कमलेश तिवारी हत्याकांड की जितनी भी जानकारी सामने आ रही है वो बताती है कि मजहबी उन्माद किस स्तर तक उतर सकता है। कमलेश तिवारी ने जो कहा, वो कब और कहाँ कहा, इसकी किसी को पुख्ता जानकारी नहीं। उसने ऐसा क्यों कहा था, ये भी भुलाया जा चुका है। केस चला, जेल में रहे, बाहर आए, लेकिन वो नहीं भूले जिन्होंने पूरी दुनिया को एक झंडे के नीचे लाने का सपना पाल रखा है।
वो नहीं भूले जो बाजारों में फट जाते हैं। वो नहीं भूले जिन्हें कोई मुल्ला, कोई मौलवी, कोई मजहबी घृणा फैलाता, तसबीह फिराता उन्मादी यह कह कर उकसाता रहा कि कमलेश तिवारी की गर्दन ले कर आओ। और हाँ, जब वो कहते हैं कि गर्दन ले कर आओ तो इसका कोई सांकेतिक मतलब नहीं होता। मतलब सिर्फ और सिर्फ, शब्दशः बस एक ही होता है: कमलेश तिवारी की गर्दन उतार कर लाओ। मतलब यह कि गोली मार कर, जहर दे कर, गाड़ी से कुचल कर मारो या जैसे भी, लेकिन गर्दन ले कर आना है।
इसलिए अशफाक और मोइनुद्दीन जब कमलेश तिवारी को मारने चले तो रास्ते में नमाज पढ़ कर चले। उन्होंने कहीं भी अपनी पहचान नहीं छिपाई। मिठाई के डिब्बे में रसीद रखी, होटल में अपना नाम दिया। उन्होंने कबूला कि वो चाहते थे कि लोग जानें कि मारने वाला कौन है, किसी को किसी भी तरह का भ्रम न हो कि किसी गैर-मजहब वाले ने मारा। ये बात और है कि हत्या के बाद जब यही बात लोग ट्विटर पर लिख रहे थे तो आतंकियों के, नक्सिलियों के, हत्यारों के हिमायतियों ने लगातार पूछा कि इसे मजहबी रंग क्यों दिया जा रहा है।
इसकी मानसिकता में आप जाइए। पढ़े-लिखे लोग, इंतज़ार करते हैं, मृतक से बातचीत करते हैं, मित्रवत् रिश्ता बनाते हैं, और सबके अंत में एक ही मकसद: कमलेश तिवारी की गर्दन काटनी है। ये किसी व्यक्ति की सोच नहीं है, ये सामूहिक सोच है जो किसी व्यक्ति के माध्यम से फलित होती है। कमलेश तिवारी की हत्या अशफाक और मोइनुद्दीन ने ही नहीं, एक मजहब ने की है जो ऐसे लोगों को रोकना तो छोड़िए, उनकी निंदा तक नहीं कर पाता।
हर जगह मिली सहायता
इन्हें कैसे लोगों ने सहायता दी? इनके सहयोगियों में मुफ्ती हैं, मौलवी हैं, मुल्ला हैं और इन्हें मदरसों में छुपाया गया, इनके बाप को कहा गया कि उन्हें इधर बुला लो, बाकी हम देख लेंगे। इसके बाप को कोई गम नहीं कि उसके बेटे ने क्या किया है, वो बार-बार ‘अल्लाह अच्छा करेगा’ कह रहा है फोन पर। आप सोचिए कि ये कैसे बाप हैं जो बेटे द्वारा की गई हत्या पर खुश हैं और इस उम्मीद में हैं कि कोई मदद कर देगा। मतलब, बाप भी सहमत है कि जो किया अच्छा किया!
पत्नी का भी वही हाल है। ये कैसा परिवार है, ये कैसा तंत्र है जो इस तरह की हत्या को सहमति देता है? ये कैसा समाज है, ये कैसा समुदाय है जो ऐसी हत्या पर खुश होता है और हर जगह लिखता है कि जो हुआ, वो सही हुआ। फिर ध्यान में आता है अशफाक का कबूलनामा जहाँ वो स्वीकारता है कि उसकी योजना थी कि गर्दन काट कर अलग करे, उसे हाथ में ले, उसका विडियो बनाए और उसे वायरल करे ताकि लोगों को यह चेतावनी मिले कि वो ऐसी बातें न करें।
ये घृणा कोई एक दिन में नहीं उपजती, ये घृणा संकलित होती रहती है, रिस-रिस कर। ये घृणा बचपन से, शिक्षण संस्थानों से, घरों से, मजहबी स्थलों से, दोस्तों के दायरे से, बाप से, समाज से, सामुदायिक जलसों से, सड़कों पर बँधे लाउडस्पीकरों से भरी जाती है। इसलिए हत्यारे को इस बात का मलाल नहीं होता कि वो हत्या करने जा रहा है। इसलिए उसे तनिक भी हिचक नहीं होती जब वो कमलेश तिवारी का मुँह बंद करके, उसका गला रेतता है।
इसकी तैयारी कितनी सटीक रही होगी कि डेढ़ मिनट में ही वो सारे काम निपटा लेता है। चूँकि वो जानता है कि समय की कमी होगी, इसलिए उसने हलाल करने की बाकायदा प्रैक्टिस की होगी, कई जानवर काटे होंगे। मीडिया रिपोर्ट्स में तो ये भी कहा जा रहा है। छाती में सात बार हृदय वाली जगह पर छुरा मारना, ताकि उसे दर्द हो। चेहरे पर गोली मारना, सर में नहीं, ताकि वो महसूस कर सके।
और आपको लगता है कि ये एक व्यक्ति का काम है? जी नहीं, वो चाकू भले ही मोइनुद्दीन के हाथ में थी, लेकिन उसे चलाने की शक्ति, जो कि पसलियों में बार-बार फँस कर निकल रही होगी, वो शक्ति सामुदायिक थी। अशफाक की उँगली ट्रिगर पर थी, लेकिन उसे चलाने का बल टीवी कैमरे पर बोलती उन आवाजों का था जो हर दिन नए अशफाक पैदा कर रही है। आपको लगता है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देना इतना आसान है?
