की सड़क से गुजरती है तो कुछ लोगों को डर लगने लगता है। वो यह भूल जाते हैं कि कहीं भी बाढ़ आए, भूकंप हो, घर टूटे, आग लगे, बड़ी दुर्घटना हो, तो यही स्वयंसेवक मदद की पहली टुकड़ी के रूप में पहुँचते हैं, और ये नहीं पूछते कि ‘कौन जात हो’, तुम्हारा मजहब क्या है?
अगर एक अनुशासित भीड़ से तुम्हें डर लगता है तो उन हिन्दुओं का सोचो, उन आम नागरिकों का सोचो जो किसी शुक्रवार की नमाज के बाद हापुड़, सीलमपुर, बसीरघाट, मुर्शिदाबाद आदि जगहों पर एक अराजक भीड़ को पत्थर फेंकते, आग लगाते, पुलिस पर गोली चलाते, पेट्रोल बम फेंकते, पुलिस के जवानों को बार-बार हमला कर के पीछे ढकेलते देखते होंगे तो उन्हें कैसा डर लगता होगा।
फिर भी, अगर इस भीड़ को देख कर तुम्हें डर लग रहा है, तो फिर डरो क्योंकि ये डर पूरे भारतीय समाज की शांति के लिए अच्छा है। अगर ये डर तुम्हारे भीतर रहेगा कि तुम्हारी आगजनी, पत्थरबाजी, गोली चलाने की प्रवृत्ति के टक्कर में एक ऐसी टोली है जो हर जिले में तैनात है, तो तुम सड़कों पर आ कर आग लगाने से पहले सोचोगे। पढ़-लिख लो थोड़ा, वरना ये जिहाद और ये वामपंथी संघर्ष, कमलेश तिवारी की गर्दन या गढ़चिरौली के नरसंहार के रूप में भले ही तुम्हारी घृणा को शांत कर देगा, लेकिन तुम आज भी पेट्रोल और माचिस लिए भटकते हो, कल भी ऐसे ही भटकोगे। चुनाव तुम्हारा है क्योंकि स्वयंसेवकों की और भी टोलियाँ अब सड़कों पर निकलेंगी, मधुर संगीत पर कदमताल करते हुए।