चुप लोगों से बचिए, इन्हें पहचानिए
नेता ने कहा था कि वो हत्या कर के आएँ तो सही, जमानत की जिम्मेदारी वो लेता है। उसका बाप कहता है कि बात हो गई है, वो घर आ जाए। ये किससे बात हो गई है अशफाक के बाप की? कौन हैं ये लोग जो ऐसे लोगों को बचाने के लिए ‘बात’ कर चुके होते हैं? कौन हैं ये लोग जो किसी को इतना दिलासा दे देते हैं कि वो हत्या करे, गर्दन काट ले, विडियो बना ले, वायरल करे, और फिर भी वो बचा लिया जाएगा?
ये एक तंत्र है जो बहुत अच्छे तरीके से काम करता है। दुर्भाग्य बस यही है कि बुद्धिजीवियों की भी सहमति है इन्हें क्योंकि ये लोग हिन्दुओं के खिलाफ हैं, उन्हीं हिन्दुओं के खिलाफ जो बाबरी जैसे धब्बे को मिटाना चाहता है अयोध्या के इतिहास से, उन्हीं हिन्दुओं को खिलाफ जिसने अपने मतलब की सरकार चुनी है। इसलिए आधे घंटे में कमलेश तिवारी की हत्या में निजी दुश्मनी, चंदे के बँटवारे को ले कर हुई अनबन, उनकी माताजी का बयान, और प्रेम प्रसंग तक हवा में तैरने लगता है।
इनसे हर जगह बच कर रहिए। अगर आप किसी को जानते हैं, जो सोशल मीडिया पर चुप है इस मुद्दे को ले कर, तो वो अशफाक और मोइनुद्दीन को मौन सहमति दे रहा है। जो इस पर चुप बैठे हैं, वो वही हैं जो अशफाक के विडियो के वायरल होने के इंतजार में बैठे थे। इसलिए, इनसे आपको हर कदम पर बचना होगा। ये वो बम हैं,जो फटे नहीं हैं लेकिन कोई मुफ्ती, मुल्ला, मौलवी इन्हें दो बार उकसा दे, तो ये मिठाई के डिब्बें में रसीद रख कर आपका सर उतारने निकल पड़ेंगे।
उन्मादियों से बचिए, उन्हें पहचानिए। हर व्यक्ति उन्मादी नहीं है, लेकिन जो भी ट्विटर के ट्रेंड में हिन्दुओं की घृणा तलाश लेता है, लेकिन कमलेश की गर्दन पर बारह इंच लम्बा और तीन इंच गहरा घाव नहीं देख पाता, वो पोटेंशियल जिहादी है। वो किसी दिन किसी बाजार में नारा-ए-लहसुन लगाते हुए फट जाएगा और आप कहेंगे कि ये तो आपका दोस्त था, बड़ा रिजर्व रहता था।
मैं ये नहीं कह रहा कि आप सबकी निशानदेही कीजिए, मैं ये कह रहा हूँ कि चुप लोगों को पहचानिए। सारे लोग ऐसे नहीं हैं, लेकिन जिन्हें ट्विटर के ट्रेंड में घृणा दिखती है, लेकिन अशफाक-मोइनुद्दीन पर वो चुप रहते हैं, तो उनसे दूर रहिए। इनसे डरिए और संभल कर रहिए। इनसे आत्मरक्षा के उपाय कीजिए, क्योंकि जब अशफाक पिस्तौल तानेगा, और मोइनुद्दीन छाती पर चाकू मारेगा, गला रेतेगा और गर्दन उतारने से पहले मोबाइल पर विडियो बनाएगा, तब आपका वही उपाय काम में आएगा।
इनसे मतलब मत रखिए, ऐसे लोग उन्मादी हैं जो किसी के सगे नहीं। लेकिन हाँ, सारे लोग ऐसे नहीं होते। मैं उन्हें तलाश रहा हूँ जो ऐसे नहीं हैं। मुझे मिले नहीं, ये और बात है। लेकिन, मैं दिल की अतल गहराइयों से ये पूरी तरह, जिम्मेदारी से, मानता हूँ कि किसी खास समुदाय के सारे लोग ऐसे नहीं होते। आप कितना भी कह लें, मैं नहीं मानता। मैं इसलिए नहीं मानता क्योंकि मेरा धर्म ऐसा कहता है।